Tuesday, September 8, 2015

योग..

.अर्थात समग्र विकास की उपलब्धि..

योग का अर्थ है-मिलना । जिस साधना द्वारा आत्मा का परमात्मा से मिलना हो सकता है,उसे योग कहा जाता है । जीव की सबसे बड़ी सफलता यह है कि वह ईश्वर को प्राप्त कर ले, छोटे से बड़ा बनने के लिए, अपूर्ण से पूर्ण होने के लिए, बन्ध से मुक्त होने के लिए, वह अतीतकाल से प्रयत्न करता आ रहा है, चौरासी लक्ष योनियों को पार करता हुआ इतना आगे बढ़ा आया है, वह यात्रा ईश्वर से मिलने के लिए है, बिछड़ा हुआ अपनी स्नेहमयी माता को ढूँढ़ रहा है, उसकी गोदी में बैठने के लिए छटपटा रहा है । उस स्वर्गीय मिलन की साधना योग है और उधर बढ़ने का सबसे साफ, सीधा, सरल जो रास्त है, उसी का नाम राजयोग है ।

महर्षि पातंजलि ने इस योग को आठ भागों में विभाजन किया है । योगदर्शन के पाद 2 का 29 वाँ सूत्र है-

यम नियमासन प्राणायाम प्रत्याहार
धारणा ध्यान समाधयोङष्टावंगानि॥
अर्थात-यम, नियम, आसन, प्राणायाम,प्रत्याहार धारणा और समाधि योग के यह आठ अंग हैं ।

योग-दर्शन के पाद 2 सूत्र 30 में यम के सम्बन्ध में बताया गया है-अहिंसा सत्यास्तेय ब्रह्मचय्यार्परिग्रहा यमाः । अर्थात अहिंसा,सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यह पाँच यम है । पाठकों को यम शब्द से भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए,मृत्यु के देवता को भी यम कहते हैं, यहाँ उस यम से कोई तात्पर्य नहीं है यहाँ तो उपरोक्त पाँच व्रतों की एक संज्ञा नियत करके उसका नाम यम रखा गया है । यम शब्द से यहाँ उपरोक्त पाँच व्रतों का ही भाव है । आगे क्रमशः प्रत्येक के बारे में कुछ विवेचना की जाती है ।

१. यम : पांच सामाजिक नैतिकता

(क) अहिंसा - शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को हानि नहीं पहुँचाना
(ख) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना
(ग) अस्तेय - चोर-प्रवृति का न होना
(घ) ब्रह्मचर्य - दो अर्थ हैं:
* चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना
* सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना
(च) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना
२. नियम: पाँच व्यक्तिगत नैतिकता

(क) शौच - शरीर और मन की शुद्धि
(ख) संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना
(ग) तप - स्वयं से अनुशासित रहना
(घ) स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना
(च) ईश्वर-प्रणिधान - ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा
३. आसन: योगासनों द्वारा शारीरिक नियंत्रण

४. प्राणायाम: श्वास-लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण

५. प्रत्याहार: इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना

६. धारणा: एकाग्रचित्त होना

७. ध्यान: निरंतर ध्यान

८. समाधि: आत्मा से जुड़ना, शब्दों से परे परम-चैतन्य की अवस्था

मनुष्य ईश्वर के समकक्ष तो नहीं हो सकता है परन्तु ईश्वर के गुणों को धारण कर सकता है

ईश्वर के गुणों को धारण कर मनुष्य विद्वान बनता है अतः हमें चाहिए की ईश्वर गुणों को धारण कर जीवन सफल बनाये

यजुर्वेद ॥७-७॥

आ या॑यो भूष शुचिपा॒ उप॑ नः स॒हस्रन्ते नि॒युतो॑ विश्ववार । उपो॑ ते॒ऽअन्धो॒ मद्य॑मयामि॒ यस्य॑ देव दधि॒षे पू॑र्व॒पेयँ॑ वा॒यवे॑ त्वा ॥

भावार्थ:- जो योगी प्राण के तुल्य सब को भूषित करता,

ईश्वर के तुल्य अच्छे-अच्छे गुणों में व्याप्त होता है

और अन्न वा जल के सदृश सुख देता है, वही योग में समर्थ होता है।।

औ३म

मनुष्यों को उचित है की विद्वजनों का उपदेश सुने, योगविद्या का ग्रहण करें और नित्य योगाभ्यास करते हुए अपने व्यवहार को अच्छा बनाये

यजुर्वेद ॥७-९॥

अ॒यँवाम्मित्रावरुणा सु॒तः सोम॑ऽऋतावृधा । ममेदि॒ह श्रु॒त हव॑म् । उ॑पया॒मगृ॑हीतोसि मि॒त्रावरु॑णाभ्यां त्वा ॥

मनुष्यों को उचित है कि इस योगविघया का ग्रहण, श्रेष्ठ पुरुषों का उपदेश सुन और यमनियमों को धारण करके योगाभ्यास के साथ अपना बर्ताव रक्खें।।
 Meenu Ahuja

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