Showing posts with label ved. Show all posts
Showing posts with label ved. Show all posts

Saturday, November 28, 2015

वेद

वेद
वेद शब्द संस्कृत भाषा के "विद्" धातु से बना है जिसका अर्थहै: जानना, ज्ञान इत्यादि। वेद हिन्दू धर्म के प्राचीन
पवित्र ग्रंथों का नाम है । वेदों को श्रुति भी कहा जाताहै, क्योकि माना जाता है कि इसके मन्त्रों को परमेश्वर
Sanatan Dharma (ब्रह्म) ने प्राचीन ऋषियों को अप्रत्यक्ष रूप से सुनाया थाजब वे गहरी तपस्या में लीन थे । वेद प्राचीन भारत के वैदिककाल की वाचिक परम्परा की अनुपम कृति है जो पीढी दरपीढी पिछले चार-पाँच हजार वर्षों से चली आ रही है । वेदही हिन्दू धर्म के सर्वोच्च और सर्वोपरि धर्मग्रन्थ हैं ।वेदों का महत्व : भारतीय संस्कृति के मूल वेद हैं। ये हमारे सबसेपुराने धर्म-ग्रन्थ हैं और हिन्दू धर्म का मुख्य आधार हैं। न केवलधार्मिक किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से भी वेदों काअसाधारण महत्त्व है। वैदिक युग के आर्यों की संस्कृति औरसभ्यता जानने का एकमात्र साधन यही है। मानव-जातिऔर विशेषतः आर्य जाति ने अपने शैशव में धर्म और समाज काकिस प्रकार विकास किया इसका ज्ञान वेदों से हीमिलता है। विश्व के वाङ्मय में इनसे प्राचीनतम कोई पुस्तकनहीं है।

आर्य-भाषाओं का मूलस्वरूप निर्धारित करने मेंवैदिक भाषा बहुत अधिक सहायक सिद्ध हुई है। वर्तमानकाल में वेद चार माने जाते हैं - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथाअथर्ववेद।द्वापरयुग की समाप्ति के पूर्व वेदों के उक्त चार विभागअलग-अलग नहीं थे। उस समय तो ऋक्, यजुः और साम - इनतीन शब्द-शैलियों की संग्रहात्मक एक विशिष्ट अध्ययनीयशब्द-राशि ही वेद कहलाती थी। विश्व में शब्द-प्रयोगकी तीन शैलियाँ होती है; जो पद्य (कविता), गद्य औरगानरुप से प्रसिद्ध हैं। पद्य में अक्षर-संख्या तथा पाद एवंविराम का निश्चित नियम होता है। अतः निश्चितअक्षर-संख्या तथा पाद एवं विराम वाले वेद-मन्त्रों कीसंज्ञा ‘ऋक्’ है। जिन मन्त्रों में छन्द के नियमानुसार अक्षर-संख्या तथा पाद एवं विराम ऋषिदृष्ट नहीं है, वे गद्यात्मकमन्त्र ‘यजुः’ कहलाते हैं। और जितने मन्त्र गानात्मक हैं, वेमन्त्र ‘साम’ कहलाते हैं। इन तीन प्रकार की शब्द-प्रकाशन-शैलियों के आधार पर ही शास्त्र एवं लोक में वेद के लिये‘त्रयी’ शब्द का भी व्यवहार किया जाता है। वेद के पठन-पाठन के क्रम में गुरुमुख से श्रवण एवं याद करने का वेद के संरक्षणएवं सफलता की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व है। इसी कारण वेदको ‘श्रुति’ भी कहते हैं। वेद परिश्रमपूर्वक अभ्यास द्वारासंरक्षणीय है, इस कारण इसका नाम ‘आम्नाय’ भी है।द्वापरयुग की समाप्ति के समय वेदपुरुष भगवान् नारायण केअवतार श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास जी ने यज्ञानुष्ठान केउपयोग को दृष्टिगत उस एक वेद के चार विभाग कर दिये और
इन चारों विभागों की शिक्षा चार शिष्यों को दी। येही चार विभाग ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के नाम
से प्रसिद्ध है। पैल, वैशम्पायन, जैमिनि और सुमन्तु नामक - इनचार शिष्यों ने शाकल आदि अपने भिन्न-भिन्न शिष्योंको पढ़ाया। इन शिष्यों के द्वारा अपने-अपने अधीत वेदोंके प्रचार व संरक्षण के कारण वे शाखाएँ उन्हीं के नाम सेप्रसिद्ध हो रही है। शाखा के नाम से सम्बन्धित व्यक्तिका उस वेदशाखा की रचना से सम्बन्ध नहीं है, अपितु प्रचारएवं संरक्षण के कारण सम्बन्ध है।वेदों का प्रधान लक्ष्य आध्यात्मिक ज्ञान देना ही है।अतः वेद में कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड - इन दोनों विषयोंका सर्वांगीण निरुपण किया गया है। वेदों काप्रारम्भिक भाग कर्मकाण्ड है और वह ज्ञानकाण्ड वालेभाग से अधिक है। जिन अधिकारी वैदिक विद्वानों कोयज्ञ कराने का यजमान द्वारा अधिकार प्राप्त होता है,उनको ‘ऋत्विक’ कहते हैं। श्रौतयज्ञ में इन ऋत्विकों के चारगण हैं। होतृगण, अध्वर्युगण, उद्गातृगण तथा ब्रह्मगण। उपर्युक्तचारों गणों के लिये उपयोगी मन्त्रों के संग्रह के अनुसार वेदचार हुए हैं। वेद के असल मन्त्र भाग को संहिता कहते हैं।
ऋग्वेद- इसमें होतृवर्ग के लिये उपयोगी मन्त्रों कासंकलन है। इसमें ‘ऋक्’ संज्ञक (पद्यबद्ध) मन्त्रों कीअधिकता के कारण इसका नाम ऋग्वेद हुआ। इसमेंहोतृवर्ग के उपयोगी गद्यात्मक (यजुः) स्वरुप के भीकुछ मन्त्र हैं। (इसमें देवताओं का आह्वान करने के लियेमन्त्र हैं. यही सर्वप्रथम वेद है. यह वेद मुख्यतः ऋषिमुनियों के लिये होता है।
यजुर्वेद- इसमें यज्ञानुष्ठान सम्बन्धी अध्वर्युवर्ग केउपयोगी मन्त्रों का संकलन है। इसमें ‘गद्यात्मक’मन्त्रों की अधिकता के कारण इसका नाम ‘यजुर्वेद’है। इसमें कुछ पद्यबद्ध, मन्त्र भी हैं, जो अध्वर्युवर्ग केउपयोगी हैं। यजुर्वेद के दो विभाग हैं- (क)शुक्लयजुर्वेद और (ख) कृष्णयजुर्वेद। इसमें यज्ञ की असलप्रक्रिया के लिये गद्य मन्त्र हैं. यह वेद मुख्यतःक्षत्रियो के लिये होता है।सामवेद- इसमें यज्ञानुष्ठान के उद्गातृवर्ग केउपयोगी मन्त्रों का संकलन है। इसमें गायन पद्धति केनिश्चित मन्त्र होने के कारण इसका नाम सामवेदहै। इसमें यज्ञ में गाने के लिये संगीतमय मन्त्र हैं)(यहवेद मुख्यतः गन्धर्व लोगो के लिये होता है।अथर्ववेद- इसमें यज्ञानुष्ठान के ब्रह्मवर्ग के उपयोगी
मन्त्रों का संकलन है। अथर्व का अर्थ है कमियों कोहटाकर ठीक करना या कमी-रहित बनाना। अतःइसमें यज्ञ-सम्बन्धी एवं व्यक्ति सम्बन्धी सुधार याकमी-पूर्ति करने वाले मन्त्र भी है। इसमें पद्यात्मकमन्त्रों के साथ कुछ गद्यात्मक मन्त्र भी उपलब्ध है।इस वेद का नामकरण अन्य वेदों की भाँति शब्द-शैली के आधार पर नहीं है, अपितु इसके प्रतिपाद्यविषय के अनुसार है। इस वैदिक शब्दराशि काप्रचार एवं प्रयोग मुख्यतः अथर्व नाम के महर्षिद्वारा किया गया। इसलिये भी इसका नामअथर्ववेद है। इसमें जादू, चमत्कार, आरोग्य, यज्ञ केलिये मन्त्र हैं. यह वेद मुख्यतः व्यापारियो के लियेहोता है।वेद की संहिताओं में मंत्राक्षरॊं में खड़ी तथा आड़ी रेखायेंलगाकर उनके उच्च, मध्यम, या मन्द संगीतमय स्वर उच्चारण करनेके संकेत किये गये हैं। इनको उदात्त, अनुदात्त ऒर स्वारित केनाम से अभिगित किया गया हैं। ये स्वर बहुत प्राचीन समयसे प्रचलित हैं और महामुनि पतंजलि ने अपने महाभाष्य में इनकेमुख्य मुख्य नियमों का समावेश किया है ।हर वेद के चार भाग होते हैं । पहले भाग (संहिता) के अलावाहरेक में टीका अथवा भाष्य के तीन स्तर होते हैं । कुलमिलाकर ये हैं : संहिता (मन्त्र भाग), ब्राह्मण-ग्रन्थ (गद्यमें कर्मकाण्ड की विवेचना), आरण्यक (कर्मकाण्ड के पीछे केउद्देश्य की विवेचना), उपनिषद (परमेश्वर, परमात्मा-ब्रह्मऔर आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक औरज्ञानपूर्वक वर्णन). ये चार भाग सम्मिलित रूप से श्रुति कहेजाते हैं जो हिन्दू धर्म के सर्वोच्च ग्रन्थ हैं । 
बाकी ग्रन्थस्मृति के अन्तर्गत आते हैं ।आधुनिक विचारधारा के अनुसार चारों वेदों की शब्द-राशि के विस्तार में तीन दृष्टियाँ पायी जाती है:याज्ञिक दृष्टिः इसके अनुसार वेदोक्त यज्ञों काअनुष्ठान ही वेद के शब्दों का मुख्य उपयोग मानागया है। सृष्टि के आरम्भ से ही यज्ञ करने मेंसाधारणतया मन्त्रोच्चारण की शैली, मन्त्राक्षर
एवं कर्म-विधि में विविधता रही है। इसविविधता के कारण ही वेदों की शाखाओं काविस्तार हुआ है। यथा-ऋग्वेद की २१ शाखा,यजुर्वेद की १०१ शाखा, सामवेद की १००० शाखाऔर अथर्ववेद की ९ शाखा- इस प्रकार कुल १,१३१
शाखाएँ हैं। इस संख्या का उल्लेख महर्षि पतञ्जलि नेअपने महाभाष्य में भी किया है। उपर्युक्त १,१३१शाखाओं में से वर्तमान में केवल १२ शाखाएँ ही मूलग्रन्थों में उपलब्ध हैः ऋग्वेद की २१ शाखाओं में सेकेवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं- ( शाकल-शाखा और शांखायन शाखा ), यजुर्वेद मेंकृष्णयजुर्वेद की ८६ शाखाओं में से केवल ४ शाखाओं केग्रन्थ ही प्राप्त है- ( तैत्तिरीय-शाखा,मैत्रायणीय शाखा, कठ-शाखा और कपिष्ठल-शाखा), शुक्लयजुर्वेद की १५ शाखाओं में से केवल २शाखाओं के ग्रन्थ ही प्राप्त है- ( माध्यन्दिनीय-शाखा और काण्व-शाखा ), सामवेद की १,०००शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्तहै- ( कौथुम-शाखा और जैमिनीय-शाखा ),अथर्ववेद की ९ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के हीग्रन्थ प्राप्त हैं- ( शौनक-शाखा और पैप्पलाद-शाखा). उपर्युक्त १२ शाखाओं में से केवल ६ शाखाओंकी अध्ययन-शैली प्राप्त है- शाकल, तैत्तरीय,माध्यन्दिनी, काण्व, कौथुम तथा शौनक शाखा।यह कहना भी अनुपयुक्त नहीं होगा कि अन्यशाखाओं के कुछ और भी ग्रन्थ उपलब्ध हैं, किन्तु उनसेशाखा का पूरा परिचय नहीं मिल सकता एवं बहुत-सी शाखाओं के तो नाम भी उपलब्ध नहीं हैं।
प्रायोगिक दृष्टिः इसके अनुसार प्रत्येक शाखा केदो भाग बताये गये हैं। मन्त्र भाग - यज्ञ मेंसाक्षात्-रुप से प्रयोग आती है तथा ब्राह्मणभाग- जिसमें विधि (आज्ञाबोधक शब्द), कथा,आख्यायिका एवं स्तुति द्वारा यज्ञ कराने की
प्रवृत्ति उत्पन्न कराना, यज्ञानुष्ठान करने कीपद्धति बताना, उसकी उपपत्ति और विवेचन केसाथ उसके रहस्य का निरुपण करना है।साहित्यिक दृष्टि: इसके अनुसार प्रत्येक शाखाकी वैदिक शब्द-राशि का वर्गीकरण- संहिता,
ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् इन चार भागों में है।वेदों के सर्वांगीण अनुशीलन के लिये शिक्षा, कल्प,व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष - इन ६ अंगों के ग्रन्थ हैं।प्रतिपदसूत्र, अनुपद, छन्दोभाषा (प्रातिशाख्य),धर्मशास्त्र, न्याय तथा वैशेषिक- ये ६ उपांग ग्रन्थ भीउपलब्ध है। आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा स्थापत्यवेद- येक्रमशः चारों वेदों के उपवेद कात्यायन ने बतलाये हैं।