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Monday, September 5, 2016

Sri bhagvatgita- How to channel anger and lust in to benefit for soul

श्री भगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः |
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् || ३७ ||
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श्री-भगवान् उवाच– श्रीभगवान् ने कहा; कामः– विषयवासना; एषः– यह; क्रोधः– क्रोध; एषः– यह; रजो-गुण– रजोगुण से; समुद्भवः– उत्पन्न; महा-अशनः– सर्वभक्षी; महा-पाप्मा – महान पापी; विद्धि– जानो; एनम्– इसे; इह– इस संसार में; वैरिणम्– महान शत्रु |
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श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है |
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तात्पर्य : जब जीवात्मा भौतिक सृष्टि के सम्पर्क में आता है तो उसका शाश्र्वत कृष्ण-प्रेम रजोगुण की संगति से काम में परिणत हो जाता है | अथवा दूसरे शब्दों में, ईश्र्वर-प्रेम का भाव काम में उसी तरह बदल जाता है जिस तरह इमली से संसर्ग से दूध दही में बदल जाता है और जब काम की संतुष्टि नहीं होती तो यह क्रोध में परिणत हो जाता है, क्रोध मोह में और मोह इस संसार में निरन्तर बना रहता है | अतः जीवात्मा का सबसे बड़ा शत्रु काम है और यह काम ही है जो विशुद्ध आत्मा को इस संसार में फँसे रहने के लिए प्रेरित करता है | क्रोध तमोगुण का प्राकट्य है | ये गुण अपनेआपको क्रोध तथा अन्य रूपों में प्रकट करते हैं | अतः यदि रहने तथा कार्य करने की विधियों द्वारा रजोगुण को तमोगुण में न गिरने देकर सतोगुण तक ऊपर उठाया जाय तो मनुष्य को क्रोध में पतित होने से आध्यात्मिक आसक्ति के द्वारा बचाया जा सकता है |
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अपने नित्य वर्धमान चिदानन्द के लिए भगवान् ने अपने आपको अनेक रूपों में विस्तरित कर लिया और जीवात्माएँ उनके इस चिदानन्द के ही अंश हैं | उनको भी आंशिक स्वतन्त्रता प्राप्त है, किन्तु अपनी इस स्वतन्त्रता का दुरूपयोग करके जब वे सेवा को इन्द्रियसुख में बदल देती हैं तो वे काम की चपेट में आ जाती हैं | भगवान् ने इस सृष्टि की रचना जीवात्माओं के लिए इन कामपूर्ण रुचियों की पूर्ति हेतु सुविधा प्रदान करने के निमित्त की और जब जीवात्माएँ दीर्घकाल तक काम-कर्मों में फँसे रहने के कारण पूर्णतया ऊब जाती हैं, तो वे अपना वास्तविक स्वरूप जानने के लिए जिज्ञासा करने लगती हैं |
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यही जिज्ञासा वेदान्त-सूत्र का प्रारम्भ है जिसमें यह कहा गया है –अथातो ब्रह्मजिज्ञासा– मनुष्य को परम तत्त्व की जिज्ञासा करनी चाहिए | और इस परम तत्त्व की परिभाषा श्रीमद्भागवत में इस प्रकार दी गई है –जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्र्च – सारी वस्तुओं का उद्गम परब्रह्म है | अतः काम का उद्गम भी परब्रह्म से हुआ | अतः यदि काम को भगवत्प्रेम में या कृष्णभावना में परिणत कर दिया जाय, या दूसरे शब्दों में कृष्ण के लिए ही सारी इच्छाएँ हों तो काम तथा क्रोध दोनों ही आध्यात्मिक बन सकेंगे | भगवान् राम के अनन्य सेवक हनुमान ने रावण की स्वर्णपुरी को जलाकर अपना क्रोध प्रकट किया, किन्तु ऐसा करने से वे भगवान् के सबसे बड़े भक्त बन गये | यहाँ पर भी श्रीकृष्ण अर्जुन को प्रेरित करते हैं कि वे शत्रुओं पर अपना क्रोध भगवान् को प्रसन्न करने के लिए दिखाए | अतः काम तथा क्रोध कृष्णभावनामृत में प्रयुक्त होने पर हमारे शत्रु न रह कर मित्र बन जाते हैं |
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प्रश्न १ : जीवात्मा का सबसे बड़ा शत्रु कौन है? वह किस प्रकार इसके सम्पर्क में आता है ?
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प्रश्न २ : काम तथा क्रोध को किस प्रकार आध्यात्मिक बनाया जा सकता है ? कृपया उदाहरण द्वारा स्पष्ट करें |

Friday, March 27, 2015

GITA

'पवित्र गीता के बारे में कुछ विद्वानों की राय
अल्बर्ट आइंस्टीन
जब भी मैं भगवद्गीता पढ़ता हूं
तो पता चलता है कि भगवान ने किस प्रकार
संसार की रचना की है। इसके सामने सब कुछ
फीका लगता है।
महात्मा गांधी
जब भी मैं भ्रम की स्थिति में रहता हूं, जब
भी मुझे निराशा का अनुभव होता है और मुझे
लगता है कि कहीं से भी कोई उम्मीद नहीं है
तब मं भगवद्गीता की शरण में चला जाता हूं।
ऐसा करते ही मैं अथाह दु:खों के बीच
भी मुस्कराने लग जाया करता हूं। वे लोग
जो गीता का अध्ययन और मनन करते हैं
उन्हंे हमेशा शुद्ध विचार और
खुशियां मिला करती हैं और प्रत्येक दिन वे
गीता के नए अर्थ को प्राप्त करते हैं।
हर्मन हीज
भगवद्गीता का सबसे बड़ा आश्चर्य जीवन
की बुद्धिमानी के बारे में रहस्योद्घाटन
करना है जिसकी मदद से मनोविज्ञान धर्म
के रूप में फलता फू लता है।
आदि शंकर
भगवद्गीता के स्पष्ट ज्ञान को प्राप्त
करने के बाद मानव अस्तित्व के सारे
उद्देश्यों की पूर्ति हो जाती है। यह सारे
वैदिक ग्रंथों का सार तत्व है।
रुडोल्फ स्टेनर
भगवद्गीता को पूरी तरह समझने के लिए
अपनी आत्मा को इस काम में लगाना होगा।'
पवित्र गीता के बारे में कुछ विद्वानों की राय
अल्बर्ट आइंस्टीन
जब भी मैं भगवद्गीता पढ़ता हूं
तो पता चलता है कि भगवान ने किस प्रकार
संसार की रचना की है। इसके सामने सब कुछ...
फीका लगता है।
महात्मा गांधी
जब भी मैं भ्रम की स्थिति में रहता हूं, जब
भी मुझे निराशा का अनुभव होता है और मुझे
लगता है कि कहीं से भी कोई उम्मीद नहीं है
तब मं भगवद्गीता की शरण में चला जाता हूं।
ऐसा करते ही मैं अथाह दु:खों के बीच
भी मुस्कराने लग जाया करता हूं। वे लोग
जो गीता का अध्ययन और मनन करते हैं
उन्हंे हमेशा शुद्ध विचार और
खुशियां मिला करती हैं और प्रत्येक दिन वे
गीता के नए अर्थ को प्राप्त करते हैं।
हर्मन हीज
भगवद्गीता का सबसे बड़ा आश्चर्य जीवन
की बुद्धिमानी के बारे में रहस्योद्घाटन
करना है जिसकी मदद से मनोविज्ञान धर्म
के रूप में फलता फू लता है।
आदि शंकर
भगवद्गीता के स्पष्ट ज्ञान को प्राप्त
करने के बाद मानव अस्तित्व के सारे
उद्देश्यों की पूर्ति हो जाती है। यह सारे
वैदिक ग्रंथों का सार तत्व है।
रुडोल्फ स्टेनर
भगवद्गीता को पूरी तरह समझने के लिए
अपनी आत्मा को इस काम में लगाना होगा।

Wednesday, March 11, 2015

GITA SUTRA

'A Few Verses From The Gita Which Hindus Cannot Digest : 

============ The Great Irony of Hindus ============ 

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्‌॥

भावार्थ :  जो पुरुष शास्त्र विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न परमगति को और न सुख को ही । 

" He who, setting aside the ordinance of the Shâstra, acts under the impulse of desire, attains not to perfection, nor happiness, nor the Goal Supreme. "

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्‌ ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्‌ ॥ 

भावार्थ : कर्मसमुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है ।   

" Know Karma to have risen from the Veda, and the Veda from the Imperishable. Therefore the all-pervading Veda is ever centred in Yajna. "

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥

भावार्थ :  इससे तेरे लिए इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है। ऐसा जानकर तू शास्त्र विधि से नियत कर्म ही करने योग्य है ।  

" So let the Shâstra be thy authority in ascertaining what ought to be done and what ought not to be done. Having known what is said in the ordinance of the Shâstra, thou shouldst act here. "  

नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणो नोपपद्यते ।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ॥

भावार्थ :  (निषिद्ध और काम्य कर्मों का तो स्वरूप से त्याग करना उचित ही है) परन्तु नियत कर्म का स्वरूप से त्याग करना उचित नहीं है। इसलिए मोह के कारण उसका त्याग कर देना तामस त्याग कहा गया है । 

" But the renunciation of Nitya Karma (obligatory actions) is not proper. Abandonment of the same from delusion is declared to be Tâmasika. "

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्‌॥

भावार्थ :  अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है, क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता ।   

" Better is one's own Dharma, (though) imperfect, than the Dharma of another well-performed. He who does the duty ordained by (scriptures according to) his own nature incurs no evil. "

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्‌।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः॥

भावार्थ : अतएव हे कुन्तीपुत्र ! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म (प्रकृति के अनुसार शास्त्र विधि से नियत किए हुए वर्णाश्रम के धर्म और सामान्य धर्मरूप स्वाभाविक कर्म हैं उनको ही यहाँ स्वधर्म, सहज कर्म, स्वकर्म, नियत कर्म, स्वभावज कर्म, स्वभावनियत कर्म इत्यादि नामों से कहा है) को नहीं त्यागना चाहिए,क्योंकि धूएँ से अग्नि की भाँति सभी कर्म किसी-न-किसी दोष से युक्त हैं।

" One should not relinquish, O son of Kunti, the duty to which one is born, though it is attended with evil; for, all undertakings are enveloped by evil, as fire by smoke. "

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु॥

भावार्थ :  अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों में तत्परता से लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्ति रूप परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है। अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म करके परमसिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू सुन।   

" Devoted each to his own duty, man attains the highest perfection. How engaged in his own duty, he attains perfection, that hear. "  

" Om Shanti Shanti Shanti "'यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्‌॥
भावार्थ : जो पुरुष शास्त्र विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न परमगति को और न सुख को ही ।
" He who, setting aside the ordinance of the Shâstra, acts under the impulse of desire, attains not to perfection, nor happiness, nor the Goal Supreme. "
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्‌ ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्‌ ॥
भावार्थ : कर्मसमुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है ।
" Know Karma to have risen from the Veda, and the Veda from the Imperishable. Therefore the all-pervading Veda is ever centred in Yajna. "
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥
भावार्थ : इससे तेरे लिए इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है। ऐसा जानकर तू शास्त्र विधि से नियत कर्म ही करने योग्य है ।
" So let the Shâstra be thy authority in ascertaining what ought to be done and what ought not to be done. Having known what is said in the ordinance of the Shâstra, thou shouldst act here. "
नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणो नोपपद्यते ।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ॥
भावार्थ : (निषिद्ध और काम्य कर्मों का तो स्वरूप से त्याग करना उचित ही है) परन्तु नियत कर्म का स्वरूप से त्याग करना उचित नहीं है। इसलिए मोह के कारण उसका त्याग कर देना तामस त्याग कहा गया है ।
" But the renunciation of Nitya Karma (obligatory actions) is not proper. Abandonment of the same from delusion is declared to be Tâmasika. "
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्‌॥
भावार्थ : अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है, क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता ।
" Better is one's own Dharma, (though) imperfect, than the Dharma of another well-performed. He who does the duty ordained by (scriptures according to) his own nature incurs no evil. "
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्‌।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः॥
भावार्थ : अतएव हे कुन्तीपुत्र ! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म (प्रकृति के अनुसार शास्त्र विधि से नियत किए हुए वर्णाश्रम के धर्म और सामान्य धर्मरूप स्वाभाविक कर्म हैं उनको ही यहाँ स्वधर्म, सहज कर्म, स्वकर्म, नियत कर्म, स्वभावज कर्म, स्वभावनियत कर्म इत्यादि नामों से कहा है) को नहीं त्यागना चाहिए,क्योंकि धूएँ से अग्नि की भाँति सभी कर्म किसी-न-किसी दोष से युक्त हैं।
" One should not relinquish, O son of Kunti, the duty to which one is born, though it is attended with evil; for, all undertakings are enveloped by evil, as fire by smoke. "
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु॥
भावार्थ : अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों में तत्परता से लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्ति रूप परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है। अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म करके परमसिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू सुन।
" Devoted each to his own duty, man attains the highest perfection. How engaged in his own duty, he attains perfection, that hear.

Sunday, January 4, 2015

GITA FACTS

BHAGWAD GITA FACTS :

The Bhagavad Gita (श्रीमद्भगवद्गीता), means the Song of God is found as a 700 verses (solkas) text in the Bhishma Parva of the epic poem Mahabharata.
Many historians claim that Gita was not part of original Mahabharata and was later added around 200 BCE during Gupta dynasty rule.

The fact remains that Mahabharata as found today with 100,000 verses was completed several centuries later by addition of many stories told by sages to their disciples.
Original version was named ‘Jaya‘ which had 8800 verses only and was narrated by Veda Vyasa to Ganesha

Bhagavad Gita Facts, Dates and Authors:

There is also one more blind assumption that time was frozen by Krishna when he narrated 700 slokas to Arjuna.
This is based on fact that it takes atleast 2-3 hours to narrate 700 slokas and warriors on either side would not have patiently waited for Krishna and Arjuna to finish their conversation before war began on day 1 in Kurukshetra.

sri-bhagavan uvaca
imam vivasvate yogam
proktavan aham avyayam
vivasvan manave praha
manur iksvakave ‘bravit – Bhagavad Gita 4.1

Translation : Supreme Lord said: I instructed this imperishable science of yoga to the sun-god, Vivasvan, and Vivasvan instructed it to Manu, the father of mankind, and Manu in turn instructed it to Iksvaku.

Iksvaku is the founder of Iksvaku dynasty and ancestor of Lord Rama.

In Mahabharata (Santi-parva 348.51-52) one can find the history and origin date of the Gita:

treta-yugadau ca tato vivasvan manave dadau
manus ca loka-bhrty-artham sutayeksvakave dadau
iksvakuna ca kathito vyapya lokan avasthitah

Translation : In the beginning of the Treta-yuga [epoch] this science of the relationship with the Supreme was delivered by Vivasvan to Manu.

Present Kali Yuga is 5100+ years old and before that Dwapara Yuga lasted for 864,000 years.
Prior to that Treta Yuga lasted for 1,296,000 years.

So, the original and first version of Gita was narrated by the supreme lord more than 2 million years ago to mankind.

Before war, when Arjuna was down with depressing thoughts of killing his own relatives and gurus, Krishna must have given him a motivational speech for few minutes and made him realize the Viswaroopam(Infinitude), so that Arjuna gets detached from all thoughts of bondings and follows the Kshatriya Dharma (Duty of King) of war to restore peace and Dharma on earth.
So, Krishna did not do any trick or magic and time did not freeze.
Authors who later expanded ‘Jaya‘ from 8800 slokas to 24,000 slokas (Vijaya or Bharata) and then to 100,000 slokas (Mahabharata) must have embedded the original verse of what was said in Treta Yuga.
However, it was also not re-written in a consistent form.
The original Gita is said to have 740 slokas and Mahabharata does not divide them into 18 yogas or chapters.

We can find in present day Gita that it was written by multiple persons as few intial slokas appear in first person narrative and suddenly it jumps into third person narrtive.
Gajanan Shripat Khair, who researched for 43 years on Bhagavad Gita, concluded in his book ‘Quest for the original Gita‘ that infact it was written by 3 persons over 400 years and that is why narrative lacks continuity.
Also few inclusions like ‘description/creation of caste system’ , ‘women, sinners and lower castes’ being treated similarly etc were according to the society in those years.

Bhagavad Gita became popular after Adi Sankaracharya wrote commentaries on them in 8th century AD.

Author (here, Krishna) himself claims that the original science was not carried forward as it is by successive kings.

evam parampara-praptam
imam rajarsayo viduh
sa kaleneha mahata
yogo nastah parantapa – Bhagavad Gita 4.2

Translation : This supreme science was thus received through the chain of disciplic succession, and the saintly kings understood it in that way. But in course of time the succession was broken, and therefore the science as it is appears to be lost.

After war and restoring peace, Arjun remembers that Krishna told him something in brief before commencing war but could not recollect it.
He asks Krishna to repeat it and the other version narrated later is known as ‘Anu Gita‘ and is part of Aswamedhika Parva of Mahabharata.
The main topics discussed in Anugita are transmigration of souls, means of attaining liberation, description of gunas and ashramas, dharma, and the effects of tapas or austerity.

Saturday, December 20, 2014

गीता-उपदेश

Photo: !!!!-----: गीता-उपदेश :-----!!!!
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"कर्षयन्तः   शरीरस्थं    भूतग्रामममचेतसः ।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान् ।।"
(गीता--17.6)

अन्वयः--(ये) अचेतसः शरीरस्थम् भूतग्रामम् अन्तःशरीरस्थम् माम् च एव कर्षयन्तः (तपः तप्यन्ते) तान् आसुर-निश्चयान् विद्धि ।

पदार्थः---(अचेतसः) अचेतन से (शरीरस्थम्) शरीर में स्थित (भूतग्रामम्) पञ्चतत्त्वादि अंगों को, (अन्तःशरीरस्थम्) हृदय में स्थित (माम्) मुझको परमात्मा को, (च) और, (एव) ही, (कर्षयन्तः) खिंचते है, चोरी करते हैं, ((तान् ) उनको, (आसुर-निश्चयान्) आसुर निश्चय (वृत्ति, स्वभाव) वाले को, (विद्धि) जानो ।

भावार्थः----जो विवेक-शून्य लोग परमात्मा के दिए हुए पृथिवी, अप्, तेज आदि शरीरस्थ भूतों को व्यर्थ उलटे मार्ग में घसीटते (ले जाते)  हैं और मैं जो महाभारत-साम्राज्य की स्थापनार्थ उनके अन्दर प्रविष्ट होकर मानव-मात्र के कल्याण के लिए उनसे समय शक्ति का दान माँगता है हूँ, वे प्रभु की तथा मुझ सरीखे प्रभु-भक्तों की चोरी करते हैं तथा प्रभु का और प्रभु-भक्तों का माल न जाने कहाँ-कहाँ घसीट ले जाते हैं, उन सबको आसुर निश्चय वाला जान ।

भाव यह है कि विषय-वासनाओं की तृप्ति के लिए लोग कम घोर तप नहीं करते है, कम कष्ट सहन नहीं करते। यदि उतना ही तप वे प्रभु की भक्ति अथवा तदर्थ प्रभु-भक्तों के अनुकरण के लिए करें तो विश्व का कल्याण हो जावे।

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लौकिक संस्कृत गीता-उपदेश 

"कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्रामममचेतसः ।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान् ।।"
(गीता--17.6)

अन्वयः--(ये) अचेतसः शरीरस्थम् भूतग्रामम् अन्तःशरीरस्थम् माम् च एव कर्षयन्तः (तपः तप्यन्ते) तान् आसुर-निश्चयान् विद्धि ।

पदार्थः---(अचेतसः) अचेतन से (शरीरस्थम्) शरीर में स्थित (भूतग्रामम्) पञ्चतत्त्वादि अंगों को, (अन्तःशरीरस्थम्) हृदय में स्थित (माम्) मुझको परमात्मा को, (च) और, (एव) ही, (कर्षयन्तः) खिंचते है, चोरी करते हैं, ((तान् ) उनको, (आसुर-निश्चयान्) आसुर निश्चय (वृत्ति, स्वभाव) वाले को, (विद्धि) जानो ।

भावार्थः----जो विवेक-शून्य लोग परमात्मा के दिए हुए पृथिवी, अप्, तेज आदि शरीरस्थ भूतों को व्यर्थ उलटे मार्ग में घसीटते (ले जाते) हैं और मैं जो महाभारत-साम्राज्य की स्थापनार्थ उनके अन्दर प्रविष्ट होकर मानव-मात्र के कल्याण के लिए उनसे समय शक्ति का दान माँगता है हूँ, वे प्रभु की तथा मुझ सरीखे प्रभु-भक्तों की चोरी करते हैं तथा प्रभु का और प्रभु-भक्तों का माल न जाने कहाँ-कहाँ घसीट ले जाते हैं, उन सबको आसुर निश्चय वाला जान ।

भाव यह है कि विषय-वासनाओं की तृप्ति के लिए लोग कम घोर तप नहीं करते है, कम कष्ट सहन नहीं करते। यदि उतना ही तप वे प्रभु की भक्ति अथवा तदर्थ प्रभु-भक्तों के अनुकरण के लिए करें तो विश्व का कल्याण हो जावे।

गीता-उपदेश

Photo: !!!---: वेद-परिचय :---!!!
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भागः---1

हिन्दू धर्म कोश के आधार पर (लेखकः--राजबली पाण्डेय)
 
वेद शब्द की व्युत्पत्ति चार प्रकार से की जाती है, जिसका विश्लेषण स्वामी दयानन्द ने "ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका" में की हैः---(क) विद ज्ञाने, (ख) विद सत्तायाम, (ग) विद्लृ लाभे, (घ) विद विचारणे।

तदनुसार, "विदन्ति जानन्ति, विद्यन्ते भवन्ति, विन्दन्ते लभन्ते, विन्दन्ति विचारयन्ति सर्वे मनुष्याः सत्यविद्याम् यैर्येषु वा तथा विद्वांसश्च भवन्ति, ते वेदाः"

अर्थात् जिनसे सभी मनुष्य सत्य विद्या को जानते हैं अथवा प्राप्त करते हैं, अथवा विचारते हैं, अथवा विद्वान् होते हैं, अथवा सत्य विद्या की प्राप्ति के लिए जिनमें प्रवृत्त होते हैं, उनको वेद कहते हैं।"

परन्तु यहाँ पर जिस ज्ञान का संकेत किया गया है, वह सामान्य ज्ञान नहीं है। यद्यपि वैदिक साहित्य में सामान्य ज्ञान का अभाव नहीं। यहाँ ज्ञान का अभिप्राय ईश्वरीय ज्ञान से हैं, जिसका साक्षात्कार मानव जीवन के प्रारम्भ में ऋषियों को हुआ था। मनु महाराज ने (1.7) में वेद को सर्वज्ञानमय कहा हैः--- "सर्वज्ञानमयो हि सः"

"वेद" शब्द का प्रयोग पूर्व काल में सम्पूर्ण वैदिक-वाङ्मय के अर्थ में होता था, जिनमें संहिता, आरण्यक, ब्राह्मण और उपनिषद् सम्मिलित थे।  तद्यथाः--मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्।" अर्थात् मन्त्र और ब्राह्मणों का सम्मिलित नाम वेद है। यहाँ ब्राह्मण में आरण्यक और उपनिषद् भी सम्मिलित है। 

किन्तु आगे चलकर "वेद" शब्द केवल चार वेद-संहिताओं यथा---ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ही द्योतक रह गया। ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् वैदिक-वाङ्मय के अंग होते हुए भी मूल वेदों से पृथक् मान लिये गये। 

सायणाचार्य ने तैत्तिरीय-संहिता की भूमिका में इस तथ्य का स्पष्टीकरण किया हैः---"यद्यपि मन्त्रब्राह्मणात्मको वेदः तथापि ब्राह्मणस्य मन्त्रव्याख्यानस्वरूपत्वाद् मन्त्रा एवादौ समाम्नाताः।" अर्थात् यद्यपि मन्त्र और ब्राह्मण दोनों का नाम वेद है, किन्तु ब्राह्मण ग्रन्थों के मन्त्र के व्याख्यान रूप होने के कारण (उनका स्थान वेदों के पश्चात् आता है और) आदि वेदमन्त्र ही है। (इस लेख का विस्तार से अध्ययन हमारा लेख---वेद-सञ्ज्ञा-मीमांसा---कर सकते हैं।)

इस वैदिक-ज्ञान का साक्षात्कार ऋषियों को हुआ था। जिस व्यक्ति ने अपने योग और तपोबल से इस ज्ञान को प्राप्त किया, वे ऋषि कहलाये। ये स्त्री और पुरुष दोनों थे। वैदिक-ज्ञान जिन ऋचाओं अथवा वाक्यों द्वारा हुआ, उनको मन्त्र कहते हैं।

मन्त्र तीन प्रकार के हैंः---(क) ज्ञानार्थक, (ख) विचारार्थक और (ग) सत्कारार्थक। (इसका विस्तार से विश्लेषण हमारा लेख----देवतोपपरीक्षा---पर किया गया है, आप उस लेख को पढ सकते हैं।) मन्त्र शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार से होती हैः--

(क) दिवादिगणीय मन् धातु (ज्ञानार्थक, प्रतिपादक) से ष्ट्रन् प्रत्यय करने से "मन्त्र" शब्द सिद्ध होता हैः--"मन्यते (ज्ञायते) ईश्वरादेशः अनेनेति मन्त्रः।" इससे ईश्वर के आदेश का ज्ञान होता है, इसलिए इसको मन्त्र कहते हैं।

(ख) तनादिगण की मन् धातु (विचारार्थक) से ष्ट्रन् प्रत्यय लगाने से भी मन्त्र शब्द सिद्ध होता हैः---"मन्यते (विचार्यते) ईश्वरादेशो येन स मन्त्रः" अर्थात् जिसके द्वारा ईश्वर के आदेशों का विचार हो, वह मन्त्र है।

(ग) तनादिगणीय मन् (सत्कारार्थक) धातु से भी ष्ट्रन् प्रत्यय लगाने से भी मन्त्र शब्द सिद्ध होता हैः--"मन्यते (सत्क्रियते) देवताविशेषः अनेनेति मन्त्रः।" अर्थात् जिसके द्वारा देवता विशेष का सत्कार हो, उसे मन्त्र कहते हैं।

वेदार्थ जानने के लिए ये तीन व्युत्पत्तियाँ आवश्यक है। 

वेदों का वर्गीकरण दो प्रकार से होता हैः---(क) त्रिविध और (ख) चतुर्विध। 

(क) सम्पूर्ण वेदों को तीन भागों में बाँटा गया हैः---ऋक्, यजुः, तथा साम। इन्हीं तीनों का संयुक्त नाम त्रयी है। ऋक् का अर्थ हैः--प्रार्थना अथवा स्तुति। यजुष् का अर्थ है--यज्ञ-यागादि का विधान। साम का अर्थ हैः--शान्ति अथवा मंगलगान करना। इसी के आधार पर प्रथम तीन संहिताओं के नाम ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद पडे। 

(ख) वेदों का बहुप्रचलित और प्रसिद्ध विभाजन चतुर्विध है। पहले वैदिक मन्त्र मिले जुले और अविभक्त थे। ऋषि कृष्ण द्वैपायन ने यज्ञार्थ उनका वर्गीकरण चार भागों में कर दिया, इसी कारण उनका नाम वेदव्यास पडाः--ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद। ऋक्, यजुष् तथा साम को पृथक्-पृथक् करके प्रथम तीन वेद बना दिये गये, किन्तु वैदिक वचनों में इनके अतिरिक्त भी बहुत-सी सामग्री थी, जिनका सम्बन्ध धर्म, दर्शन के अतिरिक्त लौकिक कृत्यों तथा अभिचारों  से था। इन सबका समावेश अथर्ववेद में कर दिया गया। इस चतुर्विध विभाजन का उल्लेख अथर्ववेद--10.4.20 में मिलता हैः---

"यस्मादृचो अयातक्षन् यजुर्यस्मादपकषन्।
सामानि यस्य लोमानि अथर्वाङ्गिरसो मुखम्।
स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः।।"

भाष्यकार महीधर ने इस बात का उल्लेख किया है कि वेदों का विभाजन वेदव्यास ऋषि ने किया थाः---"तत्रादौ ब्रह्मपरम्परया प्राप्तं वेदं वेदव्यासो मन्दमतीन् मनुष्यान् विचिन्त्य तत्कृपया चतुर्धा व्यस्य ऋग्यजुःसामाथर्वाख्यांश्चतुरो वेदान् पैल-वैशम्पायन-जैमिनि-सुमन्तुभ्यः क्रमादुपदिदेश।"

इसका शेष भाग अग्रिम अंक में दिया जायेगा।

धन्यवादः

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"तपस्विभ्योsधिको योगी ज्ञानिभ्योsपि मतोsधिकः।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।।"
(गीता---6.46)

अन्वयः---हे अर्जुन ! योगी तपस्विभ्यः अधिकः ज्ञानिभ्यः अपि अधिकः मतः योगी कर्मिभ्यः अपि च अधिकः तस्माद् योगी भव।।

व्याख्याः---इस श्लोक में रहस्य समझने के लिए कर्मी और कर्मयोगी इन दो में भेद समझना आवश्यक है, फिर सब निर्मल हो जायेगा। एक मनुष्य अध्यापक, सैनिक अथवा व्यापारी है। वह अध्यापन, न्याय-रक्षा अथवा व्यापार करते समय कर्मयोगी होता है। कर्मयोग के समय विपरीत-से-विपरीत परिस्थितियों में भी उसका मन कर्त्तव्य-पथ से न डिगे, इसके लिए वह जो भजन, कीर्तन, जप-याग, अनुष्ठानादि कर्म करता है, उस समय वह कर्मी होता है। सत्य आदि की महिमा स्वाध्याय द्वारा जानता है, उस समय वह ज्ञानी होता है। अपने कर्त्व्य-पालन में क्षमता उत्पन्न करने के लिए वह शीतोष्णादि द्वन्द्व-सहन रूप तप करता है। इन सबकी परीक्षा अन्त में कर्मयोग में होती है। यदि वहाँ वह सत्य मार्ग से नहीं डिगा तो उसके ज्ञान, तप तथा कर्म सच्चे हैं अन्यथा नहीं।

इसलिए कहा---हे अर्जुन ! योगी (कर्मयोगी) का स्थान तपस्वियों से अधिक है, ज्ञानियों से भी अधिक माना गया है, कर्मियों से भी अधिक है। इसलिए तू योगी बन (और दुष्टों को मारकर क्षात्र-कर्त्तव्य का पालन कर।)

GITA 8.28

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वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलम् प्रदिष्टम् l 
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ll२८ll
(गीता--8.28)

अन्वयः---वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु च एव यत् पुण्यफलम् प्रदिष्टम्, योगी  इदं विदित्वा तत् सर्वम् अत्येति परम् आद्यम् स्थानम् च उपैति ।।

अर्थः----वेदों में, यज्ञ और तप करने से तथा विविध दानों से पुण्य का जो जो पृथक्-पृथक् फल बताया है, उन सबको योगी इस तत्त्व को जानकर उपेक्षा-पूर्वक छोड देता है तथा वेद के बताए हुए पर-ब्रह्म-प्राप्ति-रूप एक ही महायज्ञ को निष्काम रूप से करता है तो उन सब कर्मों के फल से जो बडा फल पाता है, वह फल हैः---आत्मा की अपनी आद्य अर्थात् शुद्ध आसक्ति-बन्धनरहित अवस्था में आ जाना तब वह इस स्थान को पा लेता है।

भाव यह है कि वेदादिशास्त्रों में ब्रह्म-प्राप्ति से लेकर साधारण सकाम दान तक सब कर्मों के फलों का निर्देश किया है। सो सकाम कर्मों से जीव छोटे-छोटे नाना रूप धारण करता है, किन्तु रहता है बन्धन में । किन्तु निष्काम ब्रह्म-सेवा से योगी जीवात्मा के असली आसक्ति-मुक्त रूप में आ जाता है।

 

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वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलम् प्रदिष्टम् l 
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ll२८ll
(गीता--8.28)

अन्वयः---वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु च एव यत् पुण्यफलम् प्रदिष्टम्, योगी इदं विदित्वा तत् सर्वम् अत्येति परम् आद्यम् स्थानम् च उपैति ।।

अर्थः----वेदों में, यज्ञ और तप करने से तथा विविध दानों से पुण्य का जो जो पृथक्-पृथक् फल बताया है, उन सबको योगी इस तत्त्व को जानकर उपेक्षा-पूर्वक छोड देता है तथा वेद के बताए हुए पर-ब्रह्म-प्राप्ति-रूप एक ही महायज्ञ को निष्काम रूप से करता है तो उन सब कर्मों के फल से जो बडा फल पाता है, वह फल हैः---आत्मा की अपनी आद्य अर्थात् शुद्ध आसक्ति-बन्धनरहित अवस्था में आ जाना तब वह इस स्थान को पा लेता है।

भाव यह है कि वेदादिशास्त्रों में ब्रह्म-प्राप्ति से लेकर साधारण सकाम दान तक सब कर्मों के फलों का निर्देश किया है। सो सकाम कर्मों से जीव छोटे-छोटे नाना रूप धारण करता है, किन्तु रहता है बन्धन में । किन्तु निष्काम ब्रह्म-सेवा से योगी जीवात्मा के असली आसक्ति-मुक्त रूप में आ जाता है।

Monday, June 30, 2014

GITA CHAPTER 15/15? WHERE IS MEMORY CENTER OF BRAIN

Fifteenth Chapter

||   15 / 15  ||


sarvasya cāhaṁ hṛdi sanniviṣṭo mattaḥ smṛtirjñānamapohanaṁ ca

vedaiśca sarvairahameva vedyo vedāntakṛdvedavideva cāham

I am seated in the hearts of all beings; I am the source of memory, knowledge, also 

their loss and am also the faculty to remove doubts etc. I am verily that which is to be 

known by the Vedas; I am indeed the author and correct interpreter of Vedanta and I am 

the knower of the Vedas.
Comment:

In the preceding three verses, the Lord described His divine glories in the form 

of His impact and activities but in this verse He describes Himself. It means that in 

this verse there is His own description; ‘ādityagata’ (residing in the Sun), ‘candragata’ 

(residing in the Moon), ‘agnigata’ (residing in the Fire) or ‘vaiśvānaragata’ (residing as 

the gastric fire)— are not God’s own description. Though at the root there is only one 

Reality (Tattva), difference is only in the description.

At first, the expression ‘mamaivāṁśo jīvaloke’ proves that God is ‘ours’, while 

here the expression ‘sarvasya cāhaṁ hṛdi sanniviṣṭah’ proves that God ‘resides in 

us’. By accepting 'Lord as ours', naturally there would be love for Him and 'by accepting 

that Since He resides in hearts of all', there is no need to go anywhere else to attain 

Him. Due to the fact that He is residing in all, he is ever attained by all; therefore, no 

aspirant should feel disappointed in attaining Him.

The Lord declares that the Vedas are several but in all of them, it is only He, Who is 

to be known and He is also their knower. It means that everything is 'He'-- 'vāsudevah 

sarvam'.

From Gita Prabodhani in  by Swami Ramsukhdasji  

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