Saturday, May 7, 2016

जम्बू द्वीप - jamboo dweep

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May 02, 2016

जम्बू द्वीप
मंगोलिया था हिन्दू राष्ट्र...!
जम्बू द्वीप में 9 देश है:- इलावृत, भद्राश्व, किंपुरुष, भारत, हरि, केतुमाल, रम्यक, कुरु और हिरण्यमय। पुराणों में जंबूद्वीप के 6 पर्वत बताए गए हैं- हिमवान, हेमकूट, निषध, नील, श्वेत और श्रृंगवान। इलावृत जम्बू द्वीप के बीचोबीच स्थित है।
इस इलावृत के मध्य में स्थित है सुमेरू पर्वत। इलावृत के दक्षिण में कैलाश पर्वत के पास भारतवर्ष, पश्चिम में केतुमाल (ईरान के तेहरान से रूस के मॉस्को तक), पूर्व में हरिवर्ष (जावा से चीन तक का क्षेत्र) और भद्राश्चवर्ष (रूस के कुछ क्षेत्र), उत्तर में रम्यक वर्ष (रूस के कुछ क्षेत्र), हिरण्यमय वर्ष (रूस के कुछ क्षेत्र) और उत्तर कुरुवर्ष (रूस के कुछ क्षेत्र) नामक देश हैं।
पुराणों के अनुसार इलावृत चतुरस्र है। वर्तमान भूगोल के अनुसार पामीर प्रदेश का मान 150X150 मील है अतः चतुरस्र होने के कारण यह 'पामीर' ही इलावृत है। इलावृत से ही ऐरल सागर, ईरान आदि क्षेत्र प्रभावित हैं।
आज के किर्गिस्तान, उज्बेकिस्तान, तजाकिस्तान, मंगोलिया, तिब्बत, रशिया और चीन के कुछ हिस्से को मिलाकर इलावृत बनता है। मूलत: यह प्राचीन मंगोलिया और तिब्बत का क्षेत्र है। एक समय किर्गिस्तान और तजाकिस्तान रशिया के ही क्षेत्र हुआ करते थे। सोवियत संघ के विघटन के बाद ये क्षेत्र स्वतंत्र देश बन गए।
आज यह देश मंगोलिया में 'अतलाई' नाम से जाना जाता है। 'अतलाई' शब्द इलावृत का ही अपभ्रंश है। सम्राट ययाति के वंशज क्षत्रियों का संघ भारतवर्ष से जाकर उस इलावृत देश में बस गया था। उस इलावृत देश में बसने के कारण क्षत्रिय ऐलावत (अहलावत) कहलाने लगे।
इस देश का नाम महाभारतकाल में ‘इलावृत’ ही था। जैसा कि महाभारत में लिखा है कि श्रीकृष्णजी उत्तर की ओर कई देशों पर विजय प्राप्त करके ‘इलावृत’ देश में पहुंचे। इस स्थान को देवताओं का निवास-स्थान माना जाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने देवताओं से ‘इलावृत’ को जीतकर वहां से भेंट ग्रहण की।
इलावृत देश के मध्य में स्थित सुमेरू पर्वत के पूर्व में भद्राश्ववर्ष है और पश्चिम में केतुमालवर्ष है। इन दोनों के बीच में इलावृतवर्ष है। इस प्रकार उसके पूर्व की ओर चैत्ररथ, दक्षिण की ओर गंधमादन, पश्चिम की ओर वैभ्राज और उत्तर की ओर नंदन कानन नामक वन हैं, जहां अरुणोद, महाभद्र, असितोद और मानस (मानसरोवर)- ये चार सरोवर हैं। माना जाता है कि नंदन कानन का क्षेत्र ही इंद्र का लोक था जिसे देवलोक भी कहा जाता है। महाभारत में इंद्र के नंदन कानन में रहने का उल्लेख मिलता है।
सुमेरू के दक्षिण में हिमवान, हेमकूट तथा निषध नामक पर्वत हैं, जो अलग-अलग देश की भूमि का प्रतिनिधित्व करते हैं। सुमेरू के उत्तर में नील, श्वेत और श्रृंगी पर्वत हैं, वे भी भिन्न-भिन्न देशों में स्थित हैं।
( इस पेज पर सभी पोस्ट में तर्कहीन अलौकिक बातों को छोडकर ऐतिहासिक तथ्य ही पकडें ।)
पहले इल : ब्रह्मा के पुत्र अत्रि से चंद्रमा का जन्म हुआ। चंद्रमा से बुध का जन्म हुआ। बुध का विवाह स्वायंभुव मनु की पुत्री इल से हुआ। इल-बुध सहवास से पुरुरवा हुए। पुरुरवा के कुल में ही भरत और कुरु हुए। कुरु से कुरुवंश चला। भारत के समस्त चन्द्रवंशी क्षत्रिय पुरुरवा की ही संतति माने जाते हैं।
ऐल लोगों के साथ उत्तर कुरु लोगों का भी एक बड़ा भाग था। ऐल ही कुरु देश (पेशावर के आसपास का इलाका) में बसने के कारण कुरु कहलाते थे। इतिहासकारों के अनुसार ये ऐल ही पुरुरवा (पुरु) था। यूनान और यहूदियों के पुराने ग्रंथों में ऐल के पुत्रों का जिक्र मिलता है। इस ऐल के नाम पर ही इलावृत देश रखा गया।
दूसरे इल : इस देश (इलावृत) का नाम दक्ष प्रजापति की पुत्री इला के क्षत्रिय पुत्रों से आवृत होने के कारण इलावृत रखा गया। आज यह देश मंगोलिया में 'अतलाई' नाम से जाना जाता है। 'अतलाई' शब्द 'इलावृत' का ही अपभ्रंश है। सम्राट ययाति के वंशज क्षत्रियों का संघ भारतवर्ष से जाकर उस इलावृत देश में आबाद हो गया। उस इलावृत देश में बसने के कारण क्षत्रिय ऐलावत (अहलावत) कहलाने लगे।
तीसरे इल : वायु पुराण के अनुसार त्रेतायुग के प्रारंभ में ब्रह्मा के पुत्र स्वायंभुव मनु के दूसरे पुत्र प्रियवृत ने विश्वकर्मा की पुत्री बहिर्ष्मती से विवाह किया था। प्रियवृत के पुत्र जम्बू द्वीप के राजा अग्नीन्ध्र के 9 पुत्र हुए- नाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्य, हिरण्यमय, कुरु, भद्राश्व और केतुमाल। राजा आग्नीध ने उन सब पुत्रों को उनके नाम से प्रसिद्ध भूखंड दिया। इलावृत को मिला हिमालय के उत्तर का भाग। नाभि को मिला दक्षिण का भाग।
चौथे इल : वैवस्वत मनु के 10 पुत्र थे- इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यंत, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध। पुराणों में वैवस्वत मनु का भी स्थान सुमेर पर्वत बताया जाता है, जो कि इलावृत के मध्य में कहा गया है।
संजय कुमार

Friday, May 6, 2016

।निर्वाणषटकम्।। from Tulsidas Ji.


।निर्वाणषटकम्।।
मनोबुद्धयहंकारचित्तानि नाहं
न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे।
न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायु-
श्चिदानन्दरूपः शिवोSहं शिवोSहम् ।।१।।
मैं मन नहीं हूँ और न मैं बुद्धि, अहंकार या चित्त ही हूँ। मैं न श्रोत्र हूँ और न
जिह्वा, नासिका या नेत्र हूँ। मैं आकाश नहीं हूँ और वायु अग्नि, जल एवं
पृथ्वी भी नहीं हूँ। मैं चिदानंद-रूप हूँ; मैं शिव हूँ ।।1।।
न च प्राणसंज्ञो न वै पंचवायु-
र्न वा सप्तधातुर्न वा पंचकोशः।
न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायु
चिदानंदरूपः शिवोSहं शिवोSहम् ।।२।।
मैं प्राण-संज्ञा नहीं हूँ, मैं पंचवायु नहीं हूँ। मैं सप्तधातु नहीं और न पंचकोश
ही हूँ। मैं हाथ-पाँव, वाणी, गुदा या जननेन्द्रिय भी नहीं हूँ। मैं चिदानंदरूप
हूँ। मैं शिव हूँ; मैं शिव हूँ ।।2।।
न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ
मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्ष-
श्चिदानंदरूपः शिवोSहं शिवोSहम् ।।३।।
मुझमें न द्वेष है, न राग; न लोभ, न मोह; न मद है, न मत्सर। मुझमें धर्म नहीं है, अर्थ
भी नहीं है। न इच्छा है, न मोक्ष ही है। मैं चिदानंदरूप हूँ। मैं शिव हूँ; मैं शिव हूँ
।।3।।
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं
न मंत्रो न तीर्थम् न वेदा न यज्ञा:।
अहं भोजनं नैव भोज्यम् न भोक्ता
चिदानंदरूपः शिवोSहं शिवोSहम् ।।४।।
मैं न पुण्य हूँ, न पाप; न सुख हूँ, न दुःख हूँ। मैं मन्त्र नहीं हूँ, मैं तीर्थ नहीं हूँ। मैं वेद
नहीं हूँ, यज्ञ भी नहीं हूँ। मैं न भोजन हूँ, न भोजन का कर्म हूँ और न भोजन
करने वाला हूँ। मैं चिदानंद-रूप हूँ। मैं शिव हूँ; मैं शिव हूँ ।।4।।
न मृत्युर्न शङ्का न मे जातिभेदः
पिता नैव मे नैव माता च जन्म।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्य-
श्चिदानानंदरूपः शिवोSहं शिवोSहम् ।।५।।
मेरे लिए न मृत्यु है, न शङ्का है; न जाति-भेद है, न माता-पिता हैं। मेरे लिए
जन्म नहीं है। मैं बंधु नहीं हूँ, मित्र नहीं हूँ, गुरु नहीं हूँ, शिष्य नहीं हूँ। मैं
चिदानंदरूप हूँ। मैं शिव हूँ; मैं शिव हूँ ।।5।।
अहं निर्विकल्पो निराकार-रूपो
विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।
न चासंगतं नैव मुक्तिर्न मेय-
श्चिदानन्दरूपः शिवोSहं शिवोSहम् ।।६।।
मैं विचारहीन हूँ; आकारहीन हूँ। सर्वशक्तिमान हूँ, सर्वत्र हूँ।
सभी इन्द्रियों के परे, सबसे अलिप्त हूँ। मेरे लिए मुक्ति भी कुछ नहीं है। मैं
चिदानंद-रूप हूँ। मैं शिव हूँ; मैं शिव हूँ ।।6।।

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Wednesday, May 4, 2016

Som rus v/s sura (wine)जानिये सोमरस और सुरापान में अंतर

कई पश्चमी विद्वानों की तरह भारतीय विद्वानों की ये आम धारणा है कि सोम रस एक तरह का नशीला पदार्थ होता है. ऐसी ही धारणा डॉ.अम्बेडकर की भी थी, डॉ.अम्बेडकर अपनी पुस्तक रेवोलुशन एंड काउंटर रेवोलुशन इन एशिएन्ट  इंडिया में सोम को वाइन कहते है. लेकिन शायद वह वेदों में सोम का अर्थ समझ नहीं पाए,या फिर पौराणिक इन्द्र और सोम की कहानियों के चक्कर में सोम को शराब समझ बैठे.

सोम का वैदिक वांग्मय मे काफी विशाल अर्थ है, सोम को शराब समझने वालो को शतपत के निम्न कथन पर दृष्टी डालनी चाहिए जो कि शराब ओर सोम पर अंतर को स्पष्ट करता है.
शतपत (5:12 ) में आया है :- सोम अमृत है ओर सुरा (शराब) विष है ..
ऋग्वेद में आया है :-” हृत्सु पीतासो मुध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम् ।।
अर्थात सुरापान करने या नशीला पदार्थ पीने वाला अक्सर उत्पाद मचाते है, जबकि सोम के लिए ऐसा नहीं कहा है.

वास्तव मे सोम ओर शराब में उतना ही अंतर है जितना की डालडा या गाय के घी में होता है.
निरुक्त शास्त्र में आया है-
"औषधि: सोम सुनोते: पदेनमभिशुण्वन्ति (निरूकित११-२-२)"
अर्थात सोम एक औषधि है जिसको कूट पीस कर इसका रस निकलते है. लेकिन फिर भी सोम को केवल औषधि या कोई लता विशेष समझना इसके अर्थ को पंगु बना देता है.
सोम का अर्थ बहुत व्यापक है जिसमें से कुछ यहाँ बताने का प्रयास किया है :-
कौषितिकी ब्राह्मणों उपनिषद् में सोम रस का अर्थ चंद्रमा का रस अर्थात चंद्रमा से आने वाला शीतल प्रकाश जिसे पाकर औषधियां पुष्ट होती है,
शतपत में ऐश्वर्य को सोम कहा है -“श्री वै सोम “(श॰4/1/39) अर्थात ऐश्वर्य सोम है.
शतपत में ही अन्न को भी सोम कहा है -” अन्नं वै सोमः “(श ॰ 2/9/18) अर्थात इस अन्न के पाचन से जो शक्ति उत्पन्न होती है वो सोम है.
कोषितिकी मे भी यही कहा है :-“अन्न सोमः”(कौषितिकी9/6)
ब्रह्मचर्य पालन द्वारा वीर्य रक्षा से उत्पन्न तेज को सोम कहा है.
शतपत में आया है-
“रेतो वै सोमः”(श ॰ 1/9/2/6) अर्थात ब्रहमचर्य से उत्पन्न तेज (रेत) सोम है .
कौषितिकी मे भी यही लिखा है :-“रेतः सोम “(कौ॰13/7)
वेदों के शब्दकोष निघुंट मे सोम के अंनेक पर्यायवाची में एक वाक् है ,वाक् श्रृष्टि रचना के लिए ईश्वर द्वारा किया गया नाद या ब्रह्मनाद था .. अर्थात सोम रस का अर्थ प्रणव या उद्गीत की उपासना करना हुआ. वेदों ओर वैदिक शास्त्रों मे सोम को ईश्वरीय उपासना के रूप मे बताया है, जिनमें कुछ कथन यहाँ उद्रत किये है :-

तैतरिय उपनिषद् में ईश्वरीय उपासना को सोम बताया है, ऋग्वेद (10/85/3) में आया है :-
” सोमं मन्यते पपिवान्सत्सम्पिषन्त्योषधिम्|
सोमं यं ब्राह्मणो विदुर्न तस्याश्राति कश्चन||”
अर्थात पान करने वाला सोम उसी को मानता है जो औषधि को पीसते ओर कूटते है , उसका रस पान करते है ,परन्तु जिस सोम को ब्रह्म ,वेद को जानने वाले ,व ब्रह्मचारी लोग जानते है ,उसको मुख द्वारा कोई खा नहीं सकता है ,उस अध्यात्मय सोम को तेज ,दीर्घ आयु ,और आनंद को वे स्वयं ही आनन्द , पुत्र, अमृत रूप में प्राप्त करते हैं.

ऋग्वेद (8/48/3) में आया है :-
”अपाम सोमममृता अभूमागन्मु ज्योतिरविदाम् देवान्|
कि नूनमस्कान्कृणवदराति: किमु धृर्तिरमृत मर्त्यस्य।।”
अर्थात हमने सोमपान कर लिया है, हम अमृत हो गये है, हमने दिव्य ज्योति को पा लिया है, अब कोई शत्रु हमारा क्या करेगा.

ऋग्वेद(8/92/6) में आया है :-
”अस्य पीत्वा मदानां देवो देवस्यौजसा विश्वाभि भुवना भुवति”
अर्थात परमात्मा के संबध मे सोम का पान कर के साधक की आत्मा ओज पराक्रम युक्त हो जाती है,वह सांसारिक द्वंदों से ऊपर उठ जाता है.

गौपथ में सोम को वेद ज्ञान बताया है :-
गोपथ*(पू.२/९) वेदानां दुह्म भृग्वंगिरस:सोमपान मन्यन्ते| सोमात्मकोयं वेद:|तद्प्येतद् ऋचोकं सोम मन्यते पपिवान इति|
वेदो से प्राप्त करने योग्य ज्ञान को विद्वान भृगु या तपस्वी वेदवाणी के धारक ज्ञानी अंगिरस जन सोमपान करना जानते है.
वेद ही सोम रूप है.

सोम का एक विस्तृत अर्थ ऋग्वेद के निम्न मन्त्र मे आता है :-
” अयं स यो वरिमाणं पृथिव्या वर्ष्माणं दिवो अकृणोदयं स:
अयं पीयूषं तिसृपु प्रवत्सु सोमो दाधारोर्वन्तरिक्षम”(ऋग्वेद 6/47/4)
अर्थात व्यापक सोम का वर्णन, वह सोम सबका उत्पादक, सबका प्रेरक पदार्थ व् बल है, जो पृथ्वी को श्रेष्ठ बनाता है, जो सूर्य आकाश एवम् समस्त लोको को नियंत्रण मे करने वाला है, ये विशाल अन्तरिक्ष में जल एवम् वायु तत्व को धारण किये है.

अतः उपरोक्त कथनों से स्पष्ट है कि सोम का व्यापक अर्थ है उसे केवल शराब या लता बताना सोम के अर्थ को पंगु करना है. चूंकि डॉ अम्बेडकर अंग्रेजी भाष्यकारो के आधार पर अपना कथन उदृत करते हैं, तो ऐसी गलती होना स्वाभिक है जैसे कि वह कहते है “यदि यह कहा जाये कि मै संस्कृत का पंडित नही हूँ तो मै मानने को तैयार हूँ . परन्तु संस्कृत का पंडित नहीं होने से मै इस विषय में लिख क्यूँ नही सकता हूँ? संस्कृत का बहुत थोडा अंश जो अंग्रेजी भाषा मे उपलब्ध नही है, इसलिए संस्कृत न जानना मुझे इस विषय पर लिखने से अनधिकारी नही ठहरया जा सकता है, अंग्रेजी अनुवादों के १५ साल अध्ययन करने के बाद मुझे ये अधिकार प्राप्त है ,(शुद्रो की खोज प्राक्कथ पृ॰ २)

अतः स्पष्ट है कि अंग्रेजी टीकाओ के चलते अम्बेडकर जी ने ऐसा लिखा हो लेकिन वो आर्य समाज से भी प्रभावित थे जिसके फल स्वरूप वो कई वर्षो तक नमस्ते शब्द का भी प्रयोग करते रहे थे, लेकिन फिर भी अंग्रेजी भाष्य से पुस्तके लिखना चिंता का विषय है कि उन्होंने ऐसा क्यों किया.

लेकिन अम्बेडकर जी के अलावा अन्य भारतीय विद्वानों ओर वैदिक विद्वानों द्वारा सोम को लता या नशीला पैय बताना इस बात का बोधक है कि अंग्रेजो की मानसिक गुलामी अभी भी हावी है जो हमे उस बारे मे विस्तृत अनुसंधान नहीं करने देती है.


Monday, May 2, 2016

गायत्री मंत्र में छिपा है 'ॐ' का रहस्‍य


गायत्री मंत्र  छिपा है 'ॐ' का रहस्य 

ऋगवेद में मौजूद है गायत्री मंत्र। अनादि काल से सनातनधर्मी इसे सर्वाधिक श्रद्धेय मंत्र के रूप में स्वीकार करते आए हैं। ये मंत्र इस प्रकार है। 

'ॐ भूर्भुव: स्व: 
तत्सवितुर्वरेण्यं 
भर्गो देवस्य धीमहि, 
धीयो यो न: प्रचोदयात्'

दरअसल गायत्री मंत्र की शुरुआत ही 'ॐ' ध्वनि से ही होती है। आदि शंकराचार्य के अनुसार गायत्री मंत्र प्रणव 'ॐ' का ही विस्तृत रूप है। आध्यात्मिक जीवन का श्रीगणेश इसी मंत्र के चिंतन से आरंभ होता है। आइए गायत्री मंत्र और 'ॐ' के रहस्य को इस प्रकार समझने का प्रयास करें। 

नाम की खोज

ॐ  -    ओम (प्रणव अक्षर)
भूः  -   भू-मंडल, भूलोक
भुवः - अंतरिक्ष लोक, गृह मंडल
स्वः -  स्वर्ग लोक, अंतरिक्ष में चक्कर लगाती आकाशगंगाएं

रूप की खोज 

तत् -  वह परमात्मा
सवित – ईश्वर, बनाने वाला (सूरज)
वरेण्यम - वंदना करने योग्य

उपासना  

भर्गो -  तेज का, प्रकाश का
देवस्य -  देवताओं का
धीमहि -  ध्यान करते हैं

प्रार्थना 

धियो - बुद्धि
यो - जो कि
नः - हमें
प्रचोदयात - सन्मार्ग पर प्रेरित करें

इस प्रकार 'ॐ' तथा गायत्री मन्त्र का पूर्ण अर्थ बनता है : 
''हमारा पृथ्वी मंडल, गृह मंडल, अंतरिक्ष मंडल तथा सभी आकाशगंगाओं की गतिशीलता से उत्पन्न महान शोर ही ईश्वर की प्रथम पहचान प्रणव अक्षर 'ॐ' है और वह परमात्मा जो अनेकानेक रूप प्रकाश के रूप में प्रकट है, वंदनीय है। उस परमात्मा के प्रकाश का हम ध्यान करें और यह प्रार्थना भी करें कि  वह हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर लगाये रखे ताकि सद्बुद्धि हमारे चंचल मन को नियंत्रण में रख सके और साधक को ब्रह्म की अनुभूति करा सके। 

'ॐ' का परिचय 

अक्षरात्मक 

इसका वर्णन वेद, उपनिषद विशेषकर माण्डूक्योपनिषद में मिलता है। इसके 12 मन्त्रों में केवल 'ॐ' के विभिन्न पदों, उसके स्वरूप, उसकी विभिन्न मात्राओं तथा तन्मात्रों आदि का वर्णन है। 

ध्वन्यात्मक 

इसका वर्णन करते हुए महर्षि पतंजलि समाधिपाद के 27वें सूत्र में कहते हैं कि 'तस्य वाचक प्रणवः' अर्थात्, उस ईश्वर नामक चेतन तत्व विशेष के अस्तित्व का बोध करने वाला शब्द ध्वन्यात्मक 'ॐ' है। 

अनेक संत महात्माओं ने भी 'ॐ' के ध्वन्यात्मक स्वरुप को ही ब्रह्म माना है तथा 'ॐ' को "शब्द ब्रह्म" भी कहा है।

'ॐ' का उद्गम 

अब मुख्य प्रश्न यह है कि यदि 'ॐ'  एक दिव्य ध्वनि है तो इसका उद्गम क्या है? यदि ब्रह्माण्ड में कतिपय ध्वनि तरंगे व्याप्त हैं तो इनका कारक क्या है? क्योंकि, यह तो विज्ञान का सामान्य सा नियम है कि कोई भी ध्वनि स्वतः उत्पन्न नहीं हो सकती। जहां हरकत होगी वहीं ध्वनि उत्पन्न होगी चाहे वह इन स्थूल कानों से सुनाई दे या नहीं। 

ऊपर लिखे गायत्री मन्त्र के अर्थ में कहा गया कि हमारा पृथ्वी मंडल, गृह मंडल, अंतरिक्ष मंडल तथा सभी आकाशगंगाओं की गतिशीलता से उत्पन्न महान शोर ही ईश्वर की प्रथम पहचान प्रणव अक्षर 'ॐ' है। 

वैज्ञानिक चिंतन

विभिन्न ग्रहों से आ रही विभिन्न ध्वनियों को ध्यान की उच्चतम स्थित में जब मन पूरी तरह विचार शून्य हो, सुना जा सकता है। ऋग्वेद के नादबिंदु उपनिषद् में आंतरिक और आत्मिक मंडलों में शब्द की ध्वनि को समुद्र की लहरों, बादल, ढोल, पानी के झरनों, घंटे जैसी आवाज़ के रूप में सुने जाने का वर्णन है। हठ योग प्रदीपिका में भंवर की गुंजार, घुंगरू, शंख, घंटी, खड़ताल, मुरली, मृदंग, बांसुरी और शेर की गरज जैसी ध्वनियों का वर्णन है। 

गायत्री मन्त्र में 'ॐ' को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि पृथ्वी मंडल, गृह मंडल एवं अंतरिक्ष में स्थित आकाशगंगाओं की गतिशीलता से उत्पन्न सामूहिक ध्वनियां ही 'ॐ' की दिव्य ध्वनि है। यह अब कपोल कल्पना नहीं वास्तविकता है। विभिन ग्रहों की ध्वनियों को अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा के वैज्ञानिकों ने रिकॉर्ड किया है, इन्हें प्लैनेट साउंड के नाम से इंटरनेट पर भी सर्च करके सुना जा सकता है। 

बहुत ज्यादा शक्तिशाली है मंत्र 'ॐ'

विद्वानों का मत है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सदा 'ॐ' की ध्वनि ही गतिमान रहती है। 'ॐ' को सर्वाधिक शक्तिशाली माना गया है। किसी भी मंत्र से पहले यदि 'ॐ' जोड़ दिया जाए तो वह पूर्णतया शुद्ध और शक्ति-सम्पन्न हो जाता है। किसी देवी-देवता, ग्रह या अन्य मंत्रों के पहले 'ॐ' लगाना आवश्यक होता है, जैसे, श्रीराम का मंत्र, 'ॐ रामाय नमः', विष्णु का मंत्र, 'ॐ विष्णवे नमः', शिव का मंत्र 'ॐ नमः शिवाय' आदि। 

कहा जाता है कि 'ॐ' से रहित कोई मंत्र फलदायी नही होता, चाहे उसका कितना भी जाप हो। वैसे मंत्र के रूप में एकमात्र 'ॐ' भी पर्याप्त है। 'ॐ' का दूसरा नाम प्रणव (परमेश्वर) है। "तस्य वाचकः प्रणवः" अर्थात् उस परमेश्वर का वाचक प्रणव है। इस तरह प्रणव अथवा 'ॐ' एवं ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। 'ॐ' अक्षर है इसका क्षरण अथवा विनाश नहीं होता। छान्दोग्योपनिषद् में ऋषियों ने कहा है, "ॐ इत्येतत् अक्षरः"। अर्थात्, 'ॐ' अविनाशी, अव्यय एवं क्षरण रहित है।

मूल ध्वनियों को जानें 

अ उ म् के मेल से ही बना है 'ॐ'। इनमें, "अ" का अर्थ है आर्विभाव या उत्पन्न होना, "उ" का तात्पर्य है उठना, उड़ना अर्थात् विकास, "म" का मतलब है मौन हो जाना अर्थात् "ब्रह्मलीन" हो जाना। 'ॐ' सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और पूरी सृष्टि का प्रतिबिंब है। 

ध्यान बिन्दुपनिषद् के अनुसार 'ॐ' मन्त्र की विशेषता यह है कि पवित्र या अपवित्र सभी स्थितियों में जो इसका जप करता है, उसे लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य होती है। जिस तरह कमल-पत्र पर जल नहीं ठहरता है, ठीक उसी तरह जप-कर्ता पर कोई कलुष नहीं लगता। सनातन धर्म ही नहीं, भारत के अन्य धर्म-दर्शनों में भी 'ॐ' को महत्व प्राप्त है। बौद्ध-दर्शन में "मणिपद्मेहुम" का प्रयोग जप एवं उपासना के लिए प्रचुरता से होता है। इस मंत्र के अनुसार 'ॐ' को "मणिपुर" चक्र में अवस्थित माना जाता है। यह चक्र दस दल वाले कमल के समान है। जैन दर्शन में भी 'ॐ' के महत्व को दर्शाया गया है। 

श्रीगुरु नानक देव जी ने 'ॐ' के महत्व को प्रतिपादित करते हुए लिखा है, " इक ओंकार सतनाम करता पुरख निर्भौ निर्वैर अकाल मूरत....''। यानी 'ॐ' सत्यनाम जपने वाला पुरुष निर्भय, वैर-रहित एवं "अकाल-पुरुष के" सदृश हो जाता है। 'ॐ' इस अनंत ब्रह्माण्ड का नाद है (वैज्ञानिक और आध्यात्मिक दोनों रूपों में) एवं मनुष्य के अंत: स्थल में स्थित परम् ब्रह्म का प्रतीक।

Sunday, May 1, 2016

Kamayani by Jaishankar Prasad -Download In Hindi

Kamayani by Jaishankar Prasad is a Hindi classic poem and is one the best literary works written in modern times in Hindi Literature. Jayshankar Prasad is Chhayavaadi Hindi poet. Kamayani was first published in 1937 and was one of the most popular Hindi poetry in that era. It is based on the story of Manu, the only man who survived from after a pralay yug who was emotionless, however he later started to get involved in emotions, thoughts and actions. And the emotions that Manu poured on characters are Shraddha, Ida, Kilaat and many others.
Kamayani by Jaishankar Prasad has tried to depict the thoughts, emotions and actions of humans.There is a chapter for every emotion and thoughts in Kamayani hindi book pdf. Explaining his metaphorical presentation of Vedic characters, the poet said:
“Ida was the sister of the gods, giving consciousness to entire mankind. For this reason there is an Ida Karma in the Yagnas. This erudition of Ida created a rift between Shraddha and Manu. Then with the progressive intelligence searching for unbridled pleasures, the impasse was inevitable. This story is so very ancient that metaphor has wonderfully mingled with history. Therefore, Manu, Shraddha and Ida while maintaining their historical importance may also express the symbolic import. Manu represents the mind with its faculties of the head and heart and these are again symbolized as Faith (Shraddha) and Intelligence (Ida) respectively. On this data is based the story of Kamayani.”
Download Kamayani Of Jayshankar Prasad In Hindi
It is based on LINK

Saturday, April 9, 2016

UFO Real- Area 51 and Mexico


YAGYA- A ritual or culture?

YAGYA- A ritual or culture?
The sole picture of ancient India that arises when one tries to imagine the Vedic era is that of few white bearded rishis sitting in front of a pit and offering oblations to the fire. Frankly, our mythological serials in the 1990s are also responsible for creating such a picture that Yagyas was a sort of ritual. And how can we forget? Our very great Communist historians are the main players in the character assassination of our ancestors and branding them as ritualistic, blind faith affected people.


 Yagya, for that matter,is a system developed for pleasing the Devas but also has many variants including a Yagya for cooking and a Yagya for all 16 sanskars of Hindus.In a Yagya, we have to offer an oblation, let it be ghee,milk, cakes of cereals, Soma,etc. And this oblation is not done just by sitting there. An important condition for this is chanting of the Vedic mantras, Samantrakam समन्त्रकं,with the Mantas, as they call it. These Mantras are well documented in the Rigveda.
              
The Englishmen translated the word Yagya as 'sacrifice' which in itself is a blatant mistake. Yagya was never meant for any sacrifice of animals.It was a simple system of pleasing the Gods into which animal sacrifice found place, which is no doubt not a right thing. But branding the whole system as an outrageous way of pleasing the Gods, is itself outrageous.If one really tries to see the intricacies of a Yagya, then one will come to know the amount of perfection and the amount of brains that have gone in framing the smallest of things. Take for example, the fire in the Yagya. Now one would imagine that the rishis would be bringing some random logs of wood and burning them. But instead, the fire is of a particular wood and that too of 3 types- Garhapatya, Ahavaniya and Dakshinagni. (गार्हपत्य, आहवानीय, दक्षिणाग्नि ). Even the fire altar's dimensions, it's height from the ground,etc are fixed and find place in the Apastamba and Baudhayana Sulva Sutras.
                   
And even the Yagya does not take place without some specially qualified people who conduct it- The Hota, Udgata and the Adhvaryu. The Hota is skilled in Rigved and recites the mantras line by line. The Udgata is a Samved expert who recites the same mantras but with a musical tune called Chhanda whereas the Adhvaryu is an expert in Yajurved who knows about the small technicalities of a Yagya and also controls the Yagya till it ends.
                   
Samveda in particular has a relation with this whole Yagya system. Because due to this system, the whole stream of Indian classical music was developed. Mantras in a Yagya cannot be recited as they are since they are too many and it sounds boring. Hence was felt the need to give a rhyme to these mantras which gave rise to Samved. Samved has almost all it's verses common to Rigved but are given a particular rhyme called Chhanda. Different Chhandas include Gayatri, Trishtup, Anushtup, Brihadrati,etc. 
For example there are 3 verses A,B,C and I want to multiply them to 15 verses. So I sing them as- 
A A A B C    A B B B C   A B C C C. This forms one chhanda or style of reciting. 

This also proves the brilliant practice of the then Brahmins in reciting thousands of these mantras, sometimes overnight. And even in this overnight chanting, certain adjustments were made.Now obviously I would fall asleep while chanting these mantras overnight. So what to do? Simple- Sit on a swing and keep swinging overnight while chanting the mantras !!!! Simple adjustments assimilated into a complex culture.Returning to Samved, we find that for chanting these verses, our 7 Swaras were developed- Sa Re Ga Ma Pa Dha Ni Sa- although we find them in different names. The reader would be surprised to know that a separate UpaVeda of the Samved called the Gandharva Ved exists which specifically deals with music and it's different Ragas and Talas. So much of advancement, and that too originating for the sake of singing the mantras properly in a Yagya !!!!! And with singing comes dancing. There is a ritual that if the person for whom the Yagya is conducted is rich, he can bring his 50 Dasis who with pots on their heads can dance beautifully around the Yagya altar.

TYPES OF YAGYAS
There are different types of Yagyas conducted for different purposes

  • Agnishtoma- It's a kind of Somyaga
  • Vajpeya- It is done for maintaining harmony with neighboring states.
  • Ashvamedha- It is done to usurp power of other kingdoms. Done by Lord Ram.
  • Rajsuya- Done for becoming the Samrat of India. Done by Yudhishthira
  • Naramedh- Done by sacrificing  humans to please Varun. Half completed by king Harishchandra
  • Putrakameshthi- Done for getting an offspring. Done by Dashrath to get Ram and 3 other sons

Agnihotra is a yagya done twice in a day
 
A special kind of Yagya called as Atiratra is done for bringing rains. It is a 12 day ritual. This was successfully performed in Panjal, Kerala in 1975 as well as in 2011.

CONCLUSION
Now even if this Yagya was a small ritual done to please Gods, no person in this world would have generated so much delicate rules and conditions. No variety of stuffs used, no variety in the types of Yagyas would be seen.
Since we have specialized people earning their penny from a Yagya, with art forms like music and dance getting a push and most importantly, 3 whole Vedas being composed to specilize in that subject, it can be seen that this Yagya system was indeed the CULTURE of Indians rather than being just a ritual. People got themselves involved in this. All major kings of Puranic tradition have in some or the other way performed a Yagya. Such huge popularity of a certain system can only mean it had seeped in the lives of people. It may have been started as a small ritual, but it's importance increased to such an extent that it became an important cultural facet of Vedic people.
This happened to such an extent that even the Zoroastrians who were Vedic Anus migrated to Iran also continued to worship fire as a God.. Now that's called influence..!!
  

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