Tuesday, May 31, 2016

हनुमान् जी नर या वानर ??

हनुमान् जी नर या वानर ??
आधुनिक विद्वान् मानते हैं
श्रीवाल्मीकि रामायण में वर्णित वानर जाति जिसमें हनुमान् ,वाली ,सुग्रीव और अंगद आदि हैं । वास्तव में बन्दर नहीं वन नर हैं ( सङ्गतिवश पहले मैं भी यही मानता था )
...
वानर का अर्थ करते हैं - "वननर अर्थात् वनमें रहने वाले नर (मानव) ही वानर कहलाते हैं ।"
किन्तु ये सिद्धान्त असङ्गत है -
यदि वन में रहने से हनुमान् जीकी जाति वानर कहलायी तो ऋषि वानर जातिके क्यों नहीं हुए ? ऋषि महर्षियोंने तो वनोंमें रहकर ही वेदोंकी ऋचाओं के दर्शन किये इसलिए वेद भाग आरण्यक कहलाता है ।
अब रामायणमें वर्णित वानर शब्द का अर्थ वन-नर करके हनुमान् जी को वन में रहने वाला मानव मान लिया तब तो वाल्मीकिरामायण का सही से अनुशीलन किया ही नहीं । कैसे वह बताता हूँ ।
वाल्मीकिरामायणमें महाराज सुग्रीवकी सेनामें वर्णित भिन्न भिन्न योद्धाओं का वर्णन किया है भगवान् वाल्मीकिने जिन्हें केवल वानर ही नहीं अपितु कपि ,पिङ्गल, प्लवङ्ग ,गोलङ्गूल ,हरि और शाखामृग आदि नामोंसे यत्र-तत्र उल्लेख किया है । ये सभी नाम बन्दर के हैं मानवके नहीं ।
दूसरा कारण कि हनुमान् विशुद्ध संस्कृत बोलते हैं ,उन्हें चारों वेदोंका सम्यक् ज्ञान है , कहीं भी बोलने में अशुद्धि नहीं होती इसलिए हनुमान् जी बन्दर नहीं हो सकते मानव हैं ।
जब भगवान् श्रीहरिः मत्स्यरूप लेकर वेदोंकी रक्षा कर सकते हैं ,हयग्रीव रूप धारण करके वेदोंकी रक्षा कर सकते हैं ,हंस रूप से ब्रह्माजी श्रीमद्भागवतजी का उपदेश कर सकते हैं ,तब बन्दरका रूप पाकर वेद क्यों नहीं पढ़ सकते ??
अब यदि कहो ये तो पौराणिक कथा हैं ,हम तो केवल वेदोंको मानते हैं -
तब कहूँगा -
जब अश्वनीकुमार आथर्वण दधीचि का सिर काट कर घोड़े के सिर जोड़कर ब्रह्मविद्या प्राप्त कर सकते हैं , दधीचि अश्वशिर से ब्रह्मविद्या का उपदेश कर सकते हैं ,
‪#‎आथर्वणाय_अश्विनौ_दाधीचेऽश्व्यं_शिरः‬ ‪#‎प्रत्यैरयतम्‬ !"(ऋक्०१/११७/२२)
तब हनुमान् जी का वेद पाठ करना कौन सा कठिन कार्य है ?
जबकि रामायणमें वर्णित सभी वानर देवताओंके अवतार दिव्य वानर हैं ,जिनका शरीर मानव का है मुख और पूँछ बन्दर की है ।
इसीलिए इस प्रजातिको किम्पुरुष कहा जाता है शास्त्रोंमें । वाल्मीकिरामायणमें तो हनुमान् जी को स्पष्ट गोलङ्गूल (लँगूर-बड़ी पुंछ वाला बन्दर) के रूप में सर्वत्र वर्णन किया है ।
‪#‎रूद्र_देह_तजि_नेह_बस_बानर_भये_हनुमान्‬

महात्मा बुद्ध ,Mahatama Buddha followed GITA.



महात्मा बुद्ध आध्यात्मिक दृष्टिसे अनात्मवादी थे । तथापि आचरणकी दृष्टिसे उपनिषदों के संन्यास धर्म से प्रभावित थे । ऐतिहासिक दृष्टिसे यह कथन अशुद्ध है ,कि बुद्ध कोई नया मत चलाने का प्रयत्न कर रहे थे । उनका अंत तक यही विश्वास था कि वह प्रचलित सनातन धर्म का प्राचीन और शुद्ध रूप में प्रचार कर रहे हैं " एसो धम्मो सनतने " - "वेदानि विचेग्य केवलानि समणानं यानि पर अत्थि ब्राह्मणनं ! सब्बा वेदनासु वीतरागो सब्बं वेदमणिच्...च वेदगुरो !!( सुत्त निपात ५२९) "जिसने सब वेदों और कैवल्य वा मोक्ष विधायक उपनिषदो का अवगाहन कर लिया है और जो सब वेदनाओं से वीतराग होकर सबको अनित्य जानता है ,वही वेदज्ञ ब्राह्मण है ।" बुद्धका निर्वाणपद भी गीतोपनिषदका ब्रह्मनिर्वाणपद ही है कहीं अन्य से नही लिया - "स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति !"(गीता२/७२), "स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति !"(गीता५/२४) ,लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषय: क्षीणकल्मषा:(५/२५) और अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् !!(५/२६) । यही नही निर्वाणपदतक जो पहुँच चुका है उसके लिये बुद्ध ने अपने शिष्य सोनकोलीविस् से कहा है "निर्वाण तक जो पहुँच गया है उसके लिये न तो कोई कार्य ही अवशिष्ट रहता है और न ही किया हुआ कार्य ही भोगना पड़ता है
यह शुद्ध मार्ग है "तस्य कार्य न विद्यते " श्रीमद्भगवद्गीताका वचन ही है । यही नहीं जब बुद्धके शिष्य नन्द अर्हन अवस्था में पहुँच गए तब बुद्ध कहते हैं -"अवाप्तकार्योऽसि परां गतिं न तेऽस्ति किञ्चित् करणीयमण्वपि । विहाय तस्मादिह कार्यात्मन: कुरु स्थितिरात्मन् परकार्यमप्यथो !!" अर्थात् तेरा कार्य हो चुका है ,तुझे उत्तम गति मिल गयी । अब तेरे लिये तिल भर भी कर्म नहीं रहा ,अतः अब तू अपना कार्य छोड़कर परकार्य कर !" "तस्य कार्यं न विद्यते !!(गीता३/१७) ,"तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्मं समाचार !"(गीता३/१९) इन भगवान् श्रीकृष्णके वचन ही बुद्ध उपदेश करते हैं । सब्वासवसूत्र (९/१३) बुद्धके सिद्धांत में दुःख ,समुदय,निरोध और मार्ग ये चार आर्य सत्य मान्य हैं । संसार छोड़कर मन को निर्विषय तथा निष्काम करना ही मनुष्य का कर्तव्य है । बृहदारण्यकोपनिषद् (४/४/६) के मन्त्र को बुद्धने स्वीकार किया है । बुद्ध वेद धर्मके ही प्रचारक थे किन्तु पीछे से उन्हें वेद विरुद्ध बना दिया गया और आज तो आर्य (वैदिकों ) के विरुद्ध धर्म बौद्ध (दलित) बना कर भारतवर्ष को दो ध्रुवोंमें विभाजित कर दिया है । बुद्धम् शरणम् गच्छामि (ये महावाक्य भी श्रीमद्भागवद्गीताके २/४९ "बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणा: फलहेतव:" का ही है )

Tuesday, May 24, 2016

Collection of Hindu devotional scriptures

Here are collections of all mantras-
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Balmiki Ramayan

The story of Ram also inspired a large amount of latter-day literature in various languages, notable among which are the works of the sixteenth century Hindi poet Tulsidas, Tamil poet Kambar of the 13th century Molla Ramayanam in Telugu and the 14th century Kannada poet Narahari Kavi`s Torave Ramayan. The Ramayan became popular in Southeast Asia during the 8th century and manifested itself in text, temple architecture and performance.
The discovery of the Ram Setu (Rama's Bridge) between India and Sri Lanka has leant strong support to the epic being based on real events.
Image:Nasabridge.jpg

Lord Brahma Reveals Rama’s Divinity


When the virtuous Rama heard these cries of the people, He reflected for some time, His mind being agitated and His eyes filled with tears. Gathering together and reaching the city of Lanka in their aerial vehicles that sone like the sun, Kuvera, Yamaraja, the forefathers, Indra, the lord of the gods, Varuna, the lord of the waters, the three-eyed Shiva whose emblem is a bull and Lord Brahma, the creator of everything and best of those who know the Vedas, approached Rama. Raising up their long arms adorned with ornaments, the best of the residents of heaven said to Rama, who was standing with joined palms:
“Since You are the creator of the whole world and the best of those who are learned, O Lord, why do You ignore Sita while She is fallen in a blazing fire? Why do You not recognize Yourself to be the foremost of the many gods? Among the eight Vasus, You were formerly the Prajapati Ritadhama, who was the creator of the three worlds and their undisputed lord. Among the Rudras, You are the eighth called Mahadeva and among saadhyas You are the fifth called Viryavan. The two Ashvini-kumaras are Your ears and the sun and moon are Your eyes. You are seen as the beginning, middle and end, O scorcher of enemies. Yet You ignore Sita as an ordinary man would do.”
After being spoken to in this way by the protectors of the world, Rama, the Lord of the world and foremost of those who uphold righteous, replied to the gods: “I consider Myself a human being named Rama, the son of King Dasharatha. Let Lord Brahma say who I am and where I came from.”
Then Lord Brahma said to Rama, the descendent of Kakutstha: “Listen to my true words, O He whose prowess never fails. You are Lord Narayana, all-mighty God Himself who wields a discus. You are Lord Varaaha with a single tusk, the conqueror of Your past and future enemies. You are the imperishable Absolute, the truth which resides in the middle and end, O descendent of the Raghu Dynasty. You are the supreme righteousness of the worlds, the four-armed Vishvaksena. You are the wielder of the bow Sarnga, the Lord of the senses, the purusha and the supreme person. You are the invincible Lord Vishnu wielding a sword, as well as the mighty Lord Krishna. You are Skandha, commander-in-chief of the gods, and also the village leader. You are intelligence, strength, forbearance and self-control. You are the origin and destination. You are Upendra, the younger brother of Lord Indra, and Madhusuudana, the slayer of the Madhu demon.
“You are the creator of Lord Indra, the great Lord. You are Lord Vishnu, known as Padmanabha because His navel is shaped like a lotus flower. You put an end to Your enemies in battle. The great and holy sages say that You are a refuge worth taking shelter of. In the form of the Vedas, You are a bull with one hundred heads and one thousand horns. You are the original creator of the three worlds and the independent Lord. You are the support and progenitor of the siddhas and saadhyas. You are sacrifice and the syllable vashat for offering sacrifice. You are the mystic syllable OM and the highest of the high. People do not know who You are or that You are the origin and reservoir. You are found in all living beings, within the cows and Brahmanas too. You are in all directions, in the sky, in the mountains and in the rivers. You are the glorious one who has thousands of feet, heads and eyes.
“You maintain all living beings, the earth and all mountains. At the end of the world You are seen on a great serpent in the water. You are maintaining the three worlds, along with the gods, gandharvas and danavas. I am Your heart, O Rama, and the goddess Saraswati is Your tongue. The gods created by Lord Brahma are the hairs on Your limbs, O Lord. When You close Your eyes, it is considered night, and when You open them, it is daytime. Your thoughts become the Vedas. This world could not exist without You. The whole world is Your body, and the earth is Your steadiness. Fire is Your anger, the moon—Your grace. You bear the mark of Shrivatsa on Your chest. Previously You crossed the three worlds with three steps. After binding the dreadful Bali, You made Lord Indra king. Sita is Lakshmi and You are Vishnu. You are God, Lord Krishna, the Lord of all created beings.
“For the destruction of Ravana, You entered a human form in this world. You have accomplished our purpose, O best upholder of righteousness. You have slain Ravana. Return to Your heavenly abode happily. Your valor is unfailing and Your heroic exploits are never useless. Audience with You is unfailing, and so also is Your praise. Those who are devoted to You will be successful in this world. Those who are devoted to You, the primeval Supreme Person, achieve their desires in this world and the next.”
Those who chant this divine hymn composed by Lord Brahma and recite this ancient story will never have any difficulty.
Thus completes 117th Chapter of Yuddha Kanda of the glorious Ramayana of Valmiki, the work of a sage and the oldest epic.
Sriman Moola Rama Vijayate
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Sunday, May 22, 2016

आर्यभट्ट से पहले वेदों में था शून्य ‘0’ का महत्व।


शून्य की खोज आर्यभट्ट ने 5 वीं सदी में की??
अब लोग ये नहीं समझते ऐसे पोस्ट हमारे शास्त्रों पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं इसका उद्देश्य क्या है ??
सम्भव है शास्त्रों को आर्यभट्ट का परवर्ती सिद्ध करना।
अब बताते हैं शून्य की खोज किसने की तो वो हैं वेद ।
वेदों में 1 से लेकर 18 अंकों तक (इकाई से परार्ध ) की गणना की गयी है ।
1 के अंक में 0 लगाने पर ये गणना क्रमशः बढ़ती जाती है इस का स्पष्ट उल्लेख वेद भगवान् करते हैं —

‘इमा मेऽअग्नऽइष्टका धेनव: सन्त्वेका च दश च शतं च शतं च सहस्रं च सहस्रं चायुतं चायुतं च नियुतं च नियुतं व नियुतं च प्रयुतं चार्बु दं च न्यर्बु दं च समुद्रश्च मध्यं चान्तश्च परार्धश्चैता मेऽअग्नऽइष्टका धेनव: सन्त्वमुत्रामुष
मिंल्लोके ।। (शुक्ल यजुर्ववेद १७/२)

अर्थात् – हे अग्ने । ये इष्टकाऐं (पांच चित्तियो में स्थापित ) हमारे लिए अभीष्ट फलदायक कामधेनु गौ के समान हों । ये इष्टका परार्द्ध -सङ्ख्यक (१०००००००००००००००००) एक से दश ,दश से सौ, सौ से हजार ,हजार से दश हजार ,दश हजार से लाख ,लाख से दश लाख ,दशलाख से करोड़ ,करोड़ से दश करोड़ ,दश करोड़ से अरब ,अरब से दश अरब ,दश अरब से खरब ,खरब से दश खरब ,दश खरब से नील, नील से दश नील, दश नील से शङ्ख ,शङ्ख से दश शङ्ख ,दश शङ्ख से परार्द्ध ( लक्ष कोटि) है ।

यहाँ स्पष्ट एक एक। शून्य जोड़ते हुए काल गणना की गयी है ।
अब फिर आर्यभट्ट ने कैसे शून्य की खोज की ?
इसका जवाब है विज्ञान की दो क्रियाएँ हैं एक खोज (डिस्कवर ) दूसरी आविष्कार (एक्सपेरिमेंट) । खोज उसे कहते हैं जो पहले से विद्यमान हो बाद में खो गयी हो और फिर उसे ढूढा जाए उसे खोज कहते हैं ।
आविष्कार उसे कहते हैं जो विद्यमान नहीं है और उसे अलग अलग पदार्थों से बनाया जाए वो आविष्कार है ।
अब शून्य और अंको की खोज आर्यभट्ट ने की न कि आविष्कार किया
इसका प्रमाण सिंधु -सरस्वती सभ्यता (हड़प्पा की सभ्यता) जो की 1750 ई पू तक विलुप्त हो चुकी थी में अंको की गणना स्पष्ट रूप से अंकित है।

Saturday, May 21, 2016

Indian Music- Desh Raga


Indian Music Has a long history of over 2,000 years Closely linked to Hinduism and religious philosophy. Hindu Gods are worshipped through performances of Raga, both vocal and instrumental. The God Shiva is linked with music and dance. Divided into 2 categories: 1) Northern India (the Hindustani tradition) 2) South ( the Carnatic tradition) This set work is taken from Northern India.
The oral tradition Indian music is not written down, it is taught through listening and playing by ear – The oral tradition. Indian families have a system of master-pupil teaching known as a ‘gharana’. Father teaches son and the son would pass this on to the next generation. Playing styles change as new techniques are added by generations and so the process is a dual one of consolidation and evolution of playing skills.
Elements of Raga 3 most common elements of Indian music are: 1) The Melody – made up of improvised notes from a particular rag. Sung by voice or played on an instrument such as the ‘Sitar’ or ‘Sarod’. 2) The Drone – a supporting ‘drone’ of usually one or two notes provided by the ‘Tambura’. 3) The Rhythm – a repetitive, cyclic rhythmic pattern plated by the ‘Tabla Drums’.
The Melody – the Rag Is the set melody on which the music is improvised. Like a scale a ‘rag’ ascends and descends but the pitches differ in either direction. Unlike western classical music scales, the number of notes in a rag will vary considerably. Some rags have just 5 notes, like the pentatonic scale. Other rags have 7/8 notes. Examples are: Vibhas Rag and the Kalyan Rag
Melody – The Rag (ctd.) There are over 200 rags and each has a particular mood (called a rasa) associated with it. Not only are there morning and night rags, but also celebration rags, seasonal rags and some associated with certain feelings and emotions. There is virtually a rag for every occasion.
The Drone No sense of harmony in Indian raga music – emphasis is placed purely on the melody. However as soon as the piece begins you will hear a supportive drone usually based on the tonic and dominant notes of the chosen rag. This is played by the tambura. Its function is to add a sense of tuning/intonation. Its ever-present sound also adds texture to the music as a whole.
Rhythm – The Tala Provided by small tabla drums. Most common tala is the ‘teental’ (or tintal), which is a 16-beat pattern (each beat called a matras), organised in 4 bars as 4+4+4+4. Some other talas are based on 6, 7, 8, 10, 12, 14 and 16 beats per cycle. Complex rhythms called ‘bols’ are played over this and go against the main beat creating exciting syncopations.
Rhythm – The Tala These rhythms must start and end together precisely on the first beat of the cycle, called ‘sam’. During performances the instrumentalist and drummer can try to copy and ‘out-do’ each other whilst still keeping within the cycle of beats, leading to some very exciting performances
Structure of a raga performance Alap – Opening - unmetred and improvised. Jhor – second section of a raga – medium tempo with improvisation. Jhalla – the third section of a raga – the lively tempo and virutoso display of improvisatory skills. Gat – the final section of a raga – a fixed composition with some improvised embellishments. Bandish – also the final section if the piece is vocal.
Instruments The Voice The Sitar The Sarangi The Sarod The Tambura Tabla Flute (bansuri) Oboe (shehnai)
General The rag is traditionally played at night. Rag Desh (country) is also known as a rainy season or monsoon raga. Primary moods (rasa) expressed are devotion, romance and longing, with origins in courtly love songs called ‘thumri’. The notes used in Rag Desh are based on the indian system known as ‘sargam’ in which the notes are called: Sa, Re, Ga, Ma, Pa, Dha, Ni, Sa (tonic note C – Sa)
Notes in Rag Desh are: Sa– CNi-Bb Re – DDha-A Ma – FPa-G Pa – GMa-F Ni - BGa -E Sa-CRe-D Sa-C
3 Versions of Rag Desh Version 1 – Anoushka Shankar (sitar) Version 2 – Mhara janam maran performed by Chiranji Lal Tanwar (voice) Version 3 – Benjy Wertheimer (esraj and tabla) and Steve Gorn (bansuri)
Anoushka Shankar (Sitar) Instruments: Sitar and Table Structure: 3 mvts – Alap, Gat 1 and Gat 2 0.00 – 0.55 – Alap (slow and unmetered. Sitar unaccompanied and explores the notes of the rag.) 0.55 – 9.27 – Gat 1 (Sitar plays fixed composition, added decoration and tempo is medium speed (madhyalaya)). Tabla enters at 0.58 seconds and plays the 10 beat jhaptal tala.
Jhaptal (10 beats): (2+3+2+3) 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 Clap clap wave clap Tabla player adds decoration to this basic pattern. Also flourishes and ornaments in the sitar part. Comprises complex patterns of scalic passages including dialogue with the tabla in short melodic and rhythmic improvisations The tihai is played to indicate the end of these improvisations (research tihai).
Version 1 (ctd.) 3.55 – Sitar starts to improvise in triplets (chand). 5.02 – Improvisations with 4 notes per beat – sitar followed by table alternating. Tihai is used to mark the end of these solo sections. 9.27 – Gat 2 – This is faster than the 1 st Gat and uses the common teental (tintal) 16-beat tala. This is grouped in 4, 4-beat units (4+4+4+4). 10.10 – In this final part of the rag, drone strings are used on the sitar in strumming fashion providing striking rhythmic effect (jhalla). Ends with a tihai.
Version 2: Mhara janam maran Instruments: voice, sarangi, sarod, pakhawaj, cymbals and tabla. Pakhawaj is a large double headed drum. This song is a Hindu devotional song from Rajasthan and is known as a bhajan. Song tells of tender waiting in longing anticipation of the arrival of Lord Krishna in the morning. Translation – You are my companion through life and death and I cannot forget you night and day. My heart pines for you and I feel totally restless when I am not able to see you.
Version 2 (ctd.) Structure: 2 mvts. – Alap, Bhajan (song) The Tal used in this piece is the 8-beat Keherwa Tal (2+2+2+2) 12345678 Clapclapwaveclap 0.00-0.50 – Alap –short intro as the sarod player, then singer, vocalises a melody in free time based on the notes of the rag. This is a version of the chorus.
Version 2 (end) 0.50- end – Bhajan - This is the fixed composition, in this case a song in verse form. 0.50 – Tabla joins in 1.10 – Short sarod solo 1.22 – Sarangi Dynamics and tempo increase and the music becomes fast and exciting. The pattern is established as a verse (1.32/3.04/4.50) followed by the first line used as a refrain (chorus), followed by more solos for the sarod and sarangi.
Version 3: Benjy Wertheimer and Steve Gorn Instruments: Bansuri, esraj, tambura and tabla. Esraj – a fretted stringed instrument played sitting on the floor. 0.00-8.35 – (part 1) – Alap – a slow unmeasured section, Drone established by the table from the outset on Sa (C) and Pa (G). The Bansuri (flute) comes in using notes from the rag itself. This develops from trying out various pitches in short fragments to a more developed melodic part.
Version 3 (ctd.) 0.00 – 4.41 – (part 2) – Gat 1 – This is at a slow tempo. There is a lyrical unaccompanied melody for the bansuri and the tabla comes in at 0.31 playing the 7- beat rupak tala. Rupak Tala: (7 beats: 3+2+2) 1 2 3 4 5 6 7 Waveclapclap
Version 3 (ctd.) 0.43 – Fixed composition begins. After this the music becomes more agitated and dramatic as improvisation takes over around the gat, while table played also embellishes upon the original tala pattern. Bansuri then plays the Gat repeatedly whilst the tala played improvises around the tala cycle. 3.32 – The two instruments swap function, so that the bansuri improvises while the table accompanies. Several tihais are heard to mark out section ends. The last of these leads into the second gat at 4.41
Version 3 (end) 4.41 – end (part 3) Gat 3 – A fast tempo (drut) in ektal tala. Ektal tal (12 beats: 2+2+2+2+2+2) 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 Clap clap wave clap wave clap This is a 12-beat ektal tala. The table sets a fast tempo and the bansuri plays an elaborate gat containing wide ranges of pitch, scalic runs and slides. These fast scale passages are called tans. Several tihais are heard as the music draws to a close.

Saturday, May 14, 2016

वैदिक साहित्य में मांस भक्षकों को अत्यंत तिरस्कृत किया गया है


वैदिक साहित्य में मांस भक्षकों को अत्यंत तिरस्कृत किया गया है | उन्हें राक्षस, पिशाच आदि की संज्ञा दी गई है जो दरिन्दे और हैवान माने गए हैं तथा जिन्हें सभ्य मानव समाज से बहिष्कृत समझा गया है |
1.
अनागोहत्या वै भीमा कृत्ये
मा नो गामश्वं पुरुषं वधीः --- अथर्ववेद १०।१।२९
It is definitely a great sin to kill innocents. Do not kill our cows, horses and people.
How could there be justification of cow and other animals being killed when killing is so clearly prohibited in the Vedas?
निर्दोषों को मारना निश्चित ही महा पाप है | हमारे गाय, घोड़े और पुरुषों को मत मार | वेदों में गाय और अन्य पशुओं के वध का स्पष्टतया निषेध होते हुए, इसे वेदों के नाम पर कैसे उचित ठहराया जा सकता है?
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2.
अघ्न्या यजमानस्य पशून्पाहि -- यजुर्वेद १।१
हे मनुष्यों ! पशु अघ्न्य हैं – कभी न मारने योग्य, पशुओं की रक्षा करो |
“O human! animals are Aghnya – not to be killed. Protect the animals”
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No violence against animals
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3.
यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानत:
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यत: -- यजुर्वेद ४०। ७
“Those who see all beings as souls do not feel infatuation or anguish at their sight, for they experience oneness with them”.
How could people who believed in the doctrines of indestructibility, transmigration dare to kill living animals in yajnas? They might be seeing the souls of their own near and dear ones of bygone days residing in those living beings.
जो सभी भूतों में अपनी ही आत्मा को देखते हैं, उन्हें कहीं पर भी शोक या मोह नहीं रह जाता क्योंकि वे उनके साथ अपनेपन की अनुभूति करते हैं | जो आत्मा के नष्ट न होने में और पुनर्जन्म में विश्वास रखते हों, वे कैसे यज्ञों में पशुओं का वध करने की सोच भी सकते हैं ? वे तो अपने पिछले दिनों के प्रिय और निकटस्थ लोगों को उन जिन्दा प्राणियों में देखते हैं |
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4.
अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी
संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः -- मनुस्मृति ५।५१
Those who permit slaying of animals; those who bring animals for slaughter; those who slaughter; those who sell meat; those who purchase meat; those who prepare dish out of it; those who serve that meat and those who eat are all murderers.
मारने की आज्ञा देने वाला, पशु को मारने के लिए लेने वाला, बेचने वाला, पशु को मारने वाला,
मांस को खरीदने और बेचने वाला, मांस को पकाने वाला और मांस खाने वाला यह सभी हत्यारे हैं |
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5 .
ब्रीहिमत्तं यवमत्तमथो माषमथो तिलम्
एष वां भागो निहितो रत्नधेयाय दान्तौ मा हिंसिष्टं पितरं मातरं च
अथर्ववेद ६।१४०।२
O teeth! You eat rice, you eat barley, you gram and you eat sesame. These cereals are specifically meant for you. Do not kill those who are capable of being fathers and mothers.
हे दांतों की दोनों पंक्तियों ! चावल खाओ, जौ खाओ, उड़द खाओ और तिल खाओ |
यह अनाज तुम्हारे लिए ही बनाये गए हैं | उन्हें मत मारो जो माता – पिता बनने की योग्यता रखते हैं |
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6.
य आमं मांसमदन्ति पौरुषेयं च ये क्रविः
गर्भान् खादन्ति केशवास्तानितो नाशयामसि -- अथर्ववेद ८। ६।२३
We ought to destroy those who eat cooked as well as uncooked meat, meat involving destruction of males and females, foetus and eggs.
वह लोग जो नर और मादा, भ्रूण और अंड़ों के नाश से उपलब्ध हुए मांस को कच्चा या पकाकर खातें हैं, हमें उन्हें नष्ट कर देना चाहिए |
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7.
अनागोहत्या वै भीमा कृत्ये
मा नो गामश्वं पुरुषं वधीः -- अथर्ववेद १०।१।२९
It is definitely a great sin to kill innocents. Do not kill our cows, horses and people.
How could there be justification of cow and other animals being killed when killing is so clearly prohibited in the Vedas?

निर्दोषों को मारना निश्चित ही महा पाप है | हमारे गाय, घोड़े और पुरुषों को मत मार | वेदों में गाय और अन्य पशुओं के वध का स्पष्टतया निषेध होते हुए, इसे वेदों के नाम पर कैसे उचित ठहराया जा सकता है?
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8.
अघ्न्या यजमानस्य पशून्पाहि
यजुर्वेद १।१
“O human! animals are Aghnya – not to be killed. Protect the animals”
हे मनुष्यों ! पशु अघ्न्य हैं – कभी न मारने योग्य, पशुओं की रक्षा करो |
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9.
पशूंस्त्रायेथां -- यजुर्वेद ६।११
Protect the animals.
पशुओं का पालन करो |
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10.
द्विपादव चतुष्पात् पाहि -- यजुर्वेद १४।८
Protect the bipeds and quadrupeds!
हे मनुष्य ! दो पैर वाले की रक्षा कर और चार पैर वाले की भी रक्षा कर |
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11.
ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे -- यजुर्वेद ११।८३
“May all bipeds and quadrupeds gain strength and nourishment”
This mantra is recited by Hindus before every meal. How could the same philosophy which prays for well-being of every soul in every moment of life, approve of killing animals?
सभी दो पाए और चौपाए प्राणियों को बल और पोषण प्राप्त हो | हिन्दुओं द्वारा भोजन ग्रहण करने से पूर्व बोले जाने वाले इस मंत्र में प्रत्येक जीव के लिए पोषण उपलब्ध होने की कामना की गई है | जो दर्शन प्रत्येक प्राणी के लिए जीवन के हर क्षण में कल्याण ही चाहता हो, वह पशुओं के वध को मान्यता कैसे देगा ?
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No violence in Yajna
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12.
अध्वर इति यज्ञानाम – ध्वरतिहिंसा कर्मा तत्प्रतिषेधः -- निरुक्त २।७
According to Yaaska Acharya, one of the synonyms of Yajna in Nirukta or the Vedic philology is Adhvara.
Dhvara means an act with himsa or violence. And therefore a-dhvara means an act involving no himsa or no violence. There are a large number of such usage of Adhvara in the Vedas.
निरुक्त या वैदिक शब्द व्युत्पत्ति शास्त्र में यास्काचार्य के अनुसार यज्ञ का एक नाम अध्वर भी है | ध्वर का मतलब है हिंसा सहित किया गया कर्म, अतः अध्वर का अर्थ हिंसा रहित कर्म है | वेदों में अध्वर के ऐसे प्रयोग प्रचुरता से पाए जाते हैं |
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13.
अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परि भूरसि
स इद देवेषु गच्छति -- ऋग्वेद १ ।१।४
O lord of effulgence! The non-violent Yajna, you prescribe from all sides, is beneficial for all, touches divine proportions and is accepted by noble souls.
हे दैदीप्यमान प्रभु ! आप के द्वारा व्याप्त हिंसा रहित यज्ञ सभी के लिए लाभप्रद दिव्य गुणों से युक्त है तथा विद्वान मनुष्यों द्वारा स्वीकार किया गया है |


अनिल विभ्रांत आर्य 

Sunday, May 8, 2016

हमारे महान ऋषि अविष्कारक – भारत।


भारत की धरती को ऋषि, मुनि, सिद्ध और देवताओं की भूमि पुकारा जाता है। यह कई तरह के विलक्षण ज्ञान व चमत्कारों से अटी पड़ी है। सनातन धर्म वेद को मानता है। प्राचीन ऋषि-मुनियों ने घोर तप, कर्म, उपासना, संयम के जरिए वेद में छिपे इस गूढ़ ज्ञान व विज्ञान को ही जानकर हजारों साल पहले ही कुदरत से जुड़े कई रहस्य उजागर करने के साथ कई आविष्कार किए व युक्तियां बताईं। ऐसे विलक्षण ज्ञान के आगे आधुनिक विज्ञान भी नतमस्तक होता है।
कई ऋषि-मुनियों ने तो वेदों की मंत्र-शक्ति को कठोर योग व तपोबल से साधकर ऐसे अद्भुत कारनामों को अंजाम दिया कि बड़े-बड़े राजवंश व महाबली राजाओं को भी झुकना पड़ा।
अगले पृष्ठों पर जानिए ऐसे ही असाधारण या यूं कहें कि प्राचीन वैज्ञानिक ऋषि-मुनियों द्वारा किए आविष्कार व उनके द्वारा उजागर रहस्यों को जिनसे आप भी अब तक अनजान होंगे –

1. महर्षि दधीचि –

महातपोबलि और शिव भक्त ऋषि थे। वे संसार के लिए कल्याण व त्याग की भावना रख वृत्तासुर का नाश करने के लिए अपनी अस्थियों का दान करने की वजह से महर्षि दधीचि बड़े पूजनीय हुए। इस संबंध में पौराणिक कथा है कि
एक बार देवराज इंद्र की सभा में देवगुरु बृहस्पति आए। अहंकार से चूर इंद्र गुरु बृहस्पति के सम्मान में उठकर खड़े नहीं हुए। बृहस्पति ने इसे अपना अपमान समझा और देवताओं को छोड़कर चले गए। देवताओं ने विश्वरूप को अपना गुरु बनाकर काम चलाना पड़ा, किंतु विश्वरूप देवताओं से छिपाकर असुरों को भी यज्ञ-भाग दे देता था। इंद्र ने उस पर आवेशित होकर उसका सिर काट दिया। विश्वरूप त्वष्टा ऋषि का पुत्र था। उन्होंने क्रोधित होकर इंद्र को मारने के लिए महाबली वृत्रासुर को पैदा किया। वृत्रासुर के भय से इंद्र अपना सिंहासन छोड़कर देवताओं के साथ इधर-उधर भटकने लगे।
ब्रह्मादेव ने वृत्तासुर को मारने के लिए वज्र बनाने के लिए देवराज इंद्र को तपोबली महर्षि दधीचि के पास उनकी हड्डियां मांगने के लिये भेजा। उन्होंने महर्षि से प्रार्थना करते हुए तीनों लोकों की भलाई के लिए अपनी हड्डियां दान में मांगी। महर्षि दधीचि ने संसार के कल्याण के लिए अपना शरीर दान कर दिया। महर्षि दधीचि की हड्डियों से वज्र बना और वृत्रासुर मारा गया। इस तरह एक महान ऋषि के अतुलनीय त्याग से देवराज इंद्र बचे और तीनों लोक सुखी हो गए।

2. आचार्य कणाद –

कणाद परमाणुशास्त्र के जनक माने जाते हैं। आधुनिक दौर में अणु विज्ञानी जॉन डाल्टन के भी हजारों साल पहले आचार्य कणाद ने यह रहस्य उजागर किया कि द्रव्य के परमाणु होते हैं।

3. भास्कराचार्य –

आधुनिक युग में धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति (पदार्थों को अपनी ओर खींचने की शक्ति) की खोज का श्रेय न्यूटन को दिया जाता है। किंतु बहुत कम लोग जानते हैं कि गुरुत्वाकर्षण का रहस्य न्यूटन से भी कई सदियों पहले भास्कराचार्यजी ने उजागर किया। भास्कराचार्यजी ने अपने ‘सिद्धांतशिरोमणि’ ग्रंथ में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बारे में लिखा है कि ‘पृथ्वी आकाशीय पदार्थों को विशिष्ट शक्ति से अपनी ओर खींचती है। इस वजह से आसमानी पदार्थ पृथ्वी पर गिरता है’।

4. आचार्य चरक –

‘चरकसंहिता’ जैसा महत्तवपूर्ण आयुर्वेद ग्रंथ रचने वाले आचार्य चरक आयुर्वेद विशेषज्ञ व ‘त्वचा चिकित्सक’ भी बताए गए हैं। आचार्य चरक ने शरीरविज्ञान, गर्भविज्ञान, औषधि विज्ञान के बारे में गहन खोज की। आज के दौर की सबसे ज्यादा होने वाली डायबिटीज, हृदय रोग व क्षय रोग जैसी बीमारियों के निदान व उपचार की जानकारी बरसों पहले ही उजागर की।

5. भारद्वाज –

आधुनिक विज्ञान के मुताबिक राइट बंधुओं ने वायुयान का आविष्कार किया। वहीं हिंदू धर्म की मान्यताओं के मुताबिक कई सदियों पहले ऋषि भारद्वाज ने विमानशास्त्र के जरिए वायुयान को गायब करने के असाधारण विचार से लेकर, एक ग्रह से दूसरे ग्रह व एक दुनिया से दूसरी दुनिया में ले जाने के रहस्य उजागर किए। इस तरह ऋषि भारद्वाज को वायुयान का आविष्कारक भी माना जाता है।

6. कण्व

वैदिक कालीन ऋषियों में कण्व का नाम प्रमुख है। इनके आश्रम में ही राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला और उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था। माना जाता है कि उसके नाम पर देश का नाम भारत हुआ। सोमयज्ञ परंपरा भी कण्व की देन मानी जाती है।

7. कपिल मुनि –

भगवान विष्णु का पांचवां अवतार माने जाते हैं। इनके पिता कर्दम ऋषि थे। इनकी माता देवहूती ने विष्णु के समान पुत्र चाहा। इसलिए भगवान विष्णु खुद उनके गर्भ से पैदा हुए। कपिल मुनि ‘सांख्य दर्शन’ के प्रवर्तक माने जाते हैं। इससे जुड़ा प्रसंग है कि जब उनके पिता कर्दम संन्यासी बन जंगल में जाने लगे तो देवहूती ने खुद अकेले रह जाने की स्थिति पर दुःख जताया। इस पर ऋषि कर्दम देवहूती को इस बारे में पुत्र से ज्ञान मिलने की बात कही। वक्त आने पर कपिल मुनि ने जो ज्ञान माता को दिया, वही ‘सांख्य दर्शन’ कहलाता है।
इसी तरह पावन गंगा के स्वर्ग से धरती पर उतरने के पीछे भी कपिल मुनि का शाप भी संसार के लिए कल्याणकारी बना। इससे जुड़ा प्रसंग है कि भगवान राम के पूर्वज राजा सगर ने द्वारा किए गए यज्ञ का घोड़ा इंद्र ने चुराकर कपिल मुनि के आश्रम के करीब छोड़ दिया। तब घोड़े को खोजते हुआ वहां पहुंचे राजा सगर के साठ हजार पुत्रों ने कपिल मुनि पर चोरी का आरोप लगाया। इससे कुपित होकर मुनि ने राजा सगर के सभी पुत्रों को शाप देकर भस्म कर दिया। बाद के कालों में राजा सगर के वंशज भगीरथ ने घोर तपस्या कर स्वर्ग से गंगा को जमीन पर उतारा और पूर्वजों को शापमुक्त किया।

8. पतंजलि –

आधुनिक दौर में जानलेवा बीमारियों में एक कैंसर या कर्करोग का आज उपचार संभव है। किंतु कई सदियों पहले ही ऋषि पतंजलि ने कैंसर को रोकने वाला योगशास्त्र रचकर बताया कि योग से कैंसर का भी उपचार संभव है।

9. शौनक :

वैदिक आचार्य और ऋषि शौनक ने गुरु-शिष्य परंपरा व संस्कारों को इतना फैलाया कि उन्हें दस हजार शिष्यों वाले गुरुकुल का कुलपति होने का गौरव मिला। शिष्यों की यह तादाद कई आधुनिक विश्वविद्यालयों तुलना में भी कहीं ज्यादा थी।

10. महर्षि सुश्रुत –

ये शल्यचिकित्सा विज्ञान यानी सर्जरी के जनक व दुनिया के पहले शल्यचिकित्सक (सर्जन) माने जाते हैं। वे शल्यकर्म या आपरेशन में दक्ष थे। महर्षि सुश्रुत द्वारा लिखी गई ‘सुश्रुतसंहिता’ ग्रंथ में शल्य चिकित्सा के बारे में कई अहम ज्ञान विस्तार से बताया है। इनमें सुई, चाकू व चिमटे जैसे तकरीबन 125 से भी ज्यादा शल्यचिकित्सा में जरूरी औजारों के नाम और 300 तरह की शल्यक्रियाओं व उसके पहले की जाने वाली तैयारियों, जैसे उपकरण उबालना आदि के बारे में पूरी जानकारी बताई गई है।
जबकि आधुनिक विज्ञान ने शल्य क्रिया की खोज तकरीबन चार सदी पहले ही की है। माना जाता है कि महर्षि सुश्रुत मोतियाबिंद, पथरी, हड्डी टूटना जैसे पीड़ाओं के उपचार के लिए शल्यकर्म यानी आपरेशन करने में माहिर थे। यही नहीं वे त्वचा बदलने की शल्यचिकित्सा भी करते थे।

11. वशिष्ठ :

वशिष्ठ ऋषि राजा दशरथ के कुलगुरु थे। दशरथ के चारों पुत्रों राम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न ने इनसे ही शिक्षा पाई। देवप्राणी व मनचाहा वर देने वाली कामधेनु गाय वशिष्ठ ऋषि के पास ही थी।

12. विश्वामित्र :

ऋषि बनने से पहले विश्वामित्र क्षत्रिय थे। ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को पाने के लिए हुए युद्ध में मिली हार के बाद तपस्वी हो गए। विश्वामित्र ने भगवान शिव से अस्त्र विद्या पाई। इसी कड़ी में माना जाता है कि आज के युग में प्रचलित प्रक्षेपास्त्र या मिसाइल प्रणाली हजारों साल पहले विश्वामित्र ने ही खोजी थी।
ऋषि विश्वामित्र ही ब्रह्म गायत्री मंत्र के दृष्टा माने जाते हैं। विश्वामित्र का अप्सरा मेनका पर मोहित होकर तपस्या भंग होना भी प्रसिद्ध है। शरीर सहित त्रिशंकु को स्वर्ग भेजने का चमत्कार भी विश्वामित्र ने तपोबल से कर दिखाया।

13. महर्षि अगस्त्य –

वैदिक मान्यता के मुताबिक मित्र और वरुण देवताओं का दिव्य तेज यज्ञ कलश में मिलने से उसी कलश के बीच से तेजस्वी महर्षि अगस्त्य प्रकट हुए। महर्षि अगस्त्य घोर तपस्वी ऋषि थे। उनके तपोबल से जुड़ी पौराणिक कथा है कि एक बार जब समुद्री राक्षसों से प्रताड़ित होकर देवता महर्षि अगस्त्य के पास सहायता के लिए पहुंचे तो महर्षि ने देवताओं के दुःख को दूर करने के लिए समुद्र का सारा जल पी लिया। इससे सारे राक्षसों का अंत हुआ।

14. गर्गमुनि –

गर्ग मुनि नक्षत्रों के खोजकर्ता माने जाते हैं। यानी सितारों की दुनिया के जानकार। ये गर्गमुनि ही थे, जिन्होंने श्रीकृष्ण एवं अर्जुन के के बारे नक्षत्र विज्ञान के आधार पर जो कुछ भी बताया, वह पूरी तरह सही साबित हुआ। कौरव-पांडवों के बीच महाभारत युद्ध विनाशक रहा। इसके पीछे वजह यह थी कि युद्ध के पहले पक्ष में तिथि क्षय होने के तेरहवें दिन अमावस थी। इसके दूसरे पक्ष में भी तिथि क्षय थी। पूर्णिमा चौदहवें दिन आ गई और उसी दिन चंद्रग्रहण था। तिथि-नक्षत्रों की यही स्थिति व नतीजे गर्ग मुनिजी ने पहले बता दिए थे।

15. बौद्धयन –

भारतीय त्रिकोणमितिज्ञ के रूप में जाने जाते हैं। कई सदियों पहले ही तरह-तरह के आकार-प्रकार की यज्ञवेदियां बनाने की त्रिकोणमितिय रचना-पद्धति बौद्धयन ने खोजी। दो समकोण समभुज चौकोन के क्षेत्रफलों का योग करने पर जो संख्या आएगी, उतने क्षेत्रफल का ‘समकोण’ समभुज चौकोन बनाना और उस आकृति का उसके क्षेत्रफल के समान के वृत्त में बदलना, इस तरह के कई मुश्किल सवालों का जवाब बौद्धयन ने आसान बनाया।

Shivam Sharma Bhartiya


Saturday, May 7, 2016

600 साल पहले ही तुलसीदास जी ने बता दी थी सूर्य और पृथ्वी के बीच की सटीक दूरी।


भले विज्ञान बहुत तरक्की कर रहा हो और नित नये राज खोल रहा हो पर भारत की भूमि पर हमेशा से ही विज्ञान पर शोध होता रहा है। यही कारण है कि जो ज्ञान आज वैज्ञानिक बताते हैं वे सभी हमें हमारे वेदों में मिलते हैं। विज्ञान को जितान भारतीय मुनियों ने समझा है शायद ही किसी ओर ने जाना हो। इसी बीच हम आपको बताने जा रहे हैं तुलसीदास जी के विज्ञान ज्ञान को कि किस प्रकार उन्होंने सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी को सटीकता से बताया था। उन्हें हुए लगभग 600 साल हो गये हैं पर जब उनकी बात नासा और तमाम संगठन भी सही बताते हैं तो समुचे विश्व को हैरानी होती है, कि भारतीय बहुत वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखते थे।

प्राचीन समय में ही गोस्वामी तुलसीदास ने बता दिया था कि सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी लगभग 15 करोड़ किलोमीटर है।

यह बात किसी आश्चर्य से कम नहीं है। आखिर कैसे तुलसीदास जी ने यह आकलन किया था। और वह भी पूरी तरह से सही है, तो क्या ऐसा संभव है कि विज्ञान ने धर्म की कॉपी की हो।

आइये इस रहस्य को जानते हैं हनुमान चालीसा के माध्यम से जिसके रचयिता गोस्वामी तुलसीदास जी थे।।

हनुमान चालीसा में एक दोहा है:

जुग (युग) सहस्त्र जोजन (योजन) पर भानु. लील्यो ताहि मधुर फल जानू..

इस दोहे का सरल अर्थ यह है कि हनुमानजी ने एक युग सहस्त्र योजन की दूरी पर स्थित भानु यानी सूर्य को मीठा फल समझकर खा लिया था।

हनुमानजी ने एक युग सहस्त्र योजन की दूरी पर स्थित भानु यानी सूर्य को मीठा फल समझकर खा लिया था।

एक युग = 12000 वर्ष
एक सहस्त्र = 1000
एक योजन = 8 मील

युग x सहस्त्र x योजन = पर भानु

12000 x 1000 x 8 मील = 96000000 मील

एक मील = 1.6 किमी

96000000 x 1.6 = 153600000 किमी

इस गणित के आधार गोस्वामी तुलसीदास ने प्राचीन समय में ही बता दिया था कि सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी लगभग 15 करोड़ किलोमीटर है।

इस गणित में युग बताया गया है कि एक युग कितने वर्ष का होता है, फिर सहस्त्र और अंत में योजन, सभी का कुल जोड़ कर जब उसे किलोमीटर से गुना किया जाता है तब यह दूरी सूर्य और पृथ्वी के बीच की दुरी के बराबर ही निकलती है।

अब इसे आज का मानव कोई संयोग भी बोल सकता है या बोल दे कि यह तुक्का ही है।

लेकिन धर्म के जानकर बताते हैं कि हनुमान जी ने बचपन में ही यह दूरी तय कर ली थी, जब वह सूर्य को फल समझकर खाने के लिए पृथ्वी से ही सूर्य पर पहुँच गये थे।

अब इस सच को आप मानें या ना मानें यह तो आपके ऊपर निर्भर करता है लेकिन इससे यह तो सिद्ध हो जाता है कि आज भी धर्म, विज्ञान से कहीं आगे है। धर्म कहता है कि ब्रह्माण्ड में एक नहीं हजारों सूरज, चन्द्रमा हैं और तो औऱ अनगिनत ब्रह्माण की थ्योरी भी वैज्ञानिक रामायण से लेते हैं।

आसान भाषा में देखा जाये तो भारतीय संस्कृति जिसमें वेदों का समावेश है वह आधुनिक विज्ञान से बहुत ऊपर है और इसी कारण से आज भी वेद की कई रिचायें वैज्ञानिकों को समझ नहीं आती हैं।।

From indiannova.in


जम्बू द्वीप - jamboo dweep

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Public
May 02, 2016

जम्बू द्वीप
मंगोलिया था हिन्दू राष्ट्र...!
जम्बू द्वीप में 9 देश है:- इलावृत, भद्राश्व, किंपुरुष, भारत, हरि, केतुमाल, रम्यक, कुरु और हिरण्यमय। पुराणों में जंबूद्वीप के 6 पर्वत बताए गए हैं- हिमवान, हेमकूट, निषध, नील, श्वेत और श्रृंगवान। इलावृत जम्बू द्वीप के बीचोबीच स्थित है।
इस इलावृत के मध्य में स्थित है सुमेरू पर्वत। इलावृत के दक्षिण में कैलाश पर्वत के पास भारतवर्ष, पश्चिम में केतुमाल (ईरान के तेहरान से रूस के मॉस्को तक), पूर्व में हरिवर्ष (जावा से चीन तक का क्षेत्र) और भद्राश्चवर्ष (रूस के कुछ क्षेत्र), उत्तर में रम्यक वर्ष (रूस के कुछ क्षेत्र), हिरण्यमय वर्ष (रूस के कुछ क्षेत्र) और उत्तर कुरुवर्ष (रूस के कुछ क्षेत्र) नामक देश हैं।
पुराणों के अनुसार इलावृत चतुरस्र है। वर्तमान भूगोल के अनुसार पामीर प्रदेश का मान 150X150 मील है अतः चतुरस्र होने के कारण यह 'पामीर' ही इलावृत है। इलावृत से ही ऐरल सागर, ईरान आदि क्षेत्र प्रभावित हैं।
आज के किर्गिस्तान, उज्बेकिस्तान, तजाकिस्तान, मंगोलिया, तिब्बत, रशिया और चीन के कुछ हिस्से को मिलाकर इलावृत बनता है। मूलत: यह प्राचीन मंगोलिया और तिब्बत का क्षेत्र है। एक समय किर्गिस्तान और तजाकिस्तान रशिया के ही क्षेत्र हुआ करते थे। सोवियत संघ के विघटन के बाद ये क्षेत्र स्वतंत्र देश बन गए।
आज यह देश मंगोलिया में 'अतलाई' नाम से जाना जाता है। 'अतलाई' शब्द इलावृत का ही अपभ्रंश है। सम्राट ययाति के वंशज क्षत्रियों का संघ भारतवर्ष से जाकर उस इलावृत देश में बस गया था। उस इलावृत देश में बसने के कारण क्षत्रिय ऐलावत (अहलावत) कहलाने लगे।
इस देश का नाम महाभारतकाल में ‘इलावृत’ ही था। जैसा कि महाभारत में लिखा है कि श्रीकृष्णजी उत्तर की ओर कई देशों पर विजय प्राप्त करके ‘इलावृत’ देश में पहुंचे। इस स्थान को देवताओं का निवास-स्थान माना जाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने देवताओं से ‘इलावृत’ को जीतकर वहां से भेंट ग्रहण की।
इलावृत देश के मध्य में स्थित सुमेरू पर्वत के पूर्व में भद्राश्ववर्ष है और पश्चिम में केतुमालवर्ष है। इन दोनों के बीच में इलावृतवर्ष है। इस प्रकार उसके पूर्व की ओर चैत्ररथ, दक्षिण की ओर गंधमादन, पश्चिम की ओर वैभ्राज और उत्तर की ओर नंदन कानन नामक वन हैं, जहां अरुणोद, महाभद्र, असितोद और मानस (मानसरोवर)- ये चार सरोवर हैं। माना जाता है कि नंदन कानन का क्षेत्र ही इंद्र का लोक था जिसे देवलोक भी कहा जाता है। महाभारत में इंद्र के नंदन कानन में रहने का उल्लेख मिलता है।
सुमेरू के दक्षिण में हिमवान, हेमकूट तथा निषध नामक पर्वत हैं, जो अलग-अलग देश की भूमि का प्रतिनिधित्व करते हैं। सुमेरू के उत्तर में नील, श्वेत और श्रृंगी पर्वत हैं, वे भी भिन्न-भिन्न देशों में स्थित हैं।
( इस पेज पर सभी पोस्ट में तर्कहीन अलौकिक बातों को छोडकर ऐतिहासिक तथ्य ही पकडें ।)
पहले इल : ब्रह्मा के पुत्र अत्रि से चंद्रमा का जन्म हुआ। चंद्रमा से बुध का जन्म हुआ। बुध का विवाह स्वायंभुव मनु की पुत्री इल से हुआ। इल-बुध सहवास से पुरुरवा हुए। पुरुरवा के कुल में ही भरत और कुरु हुए। कुरु से कुरुवंश चला। भारत के समस्त चन्द्रवंशी क्षत्रिय पुरुरवा की ही संतति माने जाते हैं।
ऐल लोगों के साथ उत्तर कुरु लोगों का भी एक बड़ा भाग था। ऐल ही कुरु देश (पेशावर के आसपास का इलाका) में बसने के कारण कुरु कहलाते थे। इतिहासकारों के अनुसार ये ऐल ही पुरुरवा (पुरु) था। यूनान और यहूदियों के पुराने ग्रंथों में ऐल के पुत्रों का जिक्र मिलता है। इस ऐल के नाम पर ही इलावृत देश रखा गया।
दूसरे इल : इस देश (इलावृत) का नाम दक्ष प्रजापति की पुत्री इला के क्षत्रिय पुत्रों से आवृत होने के कारण इलावृत रखा गया। आज यह देश मंगोलिया में 'अतलाई' नाम से जाना जाता है। 'अतलाई' शब्द 'इलावृत' का ही अपभ्रंश है। सम्राट ययाति के वंशज क्षत्रियों का संघ भारतवर्ष से जाकर उस इलावृत देश में आबाद हो गया। उस इलावृत देश में बसने के कारण क्षत्रिय ऐलावत (अहलावत) कहलाने लगे।
तीसरे इल : वायु पुराण के अनुसार त्रेतायुग के प्रारंभ में ब्रह्मा के पुत्र स्वायंभुव मनु के दूसरे पुत्र प्रियवृत ने विश्वकर्मा की पुत्री बहिर्ष्मती से विवाह किया था। प्रियवृत के पुत्र जम्बू द्वीप के राजा अग्नीन्ध्र के 9 पुत्र हुए- नाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्य, हिरण्यमय, कुरु, भद्राश्व और केतुमाल। राजा आग्नीध ने उन सब पुत्रों को उनके नाम से प्रसिद्ध भूखंड दिया। इलावृत को मिला हिमालय के उत्तर का भाग। नाभि को मिला दक्षिण का भाग।
चौथे इल : वैवस्वत मनु के 10 पुत्र थे- इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यंत, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध। पुराणों में वैवस्वत मनु का भी स्थान सुमेर पर्वत बताया जाता है, जो कि इलावृत के मध्य में कहा गया है।
संजय कुमार

Friday, May 6, 2016

।निर्वाणषटकम्।। from Tulsidas Ji.


।निर्वाणषटकम्।।
मनोबुद्धयहंकारचित्तानि नाहं
न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे।
न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायु-
श्चिदानन्दरूपः शिवोSहं शिवोSहम् ।।१।।
मैं मन नहीं हूँ और न मैं बुद्धि, अहंकार या चित्त ही हूँ। मैं न श्रोत्र हूँ और न
जिह्वा, नासिका या नेत्र हूँ। मैं आकाश नहीं हूँ और वायु अग्नि, जल एवं
पृथ्वी भी नहीं हूँ। मैं चिदानंद-रूप हूँ; मैं शिव हूँ ।।1।।
न च प्राणसंज्ञो न वै पंचवायु-
र्न वा सप्तधातुर्न वा पंचकोशः।
न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायु
चिदानंदरूपः शिवोSहं शिवोSहम् ।।२।।
मैं प्राण-संज्ञा नहीं हूँ, मैं पंचवायु नहीं हूँ। मैं सप्तधातु नहीं और न पंचकोश
ही हूँ। मैं हाथ-पाँव, वाणी, गुदा या जननेन्द्रिय भी नहीं हूँ। मैं चिदानंदरूप
हूँ। मैं शिव हूँ; मैं शिव हूँ ।।2।।
न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ
मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्ष-
श्चिदानंदरूपः शिवोSहं शिवोSहम् ।।३।।
मुझमें न द्वेष है, न राग; न लोभ, न मोह; न मद है, न मत्सर। मुझमें धर्म नहीं है, अर्थ
भी नहीं है। न इच्छा है, न मोक्ष ही है। मैं चिदानंदरूप हूँ। मैं शिव हूँ; मैं शिव हूँ
।।3।।
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं
न मंत्रो न तीर्थम् न वेदा न यज्ञा:।
अहं भोजनं नैव भोज्यम् न भोक्ता
चिदानंदरूपः शिवोSहं शिवोSहम् ।।४।।
मैं न पुण्य हूँ, न पाप; न सुख हूँ, न दुःख हूँ। मैं मन्त्र नहीं हूँ, मैं तीर्थ नहीं हूँ। मैं वेद
नहीं हूँ, यज्ञ भी नहीं हूँ। मैं न भोजन हूँ, न भोजन का कर्म हूँ और न भोजन
करने वाला हूँ। मैं चिदानंद-रूप हूँ। मैं शिव हूँ; मैं शिव हूँ ।।4।।
न मृत्युर्न शङ्का न मे जातिभेदः
पिता नैव मे नैव माता च जन्म।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्य-
श्चिदानानंदरूपः शिवोSहं शिवोSहम् ।।५।।
मेरे लिए न मृत्यु है, न शङ्का है; न जाति-भेद है, न माता-पिता हैं। मेरे लिए
जन्म नहीं है। मैं बंधु नहीं हूँ, मित्र नहीं हूँ, गुरु नहीं हूँ, शिष्य नहीं हूँ। मैं
चिदानंदरूप हूँ। मैं शिव हूँ; मैं शिव हूँ ।।5।।
अहं निर्विकल्पो निराकार-रूपो
विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।
न चासंगतं नैव मुक्तिर्न मेय-
श्चिदानन्दरूपः शिवोSहं शिवोSहम् ।।६।।
मैं विचारहीन हूँ; आकारहीन हूँ। सर्वशक्तिमान हूँ, सर्वत्र हूँ।
सभी इन्द्रियों के परे, सबसे अलिप्त हूँ। मेरे लिए मुक्ति भी कुछ नहीं है। मैं
चिदानंद-रूप हूँ। मैं शिव हूँ; मैं शिव हूँ ।।6।।

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