Friday, September 25, 2015

बिजली के अविष्कारक “महर्षि अगस्त्य

क्या आप बिजली के अविष्कारक “महर्षि अगस्त्य” को जानते है?
प्राचीनकाल कभी वैज्ञानिक पहलुओ से अछूता नही रहा। प्राचीन काल में वैज्ञानिक तरक्की इतनी थी कि आज का विज्ञान इतना समृद्ध होने के बाद भी बौना सा नजर आता है l उस जमाने में ऊंचे उड़ने वाले गुब्बारे, पैराशूट, बिजली और बैटरी जैसे कई उपकरण थे। भारत के ऋषियों ने न सिर्फ धर्म का विकास किया बल्कि इसके साथ ही विज्ञान का भी विकास किया । उस काल में वायुयान होते थे, बिजली होती थी, अंतरिक्ष में सफर करने के लिए अंतरिक्ष यान भी होते थे। आज बहुत से लोग शायद इस पर विश्वास न करें लेकिन खोजकर्ताओं ने अब धीरे-धीरे इसे स्वीकार करना शुरू कर दिया है। किसी भी देश और उसकी संस्कृति के इतिहास को धर्म के आईने से नहीं देखा जाना चाहिए।
समान्यतः हम मानते हैं कि आधुनिक युग में बिजली का आविष्कार माइकल फैराडे ने किया था। बल्ब के अविष्कारक थॉमस एडिसन अपनी एक किताब में लिखते हैं कि एक रात मैं संस्कृत का एक वाक्य पढ़ते-पढ़ते सो गया। उस रात मुझे स्वप्न में संस्कृत के उस वचन का अर्थ और रहस्य समझ में आया जिससे मुझे बल्ब बनाने में मदद मिली।
किन्तु आपको यह जानकार सुखद आश्चर्य होगा कि बिजली के बारे में सर्वप्रथम हमारे पूर्वजो ने विश्व को बतलाया । बिजली सबसे पहले भारत मे बनी | बिजली बनाने की जो विधि है जो आधुनिक विज्ञान ने भी स्वीकार कर रखी है वो महर्षि अगस्त द्वारा दी गयी विधि है | महर्षि अगस्त ने सबसे पहले बिजली बनाई थी और उसका विस्तार से वर्णन है अगस्त संहिता मे । पूरा बिजली बनाने की विधि या तकनीक उन्होंने दिया है और कई लोगो ने बनाके भी देखा है, और ये तकनीक हजारो वर्ष पहले की है।
महर्षि अगस्त्य एक वैदिक ॠषि थे। इन्हें सप्तर्षियों में से एक माना जाता है। ये वशिष्ठ मुनि (राजा दशरथ के राजकुल गुरु) के बड़े भाई थे। वेदों से लेकर पुराणों में इनकी महानता की अनेक बार चर्चा की गई है, इनकी गणना सप्तर्षियों में की जाती है। महर्षि अगस्त्य को मं‍त्रदृष्टा ऋषि कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने अपने तपस्या काल में उन मंत्रों की शक्ति को देखा था। ऋग्वेद के अनेक मंत्र इनके द्वारा दृष्ट हैं। महर्षि अगस्त्य ने ही ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 165 सूक्त से 191 तक के सूक्तों को बताया था। साथ ही इनके पुत्र दृढ़च्युत तथा दृढ़च्युत के पुत्र इध्मवाह भी नवम मंडल के 25वें तथा 26वें सूक्त के द्रष्टा ऋषि हैं।
इन्होने अगस्त्य संहिता नामक ग्रन्थ की रचना की जिसमे इन्होँने हर प्रकार का ज्ञान समाहित किया, इन्हें त्रेता युग में भगवान श्री राम से मिलने का सोभाग्य प्राप्त हुआ उस समय श्री राम वनवास काल में थे, इसका विस्तृत वर्णन श्री वाल्मीकि कृत रामायण में मिलता है, इनका आश्रम आज भी महाराष्ट्र के नासिक की एक पहाड़ी पर स्थित है।
महर्षि अगस्त्य के बारे में कहा जाता है कि एक बार इन्होंने अपनी मंत्र शक्ति से समुद्र का समूचा जल पी लिया था, विंध्याचल पर्वत को झुका दिया था और मणिमती नगरी के इल्वल तथा वातापी नामक दुष्ट दैत्यों की शक्ति को नष्ट कर दिया था। अगस्त्य ऋषि के काल में राजा श्रुतर्वा, बृहदस्थ और त्रसदस्यु थे। इन्होंने अगस्त्य के साथ मिलकर दैत्यराज इल्वल को झुकाकर उससे अपने राज्य के लिए धन-संपत्ति मांग ली थी।
ऋषि अगस्त्य ने ‘अगस्त्य संहिता’ नामक ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ की बहुत चर्चा होती है। इस ग्रंथ की प्राचीनता पर भी शोध हुए हैं और इसे सही पाया गया। आश्चर्यजनक रूप से इस ग्रंथ में विद्युत उत्पादन से संबंधित सूत्र मिलते हैं:-
संस्थाप्य मृण्मये पात्रे ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्‌।
छादयेच्छिखिग्रीवेन चार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥
दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:।
संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्‌॥
-अगस्त्य संहिता।
अर्थात : एक मिट्टी का पात्र लें, उसमें ताम्र पट्टिका (Copper Sheet) डालें तथा शिखिग्रीवा (Copper sulphate) डालें, फिर बीच में गीली काष्ट पांसु (wet saw dust) लगाएं, ऊपर पारा (mercury‌) तथा दस्त लोष्ट (Zinc) डालें, फिर तारों को मिलाएंगे तो उससे मित्रावरुणशक्ति (Electricity) का उदय होगा।
अगस्त्य संहिता में विद्युत का उपयोग इलेक्ट्रोप्लेटिंग (Electroplating) के लिए करने का भी विवरण मिलता है। उन्होंने बैटरी द्वारा तांबा या सोना या चांदी पर पॉलिश चढ़ाने की विधि निकाली अत: अगस्त्य को कुंभोद्भव (Battery Bone) भी कहते हैं।
अनने जलभंगोस्ति प्राणो दानेषु वायुषु।
एवं शतानां कुंभानांसंयोगकार्यकृत्स्मृत:॥
-अगस्त्य संहिता
महर्षि अगस्त्य कहते हैं- सौ कुंभों (उपरोक्त प्रकार से बने तथा श्रृंखला में जोड़े गए सौ सेलों) की शक्ति का पानी पर प्रयोग करेंगे, तो पानी अपने रूप को बदलकर प्राणवायु (Oxygen) तथा उदान वायु (Hydrogen) में परिवर्तित हो जाएगा।
कृत्रिमस्वर्णरजतलेप: सत्कृतिरुच्यते।
यवक्षारमयोधानौ सुशक्तजलसन्निधो॥
आच्छादयति तत्ताम्रं स्वर्णेन रजतेन वा।
सुवर्णलिप्तं तत्ताम्रं शातकुंभमिति स्मृतम्‌॥
-5 (अगस्त्य संहिता)
अर्थात- कृत्रिम स्वर्ण अथवा रजत के लेप को सत्कृति कहा जाता है। लोहे के पात्र में सुशक्त जल (तेजाब का घोल) इसका सान्निध्य पाते ही यवक्षार (सोने या चांदी का नाइट्रेट) ताम्र को स्वर्ण या रजत से ढंक लेता है। स्वर्ण से लिप्त उस ताम्र को शातकुंभ अथवा स्वर्ण कहा जाता है।
(इसका उल्लेख शुक्र नीति में भी है)
विद्युत तार : आधुनिक नौकाचलन और विद्युत वहन, संदेशवहन आदि के लिए जो अनेक बारीक तारों की बनी मोटी केबल या डोर बनती है वैसी प्राचीनकाल में भी बनती थी जिसे रज्जु कहते थे।
नवभिस्तस्न्नुभिः सूत्रं सूत्रैस्तु नवभिर्गुणः।
गुर्णैस्तु नवभिपाशो रश्मिस्तैर्नवभिर्भवेत्।
नवाष्टसप्तषड् संख्ये रश्मिभिर्रज्जवः स्मृताः।।
9 तारों का सूत्र बनता है। 9 सूत्रों का एक गुण, 9 गुणों का एक पाश, 9 पाशों से एक रश्मि और 9, 8, 7 या 6 रज्जु रश्मि मिलाकर एक रज्जु बनती है।
विमान संचालित करने भी विधि अगस्त्य ऋषि ने बताई है
आकाश में उड़ने वाले गर्म गुब्बारे : इसके अलावा अगस्त्य मुनि ने गुब्बारों को आकाश में उड़ाने और विमान को संचालित करने की तकनीक का भी उल्लेख किया है।
वायुबंधक वस्त्रेण सुबध्दोयनमस्तके।
उदानस्य लघुत्वेन विभ्यर्त्याकाशयानकम्।।
अर्थात : उदानवायु (Hydrogen) को वायु प्रतिबंधक वस्त्र में रोका जाए तो यह विमान विद्या में काम आता है। यानी वस्त्र में हाइड्रोजन पक्का बांध दिया जाए तो उससे आकाश में उड़ा जा सकता है।
“जलनौकेव यानं यद्विमानं व्योम्निकीर्तितं।
कृमिकोषसमुदगतं कौषेयमिति कथ्यते।सूक्ष्मासूक्ष्मौ मृदुस्थलै औतप्रोतो यथाक्रमम्।।वैतानत्वं च लघुता च कौषेयस्य गुणसंग्रहः।कौशेयछत्रं कर्तव्यं सारणा कुचनात्मकम्।छत्रं विमानाद्विगुणं आयामादौ प्रतिष्ठितम्।।
अर्थात उपरोक्त पंक्तियों में कहा गया है कि विमान वायु पर उसी तरह चलता है, जैसे जल में नाव चलती है। तत्पश्चात उन काव्य पंक्तियों में गुब्बारों और आकाश छत्र के लिए रेशमी वस्त्र सुयोग्य कहा गया है, क्योंकि वह बड़ा लचीला होता है।
वायुपुरण वस्त्र : प्राचीनकाल में ऐसा वस्त्र बनता था जिसमें वायु भरी जा सकती थी। उस वस्त्र को बनाने की निम्न विधि अगस्त्य संहिता में है-
क्षीकद्रुमकदबाभ्रा भयाक्षत्वश्जलैस्त्रिभिः।
त्रिफलोदैस्ततस्तद्वत्पाषयुषैस्ततः स्ततः।।संयम्य शर्करासूक्तिचूर्ण मिश्रितवारिणां।सुरसं कुट्टनं कृत्वा वासांसि स्त्रवयेत्सुधीः।।
-अगस्त्य संहिता
अर्थात : रेशमी वस्त्र पर अंजीर, कटहल, आंब, अक्ष, कदम्ब, मीराबोलेन वृक्ष के तीन प्रकार ओर दालें इनके रस या सत्व के लेप किए जाते हैं। तत्पश्चात सागर तट पर मिलने वाले शंख आदि और शर्करा का घोल यानी द्रव सीरा बनाकर वस्त्र को भिगोया जाता है, फिर उसे सुखाया जाता है। फिर इसमें उदानवायु भरकर उड़ा जा सकता है।

No comments:

Post a Comment