Saturday, December 20, 2014

सन्ध्योपासना

!!!! -----: सन्ध्योपासना :----!!!!
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वेद ने सन्धि वेला में सन्ध्या का विधान किया है। प्रातःकाल और सायंकाल दोनों सन्धिवेलाओं में परमात्मा का ध्यान करना चाहिए। 

वेदमन्त्र कहता हैः----

"उप त्वाग्ने दिवे दिवे दोषावस्तर्धिया वयम्।
नमो भरन्त एमसि ।। (ऋग्वेदः---1.1.7)

हे प्रकाशस्वरूप ! प्रतिदिन प्रातः और सायं अपनी बुद्धि से हम उपासक जन नमस्कार को धारण करते हुए आपके समीप प्राप्त होते हैं।

"तस्मादहोरात्रस्य संयोगे सन्ध्यामुपासीत,
उद्यन्तमस्तं यान्तमादित्यमभिध्यायन् ।।"
(षड्विंश ब्राह्मण, प्रपा. 4, खण्ड-5)

इसलिए दिन और रात के संयोग में अर्थात् सूर्य के उदय और अस्त होते समय सन्ध्योपासना करें।

मनु महाराज ने लिखा हैः---

"ब्राह्मे मुहूर्ते बुध्येत धर्मार्थौ चानुचिन्तयेत् ।
कायाक्लेशाँश्च तन्मूलान् वेदतत्त्वार्थमेव च।।"
(मनु. 4.92)

ब्राह्ममुहूर्त में उठे, धर्म, अर्थ, शरीर के रोग, उनके मूल का चिन्तन करें, वेद-तत्त्वार्थ अर्थात् ईश्वर का ध्यान करें।

"उत्थायावश्यकं कृत्वा कृतशौचः समाहितः।
पूर्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत्स्वकाले चापरां चिरम्।।"
(मनु. 4.93)

उठकर आवश्यक कार्यों से निवृत्त होकर, शौच-स्नान आदि करके प्रातः तथा सायं दोनों समय की सन्ध्या में चिरकालपर्यन्त जप करता रहे।

सन्ध्या का महत्त्व दर्शाते हुए कहा गया हैः----

"न तिष्ठति तु यः पूर्वां नोपास्ते यश्च पश्चिमाम्।
स शूद्रवत् बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः ।।"
(मनु.2.103)

जो प्रातःकालीन और सायंकालीन सन्ध्या नहीं करता, वह सब द्विजकर्मों से शूद्र के समान बहिष्कार के योग्य है।

इसी प्रकार कहा गया हैः----

"सन्ध्या येन न विज्ञाता सन्ध्या येनानुपासिता।
स शूद्रवद् बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः ।।"
(मनु. )

जिसने सन्ध्या नहीं जानी और जिसने सन्ध्या का अनुष्ठान नहीं किया, वह सब द्विजकर्मियों से शूद्र के समान बहिष्कार करने के योग्य है।

"पूर्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत् सावित्रीमार्कदर्शनात्।
पश्चिमां तु समासीनः सम्गृक्षविभावनात् ।।"
(मनु. 2.101)

प्रातःकाल की सन्ध्या और गायत्री का जप सूर्य के दर्शन होने तक करे और सायंकालीन सन्ध्या तब तक करे जब तक सितारे आकाश में भली-भाँति झलकने लगें।

"ऋषयो दीर्घसन्ध्यत्वाद्दीर्घमायुरवाप्मुयुः।
प्रज्ञां यशश्च कीर्तिं च ब्रह्मवर्चसमेव च ।।"
(मनु.4.94)

ऋषियों ने चिरकालपर्यन्त सन्ध्या करने से बुद्धि, विद्या, यश, कीर्ति तथा ब्रह्मतेज को प्राप्त किया है।

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम भी सन्ध्या किया करते थे, ऐसा रामायण से सुस्पष्ट हैः---

"कौशल्या सुप्रजा राम पूर्वा सन्ध्या प्रवर्तते।
उत्तिष्ठ नरशार्दूल कर्त्तव्य दैवमाह्निकम्।।
तस्यर्षेः परमोदारं वचः श्रुत्वा नरोत्तमौ ।
स्नात्वा कृतोदकौ वीरौ जेपतुः परमं जपम्।।"
(रामायण, बा.कां. 23.3-4)

महर्षि विश्वामित्र जी अपने यज्ञ की विघ्न-निवृत्ति के लिए श्रीरामचन्द्र और लक्ष्मण जी को लेकर चले तो रात्रि व्यतीत करने के लिये एक स्थान पर ठहरे। प्रातःकाल उन्होंने श्रीराम को पुकारा और कहा, "कौशल्या की सन्तान राम ! प्रातःकाल की सन्ध्या का समय हो गया है। तुम उठो और सन्ध्या-यज्ञादि करो।"
उस ऋषि के परमोदार वचनों को सुनकर श्रीरामचन्द्र उठे और स्नान करके उन्होंने परम जप अर्थात् गायत्री का जाप किया।

माता सीता जी भी सन्ध्या करती थीं, ऐसा भी रामाय़ण से पता चलता है। हनुमान् जी जब सीता को ढूँढते हुए अशोकवाटिका में पहुँचे तो सोचने लगे कि सीता जी यदि जीवित होंगी तो सन्ध्या करने के लिए अवश्य ही नदी के किनारे आएँगी---

"सन्ध्याकालमनाः श्यामा ध्रुवमेष्यति जानकी।
नदीं चेमां शुभजलां सन्ध्यार्थे वरवर्णिनी ।।
यदि जीवति सा देवी ताराधिनिभानना ।
आगमिष्यति सावश्यमिमां शीतजलां नदीम् ।।"

श्री हनुमान् जी सोच रहे हैं कि यह सन्ध्या का समय है, सन्ध्या में मन लगाने वाली और तपे हुए सोने के समान शोभावाली जनक कुमारी सुन्दरी सीता सन्ध्याकालिक उपासना के लिए इस पुण्यसलिला नदी के तट पर अवश्य पधारेंगी। यदि चन्द्रमुखी सीता देवी जीवित हैं तो वे इस शीतल जलवाली सरिता के तट पर अवश्य पदार्पण करेंगी।

इसी प्रकार महाभारत के अनुसार योगेश्वर श्रीकृष्ण भी सन्ध्या-उपासना किया करते थेः---

"अवतीर्य रथात् तूर्णं कृत्वा शौचं यथाविधि ।
रथमोचनमादिश्य सन्ध्यामुपविवेश ह ।।"
(महाभारत, उद्योगपर्व-84.21)

जब सूर्यास्त होने लगा, तब श्रीकृष्ण शीघ्र ही रथ से उतरकर, घोडों को रथ से खोलने की आज्ञा देकर, शौच-स्नान करके विधिपूर्वक सन्ध्योपासना करने लगे।

गीता-उपदेश

Photo: !!!!-----: गीता-उपदेश :-----!!!!
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"कर्षयन्तः   शरीरस्थं    भूतग्रामममचेतसः ।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान् ।।"
(गीता--17.6)

अन्वयः--(ये) अचेतसः शरीरस्थम् भूतग्रामम् अन्तःशरीरस्थम् माम् च एव कर्षयन्तः (तपः तप्यन्ते) तान् आसुर-निश्चयान् विद्धि ।

पदार्थः---(अचेतसः) अचेतन से (शरीरस्थम्) शरीर में स्थित (भूतग्रामम्) पञ्चतत्त्वादि अंगों को, (अन्तःशरीरस्थम्) हृदय में स्थित (माम्) मुझको परमात्मा को, (च) और, (एव) ही, (कर्षयन्तः) खिंचते है, चोरी करते हैं, ((तान् ) उनको, (आसुर-निश्चयान्) आसुर निश्चय (वृत्ति, स्वभाव) वाले को, (विद्धि) जानो ।

भावार्थः----जो विवेक-शून्य लोग परमात्मा के दिए हुए पृथिवी, अप्, तेज आदि शरीरस्थ भूतों को व्यर्थ उलटे मार्ग में घसीटते (ले जाते)  हैं और मैं जो महाभारत-साम्राज्य की स्थापनार्थ उनके अन्दर प्रविष्ट होकर मानव-मात्र के कल्याण के लिए उनसे समय शक्ति का दान माँगता है हूँ, वे प्रभु की तथा मुझ सरीखे प्रभु-भक्तों की चोरी करते हैं तथा प्रभु का और प्रभु-भक्तों का माल न जाने कहाँ-कहाँ घसीट ले जाते हैं, उन सबको आसुर निश्चय वाला जान ।

भाव यह है कि विषय-वासनाओं की तृप्ति के लिए लोग कम घोर तप नहीं करते है, कम कष्ट सहन नहीं करते। यदि उतना ही तप वे प्रभु की भक्ति अथवा तदर्थ प्रभु-भक्तों के अनुकरण के लिए करें तो विश्व का कल्याण हो जावे।

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लौकिक संस्कृत गीता-उपदेश 

"कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्रामममचेतसः ।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान् ।।"
(गीता--17.6)

अन्वयः--(ये) अचेतसः शरीरस्थम् भूतग्रामम् अन्तःशरीरस्थम् माम् च एव कर्षयन्तः (तपः तप्यन्ते) तान् आसुर-निश्चयान् विद्धि ।

पदार्थः---(अचेतसः) अचेतन से (शरीरस्थम्) शरीर में स्थित (भूतग्रामम्) पञ्चतत्त्वादि अंगों को, (अन्तःशरीरस्थम्) हृदय में स्थित (माम्) मुझको परमात्मा को, (च) और, (एव) ही, (कर्षयन्तः) खिंचते है, चोरी करते हैं, ((तान् ) उनको, (आसुर-निश्चयान्) आसुर निश्चय (वृत्ति, स्वभाव) वाले को, (विद्धि) जानो ।

भावार्थः----जो विवेक-शून्य लोग परमात्मा के दिए हुए पृथिवी, अप्, तेज आदि शरीरस्थ भूतों को व्यर्थ उलटे मार्ग में घसीटते (ले जाते) हैं और मैं जो महाभारत-साम्राज्य की स्थापनार्थ उनके अन्दर प्रविष्ट होकर मानव-मात्र के कल्याण के लिए उनसे समय शक्ति का दान माँगता है हूँ, वे प्रभु की तथा मुझ सरीखे प्रभु-भक्तों की चोरी करते हैं तथा प्रभु का और प्रभु-भक्तों का माल न जाने कहाँ-कहाँ घसीट ले जाते हैं, उन सबको आसुर निश्चय वाला जान ।

भाव यह है कि विषय-वासनाओं की तृप्ति के लिए लोग कम घोर तप नहीं करते है, कम कष्ट सहन नहीं करते। यदि उतना ही तप वे प्रभु की भक्ति अथवा तदर्थ प्रभु-भक्तों के अनुकरण के लिए करें तो विश्व का कल्याण हो जावे।

गीता-उपदेश

Photo: !!!---: वेद-परिचय :---!!!
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भागः---1

हिन्दू धर्म कोश के आधार पर (लेखकः--राजबली पाण्डेय)
 
वेद शब्द की व्युत्पत्ति चार प्रकार से की जाती है, जिसका विश्लेषण स्वामी दयानन्द ने "ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका" में की हैः---(क) विद ज्ञाने, (ख) विद सत्तायाम, (ग) विद्लृ लाभे, (घ) विद विचारणे।

तदनुसार, "विदन्ति जानन्ति, विद्यन्ते भवन्ति, विन्दन्ते लभन्ते, विन्दन्ति विचारयन्ति सर्वे मनुष्याः सत्यविद्याम् यैर्येषु वा तथा विद्वांसश्च भवन्ति, ते वेदाः"

अर्थात् जिनसे सभी मनुष्य सत्य विद्या को जानते हैं अथवा प्राप्त करते हैं, अथवा विचारते हैं, अथवा विद्वान् होते हैं, अथवा सत्य विद्या की प्राप्ति के लिए जिनमें प्रवृत्त होते हैं, उनको वेद कहते हैं।"

परन्तु यहाँ पर जिस ज्ञान का संकेत किया गया है, वह सामान्य ज्ञान नहीं है। यद्यपि वैदिक साहित्य में सामान्य ज्ञान का अभाव नहीं। यहाँ ज्ञान का अभिप्राय ईश्वरीय ज्ञान से हैं, जिसका साक्षात्कार मानव जीवन के प्रारम्भ में ऋषियों को हुआ था। मनु महाराज ने (1.7) में वेद को सर्वज्ञानमय कहा हैः--- "सर्वज्ञानमयो हि सः"

"वेद" शब्द का प्रयोग पूर्व काल में सम्पूर्ण वैदिक-वाङ्मय के अर्थ में होता था, जिनमें संहिता, आरण्यक, ब्राह्मण और उपनिषद् सम्मिलित थे।  तद्यथाः--मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्।" अर्थात् मन्त्र और ब्राह्मणों का सम्मिलित नाम वेद है। यहाँ ब्राह्मण में आरण्यक और उपनिषद् भी सम्मिलित है। 

किन्तु आगे चलकर "वेद" शब्द केवल चार वेद-संहिताओं यथा---ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ही द्योतक रह गया। ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् वैदिक-वाङ्मय के अंग होते हुए भी मूल वेदों से पृथक् मान लिये गये। 

सायणाचार्य ने तैत्तिरीय-संहिता की भूमिका में इस तथ्य का स्पष्टीकरण किया हैः---"यद्यपि मन्त्रब्राह्मणात्मको वेदः तथापि ब्राह्मणस्य मन्त्रव्याख्यानस्वरूपत्वाद् मन्त्रा एवादौ समाम्नाताः।" अर्थात् यद्यपि मन्त्र और ब्राह्मण दोनों का नाम वेद है, किन्तु ब्राह्मण ग्रन्थों के मन्त्र के व्याख्यान रूप होने के कारण (उनका स्थान वेदों के पश्चात् आता है और) आदि वेदमन्त्र ही है। (इस लेख का विस्तार से अध्ययन हमारा लेख---वेद-सञ्ज्ञा-मीमांसा---कर सकते हैं।)

इस वैदिक-ज्ञान का साक्षात्कार ऋषियों को हुआ था। जिस व्यक्ति ने अपने योग और तपोबल से इस ज्ञान को प्राप्त किया, वे ऋषि कहलाये। ये स्त्री और पुरुष दोनों थे। वैदिक-ज्ञान जिन ऋचाओं अथवा वाक्यों द्वारा हुआ, उनको मन्त्र कहते हैं।

मन्त्र तीन प्रकार के हैंः---(क) ज्ञानार्थक, (ख) विचारार्थक और (ग) सत्कारार्थक। (इसका विस्तार से विश्लेषण हमारा लेख----देवतोपपरीक्षा---पर किया गया है, आप उस लेख को पढ सकते हैं।) मन्त्र शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार से होती हैः--

(क) दिवादिगणीय मन् धातु (ज्ञानार्थक, प्रतिपादक) से ष्ट्रन् प्रत्यय करने से "मन्त्र" शब्द सिद्ध होता हैः--"मन्यते (ज्ञायते) ईश्वरादेशः अनेनेति मन्त्रः।" इससे ईश्वर के आदेश का ज्ञान होता है, इसलिए इसको मन्त्र कहते हैं।

(ख) तनादिगण की मन् धातु (विचारार्थक) से ष्ट्रन् प्रत्यय लगाने से भी मन्त्र शब्द सिद्ध होता हैः---"मन्यते (विचार्यते) ईश्वरादेशो येन स मन्त्रः" अर्थात् जिसके द्वारा ईश्वर के आदेशों का विचार हो, वह मन्त्र है।

(ग) तनादिगणीय मन् (सत्कारार्थक) धातु से भी ष्ट्रन् प्रत्यय लगाने से भी मन्त्र शब्द सिद्ध होता हैः--"मन्यते (सत्क्रियते) देवताविशेषः अनेनेति मन्त्रः।" अर्थात् जिसके द्वारा देवता विशेष का सत्कार हो, उसे मन्त्र कहते हैं।

वेदार्थ जानने के लिए ये तीन व्युत्पत्तियाँ आवश्यक है। 

वेदों का वर्गीकरण दो प्रकार से होता हैः---(क) त्रिविध और (ख) चतुर्विध। 

(क) सम्पूर्ण वेदों को तीन भागों में बाँटा गया हैः---ऋक्, यजुः, तथा साम। इन्हीं तीनों का संयुक्त नाम त्रयी है। ऋक् का अर्थ हैः--प्रार्थना अथवा स्तुति। यजुष् का अर्थ है--यज्ञ-यागादि का विधान। साम का अर्थ हैः--शान्ति अथवा मंगलगान करना। इसी के आधार पर प्रथम तीन संहिताओं के नाम ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद पडे। 

(ख) वेदों का बहुप्रचलित और प्रसिद्ध विभाजन चतुर्विध है। पहले वैदिक मन्त्र मिले जुले और अविभक्त थे। ऋषि कृष्ण द्वैपायन ने यज्ञार्थ उनका वर्गीकरण चार भागों में कर दिया, इसी कारण उनका नाम वेदव्यास पडाः--ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद। ऋक्, यजुष् तथा साम को पृथक्-पृथक् करके प्रथम तीन वेद बना दिये गये, किन्तु वैदिक वचनों में इनके अतिरिक्त भी बहुत-सी सामग्री थी, जिनका सम्बन्ध धर्म, दर्शन के अतिरिक्त लौकिक कृत्यों तथा अभिचारों  से था। इन सबका समावेश अथर्ववेद में कर दिया गया। इस चतुर्विध विभाजन का उल्लेख अथर्ववेद--10.4.20 में मिलता हैः---

"यस्मादृचो अयातक्षन् यजुर्यस्मादपकषन्।
सामानि यस्य लोमानि अथर्वाङ्गिरसो मुखम्।
स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः।।"

भाष्यकार महीधर ने इस बात का उल्लेख किया है कि वेदों का विभाजन वेदव्यास ऋषि ने किया थाः---"तत्रादौ ब्रह्मपरम्परया प्राप्तं वेदं वेदव्यासो मन्दमतीन् मनुष्यान् विचिन्त्य तत्कृपया चतुर्धा व्यस्य ऋग्यजुःसामाथर्वाख्यांश्चतुरो वेदान् पैल-वैशम्पायन-जैमिनि-सुमन्तुभ्यः क्रमादुपदिदेश।"

इसका शेष भाग अग्रिम अंक में दिया जायेगा।

धन्यवादः

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"तपस्विभ्योsधिको योगी ज्ञानिभ्योsपि मतोsधिकः।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।।"
(गीता---6.46)

अन्वयः---हे अर्जुन ! योगी तपस्विभ्यः अधिकः ज्ञानिभ्यः अपि अधिकः मतः योगी कर्मिभ्यः अपि च अधिकः तस्माद् योगी भव।।

व्याख्याः---इस श्लोक में रहस्य समझने के लिए कर्मी और कर्मयोगी इन दो में भेद समझना आवश्यक है, फिर सब निर्मल हो जायेगा। एक मनुष्य अध्यापक, सैनिक अथवा व्यापारी है। वह अध्यापन, न्याय-रक्षा अथवा व्यापार करते समय कर्मयोगी होता है। कर्मयोग के समय विपरीत-से-विपरीत परिस्थितियों में भी उसका मन कर्त्तव्य-पथ से न डिगे, इसके लिए वह जो भजन, कीर्तन, जप-याग, अनुष्ठानादि कर्म करता है, उस समय वह कर्मी होता है। सत्य आदि की महिमा स्वाध्याय द्वारा जानता है, उस समय वह ज्ञानी होता है। अपने कर्त्व्य-पालन में क्षमता उत्पन्न करने के लिए वह शीतोष्णादि द्वन्द्व-सहन रूप तप करता है। इन सबकी परीक्षा अन्त में कर्मयोग में होती है। यदि वहाँ वह सत्य मार्ग से नहीं डिगा तो उसके ज्ञान, तप तथा कर्म सच्चे हैं अन्यथा नहीं।

इसलिए कहा---हे अर्जुन ! योगी (कर्मयोगी) का स्थान तपस्वियों से अधिक है, ज्ञानियों से भी अधिक माना गया है, कर्मियों से भी अधिक है। इसलिए तू योगी बन (और दुष्टों को मारकर क्षात्र-कर्त्तव्य का पालन कर।)

GITA 8.28

Photo: !!!---: स्वाध्याय :---!!!
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वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलम् प्रदिष्टम् l 
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ll२८ll
(गीता--8.28)

अन्वयः---वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु च एव यत् पुण्यफलम् प्रदिष्टम्, योगी  इदं विदित्वा तत् सर्वम् अत्येति परम् आद्यम् स्थानम् च उपैति ।।

अर्थः----वेदों में, यज्ञ और तप करने से तथा विविध दानों से पुण्य का जो जो पृथक्-पृथक् फल बताया है, उन सबको योगी इस तत्त्व को जानकर उपेक्षा-पूर्वक छोड देता है तथा वेद के बताए हुए पर-ब्रह्म-प्राप्ति-रूप एक ही महायज्ञ को निष्काम रूप से करता है तो उन सब कर्मों के फल से जो बडा फल पाता है, वह फल हैः---आत्मा की अपनी आद्य अर्थात् शुद्ध आसक्ति-बन्धनरहित अवस्था में आ जाना तब वह इस स्थान को पा लेता है।

भाव यह है कि वेदादिशास्त्रों में ब्रह्म-प्राप्ति से लेकर साधारण सकाम दान तक सब कर्मों के फलों का निर्देश किया है। सो सकाम कर्मों से जीव छोटे-छोटे नाना रूप धारण करता है, किन्तु रहता है बन्धन में । किन्तु निष्काम ब्रह्म-सेवा से योगी जीवात्मा के असली आसक्ति-मुक्त रूप में आ जाता है।

 

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वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलम् प्रदिष्टम् l 
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ll२८ll
(गीता--8.28)

अन्वयः---वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु च एव यत् पुण्यफलम् प्रदिष्टम्, योगी इदं विदित्वा तत् सर्वम् अत्येति परम् आद्यम् स्थानम् च उपैति ।।

अर्थः----वेदों में, यज्ञ और तप करने से तथा विविध दानों से पुण्य का जो जो पृथक्-पृथक् फल बताया है, उन सबको योगी इस तत्त्व को जानकर उपेक्षा-पूर्वक छोड देता है तथा वेद के बताए हुए पर-ब्रह्म-प्राप्ति-रूप एक ही महायज्ञ को निष्काम रूप से करता है तो उन सब कर्मों के फल से जो बडा फल पाता है, वह फल हैः---आत्मा की अपनी आद्य अर्थात् शुद्ध आसक्ति-बन्धनरहित अवस्था में आ जाना तब वह इस स्थान को पा लेता है।

भाव यह है कि वेदादिशास्त्रों में ब्रह्म-प्राप्ति से लेकर साधारण सकाम दान तक सब कर्मों के फलों का निर्देश किया है। सो सकाम कर्मों से जीव छोटे-छोटे नाना रूप धारण करता है, किन्तु रहता है बन्धन में । किन्तु निष्काम ब्रह्म-सेवा से योगी जीवात्मा के असली आसक्ति-मुक्त रूप में आ जाता है।

Thursday, December 18, 2014

गौ निरपराध

मा गामनागामदितिं वधिष्ट।" (ऋग्वेदः--8.101.15)

अर्थः---((अनागाम्) निरपराध (अदितिम्) अहन्तव्या अर्थात् न मारने योग्य (गाम्) गौ को, (मा वधिष्ट) कभी मत मार।

गौ निरपराध होती है, ममतामयी, करुणामयी होती है, वह अहन्तव्या है, उसे कभी नहीं मारना चाहिए, अन्यथा कुल का नाश हो जाएगा। जो आज मार रहे हैं, वे पाप के भागी बन रहे हैं।

पशु-पक्षियों से सी

पशु-पक्षियों से सीखः---
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आचार्य चाणक्य ने अपनी नीति में मनुष्य को परामर्श दिया है कि उसे जीवन में सफलता के लिए पशु और पक्षियों से कुछ गुण सीखने चाहिएँ---

सिंहादेकं बकादेकं शिक्षेच्चत्वारि कुक्कुटात्।
वायसात् पञ्चशिक्षेच्च षट्शुनस्त्रीणि गर्दभात्।।

अर्थः--सिंह से एक, बगुले से एक, मुर्गे से चार, कौए से पाँच, कुत्ते से छह और गधे से तीन गुण सीखने चाहिएँ।

य एतान् विंशति गुणानाचरिष्यति मानवः।
सर्वावस्थासु कार्येष्वजेयः सो भविष्यति।।

अर्थाः--जो मनुष्य इन बीस गुणों के ऊपर आचरण करेगा, वह किसी भी अवस्था में और किसी भी कार्य में असफल नहीं हो सकता।

सिंह से सीखेः---

प्रभूतं कार्यमल्पं वा यन्नरः कर्तुमिच्छति।
सर्वारम्भेण तत् कार्यं सिंहादेकं प्रचक्षते।।

अर्थः---चाहे काम बडा हो, चाहे छोटा, मनुष्य जिस काम को करना चाहता है, उसे पूरी शक्ति और तैयारी से करना चाहिए। यह एक गुण जीवन में शेर से सीखे।

शेर चाहे हाथी पर आक्रमण करे और चाहे खरगोश पर, वह आक्रमण पूरी शक्ति से ही करेगा।

सन्ध्योपासना

!!!! -----: सन्ध्योपासना :----!!!!
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वेद ने सन्धि वेला में सन्ध्या का विधान किया है। प्रातःकाल और सायंकाल दोनों सन्धिवेलाओं में परमात्मा का ध्यान करना चाहिए। 

वेदमन्त्र कहता हैः----

"उप त्वाग्ने दिवे दिवे दोषावस्तर्धिया वयम्।
नमो भरन्त एमसि ।। (ऋग्वेदः---1.1.7)

हे प्रकाशस्वरूप ! प्रतिदिन प्रातः और सायं अपनी बुद्धि से हम उपासक जन नमस्कार को धारण करते हुए आपके समीप प्राप्त होते हैं।

"तस्मादहोरात्रस्य संयोगे सन्ध्यामुपासीत,
उद्यन्तमस्तं यान्तमादित्यमभिध्यायन् ।।"
(षड्विंश ब्राह्मण, प्रपा. 4, खण्ड-5)

इसलिए दिन और रात के संयोग में अर्थात् सूर्य के उदय और अस्त होते समय सन्ध्योपासना करें।

मनु महाराज ने लिखा हैः---

"ब्राह्मे मुहूर्ते बुध्येत धर्मार्थौ चानुचिन्तयेत् ।
कायाक्लेशाँश्च तन्मूलान् वेदतत्त्वार्थमेव च।।"
(मनु. 4.92)

ब्राह्ममुहूर्त में उठे, धर्म, अर्थ, शरीर के रोग, उनके मूल का चिन्तन करें, वेद-तत्त्वार्थ अर्थात् ईश्वर का ध्यान करें।

"उत्थायावश्यकं कृत्वा कृतशौचः समाहितः।
पूर्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत्स्वकाले चापरां चिरम्।।"
(मनु. 4.93)

उठकर आवश्यक कार्यों से निवृत्त होकर, शौच-स्नान आदि करके प्रातः तथा सायं दोनों समय की सन्ध्या में चिरकालपर्यन्त जप करता रहे।

सन्ध्या का महत्त्व दर्शाते हुए कहा गया हैः----

"न तिष्ठति तु यः पूर्वां नोपास्ते यश्च पश्चिमाम्।
स शूद्रवत् बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः ।।"
(मनु.2.103)

जो प्रातःकालीन और सायंकालीन सन्ध्या नहीं करता, वह सब द्विजकर्मों से शूद्र के समान बहिष्कार के योग्य है।

इसी प्रकार कहा गया हैः----

"सन्ध्या येन न विज्ञाता सन्ध्या येनानुपासिता।
स शूद्रवद् बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः ।।"
(मनु. )

जिसने सन्ध्या नहीं जानी और जिसने सन्ध्या का अनुष्ठान नहीं किया, वह सब द्विजकर्मियों से शूद्र के समान बहिष्कार करने के योग्य है।

"पूर्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत् सावित्रीमार्कदर्शनात्।
पश्चिमां तु समासीनः सम्गृक्षविभावनात् ।।"
(मनु. 2.101)

प्रातःकाल की सन्ध्या और गायत्री का जप सूर्य के दर्शन होने तक करे और सायंकालीन सन्ध्या तब तक करे जब तक सितारे आकाश में भली-भाँति झलकने लगें।

"ऋषयो दीर्घसन्ध्यत्वाद्दीर्घमायुरवाप्मुयुः।
प्रज्ञां यशश्च कीर्तिं च ब्रह्मवर्चसमेव च ।।"
(मनु.4.94)

ऋषियों ने चिरकालपर्यन्त सन्ध्या करने से बुद्धि, विद्या, यश, कीर्ति तथा ब्रह्मतेज को प्राप्त किया है।

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम भी सन्ध्या किया करते थे, ऐसा रामायण से सुस्पष्ट हैः---

"कौशल्या सुप्रजा राम पूर्वा सन्ध्या प्रवर्तते।
उत्तिष्ठ नरशार्दूल कर्त्तव्य दैवमाह्निकम्।।
तस्यर्षेः परमोदारं वचः श्रुत्वा नरोत्तमौ ।
स्नात्वा कृतोदकौ वीरौ जेपतुः परमं जपम्।।"
(रामायण, बा.कां. 23.3-4)

महर्षि विश्वामित्र जी अपने यज्ञ की विघ्न-निवृत्ति के लिए श्रीरामचन्द्र और लक्ष्मण जी को लेकर चले तो रात्रि व्यतीत करने के लिये एक स्थान पर ठहरे। प्रातःकाल उन्होंने श्रीराम को पुकारा और कहा, "कौशल्या की सन्तान राम ! प्रातःकाल की सन्ध्या का समय हो गया है। तुम उठो और सन्ध्या-यज्ञादि करो।"
उस ऋषि के परमोदार वचनों को सुनकर श्रीरामचन्द्र उठे और स्नान करके उन्होंने परम जप अर्थात् गायत्री का जाप किया।

माता सीता जी भी सन्ध्या करती थीं, ऐसा भी रामाय़ण से पता चलता है। हनुमान् जी जब सीता को ढूँढते हुए अशोकवाटिका में पहुँचे तो सोचने लगे कि सीता जी यदि जीवित होंगी तो सन्ध्या करने के लिए अवश्य ही नदी के किनारे आएँगी---

"सन्ध्याकालमनाः श्यामा ध्रुवमेष्यति जानकी।
नदीं चेमां शुभजलां सन्ध्यार्थे वरवर्णिनी ।।
यदि जीवति सा देवी ताराधिनिभानना ।
आगमिष्यति सावश्यमिमां शीतजलां नदीम् ।।"

श्री हनुमान् जी सोच रहे हैं कि यह सन्ध्या का समय है, सन्ध्या में मन लगाने वाली और तपे हुए सोने के समान शोभावाली जनक कुमारी सुन्दरी सीता सन्ध्याकालिक उपासना के लिए इस पुण्यसलिला नदी के तट पर अवश्य पधारेंगी। यदि चन्द्रमुखी सीता देवी जीवित हैं तो वे इस शीतल जलवाली सरिता के तट पर अवश्य पदार्पण करेंगी।

इसी प्रकार महाभारत के अनुसार योगेश्वर श्रीकृष्ण भी सन्ध्या-उपासना किया करते थेः---

"अवतीर्य रथात् तूर्णं कृत्वा शौचं यथाविधि ।
रथमोचनमादिश्य सन्ध्यामुपविवेश ह ।।"
(महाभारत, उद्योगपर्व-84.21)

जब सूर्यास्त होने लगा, तब श्रीकृष्ण शीघ्र ही रथ से उतरकर, घोडों को रथ से खोलने की आज्ञा देकर, शौच-स्नान करके विधिपूर्वक सन्ध्योपासना करने लगे।

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