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Monday, February 1, 2016

Vedas against meat eaters


Aditya Agnihotri's photo.सहमूराननु दह क्रव्यादः । अथर्ववेद् ८.३.१८
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O' Agni! You burn down all those idiots to ashes who consume corpse (non vegetarian) foods. - AtharvaVeda.
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हे अग्नि ! तू माँसाहारी मूर्खों को जला दे ।
May I be dear to all animals (Atharva 16.71.4)
2) May you eat rice (Vrihi); may you eat barley (Yava), also black
beans (Mdsa) and Sesamum (Tila). This is the share aloted to both of you for happy results, 0 you two teeth (dantau), may you not
injure the father and mother. (Atharva - 6-140-2)
3) Do not kill any of the Creatures. (Yaju. L 1)
4) Do not kill the horse. (Yaju. 13.42)
5) Do not kill quadrupeds. (Yak. 13.44)
6) Do not kill wool-giving animals. (Yak. 13.47)
7) Not kill human beings (Yak. 16.3)
8) May you be illumined by the mighty rags of knowledge and may
you not kill the cow, the aditi (Yaju.13.43)
9) Do not kill a cow but treat her as Mother. (Yaju.12.32)

Aditya Agnihotri's photo.Shri Ram is not Shri Ram without arms and ammunition, Shri Krishna is not Shri Krishna without Sudarshan Chakra, Shri Parshuram is not Shri Parshuram without his Parshu

Did you know that Shri Parashurama is immortal and will reappear as the Guru of Shri Vishnu's 10th avatar Kalki?
He is the only one apart from Ravana's son Indrajit to possess the three ultimate weapons: the Brahmanda astra, Vaishnava astra and Pashupatastra.
Probably these three celestial weapons will be used to target and wipe clean all Adharmics from the face of this earth





Saturday, November 28, 2015

वेद

वेद
वेद शब्द संस्कृत भाषा के "विद्" धातु से बना है जिसका अर्थहै: जानना, ज्ञान इत्यादि। वेद हिन्दू धर्म के प्राचीन
पवित्र ग्रंथों का नाम है । वेदों को श्रुति भी कहा जाताहै, क्योकि माना जाता है कि इसके मन्त्रों को परमेश्वर
Sanatan Dharma (ब्रह्म) ने प्राचीन ऋषियों को अप्रत्यक्ष रूप से सुनाया थाजब वे गहरी तपस्या में लीन थे । वेद प्राचीन भारत के वैदिककाल की वाचिक परम्परा की अनुपम कृति है जो पीढी दरपीढी पिछले चार-पाँच हजार वर्षों से चली आ रही है । वेदही हिन्दू धर्म के सर्वोच्च और सर्वोपरि धर्मग्रन्थ हैं ।वेदों का महत्व : भारतीय संस्कृति के मूल वेद हैं। ये हमारे सबसेपुराने धर्म-ग्रन्थ हैं और हिन्दू धर्म का मुख्य आधार हैं। न केवलधार्मिक किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से भी वेदों काअसाधारण महत्त्व है। वैदिक युग के आर्यों की संस्कृति औरसभ्यता जानने का एकमात्र साधन यही है। मानव-जातिऔर विशेषतः आर्य जाति ने अपने शैशव में धर्म और समाज काकिस प्रकार विकास किया इसका ज्ञान वेदों से हीमिलता है। विश्व के वाङ्मय में इनसे प्राचीनतम कोई पुस्तकनहीं है।

आर्य-भाषाओं का मूलस्वरूप निर्धारित करने मेंवैदिक भाषा बहुत अधिक सहायक सिद्ध हुई है। वर्तमानकाल में वेद चार माने जाते हैं - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथाअथर्ववेद।द्वापरयुग की समाप्ति के पूर्व वेदों के उक्त चार विभागअलग-अलग नहीं थे। उस समय तो ऋक्, यजुः और साम - इनतीन शब्द-शैलियों की संग्रहात्मक एक विशिष्ट अध्ययनीयशब्द-राशि ही वेद कहलाती थी। विश्व में शब्द-प्रयोगकी तीन शैलियाँ होती है; जो पद्य (कविता), गद्य औरगानरुप से प्रसिद्ध हैं। पद्य में अक्षर-संख्या तथा पाद एवंविराम का निश्चित नियम होता है। अतः निश्चितअक्षर-संख्या तथा पाद एवं विराम वाले वेद-मन्त्रों कीसंज्ञा ‘ऋक्’ है। जिन मन्त्रों में छन्द के नियमानुसार अक्षर-संख्या तथा पाद एवं विराम ऋषिदृष्ट नहीं है, वे गद्यात्मकमन्त्र ‘यजुः’ कहलाते हैं। और जितने मन्त्र गानात्मक हैं, वेमन्त्र ‘साम’ कहलाते हैं। इन तीन प्रकार की शब्द-प्रकाशन-शैलियों के आधार पर ही शास्त्र एवं लोक में वेद के लिये‘त्रयी’ शब्द का भी व्यवहार किया जाता है। वेद के पठन-पाठन के क्रम में गुरुमुख से श्रवण एवं याद करने का वेद के संरक्षणएवं सफलता की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व है। इसी कारण वेदको ‘श्रुति’ भी कहते हैं। वेद परिश्रमपूर्वक अभ्यास द्वारासंरक्षणीय है, इस कारण इसका नाम ‘आम्नाय’ भी है।द्वापरयुग की समाप्ति के समय वेदपुरुष भगवान् नारायण केअवतार श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास जी ने यज्ञानुष्ठान केउपयोग को दृष्टिगत उस एक वेद के चार विभाग कर दिये और
इन चारों विभागों की शिक्षा चार शिष्यों को दी। येही चार विभाग ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के नाम
से प्रसिद्ध है। पैल, वैशम्पायन, जैमिनि और सुमन्तु नामक - इनचार शिष्यों ने शाकल आदि अपने भिन्न-भिन्न शिष्योंको पढ़ाया। इन शिष्यों के द्वारा अपने-अपने अधीत वेदोंके प्रचार व संरक्षण के कारण वे शाखाएँ उन्हीं के नाम सेप्रसिद्ध हो रही है। शाखा के नाम से सम्बन्धित व्यक्तिका उस वेदशाखा की रचना से सम्बन्ध नहीं है, अपितु प्रचारएवं संरक्षण के कारण सम्बन्ध है।वेदों का प्रधान लक्ष्य आध्यात्मिक ज्ञान देना ही है।अतः वेद में कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड - इन दोनों विषयोंका सर्वांगीण निरुपण किया गया है। वेदों काप्रारम्भिक भाग कर्मकाण्ड है और वह ज्ञानकाण्ड वालेभाग से अधिक है। जिन अधिकारी वैदिक विद्वानों कोयज्ञ कराने का यजमान द्वारा अधिकार प्राप्त होता है,उनको ‘ऋत्विक’ कहते हैं। श्रौतयज्ञ में इन ऋत्विकों के चारगण हैं। होतृगण, अध्वर्युगण, उद्गातृगण तथा ब्रह्मगण। उपर्युक्तचारों गणों के लिये उपयोगी मन्त्रों के संग्रह के अनुसार वेदचार हुए हैं। वेद के असल मन्त्र भाग को संहिता कहते हैं।
ऋग्वेद- इसमें होतृवर्ग के लिये उपयोगी मन्त्रों कासंकलन है। इसमें ‘ऋक्’ संज्ञक (पद्यबद्ध) मन्त्रों कीअधिकता के कारण इसका नाम ऋग्वेद हुआ। इसमेंहोतृवर्ग के उपयोगी गद्यात्मक (यजुः) स्वरुप के भीकुछ मन्त्र हैं। (इसमें देवताओं का आह्वान करने के लियेमन्त्र हैं. यही सर्वप्रथम वेद है. यह वेद मुख्यतः ऋषिमुनियों के लिये होता है।
यजुर्वेद- इसमें यज्ञानुष्ठान सम्बन्धी अध्वर्युवर्ग केउपयोगी मन्त्रों का संकलन है। इसमें ‘गद्यात्मक’मन्त्रों की अधिकता के कारण इसका नाम ‘यजुर्वेद’है। इसमें कुछ पद्यबद्ध, मन्त्र भी हैं, जो अध्वर्युवर्ग केउपयोगी हैं। यजुर्वेद के दो विभाग हैं- (क)शुक्लयजुर्वेद और (ख) कृष्णयजुर्वेद। इसमें यज्ञ की असलप्रक्रिया के लिये गद्य मन्त्र हैं. यह वेद मुख्यतःक्षत्रियो के लिये होता है।सामवेद- इसमें यज्ञानुष्ठान के उद्गातृवर्ग केउपयोगी मन्त्रों का संकलन है। इसमें गायन पद्धति केनिश्चित मन्त्र होने के कारण इसका नाम सामवेदहै। इसमें यज्ञ में गाने के लिये संगीतमय मन्त्र हैं)(यहवेद मुख्यतः गन्धर्व लोगो के लिये होता है।अथर्ववेद- इसमें यज्ञानुष्ठान के ब्रह्मवर्ग के उपयोगी
मन्त्रों का संकलन है। अथर्व का अर्थ है कमियों कोहटाकर ठीक करना या कमी-रहित बनाना। अतःइसमें यज्ञ-सम्बन्धी एवं व्यक्ति सम्बन्धी सुधार याकमी-पूर्ति करने वाले मन्त्र भी है। इसमें पद्यात्मकमन्त्रों के साथ कुछ गद्यात्मक मन्त्र भी उपलब्ध है।इस वेद का नामकरण अन्य वेदों की भाँति शब्द-शैली के आधार पर नहीं है, अपितु इसके प्रतिपाद्यविषय के अनुसार है। इस वैदिक शब्दराशि काप्रचार एवं प्रयोग मुख्यतः अथर्व नाम के महर्षिद्वारा किया गया। इसलिये भी इसका नामअथर्ववेद है। इसमें जादू, चमत्कार, आरोग्य, यज्ञ केलिये मन्त्र हैं. यह वेद मुख्यतः व्यापारियो के लियेहोता है।वेद की संहिताओं में मंत्राक्षरॊं में खड़ी तथा आड़ी रेखायेंलगाकर उनके उच्च, मध्यम, या मन्द संगीतमय स्वर उच्चारण करनेके संकेत किये गये हैं। इनको उदात्त, अनुदात्त ऒर स्वारित केनाम से अभिगित किया गया हैं। ये स्वर बहुत प्राचीन समयसे प्रचलित हैं और महामुनि पतंजलि ने अपने महाभाष्य में इनकेमुख्य मुख्य नियमों का समावेश किया है ।हर वेद के चार भाग होते हैं । पहले भाग (संहिता) के अलावाहरेक में टीका अथवा भाष्य के तीन स्तर होते हैं । कुलमिलाकर ये हैं : संहिता (मन्त्र भाग), ब्राह्मण-ग्रन्थ (गद्यमें कर्मकाण्ड की विवेचना), आरण्यक (कर्मकाण्ड के पीछे केउद्देश्य की विवेचना), उपनिषद (परमेश्वर, परमात्मा-ब्रह्मऔर आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक औरज्ञानपूर्वक वर्णन). ये चार भाग सम्मिलित रूप से श्रुति कहेजाते हैं जो हिन्दू धर्म के सर्वोच्च ग्रन्थ हैं । 
बाकी ग्रन्थस्मृति के अन्तर्गत आते हैं ।आधुनिक विचारधारा के अनुसार चारों वेदों की शब्द-राशि के विस्तार में तीन दृष्टियाँ पायी जाती है:याज्ञिक दृष्टिः इसके अनुसार वेदोक्त यज्ञों काअनुष्ठान ही वेद के शब्दों का मुख्य उपयोग मानागया है। सृष्टि के आरम्भ से ही यज्ञ करने मेंसाधारणतया मन्त्रोच्चारण की शैली, मन्त्राक्षर
एवं कर्म-विधि में विविधता रही है। इसविविधता के कारण ही वेदों की शाखाओं काविस्तार हुआ है। यथा-ऋग्वेद की २१ शाखा,यजुर्वेद की १०१ शाखा, सामवेद की १००० शाखाऔर अथर्ववेद की ९ शाखा- इस प्रकार कुल १,१३१
शाखाएँ हैं। इस संख्या का उल्लेख महर्षि पतञ्जलि नेअपने महाभाष्य में भी किया है। उपर्युक्त १,१३१शाखाओं में से वर्तमान में केवल १२ शाखाएँ ही मूलग्रन्थों में उपलब्ध हैः ऋग्वेद की २१ शाखाओं में सेकेवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं- ( शाकल-शाखा और शांखायन शाखा ), यजुर्वेद मेंकृष्णयजुर्वेद की ८६ शाखाओं में से केवल ४ शाखाओं केग्रन्थ ही प्राप्त है- ( तैत्तिरीय-शाखा,मैत्रायणीय शाखा, कठ-शाखा और कपिष्ठल-शाखा), शुक्लयजुर्वेद की १५ शाखाओं में से केवल २शाखाओं के ग्रन्थ ही प्राप्त है- ( माध्यन्दिनीय-शाखा और काण्व-शाखा ), सामवेद की १,०००शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्तहै- ( कौथुम-शाखा और जैमिनीय-शाखा ),अथर्ववेद की ९ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के हीग्रन्थ प्राप्त हैं- ( शौनक-शाखा और पैप्पलाद-शाखा). उपर्युक्त १२ शाखाओं में से केवल ६ शाखाओंकी अध्ययन-शैली प्राप्त है- शाकल, तैत्तरीय,माध्यन्दिनी, काण्व, कौथुम तथा शौनक शाखा।यह कहना भी अनुपयुक्त नहीं होगा कि अन्यशाखाओं के कुछ और भी ग्रन्थ उपलब्ध हैं, किन्तु उनसेशाखा का पूरा परिचय नहीं मिल सकता एवं बहुत-सी शाखाओं के तो नाम भी उपलब्ध नहीं हैं।
प्रायोगिक दृष्टिः इसके अनुसार प्रत्येक शाखा केदो भाग बताये गये हैं। मन्त्र भाग - यज्ञ मेंसाक्षात्-रुप से प्रयोग आती है तथा ब्राह्मणभाग- जिसमें विधि (आज्ञाबोधक शब्द), कथा,आख्यायिका एवं स्तुति द्वारा यज्ञ कराने की
प्रवृत्ति उत्पन्न कराना, यज्ञानुष्ठान करने कीपद्धति बताना, उसकी उपपत्ति और विवेचन केसाथ उसके रहस्य का निरुपण करना है।साहित्यिक दृष्टि: इसके अनुसार प्रत्येक शाखाकी वैदिक शब्द-राशि का वर्गीकरण- संहिता,
ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् इन चार भागों में है।वेदों के सर्वांगीण अनुशीलन के लिये शिक्षा, कल्प,व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष - इन ६ अंगों के ग्रन्थ हैं।प्रतिपदसूत्र, अनुपद, छन्दोभाषा (प्रातिशाख्य),धर्मशास्त्र, न्याय तथा वैशेषिक- ये ६ उपांग ग्रन्थ भीउपलब्ध है। आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा स्थापत्यवेद- येक्रमशः चारों वेदों के उपवेद कात्यायन ने बतलाये हैं।

Thursday, September 24, 2015

वेद और देव

वेद और देव



वेद और देव

वेदों में देव विषय को लेकर अनेक भ्रांतियां हैं।

शंका  1- देव शब्द से क्या अभिप्राय समझते हैं ?

समाधान- निरुक्त[i] में यास्काचार्य के अनुसार देव शब्द दा, द्युत और दिवु इस धातु से बनता हैं। इसके अनुसार ज्ञान,प्रकाश, शांति, आनंद तथा सुख देने वाली सब वस्तुओं को देव कहा जा सकता हैं। यजुर्वेद[ii] में अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र वसु, रूद्र, आदित्य, इंद्र इत्यादि को देव के नाम से पुकारा गया हैं। परन्तु वेदों[iii]  में तो पूजा के योग्य केवल एक सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, भगवान ही हैं।
देव शब्द का प्रयोग सत्यविद्या का प्रकाश करनेवाले सत्यनिष्ठ विद्वानों के लिए भी होता हैं क्यूंकि वे ज्ञान का दान करते हैं और वस्तुओं के यथार्थ स्वरुप को प्रकाशित करते हैं [iv] । देव का प्रयोग जीतने की इच्छा रखनेवाले व्यक्तियों विशेषत: वीर, क्षत्रियों, परमेश्वर की स्तुति करनेवाले तथा पदार्थों का यथार्थ रूप से वर्णन करनेवाले विद्वानों, ज्ञान देकर मनुष्यों को आनंदित करनेवाले सच्चे ब्राह्मणों, प्रकाशक, सूर्य,चन्द्र, अग्नि, सत्य व्यवहार करने वाले वैश्यों के लिए भी होता हैं[v]

शंका  2- वेदों में 33 देवों होने से क्या अभिप्राय हैं?

समाधान- वेदों एवं ब्राह्मण आदि ग्रंथों में 33 देवों का वर्णन मिलता हैं। 33 देवों के आधार पर यह निष्कर्ष प्राय: निकाला जाता हैं की वेद अनेकेश्वरवादी अर्थात एक से अधिक ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखते हैं। वेदों में अनेक स्थानों पर 33 देवों का वर्णन मिलता हैं[vi] ईश्वर और देव में अंतर स्पष्ट होने से एक ही उपासना करने योग्य ईश्वर एवं कल्याणकारी अनेक  देवों में सम्बन्ध स्पष्ट होता हैं।
शतपथ[vii] के अनुसार 33 देवता हैं 8 वसु, 11 रूद्र, 12 आदित्य, द्यावा और पृथ्वी और 34 वां प्रजापति परमेश्वर हैं। इसी बात को ताण्ड्य महाब्राह्मण[viii] और ऐतरेय ब्राह्मण[ix] में भी कहा गया हैं।

शंका  3- परमेश्वर और 33 देवों में क्या सम्बन्ध हैं?

 परमेश्वर और 33 देवों के मध्य सम्बन्ध का वर्णन करते हुए कहा गया हैं कि ये 33 देव जिसके अंग में समाये हुए हैं उसे स्कम्भ (सर्वाधार परमेश्वर) कहो। वही सबसे अधिक सुखदाता हैं। ये 33 देव जिसकी निधि की रक्षा करते हैं उस निधि को कौन जानता हैं? ये देव जिस विराट शरीर में अंग के समान बने हैं उन 33 देवों को ब्रह्मज्ञानी ही ठीक ठीक जानते हैं, अन्य नहीं। इन सभी में पूजनीय तो वह एकमात्र देवों का अधिदेव और प्राणस्वरूप परमेश्वर ही हैं। 
वेद में अनेक मन्त्रों के माध्यम से ईश्वर को देवों का पिता, मित्र, आत्मा, जनिता अर्थात उत्पादक, अंतर्यामी, अमरता को प्रदान करने वाला, कष्टों से बचानेवाला, जीवनाधारदेवों अर्थात सत्यनिष्ठ विद्वान का मित्र आदि के रूप में कहा गया हैं।
शंका  4- देवता शब्द का क्या अभिप्राय हैं ?
कठोपनिषद[xix] का भी प्रमाण हैं की सूर्य, चन्द्रमा, तारे, बिजली और अग्नि ये सब परमेश्वर में प्रकाश नहीं कर सकते, किन्तु इस सबका प्रकाश करनेवाला एक वही है क्यूंकि परमेश्वर के प्रकाश से ही सूर्य आदि सब जगत प्रकाशित हो रहा हैं। इसमें यह जानना चाहिये की ईश्वर से भिन्न कोई पदार्थ स्वतन्त्र प्रकाश करनेवाला नहीं हैं , इससे एक परमेश्वर ही मुख्य देव हैं।
शंका  5- वेदों में एकेश्वरवाद अर्थात ईश्वर के एक होने के क्या प्रमाण हैं?
समाधान- पश्चिमी विद्वान वेदों में बहुदेवतावाद या अनेकेश्वरवाद मानते हैं। जब उन्हें वेदों में उन्होंने यहाँ तक कह डाला की वेदों ने प्रारम्भिक से अनेकेश्वरवाद के क्रमबद्ध तत्वज्ञान का विकास प्राकृतिक, एकेश्वरवाद और अद्वैतवाद की मंजिलों से गुजरते हुए किया[xx]। यह एक कल्पना मात्र हैं क्यूंकि निष्पक्ष रूप से पढ़ने ज्ञात होता हैं की वेदों में अनेक देवताओं का वर्णन मिलता हैं मगर पूजा का विधान केवल देवाधिदेव सभी देवों के अधिष्ठाता एक ईश्वर की ही बताई गई हैं। इंद्र, मित्र, वरुण, अग्नि, यम, मातरिश्वा, वायु, सूर्य, सविता आदि प्रधानतया उस एक परमेश्वर के ही भिन्न-भिन्न गुणों को सुचित करने वाले नाम हैं। 

   वेदमंत्रों में ईश्वर के एक होने के अनेक प्रमाण हैं। जैसे 

ऋग्वेद

1. जो एक ही सब मनुष्यों का और वसुओ का ईश्वर हैं [xxi]
2. जो एक ही हैं और दानी मनुष्य को धन प्रदान करता हैं[xxii]
3. जो एक ही हैं और मनुष्यों से पुकारने योग्य हैं[xxiii]
4. हे परमेश्वर (इन्द्र), तू सब जनों का एक अद्वितीय स्वामी हैं, तू अकेला समस्त जगत का राजा हैं[xxiv]
5. हे मनुष्य, जो परमेश्वर एक ही हैं उसी की तू स्तुति कर, वह सब मनुष्यों का द्रष्टा हैं[xxv]
6. तो एक ही अपने पराकर्म से सबका इश्वर बना हुआ हैं [xxvi]
7. विश्व को रचने वाला एक ही देव हैं, जिसने आकाश और भूमि को जन्म दिया हैं [xxvii]
 8. हे दुस्तो को दंड देने वाले परमेश्वर, तुझ से अधिक उत्कृष्ट और तुझ से बड़ा संसार में कोई नहीं हैं, न ही तेरी बराबरी का अन्य कोई नहीं हैं[xxviii]
9. एक सतस्वरूप परमेश्वर को बुद्धिमान ज्ञानी लोग अनेक नामों से पुकारते हैं। उसी को वे अग्नि, यम, मातरिश्वा,इंद्र, मित्र, वरुण, दिव्य, सुपर्ण इत्यादि नामों से याद करते हैं[xxix]
10. जो ईश्वर एक ही हैं, हे मनुष्य!  तू उसी की स्तुति कर[xxx]
11. ऋग्वेद के 10/121 के हिरण्यगर्भ सूक्त में प्रजापति के नाम से भगवान का स्मरण करते हुए परमेश्वर को चार बार "एक" शब्द का प्रयोग हुआ हैं। इस सूक्त में एकेश्वरवाद का इन स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादन हैं की न चाहते हुए भी मैक्समूलर महोदय ने लिखते हैं "मैं एक और सूक्त ऋग्वेद 10/121 को जोड़ना चाहता हूँ, जिसमें एक ईश्वर का विचार इतनी प्रबलता और निश्चय के साथ प्रकट किया गया हैं की हमें आर्यों के नैसर्गिक एकेश्वरवादी होने से इंकार करते हुए बहुत अधिक संकोच करना पड़ेगा।[xxxi]"
ईसाई मत के पूर्वाग्रह से ग्रसित होने के कारण मैक्समूलर महोदय ने एक नई तरकीब निकाली एकेश्वरवाद को सिद्ध करने वाले मन्त्रों को नवीन सिद्ध करने का प्रयास किया[xxxii]

यजुर्वेद
1. वह ईश्वर अचल हैं, एक हैं, मन से भी अधिक वेगवान हैं [xxxiii]

अथवर्वेद
1. पृथ्वी आदि लोकों का धारण करने वाला ईश्वर हमें सुख देवे,जो जगत का स्वामी हैं, एक ही हैं, नमस्कार करने योग्य हैं, बहुत सुख देने वाला हैं [xxxiv]
2. आओ, सब मिलकर स्तुति वचनों से इस परमात्मा की पूजा करो, जो आकाश का स्वामी हैं, एक हैं, व्यापक हैं और हम मनुष्यों का अतिथि हैं[xxxv]
3. वह परमेश्वर एक हैं, एक हैं, एक ही हैं. उसके मुकाबले में कोई दूसरा , तीसरा, चौथा परमेश्वर नहीं हैं, पांचवां, छठा , सातवाँ नहीं हैं, आठवां, नौवां, दसवां नहीं हैं. वही एक परमेश्वर चेतन- अचेतन सबको देख रहा हैं[xxxvi]
इस प्रकार वेदों में दिए गए मंत्रो से यह सिद्ध होता हैं की परमेश्वर एक हैं।
शंका  6- मैक्समूलर द्वारा प्रचारित (Henotheism) हीनोथीइज़्म में क्या खामियां हैं?

समाधान- मैक्समूलर महोदय द्वारा प्रचारित हीनोथीइज़्म[xxxvii] के अनुसार प्रत्येक वैदिक कवि वा ऋषि जब जिस देवता की स्तुति करने लगता हैं तब उसी को सर्वोत्कृष्ट बताने और उसके अंदर सर्वोत्कृष्टता के सब गुणों को समाविष्ट करने का प्रयत्न करता हैं।वेद के अनेक ऐसे सूक्तों को पाना बहुत सुगम हैं, जिनमें प्राय: प्रत्येक देवता को सबसे ऊँचा और पूर्ण बताया गया हैं। ऋग्वेद के द्वितीय मंडल के प्रथम  सूक्त में अग्नि को सब मनुष्यों का बुद्धिमान राजा, संसार का स्वामी और शासक, मनुष्यों का पिता, भाई, पुत्र और मित्र कहा गया हैं और दूसरे देवों की सब शक्तियां और नाम स्पष्टया उसकी मानी गई हैं।
 मैक्समूलर महोदय वेदों के अटल सिद्धांत को समझ नहीं पाये। वेद के ही अनुसार ईश्वर को इंद्र, विष्णु, ब्रह्मा, ब्राह्मणस्पति, वरुण,मित्र, अर्यमा, रूद्र, पूषा, द्रविणोदा, सवितादेव और भग कहा गया हैं और ये सब नाम प्रधानतया उस एक अग्निपद्वाच्य सर्वज्ञ परमेश्वर के हैं और उन्हीं के गुणों को सूचित करते हैं[xxxviii]। जैसे कि परिवार में एक ही व्यक्ति को अनेक संबंधों के कारण भिन्न भिन्न व्यक्ति पिता, चाचा, दादा, भाई,मामा आदि नामों से पुकारते हैं वैसे ही एक परमात्मा के अनंत गुणों को सूचित करने के लिए अनेक नाम प्रयुक्त किये जाते हैं। जब ज्ञानस्वरूप के रूप में उसका स्मरण किया जाता हैं तो उसे अग्नि कहा जाता हैं, उसकी परमैश्वर्य सम्पन्नता दिखाने के लिए ब्रह्मा, ज्ञान का अधिपतितत्व दिखाने के लिए ब्राह्मणस्पति, सर्वोत्तमता और पापनिवारकता सूचित करने के लिए वरुण, सबके साथ प्रेम दर्शाने के लिए मित्र, न्यायकारिता के लिए अर्यमा, दुष्टों को रुलाने के लिए  रूद्र, ज्ञानादि देने के लिए द्रविणोदा, प्रकाशस्वरूप होने के लिए सविता आदि कहते हैं। अर्थात यह सभी नाम एक ही ईश्वर के हैं जोकि उनके विभिन्न गुणों को दर्शाते हैं।
वेदों में एक ईश्वर के विभिन्न नाम होने की साक्षी भी दी गयी हैं जैसे-
1. परमेश्वर एक ही हैं ज्ञानी लोग उसे विभिन्न नामो से पुकारते हैं,
2. यहीं भाव ऋग्वेद 3/26/7, ऋग्वेद 10/82/3, यजुर्वेद 32/1, अथर्वेद 13/4 में भी कहाँ गया हैं।
उदहारण के लिए जिस प्रकार बाईबिल में ईश्वर को God, Almighty, Lord आदि अनेको नाम से पुकारा गया हैं उसी प्रकार वेदों में ईश्वर को भी विभिन्न नाम से पुकारा गया हैं। 
श्री अरविन्द घोष ने मैक्समूलर के हीनोथीइज़्म की कथित आलोचना अपने ग्रंथों में की हैं[xli]। मैक्समूलर की यह कल्पना वेदों में एकेश्वरवाद को असफल रूप से सिद्ध करने के प्रयासों की एक कड़ी मात्र हैं। 
इस प्रकार से यह सिद्ध होता हैं की वैदिक ईश्वर एक हैं एवं वेद विशुद्ध एकेश्वरवाद का सन्देश देते हैं। वेदों में बहुदेवतावाद एक भ्रान्ति मात्र हैं और देव आदि शब्द कल्याणकारी शक्तियों से लेकर श्रेष्ठ मानव आदि के लिए प्रयोग हुआ हैं एवं उपासना के योग्य केवल एक ईश्वर हैं। ईश्वर के भी विभिन्न गुणों के कारण अनेक नाम हो सकते हैं एवं अनेक नाम देवों के भी हो सकते हैं।



[i] निरुक्त 7/15
[ii] यजुर्वेद 14/20
[iii] ऋग्वेद 6/55/16, ऋग्वेद 6/22/1, ऋग्वेद 8/1/1, अथर्ववेद 2/2/1
[iv] शतपथ 3/7/3/10, शतपथ 2/2/2/6, शतपथ 4/3/44/4, शतपथ 2/1/3/4, गोपथ 1/6,
[v] शतपथ 6/3/1/15,शतपथ 7/5/1/21, शतपथ 7/2/4/26, गोपथ 2/10
[vi] अथर्ववेद 10/7/13,अथर्ववेद 10/7/27, ऋग्वेद 1/45/27, ऋग्वेद 8/28/1, यजुर्वेद 20/36
[vii] शतपथ ब्राह्मण 4/5/7/2
[viii] ताण्ड्य महाब्राह्मण 6/2/5
[ix] ऐतरेय ब्राह्मण 2/18/37
[x] ऋग्वेद 2/26/3  
[xi] ऋग्वेद 1/31/1
[xii] ऋग्वेद 4/3/7
[xiii] ऋग्वेद 10/168/4
[xiv] ऋग्वेद 10/121/8
[xv] ऋग्वेद 1/50/9
[xvi] यजुर्वेद 32/10
[xvii] अथवर्वेद 10/7/38
[xviii] वेदविषयविचार अध्याय 4 ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका
[xix] कठोपनिषद 5/15
[xx] It has been generally held that the Rigvedic Religion is essentially poly-theistic one, taking on a pantheistic coloring only in a few of its latest hymns. Yet a deeply abstract philosophizing crops up unexpectedly in some hymns as a reminder of the long journey made from primitive polytheism to systematic philosophy, through the stages of Naturalistic poly-theism, monotheism and monism.p.37, Vedic Age
[xxi] ऋग्वेद 1/7/9
[xxii] ऋग्वेद 1/84/6
[xxiii] ऋग्वेद 6/22/1
[xxiv] ऋग्वेद 6/36/4
[xxv] ऋग्वेद 6/45/16
[xxvi] ऋग्वेद 8/6/41
[xxvii] ऋग्वेद 10/81/3
[xxviii] ऋग्वेद 4/30/1
[xxix] ऋग्वेद 1/164/46
[xxx] ऋग्वेद 5/51/16
[xxxi] I add only one more Hymn (Rig. 10-121) in which the idea of one God is expressed with such power and decision, that it will make us hesitate before we deny to the Aryans an instinctive Mono-theism. P.578, History on Ancient Sanskrit Literature by Maxmuller.
[xxxii]  This is one of the Hymns which have always been suspected as modern by European interpreters. P.3, Vedic hymns by Maxmuller
[xxxiii] यजुर्वेद 40/4
[xxxiv] अथवर्वेद 2/2/2
[xxxv] अथवर्वेद 6/21/1
[xxxvi] अथवर्वेद 16/4/16-20
[xxxvii] Ancient Sanskrit Literature. p.353-35. Prof. Maxmuller
[xxxviii] ऋग्वेद 2/1/3-7
[xxxix] ऋग्वेद 1/164/46
[xl] ऋग्वेद 10/114/5
[xli] Dayanand Bankim Tilak, P.17-18  by Shri Arvind
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