Sunday, March 20, 2016

How to increase positive energy at home

 Most of these problems are connected to major Vastu and Feng Shui Defects says Dr Snehal S Deshpande N.D., Advanced Feng Shui and Pyravastu Consultant.
Main entrance is the mouth of a house which brings in main energy, so you should avoid a property which has a door facing South West as it is the entry of the devil energy and brings in struggle and misfortunes. If your house already has the one, fix 2 Hanumanji's tiles ( with the Gada in his left hand) outside the door and see the difference.

Mandir/altar is the king of all vastu rules - place it in the North East and rest of the things will automatically start falling in place. Face east while praying.

Kitchen is the symbol of prosperity - and should be ideally placed in the south east. Kitchen in the north or north east may bring financial and health problems. In this case hang 3 bronze bowls upside down on the ceiling but do not hang over the stove.

Master bedroom is the Key to enter the door of stability and it must be in the south west. You should sleep with your head in the south or west. But a bread winner should never sleep in the north east .

Bath rooms and toilets have the energy of 'HELL' - which are best in west or south. But should never be in north and north east or they bring financial, health and educational problems.
Center is the nose of your house - from where your house breaths. It must be open and clutter free. A wall here gives stomach and financial problems so fix a zero watt blue bulb on this wall and keep it on 24 *7.
 Cuts in any direction make a house paralyzed - mainly cuts in south west, north, north east and south east give serious problems. There are many mysteries and secrets regarding the cuts and their cures.

An evil energy resides in the deep holes in the South West - underground water tank or a well here is the threatening defect. Water placement (only underground) is good in north, north east (not on the axis).

Water streams, air cavities which are present 200 meters down the earth create a stress line and weaken the EMF of the earth and give birth to geopathic stress. Sleeping on severe geopathic stress is the main reason of major and recurring illnesses.

Divine secret - Last commandment is very important. If you have a very good house as per the vastu rules stated above and the flying Star Chart or the Feng Shui of your place is very bad, the house is not auspicious. It will give miseries to the occupant. And vice versa.
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Vastu Shastra

Sunday, March 13, 2016

Importance of sun in jyotish

ज्योतिष में सूर्य का महत्त्व
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भारतीय वैदिक ज्योतिष के अनुसार सूर्य को समस्त ग्रहों का राजा माना जाता है और इसे समस्त प्राणी जगत को जीवन प...्रदान करने वाली उर्जा का केंद्र भी माना जाता है। सूर्य को ज्योतिष की गणनाओं के लिए पुरुष ग्रह माना जाता है। प्रत्येक व्यक्ति की कुंडली में सूर्य को आम तौर पर उसके पिता का प्रतिनिधि माना जाता है जो उस व्यक्ति के इस प्राणी जगत में जन्म लेने का प्रत्यक्ष कारक होता है ठीक उसी प्रकार जैसे सूर्य को इस प्राणी जगत को चलाने वाले प्रत्यक्ष देवता का रुप माना जाता है। कुंडली में सूर्य को कुंडली धारक के पूर्वजों का प्रतिनिधि भी माना जाता है क्योंकि वे कुंडली धारक के पिता के इस संसार में आने का प्रत्यक्ष कारक होते हैं। इस कारण से सूर्य पर किसी भी कुंडली में एक या एक से अधिक बुरे ग्रहों का प्रभाव होने पर उस कुंडली में पितृ दोष का निर्माण हो जाता है जो कुंडली धारक के जीवन में विभिन्न प्रकार की मुसीबतें तथा समस्याएं पैदा करने में सक्षम होता है।
पिता तथा पूर्वजों के अतिरिक्त सूर्य को राजाओं, राज्यों, प्रदेशों तथा देशों के प्रमुखों, उच्च पदों पर आसीन सरकारी अधिकारियों, सरकार, ताकतवर राजनीतिज्ञों तथा पुलिस अधिकारीयों, चिकित्सकों तथा ऐसे कई अन्य व्यक्तियों और संस्थाओं का प्रतिनिधि भी माना जाता है। सूर्य को प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा का, जीवन दायिनी शक्ति का, इच्छा शक्ति का, रोगों से लड़ने की शक्ति का, आँखों की रोशनी का, संतान पैदा करने की शक्ति का तथा विशेष रूप से नर संतान पैदा करने की शक्ति का, नेतृत्व करने की क्षमता का तथा अधिकार एवम नियंत्रण की शक्ति का प्रतीक भी माना जाता है।
व्यक्ति के शरीर में सूर्य पित्त प्रवृति का प्रतिनिधित्व करते हैं क्योंकि सूर्य ग्रह के स्वभाव तथा अधिकार में अग्नि तत्व होता है। बारह राशियों में सूर्य अग्नि राशियों ( मेष, सिंह तथा धनु ) में स्थित होकर विशेष रूप से बलवान हो जाते हैं तथा मेष राशि में स्थित होने से सूर्य को सर्वाधिक बल प्राप्त होता है और इसी कारण इस राशि में सूर्य को उच्च का माना जाता है। मेष राशि के अतिरिक्त सूर्य सिंह राशि में स्थित होकर भी बली हो जाते हैं जो कि सूर्य की अपनी राशि है तथा इसके अतिरिक्त सूर्य धनु राशि में भी बलवान होते हैं जिसके स्वामी गुरू हैं। जिन व्यक्तियों की जन्म कुंडली में सूर्य बलवान तथा किसी भी बुरे ग्रह के प्रभाव से रहित होकर स्थित होते हैं ऐसे कुंडली धारक आम तौर पर जीवन भर सवस्थ रहते हैं क्योंकि सूर्य को सीधे तौर पर व्यक्ति के निरोग रहने की क्षमता का प्रतीक माना जाता है। कुंडली में सूर्य बलवान होने से कुंडली धारक की रोग निरोधक क्षमता सामान्य से अधिक होती है तथा इसी कारण उसे आसानी से कोई रोग परेशान नहीं कर पाता। ऐसे व्यक्तियों का हृदय बहुत अच्छी तरह से काम करता है जिससे इनके शरीर में रक्त का सचार बड़े सुचारू रूप से होता है। ऐसे लोग शारीरिक तौर पर बहुत चुस्त-दुरुस्त होते हैं तथा आम तौर पर इनके शरीर का वज़न भी सामान्य से बहुत अधिक या बहुत कम नहीं होता हालांकि इनमें से कुछ तथ्य कुंडली में दूसरे ग्रहों की शुभ या अशुभ स्थिति के साथ बदल भी सकते हैं।
कुंडली में सूर्य के बलवान होने पर कुंडली धारक सामान्यतया समाज में विशेष प्रभाव रखने वाला होता है तथा अपनी संवेदनाओं और भावनाओं पर भली भांति अंकुश लगाने में सक्षम होता है। इस प्रकार के लोग आम तौर पर अपने जीवन के अधिकतर निर्णय तथ्यों के आधार पर ही लेते हैं न कि भावनाओं के आधार पर। ऐसे लोग सामान्यतया अपने निर्णय पर अड़िग रहते हैं तथा इस कारण इनके आस-पास के लोग इन्हें कई बार अभिमानी भी समझ लेते हैं जो कि ये कई बार हो भी सकते हैं किन्तु अधिकतर मौकों पर ऐसे लोग तर्क के आधार पर लिए गए सही निर्णय की पालना ही कर रहे होते हैं तथा इनके अधिक कठोर लगने के कारण इनके आस-पास के लोग इन्हें अभिमानी समझ लेते हैं। अपने इन गुणों के कारण ऐसे लोगों में बहुत अच्छे नेता, राजा तथा न्यायाधीश बनने की क्षमता होती है।
पुरुषों की कुंडली में सूर्य का बलवान होना तथा किसी बुरे ग्रह से रहित होना उन्हें सवस्थ तथा बुद्धिमान संतान पैदा करने की क्षमता प्रदान करता है तथा विशेष रुप से नर संतान पैदा करनी की क्षमता। बलवान सूर्य वाले कुंडली धारक आम तौर पर बहुत सी जिम्मेदारियों को उठाने वाले तथा उन्हें निभाने वाले होते हैं जिसके कारण आवश्यकता से अधिक काम करने के कारण कई बार इन्हें शारीरिक अथवा मानसिक तनाव का सामना भी करना पड़ता है। ऐसे लोग आम तौर पर पेट में वायु विकार जैसी समस्याओं तथा त्वचा के रोगों से पीड़ित हो सकते हैं जिसका कारण सूर्य का अग्नि स्वभाव होता है जिससे पेट में कुछ विशेष प्रकार के विकार तथा रक्त में अग्नि तत्व की मात्रा बढ़ जाने से त्वचा से संबधित रोग भी हो सकते हैं।
बारह राशियों में से कुछ राशियों में सूर्य का बल सामान्य से कम हो जाता है तथा यह बल सूर्य के तुला राशि में स्थित होने पर सबसे कम हो जाता है। इसी कारण सूर्य को तुला राशि में स्थित होने पर नीच माना जाता है क्योंकि तुला राशि में स्थित होने पर सूर्य अति बलहीन हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त सूर्य कुंडली में अपनी स्थिति के कारण तथा एक या एक से अधिक बुरे ग्रहों के प्रभाव में आने के कारण भी बलहीन हो जाते हैं तथा इनमें से अंतिम प्रकार की बलहीनता कुंडली धारक के लिए सबसे अधिक नुकसानदायक होती है। किसी कुंडली में यदि सूर्य तुला राशि में स्थित हों तथा तुला राशि में ही स्थित अशुभ शनि के प्रभाव में हों तो ऐसी हालत में सूर्य को भारी दोष लगता है क्योंकि तुला राशि में स्थित होने के कारण सूर्य पहले ही बलहीन हो जाते हैं तथा दूसरी तरफ तुला राशि में स्थित होने पर शनि को सर्वाधिक बल प्राप्त होता है क्योंकि तुला राशि में स्थित शनि उच्च के हो जाते हैं। ऐसी हालत में पहले से ही बलहीन सूर्य पर पूर्ण रूप से बली शनि ग्रह का अशुभ प्रभाव सूर्य को बुरी तरह से दूषित तथा बलहीन कर देता है जिससे कुंडली में भयंकर पितृ दोष का निर्माण हो जाता है जिसके कारण कुंडली धारक के जीवन में सूर्य के प्रतिनिधित्व में आने वाले सामान्य तथा विशेष, सभी क्षेत्रों पर दुष्प्रभाव पड़ता है। इस लिए किसी भी व्यक्ति की कुंडली का अध्ययन करते समय कुंडली में सूर्य की स्थिति, बल तथा कुंडली के दूसरे शुभ तथा अशुभ ग्रहों के सूर्य पर प्रभाव को ध्यानपूर्वक देखना अति आवश्यक है।
साभार-योगेश मिश्र (वकील एंव ज्योतिष शोधकर्ता )

ध्यान की शक्ति

ध्यान की शक्ति

साधक जैसे- जैसे ध्यान पथ पर आगे बढ़ते हैं उनकी संवेदनाएँ सूक्ष्म हो जाती है। इस संवेदनात्मक सूक्ष्मता के साथ ही उनमें संवेगात्मक स्थिरता- नीरवता व... गहरी शान्ति भी आती है और ऐसे में उनके अनुभव भी गहरे, व्यापक, संवेदनशील व पारदर्शी होते चले जाते हैं। साधना की अविरामता से उत्तरोत्तर सूक्ष्म होने से चेतना स्वतः ही नए मार्ग के द्वार खोलती है।
सच्चाई यह है कि ये अनुभूतियाँ हमारे अन्तःकरण को प्रेरित, प्रकाशित, प्रवर्तित व प्रत्यावर्तित करती हैं। इसमें उच्चस्तरीय आध्यात्मिक चेतना के अवतरण के साथ एक अपूर्व प्रत्यावर्तन घटित होता है। एक गहन रूपान्तरण की प्रक्रिया चलती है। इस प्रक्रिया के साथ ही साधक में दिव्य संवेदनाएँ बढ़ती है और उसकी साधना सूक्ष्मतम की ओर प्रखर होती है।
ध्यान द्वार है अतीन्द्रिय संवेदना और शक्ति का। जो ध्यान करते हैं उन्हें काल क्रम में स्वयं ही इस सत्य का अनुभव हो जाता है। यह सच है कि ध्यान से सम्पूर्ण आध्यात्मिक रहस्य जाने जा सकते हैं, फिर भी इसका अभ्यास व अनुभव कम ही लोग कर पाते हैं। इसका कारण है कि ध्यान के बारे में प्रचलित भ्रान्तियाँ। कतिपय लोग ध्यान को महज एकाग्रता भर समझते हैं। कुछ लोगों के लिए ध्यान केवल मानसिक व्यायाम है। ध्यान को एकाग्रता समझने वाले लोग मानसिक चेतना को एक बिन्दु पर इकट्ठा करने की कोशिश करते हैं हालांकि उनके इस प्रयास के बाद भी परामानसिक चेतना के द्वारा नहीं खुलते। उन्हें अन्तर्जगत् में प्रवेश नहीं मिलता। वे तो बस बाहरी उलझनों में भटकते अथवा मानसिक द्वन्द्वों में अटकते रहते हैं।
जबकि ध्यान एक अन्तर्यात्रा ईश्वरीय ऊर्जा प्राप्ति की तरफ है और यह यात्रा वही साधक कर पाते हैं जिन्होंने अपनी साधना के पहले चरणों में अपनी मानसिक चेतना को स्थिर, सूक्ष्म, अन्तर्मुखी व शान्त कर लिया है। अनुभव का सच यही है कि मानसिक चेतना की स्थिरता, सूक्ष्मता व शान्ति ही प्रकारान्तर से परामानसिक चेतना का स्वरूप बना लेती है। इस अनुभूति साधना में व्यापकता व गुणवत्ता की संवेदना का अतिविस्तार होता है जिससे ईश्वरीय सत्ता के सिद्धांत स्पष्ट होने लगते हैं । साथ ही इसे पाने के लिये अन्तर्चेतना स्वतः ही ऊर्ध्वगमन की ओर प्रेरित होती है और हमारी समूची आन्तरिक सांसारिक योग्यताएँ स्वतः ही समाप्त हो जाती हैं।
इसके साथ ही जब हम सूक्ष्म तत्त्वों के प्रति एकाग्रता बढती हैं, तो संवेदना व चेतना भी सूक्ष्म हो जाती है और हमें सूक्ष्म जगत् की झलकियाँ मिलने लगती है तथा हृदय के पास ज्योतित, अग्निशिखा भी हमें दिखाई देती है। यहीं से अन्तः की यात्रा शुरू होती है और ध्यान की प्रगाढ़ता भाव-समाधि में बदल जाती है और आप ईश्वरीय सत्ता का अंश हो जाते हैं और वह सब कुछ कर-देख सकते हैं जो ईश्वरीय सत्तायें करती हैं और संसारी व्यक्ति आपके कार्यें को आश्चर्य से देखता है

ज्‍योतिष से धन की गति को जानें, Jyotis and Money

ज्‍योतिष से धन की गति को जानें

आमतौर पर हम समझते हैं कि जिस व्‍यक्ति के पास अधिक पैसा होता है, वह अमीर होता है, लेकिन वास्‍तव में ऐसा नहीं है। जिस व्‍यक्ति के प...ास आज पैसा है कल नहीं भी हो सकता है, लेकिन अमीर आदमी के पास अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए हमेशा पर्याप्‍त पैसा होता है। यह मूलभत अंतर हमें ज्‍योतिषीय योगों में भी दिखाई देता है। कोई जातक किसी समय विशेष पर पैसे वाला हो सकता है, लेकिन उस दौरान भी ऐसा हो सकता है कि वह अपनी सभी जरूरतों को पूरा करने में सक्षम न बन पाए। आइए देखते हैं कि ज्‍योतिष में ऐसे कौनसे योग हैं जो हमें पैसे वाला या अमीर बनाते हैं।
कुण्‍डली में दूसरे भाव को ही धन भाव कहा गया है। दूसरे भाव और इसके अधिपति की स्थिति हमारे संग्रह किए जाने वाले धन के बारे में संकेत देती है। कुण्‍डली का चौथा भाव हमारे सुखमय जीवन जीने के बारे में संकेत देता है। पांचवा भाव हमारी उत्‍पादकता के बारे में बताता है, छठे भाव से ऋणों और उत्‍तरदायित्‍वों को देखा जाएगा। सातवां भाव व्‍यापार में साझेदारों को देखने के लिए बताया गया है। इसके अलावा ग्‍यारहवां भाव आय और बारहवां भाव व्‍यय से संबंधित है। प्राचीन काल से ही जीवन में अर्थ के महत्‍व को प्रमुखता से स्‍वीकार किया गया। इसका असर फलित ज्‍योतिष में भी दिखाई देता है। दूसरा, चौथा, पांचवां, छठा, सातवां, ग्‍यारहवां और बारहवां भाव कमोबेश हमारे धन के बारे में ही जानकारी देते हैं। केवल दूसरा भाव सक्रिय होने पर जातक के पास पैसा होता है, लेकिन आय का निश्चित स्रोत नहीं होता, लेकिन दूसरे और ग्‍यारहवें दोनों भावों में मजबूत और सक्रिय होने पर जातक के पास धन भी होता है और उस धन से अधिक धन पैदा करने की ताकत भी। ऐसे जातक को ही सही मायने में अमीर कहेंगे।
दूसरा भाव प्रबल होने पर जातक के पास पैतृक धन बहुतायत से होता है। उसे अच्‍छी मात्रा में पैतृक धन प्राप्‍त होता है। इस भाव की स्थिति और इसके अधिपति की स्थिति अच्‍छी होने पर जातक अपनी पारिवारिक संपत्ति का भरपूर उपभोग कर पाता है। इस भाव में सौम्‍य ग्रह होने पर अच्‍छे परिणाम हासिल होते हैं और क्रूर या पाप ग्रह होने पर खराब परिणाम हासिल होते हैं। दूसरी ओर ग्‍यारहवां भाव मजबूत होने पर जातक अपनी संपत्ति अर्जित करता है। उसे व्‍यवसाय अथवा नौकरी में अच्‍छा धन हासिल होता है। ग्‍यारहवें और बारहवें भाव का अच्‍छा संबंध होने पर जातक लगातार निवेश के जरिए चल-अचल संपत्तियां खड़ी कर लेता है। पांचवां भाव मजबूत होने पर जातक सट्टा या लॉटरी के जरिए विपुल धन प्राप्‍त करता है। किसी भी जातक के पास किसी समय विशेष में कितना धन हो सकता है, इसके लिए हमें उसका दूसरा भाव, पांचवां भाव, ग्‍यारहवां और बारहवें भाव के साथ इनके अधिपतियों का अध्‍ययन करना होगा। इससे जातक की वित्‍तीय स्थिति का काफी हद तक सही आकलन हो सकता है। इन सभी भावों और भावों के अधिपतियों की स्थिति सुदृढ़ होने पर जातक कई तरीकों से धन कमाता हुआ अमीर बन जाता है।
दशाओं का प्रभाव
धन कमाने या संग्रह करने में जातक की कुण्‍डली में दशा की महत्‍वपूर्ण भूमिका होती है। द्वितीय भाव के अधिपति यानी द्वितीयेश की दशा आने पर जातक को अपने परिवार से संपत्ति प्राप्‍त होती है, पांचवे भाव के अधिपति यानी पंचमेश की दशा में सट्टे या लॉटरी से धन आने के योग बनते हैं। आमतौर पर देखा गया है कि यह दशा बीतने के साथ ही जातक का धन भी समाप्‍त हो जाता है। ग्‍यारहवें भाव के अधिपति यानी एकादशेश की दशा शुरू होने के साथ ही जातक का अटका हुआ पैसा आने लगता है, कमाई के कई जरिए खुलते हैं और लाभ की मात्रा बढ़ जाती है। ग्रह और भाव की स्थिति के अनुरूप फलों में कमी या बढ़ोतरी होती है। इसी तरह छठे भाव की दशा में लोन मिलना और बारहवें भाव की दशा में खर्चों में बढ़ोतरी के संकेत मिलते हैं।
शुक्र की महिमा
वर्तमान दौर में जहां भोग और विलासिता चरम पर है, किसी व्‍यक्ति के धनी होने का आकलन उसकी सुख सुविधाओं से किया जा रहा है। ऐसे में शुक्र की भूमिका उत्‍तरोतर महत्‍वपूर्ण होती जा रही है। किसी जातक की कुण्‍डली में शुक्र बेहतर स्थिति में होने पर जातक सुविधा संपन्‍न जीवन जीता है। शुक्र ग्रह का अधिष्‍ठाता वैसे शुक्राचार्य को माना गया है, जो राक्षसों से गुरु थे, लेकिन उपायों पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि शुक्र का संबंध लक्ष्‍मी से अधिक है। शुक्र के आधिपत्‍य में वृषभ और तुला राशियां हैं। इसी के साथ शुक्र मीन राशि में उच्‍च का होता है। इन तीनों राशियों में शुक्र को बेहतर माना गया है। कन्‍या राशि में शुक्र नीच हो जाता है, अत: कन्‍या का शुक्र अच्‍छे परिणाम देने वाला नहीं माना जाता।
लग्‍न अनुसार पैसे वाले
मेष लग्‍न के जातकों का शुक्र, वृष लग्‍न के जातकों का बुध, मिथुन लग्‍न के जातकों का चंद्रमा, कर्क लग्‍न वाले जातकों का सूर्य, सिंह लग्‍न वाले जातकों का बुध, कन्‍या लग्‍न वाले जातकों का शुक्र, तुला लग्‍न वाले जातकों का मंगल, वृश्चिक लग्‍न वाले जातकों का गुरु, धनु लग्‍न वाले जातकों का शनि, मकर लग्‍न वाले जातकों का शनि, कुंभ लग्‍न वाले जातकों का गुरु और मीन लग्‍न वाले जातकों का मंगल अच्‍छी स्थिति में होने पर अथवा इनकी दशा एवं अंतरदशा आने पर जातक के पास धन का अच्‍छा संग्रह होता है अथवा पैतृक सं‍पत्ति की प्राप्ति होती है। अगर लग्‍न से संबंधित ग्रह की स्थिति सुदृढ़ नहीं है तो संबंधित ग्रहों का उपचार कर वित्‍तीय स्थिति में सुधार किया जा सकता है।
लग्‍न अनुसार कमाने वाले
कमाई के लिए हमें ग्‍यारहवां भाव देखना होगा। ऐसे में मेष लग्‍न वाले जातकों का शनि, वृष लग्‍न का गुरु, मिथुन लग्‍न का मंगल, कर्क लग्‍न का शुक्र, सिंह लग्‍न का बुध, कन्‍या लग्‍न का चंद्रमा, तुला लग्‍न का सूर्य, वृश्चिक लग्‍न का बुध, धनु लग्‍न का शुक्र, मकर लग्‍न का मंगल, कुंभ लग्‍न का गुरु और मीन लग्‍न का शनि अच्‍छी स्थिति में होने पर जातक अच्‍छा धन कमाता है। इन ग्रहों की दशा में भी संबंधित लग्‍न के जातक अच्‍छी कमाई अथवा लाभ अर्जित करते हैं।
कुछ विशिष्‍ट योग
- किसी भी लग्‍न में पांचवें भाव में चंद्रमा होने पर जातक सट्टा, लॉटरी अथवा अचानक पैसा कमाने वाले साधनों से कमाई का प्रयास करता है। चंद्रमा फलदायी हो तो
ऐसे जातक अच्‍छी कमाई कर भी लेते हैं।
- कारक ग्रह की दशा में जातक सभी सुख भोगता है। ऐसे में इस दशा के दौरान जातक को धन संबंधी परेशानियां भी कम आती हैं।
- सातवें भाव में चंद्रमा होने पर जातक साझेदार के साथ व्‍यवसाय करने का प्रयास करता है, लेकिन धोखा खाता है।
- लाल किताब के अनुसार किसी भी लग्‍न में बारहवें भाव में शुक्र हो तो, जातक जिंदगी में कम से कम एक बार करोड़पतियों जैसे सुख प्राप्‍त करता है, चाहे अपना घर
बेचकर ही वह उस सुख को क्‍यों न भोगे।
- लेखक का अनुभव है कि छठे भाव का ग्‍यारहवें भाव से संबंध हो तो, जातक पहले ऋण लेता है और उसी से कमाई करता है।
- प्रसिद्ध ज्‍योतिष हेमवंता नेमासा काटवे कहते हैं कि नौकरीपेशा, कर्महीन और आलसी लोगों की जिंदगी में अधिक उतार चढ़ाव नहीं आते, ऐसे में इनका फर्श से अर्श पर पहुंचने के योग बनने पर भी उसके लाभ नहीं मिलते हैं।
- कई बार चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी और आईएएस की कुण्‍डली में एक समान राजयोग होता है, अंतर केवल उसे भोगने का होता है।
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योगेश मिश्र जी - 09453092553

समय की माप समान नहीं है, Time has no measurement

समय की माप समान नहीं है

ऐसा माना जाता है कि काल (समय) की गति सभी स्थनों पर समान है किन्तु हमारे शास्त्र बतलाते हैं कि काल की गति गुरुत्व और गति के सापेक्ष चलती ...है अर्थात एक साथ जन्मे तीन व्यक्तियों में एक व्यक्ति यदि चाँद पर रहने लगे और एक व्यक्ति वृहस्पति पर रहने लगे तो चाँद पर रहने वाला व्यक्ति जल्दी बुढा होगा और शनि पर रहने वाला व्यक्ति देर से बुढा होगा क्योंकि पृथ्वी के मुकाबले चाँद का गुरुत्व कम और गति तेज है और शनि का गुरुत्व ज्यादा और गति धीमी है । इसी तथ्य को आइंस्टीन ने अपने दिक् व काल की सापेक्षता के सिद्धांत में प्रतिपादित किया है । उसने कहा, विभिन्न ग्रहों पर समय की अवधारणा भिन्न-भिन्न होती है। काल का सम्बन्ध ग्रहों की गति व गुरुत्व से रहता है। समय का माप अलग –अलग ग्रहों पर छोटा-बड़ा रहता है।
उदाहरण के लिये श्रीमद भागवत पुराण में कथा आती है कि रैवतक राजा की पुत्री रेवती बहुत लम्बी थी, अत: उसके अनुकूल वर नहीं मिलता था। इसके समाधान हेतु राजा योग बल से अपनी पुत्री को लेकर ब्राहृलोक गये। वे जब वहां पहुंचे तब वहां गंधर्वगान चल रहा था। अत: वे कुछ क्षण रुके।
जब गान पूरा हुआ तो ब्रह्मा ने राजा को देखा और पूछा कैसे आना हुआ? राजा ने कहा मेरी पुत्री के लिए किसी वर को आपने पैदा किया है या नहीं?
ब्रह्मा जोर से हंसे और कहा,- जितनी देर तुमने यहां गान सुना, उतने समय में पृथ्वी पर 27 चर्तुयुगी {1 चर्तुयुगी = 4 युग (सत्य,द्वापर,त्रेता,कलि ) = 1 महायुग } बीत चुकी हैं और 28 वां द्वापर समाप्त होने वाला है। तुम वहां जाओ और कृष्ण के भाई बलराम से इसका विवाह कर देना।
अब पृथ्वी लोक पर तुम्हे तुम्हारे सगे सम्बन्धी, तुम्हारा राजपाट तथा वैसी भोगोलिक स्थतियां भी नही मिलेंगी जो तुम छोड़ कर आये हो |
साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि यह अच्छा हुआ कि रेवती को तुम अपने साथ लेकर आये। इस कारण इसकी आयु नहीं बढ़ी। अन्यथा लौटने के पश्चात तुम इसे भी जीवित नही पाते |अब यदि एक घड़ी भी देर कि तो सीधे कलयुग (द्वापर के पश्चात कलयुग ) में जा गिरोगे | इससे यह स्पष्ट होता है कि काल की गति का सम्बन्ध ग्रहों की गति व गुरुत्व पर निर्भर है। समय का माप अलग –अलग ग्रहों पर गति व गुरुत्व के अनुरूप छोटा-बड़ा रहता है।
इसी को आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी कहा कि यदि एक व्यक्ति प्रकाश की गति से कुछ कम गति से चलने वाले यान में बैठकर जाए तो उसके शरीर के अंदर परिवर्तन की प्रक्रिया प्राय: स्तब्ध हो जायेगी।
यदि एक दस वर्ष का व्यक्ति ऐसे यान में बैठकर देवयानी आकाशगंगा की ओर जाकर वापस आये तो उसकी उम्र में केवल 56 वर्ष बढ़ेंगे किन्तु उस अवधि में पृथ्वी पर 40 लाख वर्ष बीत गये होंगे।
काल के मापन की सूक्ष्मतम इकाई के वर्णन को पढ़कर दुनिया का प्रसिद्ध ब्रहमांड विज्ञानी कार्ल सगन अपनी पुस्तक कॉसमॉस में लिखता है, -
"विश्व में एक मात्र हिन्दू धर्म ही ऐसा धर्म है, जो इस विश्वास को समर्पित है कि ब्रहमांड सृजन और विनाश का चक्र सतत चलता रहता है और यही एक धर्म है जिसमें काल के सूक्ष्मतम नाप परमाणु से लेकर दीर्घतम माप ब्राह्म के दिन और रात की गणना की गई है, जो 8 अरब 64 करोड़ वर्ष तक बैठती है तथा जो आश्चर्यजनक रूप से हमारी आधुनिक गणनाओं से मेल खाती है।"

मस्तिष्क में छुपा पारलौकिक ज्ञान का रहस्य

मस्तिष्क में छुपा पारलौकिक ज्ञान का रहस्य

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इटली के वैज्ञानिकों ने आखिरकार मस्तिष्क के उन हिस्सों का पता लगाने में कामयाबी हासिल... कर ली है। जहाँ से पारलौकिक ज्ञान उत्पन्न होता है। इससे यह बात संभवतः प्रमाणित हो गई है कि मस्तिष्क के कुछ विशेष हिस्सों से ईश्वरीय कृपा से ईश्वरीय ज्ञान की अनुभूति करते हैं ।
इटली के उदीन विश्वविद्यालय के संवेदी तंत्रिका विज्ञानी कोसिमो उरगेसी, रोम के सैपिएंजा विश्वविद्यालय के संवेदी तंत्रिका विज्ञानी साल्वातोर एग्लिओती ने मस्तिष्क ट्यूमर के 88 मरीजों के साथ साक्षात्कार के बाद यह निष्कर्ष निकाला है। इन मरीजों से ऑपरेशन से पहले और उसके बाद कुछ सच्चे या झूठे सवाल पूछकर उनके आध्यात्मिक स्तर का आकलन किया गया। उनसे पूछा गया कि क्या उन्होंने खुद को कालातीत अनुभव किया। किसी अन्य व्यक्ति और प्रकृति के साथ उन्हें तादात्म्य की अनुभूति हुई और क्या वह किसी उच्च सत्ता में विश्वास रखते हैं।
अध्ययन से पता चला कि मस्तिष्क ट्यूमर के जिन मरीजों के पैरिएटल कोर्टेक्स (पार्श्विक प्रांतस्था) में मस्तिष्क के पिछले हिस्से से ट्यूमर हटा दिया गया था। उन्होंने ऑपरेशन के तीन से सात दिन के बाद दिव्य ज्ञान की गहरी अनुभूति होने की बात कही, लेकिन जिन मरीजों के मस्तिष्क के आगे के हिस्से से ट्यूमर निकाला गया था। उनके साथ यह घटना नहीं हुई।
एग्लिओती ने कहा कि यह माना जाता था कि पारलौकिक ज्ञान का चिंतन दार्शनिकों और नए जमाने के झक्की लोगों का विषय है, लेकिन यह वास्तव में आध्यात्मिकता पर पहला गहन अध्ययन है। हम एक जटिल तथ्य का अध्ययन कर रहे हैं, जो मनुष्य होने का सारतत्व समझने के करीब की बात है।
शोधकर्ताओं ने मस्तिष्क के दो हिस्सों की तरफ इशारा किया है, जो नष्ट होने पर आध्यात्मिकता के विकास की तरफ ले जाते हैं। पहला है- कान के पास बगल में नीचे की तरफ का हिस्सा जिसे जनेऊ पहनने वाले शौच के समय कस देते हैं और दूसरा है- दाहिनी तरफ कोणीय जाइरस (कर्णक) जहाँ शिखा की गाँठ स्पर्श करती है । ये दोनों मस्तिष्क के पिछले भाग में स्थित हैं और इन्हीं से पता लगता है कि व्यक्ति आकाशीय तत्व में स्थित ऊर्जा से अपने शरीर को बाहरी दुनिया से किस तरह जोड़ लेता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि उनके निष्कर्ष पारलौकिक अनुभवों और शरीर से अलग होने पर होने वाली अनुभूति के बीच के संबंध को प्रमाणित करते हैं।
पहले के अध्ययनों में बताया गया था कि मस्तिष्क के आगे और पीछे का एक व्यापक संजाल धार्मिक विश्वासों को रेखांकित करता है, लेकिन ऐसा लगता है कि पारलौकिक ज्ञान में मस्तिष्क के वही हिस्से शामिल नहीं है जिनसे धार्मिक ज्ञान का पता लगता है। तंत्रिका विज्ञानियों ने पहले भी क्षतिग्रस्त मस्तिष्क वाले मरीजों में आध्यात्मिक बदलावों का निरीक्षण किया है, लेकिन इसका वह व्यवस्थित ढंग से मूल्यांकन नहीं कर पाए थे।
बेल्जियम के ल्यूवेन में गैस्थुइसबर्ग मेडिकल विश्वविद्यालय के तंत्रिका विज्ञानी रिक वंडेनबर्ग का कहना है कि हम सामान्यतः इससे दूर ही रहे तो अच्छा है इसलिए नहीं कि यह महत्वपूर्ण विषय नहीं है बल्कि इसकी वजह यह है कि यह ईश्वरीय सत्ता में हस्तक्षेप का मामला है। हालाँकि यह शोध काफी दिलचस्प है, लेकिन कई पुरोगामी अध्ययनों की तरह इससे भी कई सवाल उठते हैं। आँकडों का सावधानी के साथ विश्लेषण किया जाना चाहिए। यह बड़ी असंभावित बात है कि इंद्रियातीत ज्ञान का मस्तिष्क के केवल दो हिस्सों में स्थान निर्धारित किया जाए। वह कहते हैं कि पारलौकिक ज्ञान एक अमूर्त धारणा है और विभिन्न लोग अलग-अलग तरीके से इसे अनुभूत करते हैं।
विस्कांसिन मैडिसन विश्वविद्यालय के संवेदी तंत्रिका विज्ञानी रिचर्ड डेविडसन का भी कुछ यही मत है। उनका कहना है कि शोधकर्ताओं ने जिस तरीके से इंद्रियातीत अनुभव को मापा है, वह संभवतः इस अध्ययन का सबसे चिन्ताजनक पहलू है। सबसे महत्वपूर्ण यह मानना है कि पूरा अध्ययन आत्मानुभूति के मापदंड में आए बदलावों पर आधारित है। जो एक अपरिष्कृत मापदंड है और जिसमें कुछ अजीबोगरीब बातें हैं। डेविडसन कहते हैं कि भविष्य में यह समझना महत्वपूर्ण होगा कि क्यों पैरिएटल कोर्टेक्स में क्षति से इस पैमाने पर बदलाव हो जाता है । अभी इसको समझने के लिये वर्तमान विज्ञान बैना है ।
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मंगल दोष से हानियाँ

मंगल दोष से हानियाँ
जब मंगल कुंडली के 1, 4, 7, 8 या 12 वें स्थान पर हो तो यह एक मंगल दोष है और ऐसे जातक को मांगलिक कहा जाता है। हमारे समाज में मंगल दोष की उपस्थ...िति एक बहुत बड़ा डर या भ्रम बन गया है। यहां तक की ज्योतिष की लिखी हुई पुरानी किताबों में भी मंगल दोष के बारे में मतभेद हैं, क्या क्या अपवाद उपलब्ध हैं और निवारण के उपाय क्या हैं। जो भी हो मंगल दोष को अनदेखा नहीं किया जा सकता। यह वैवाहिक जीवन में समस्याएं पैदा कर सकता है। इसलिए विवाह से पहले मंगल दोष के लिए कुंडली मिलाना अनिवार्य है। यह भी जरुरी है कि कुंडली का विश्लेषण करें और यह पता लगाएं कि कुंडली में मंगल दोष है या नहीं।
यदि मंगल दोष है तो घर, गाड़ी, अग्नि, रसायन या बिजली से दुर्घटना को दर्शाता है। वैवाहिक जीवन में बाधायें आती हैं। भयंकर दुर्घटना हो सकती है। व्यवसाय में तेजी से बदलाव, अनिद्रा और पिता से तनाव का कारण हो सकता है। मंगल पारिवारिक सदस्यों के बीच विवाद पैदा करता है। मतभेद के कारण परिवार में ख़ुशी की कमी और समस्याएं आ सकती हैं। पैसे खो सकते हैं या खर्च की अधिकता हो सकती है। व्यक्ति आग, रसायन या बिजली से जानलेवा दुर्घटना का शिकार हो सकता है। यदि 3रां घर मंगल से दृष्ट है तो भाई बहन में तनाव होता है। यह व्यक्ति को बहुत कठोर और हठी बना देता है। व्यक्ति को हाइपर टेंशन के साथ ही पेट से जुड़ी और खून से जुड़ी बीमारियां हो सकती हैं। इस प्रकार लग्न में मंगल का बैठना अशुभ माना जाता है।
इस प्रकार मंगल दोष कई तरह की समस्यायों का कारण है। लेकिन ये बहुत मोटे दिशा निर्देश हैं। कई अन्य पहलू और कोण से अध्ययन की जरूरत है। कुडली की समग्र शक्ति, ग्रहों की शक्ति, उपयोगी पहलू और मंगल की शक्ति पर अवश्य विचार किया जाना चाहिए।!

कैसे जाग्रत करें छठी इंद्री ?, How to arouse sixth sense

कैसे जाग्रत करें छठी इंद्री ?

क्या है छठी इंद्री : मस्तिष्क के भीतर कपाल के नीचे एक छिद्र है, उसे ब्रह्म...रंध्र कहते हैं, वहीं से सुषुन्मा रीढ़ से होती हुई मूलाधार तक गई है। सुषुन्मा नाड़ी जुड़ी है सहस्रकार से।
इड़ा नाड़ी शरीर के बायीं तरफ स्थित है तथा पिंगला नाड़ी दायीं तरफ अर्थात इड़ा नाड़ी में चंद्र स्वर और पिंगला नाड़ी में सूर्य स्वर स्थित रहता है। सुषुम्ना मध्य में स्थित है, अतः जब हमारी नाक के दोनों स्वर चलते हैं तो माना जाता है कि सुषम्ना नाड़ी सक्रिय है। इस सक्रियता से ही सिक्स्थ सेंस जाग्रत होता है।

इड़ा, पिंगला और सुषुन्मा के अलावा पूरे शरीर में हजारों नाड़ियाँ होती हैं। उक्त सभी नाड़ियों का शुद्धि और सशक्तिकरण सिर्फ प्राणायाम और आसनों से ही होता है। शुद्धि और सशक्तिकरण के बाद ही उक्त नाड़ियों की शक्ति को जाग्रत किया जा सकता है।
कैसे जाग्रत करें छठी इंद्री : यह इंद्री सभी में सुप्तावस्था में होती है। भृकुटी के मध्य निरंतर और नियमित ध्यान करते रहने से आज्ञाचक्र जाग्रत होने लगता है जो हमारे सिक्स्थ सेंस को बढ़ाता है। योग में त्राटक और ध्यान की कई विधियाँ बताई गई हैं। उनमें से किसी भी एक को चुनकर आप इसका अभ्यास कर सकते हैं।
अभ्यास का स्थान : अभ्यास के लिए सर्वप्रथम जरूरी है साफ और स्वच्छ वातावरण, जहाँ फेफड़ों में ताजी हवा भरी जा सके अन्यथा आगे नहीं बढ़ा जा सकता। शहर का वातावरण कुछ भी लाभदायक नहीं है, क्योंकि उसमें शोर, धूल, धुएँ के अलावा जहरीले पदार्थ और कार्बन डॉक्साइट निरंतर आपके शरीर और मन का क्षरण करती रहती है। स्वच्छ वातावरण में सभी तरह के प्राणायाम को नियमित करना आवश्यक है।
मौन ध्यान : भृकुटी पर ध्यान लगाकर निरंतर मध्य स्थित अँधेरे को देखते रहें और यह भी जानते रहें कि श्वास अंदर और बाहर ‍हो रही है। मौन ध्यान और साधना मन और शरीर को मजबूत तो करती ही है, मध्य स्थित जो अँधेरा है वही काले से नीला और ‍नीले से सफेद में बदलता जाता है। सभी के साथ अलग-अलग परिस्थितियाँ निर्मित हो सकती हैं।
मौन से मन की क्षमता का विकास होता जाता है जिससे काल्पनिक शक्ति और आभास करने की क्षमता बढ़ती है। इसी के माध्यम से पूर्वाभास और साथ ही इससे भविष्य के गर्भ में झाँकने की क्षमता भी बढ़ती है। यही सिक्स्थ सेंस के विकास की शुरुआत है।
अंतत: हमारे पीछे कोई चल रहा है या दरवाजे पर कोई खड़ा है, इस बात का हमें आभास होता है। यही आभास होने की क्षमता हमारी छठी इंद्री के होने की सूचना है। जब यह आभास होने की क्षमता बढ़ती है तो पूर्वाभास में बदल जाती है। मन की स्थिरता और उसकी शक्ति ही छठी इंद्री के विकास में सहायक सिद्ध होती है।
इसका लाभ : व्यक्ति में भविष्य में झाँकने की क्षमता का विकास होता है। अतीत में जाकर घटना की सच्चाई का पता लगाया जा सकता है। मीलों दूर बैठे व्यक्ति की बातें सुन सकते हैं। किसके मन में क्या विचार चल रहा है इसका शब्दश: पता लग जाता है। एक ही जगह बैठे हुए दुनिया की किसी भी जगह की जानकारी पल में ही हासिल की जा सकती है। छठी इंद्री प्राप्त व्यक्ति से कुछ भी छिपा नहीं रह सकता और इसकी क्षमताओं के विकास की संभावनाएँ अनंत हैं।
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कुण्डलिनी जागरण, Kundalini and Chakra awakening

ऊर्ध्वगमन का अभ्यास शक्तिचालनी मुद्रा द्वारा शक्ति प्रवाह कैसे जाग्रत करें

कुण्डलिनी जागरण में मूलाधार से प्रसुप्त कुण्डलिनी को जागृत करके ऊर्ध्वगामी बनाया जाता... है। उस महाशक्ति की सामान्य प्रवृत्ति अधोगामी रहती है। रति क्रिया में उसका स्खलन होता रहता है। शरीर यात्रा की मल मूत्र विसर्जन प्रक्रिया भी स्वभावतः अधोगामी है। शुक्र का क्षरण भी इसी दिशा में होता है। इस प्रकार यह सारा जीवन अधोगामी प्रवृत्तियों में संलग्न रहता है।
लेकिन कुण्डलिनी शक्ति के जागरण और उत्थान के लिए इस क्षेत्र को ऊर्ध्वगामी बनने का अभ्यास कराया जाता है। ताकि अभीष्ट उद्देश्य की सफलता में सहायता मिल सके। गुदा मार्ग को ऊर्ध्वगामी अभ्यास कराने के लिए हठयोग में ‘वस्ति क्रिया’ है। उसमें गुदा द्वारा से जल को ऊपर खींचा जाता है फिर संचित मल को बाहर निकाला जाता है। इसी प्रकार मूत्र मार्ग से जल ऊपर खींचने और फिर विसर्जित करने की क्रिया वज्रोली कहलाती है। वस्ति और वज्रोली दोनों का ही उद्देश्य इन विसर्जन छिद्रों को अधोमुखी अभ्यासों के साथ ही ऊर्ध्वगामी बनने का प्रशिक्षण दिया जाता है। इन अभ्यासों से कुण्डलिनी को ऊर्ध्वगामी बनाने में सहायता मिलती है।वस्ति और वज्रोली काफी कठिन है।
इस प्रयोग का पूर्वार्ध मूलबन्ध कहलाता है। मूलबन्ध में मात्र संकोचन भर होता है। जितनी देर मल मूत्र छिद्रों को सिकोड़ा जाता रहेगा उतनी देर मूलबन्ध की स्थिति मानी जाएगी यह एक पक्ष है। आधा अभ्यास है। इसमें पूर्णता समग्रता तब आती है जब प्राणायाम की तरह खींचने छोड़ने के दोनों ही अंग पूरे होने लगें। जब संकोचन-विसर्जन संकोचन-विसर्जन का-खींचने ढीला करने, खींचने ढीला करने का-उभय पक्षीय अभ्यास चल पड़े तो समझना चाहिए शक्तिचालनी मुद्रा का अभ्यास हो रहा है।
कमर से नीचे के भाग में अपान वायु रहती है। उसे ऊपर खींचकर कमर से ऊपर रहने वाली प्राणवायु के साथ जोड़ा जाता है। यह पूर्वार्ध हुआ। उत्तरार्ध में ऊपर के प्राण को नीचे के अपान के साथ जोड़ा जाता है। यह प्राण अपान के संयोग की योग शास्त्रों में बहुत महिमा गाई है-यही मूलबन्ध है। मूलबन्ध के अभ्यास से अधोगामी अपान को बलात् ऊर्ध्वगामी बनाया जाय, इससे वह प्रदीप्त होकर अग्नि के साथ साथ ही ऊपर चढ़ता है।मूलबन्ध के अभ्यास से मरुत् सिद्धि होती है अर्थात् शरीरस्थं वायु पर नियन्त्रण होता है। अतः आलस्य विहीन होकर मौन रहते हुए इसका अभ्यास करना चाहिए। प्राण और अपान का समागम नाद बिन्दु की साधना तथा मूलबन्ध का समन्वय, यह कर लेने पर निश्चित रूप से योग की सिद्धि होती है।निरन्तर मूलबन्ध का अभ्यास करने से प्राण और अपान के समन्वय से-अनावश्यक मल नष्ट होते हैं और बद्धता भी यौवन में बदलती है।मूलबन्ध से कुण्डलिनी का प्रवेश ब्रह्म नाड़ी-सुषुम्ना-में होता है। इसलिये योगी जन नित्य ही मूलबन्ध का अभ्यास करें।
इससे आयु में वृद्धि होती है और रोगों का नाश होता है यह अतिशयोक्ति नहीं है । यह विज्ञान सम्मत है। शक्ति कहीं से आती नहीं, सुप्त से जागृत, जड़ से चलायमान हो जाना ही शक्ति का विकास कहा जाता है। बिजली के जनरेटर में बिजली कही से आती नहीं है। चुम्बकीय क्षेत्र में सुक्वायल घुमाने से उसके अन्दर के इलेक्ट्रान विशेष दिशा में चल पड़ते हैं। यह चलने की प्रवृत्ति विद्युत सब्राहक शक्ति (ई॰ एम॰ एफ॰) के रूप में देखी जाती है। शरीरस्थं विद्युत को भी इसी प्रकार दिशा विशेष में प्रवाहित किया जा सके तो शरीर संस्थान एक सशक्त जनरेटर की तरह सक्षम एवं समर्थ बन सकता है। योग साधनाएँ इसी उद्देश्य की पूर्ति करती है।

दुर्गा सप्तशती शाप विमोचन पद्धति

दुर्गा सप्तशती शाप विमोचन पद्धति

भविष्यद्रष्टा ऋषियों ने जब भविष्य पुराण की रचना की तो कलयुग के आगमन और यवन,मलेच्छ, तुर्की पुर्तगाली, फिरंगी आदि के भारत आने और ...भारत के खण्ड-खण्ड होने की भविष्यवातवणी की तब ऋषियों को यह चिन्ता हुई कि भारत का ईश्वरीय ज्ञान कुपात्रों के हाथ न चला जाये इसलिए ऋषियों ने सभी मंत्र व धर्म ग्रन्थ विभिन्न पद्धतियों से कीलित या शापित कर दिये जिससे यह कलयुग में निष्प्रभावी हो गये हैं अतः कलयुग में यदि इनसे लाभ लेना हो तो इन्हें शाप विमोचित या उत्कीलित करना पड़ता है जिसके लिये अलग – अलग ग्रन्थों की अलग –अलग प्रक्रिया है जिसमें आज हम दुर्गा सप्तशती पर चर्चा कर रहे हैं
दुर्गा सप्तशती पाठ विधि
पूजनकर्ता स्नान करके, आसन शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके, शुद्ध आसन पर बैठ जाएँ। माथे पर अपनी पसंद के अनुसार भस्म, चंदन अथवा रोली लगा लें, शिखा बाँध लें, फिर पूर्वाभिमुख होकर तत्त्व शुद्धि के लिए चार बार आचमन करें। इस समय निम्न मंत्रों को बोलें-
ॐ ऐं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा॥
ॐ क्लीं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं सर्वतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा॥
तत्पश्चात प्राणायाम करके गणेश आदि देवताओं एवं गुरुजनों को प्रणाम करें, फिर ‘पवित्रेस्थो वैष्णव्यौ’ इत्यादि मन्त्र से कुश की पवित्री धारण करके हाथ में लाल फूल, अक्षत और जल लेकर निम्नांकित रूप से संकल्प करें-
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः। ॐ नमः परमात्मने, श्रीपुराणपुरुषोत्तमस्य श्रीविष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्याद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्द्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गतब्रह्मावर्तैकदेशे पुण्यप्रदेशे बौद्धावतारे वर्तमाने यथानामसंवत्सरे अमुकायने महामांगल्यप्रदे मासानाम्‌ उत्तमे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरान्वितायाम्‌ अमुकनक्षत्रे अमुकराशिस्थिते सूर्ये अमुकामुकराशिस्थितेषु चन्द्रभौमबुधगुरुशुक्रशनिषु सत्सु शुभे योगे शुभकरणे एवं गुणविशेषणविशिष्टायां शुभ पुण्यतिथौ सकलशास्त्र श्रुति स्मृति पुराणोक्त फलप्राप्तिकामः अमुकगोत्रोत्पन्नः अमुक नाम अहं ममात्मनः सपुत्रस्त्रीबान्धवस्य श्रीनवदुर्गानुग्रहतो ग्रहकृतराजकृतसर्व-विधपीडानिवृत्तिपूर्वकं नैरुज्यदीर्घायुः पुष्टिधनधान्यसमृद्ध्‌यर्थं श्री नवदुर्गाप्रसादेन सर्वापन्निवृत्तिसर्वाभीष्टफलावाप्तिधर्मार्थ- काममोक्षचतुर्विधपुरुषार्थसिद्धिद्वारा श्रीमहाकाली-महालक्ष्मीमहासरस्वतीदेवताप्रीत्यर्थं शापोद्धारपुरस्सरं कवचार्गलाकीलकपाठ- वेदतन्त्रोक्त रात्रिसूक्त पाठ देव्यथर्वशीर्ष पाठन्यास विधि सहित नवार्णजप सप्तशतीन्यास- धन्यानसहितचरित्रसम्बन्धिविनियोगन्यासध्यानपूर्वकं च ‘मार्कण्डेय उवाच॥ सावर्णिः सूर्यतनयो यो मनुः कथ्यतेऽष्टमः।’ इत्याद्यारभ्य ‘सावर्णिर्भविता मनुः’ इत्यन्तं दुर्गासप्तशतीपाठं तदन्ते न्यासविधिसहितनवार्णमन्त्रजपं वेदतन्त्रोक्तदेवीसूक्तपाठं रहस्यत्रयपठनं शापोद्धारादिकं च करिष्ये/करिष्यामि।
इस प्रकार प्रतिज्ञा (संकल्प) करके देवी का ध्यान करते हुए पंचोपचार की विधि से पुस्तक की पूजा करें, (पुस्तक पूजा का मन्त्रः- “ॐ नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः। नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्।।” (वाराहीतन्त्र तथा चिदम्बरसंहिता))। योनिमुद्रा का प्रदर्शन करके भगवती को प्रणाम करें, फिर मूल नवार्ण मन्त्र से पीठ आदि में आधारशक्ति की स्थापना करके उसके ऊपर पुस्तक को विराजमान करें। इसके बाद शापोद्धार करना चाहिए। इसके अनेक प्रकार हैं।
‘ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशागुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा’
इस मंत्र का आदि और अन्त में सात बार जप करें। यह “शापोद्धार मंत्र” कहलाता है। इसके अनन्तर उत्कीलन मन्त्र का जाप किया जाता है। इसका जप आदि और अन्त में इक्कीस-इक्कीस बार होता है। यह मन्त्र इस प्रकार है- ‘ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।’ इसके जप के पश्चात्‌ आदि और अन्त में सात-सात बार मृतसंजीवनी विद्या का जाप करना चाहिए, जो इस प्रकार है-
‘ॐ ह्रीं ह्रीं वं वं ऐं ऐं मृतसंजीवनि विद्ये मृतमुत्थापयोत्थापय क्रीं ह्रीं ह्रीं वं स्वाहा।’
मारीचकल्प के अनुसार सप्तशती-शापविमोचन का मन्त्र यह है-
‘ॐ श्रीं श्रीं क्लीं हूं ॐ ऐं क्षोभय मोहय उत्कीलय उत्कीलय उत्कीलय ठं ठं।’
इस मन्त्र का आरंभ में ही एक सौ आठ बार जाप करना चाहिए, पाठ के अन्त में नहीं। अथवा रुद्रयामल महातन्त्र के अंतर्गत दुर्गाकल्प में कहे हुए चण्डिका शाप विमोचन मन्त्र का आरंभ में ही पाठ करना चाहिए। वे मन्त्र इस प्रकार हैं-
ॐ अस्य श्रीचण्डिकाया ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापविमोचनमन्त्रस्य वसिष्ठ-नारदसंवादसामवेदाधिपतिब्रह्माण ऋषयः सर्वैश्वर्यकारिणी श्रीदुर्गा देवता चरित्रत्रयं बीजं ह्री शक्तिः त्रिगुणात्मस्वरूपचण्डिकाशापविमुक्तौ मम संकल्पितकार्यसिद्ध्‌यर्थे जपे विनियोगः।
ॐ (ह्रीं) रीं रेतःस्वरूपिण्यै मधुकैटभमर्दिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥1॥
ॐ श्रीं बुद्धिस्वरूपिण्यै महिषासुरसैन्यनाशिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठ विश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥2॥
ॐ रं रक्तस्वरूपिण्यै महिषासुरमर्दिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥3॥
ॐ क्षुं क्षुधास्वरूपिण्यै देववन्दितायै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥4॥
ॐ छां छायास्वरूपिण्यै दूतसंवादिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥5॥
ॐ शं शक्तिस्वरूपिण्यै धूम्रलोचनघातिन्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥6॥
ॐ तृं तृषास्वरूपिण्यै चण्डमुण्डवधकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्र शापाद् विमुक्ता भव॥7॥
ॐ क्षां क्षान्तिस्वरूपिण्यै रक्तबीजवधकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥8॥
ॐ जां जातिस्वरूपिण्यै निशुम्भवधकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥9॥
ॐ लं लज्जास्वरूपिण्यै शुम्भवधकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥10॥
ॐ शां शान्तिस्वरूपिण्यै देवस्तुत्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥11॥
ॐ श्रं श्रद्धास्वरूपिण्यै सकलफलदात्र्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥12॥
ॐ कां कान्तिस्वरूपिण्यै राजवरप्रदायै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥13॥
ॐ मां मातृस्वरूपिण्यै अनर्गलमहिमसहितायै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥14॥
ॐ ह्रीं श्रीं दुं दुर्गायै सं सर्वैश्वर्यकारिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥15॥
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः शिवायै अभेद्यकवचस्वरूपिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥16॥
ॐ क्रीं काल्यै कालि ह्रीं फट् स्वाहायै ऋग्वेदस्वरूपिण्यै
ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव॥17॥
ॐ ऐं ह्री क्लीं महाकालीमहालक्ष्मी-
महासरस्वतीस्वरूपिण्यै त्रिगुणात्मिकायै दुर्गादेव्यै नमः॥18॥
इत्येवं हि महामन्त्रान्‌ पठित्वा परमेश्वर।
चण्डीपाठं दिवा रात्रौ कुर्यादेव न संशयः॥19॥
एवं मन्त्रं न जानाति चण्डीपाठं करोति यः।
आत्मानं चैव दातारं क्षीणं कुर्यान्न संशयः॥20॥
इस प्रकार शापोद्धार करने के अनन्तर अन्तर्मातृका बहिर्मातृका आदि न्यास करें, फिर श्रीदेवी का ध्यान करके रहस्य में बताए अनुसार नौ कोष्ठों वाले यन्त्र में महालक्ष्मी आदि का पूजन करें, इसके बाद छ: अंगों सहित दुर्गासप्तशती का पाठ आरंभ किया जाता है।
कवच, अर्गला, कीलक और तीनों रहस्य- ये ही सप्तशती के छ: अंग माने गए हैं। इनके क्रम में भी मतभेद हैं। चिदम्बरसंहिता में पहले अर्गला, फिर कीलक तथा अन्त में कवच पढ़ने का विधान है, किन्तु योगरत्नावली में पाठ का क्रम इससे भिन्न है। उसमें कवच को बीज, अर्गला को शक्ति तथा कीलक को कीलक संज्ञा दी गई है।
जिस प्रकार सब मंत्रों में पहले बीज का, फिर शक्ति का तथा अन्त में कीलक का उच्चारण होता है, उसी प्रकार यहाँ भी पहले कवच रूप बीज का, फिर अर्गला रूपा शक्ति का तथा अन्त में कीलक रूप कीलक का क्रमशः पाठ होना चाहिए। यहाँ इसी क्रम का अनुसरण किया गया है।
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मौत के बाद क्या होता है?

मौत के बाद क्या होता है?
'न तो यह शरीर तुम्हारा है और न ही तुम इस शरीर के हो। यह शरीर पांच तत्वों से बना है- अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश। एक दिन यह शरीर इन्...हीं पांच तत्वों में विलीन हो जाएगा।'-ऐसा भगवान कृष्ण ने भागवत गीता में कहा है
जब शरीर छूटता है तो व्यक्ति के साथ क्या होता है यह सवाल सदियों पुराना है। इस संबंध में जनमानस के चित्त पर रहस्य का पर्दा आज भी कायम है जबकि इसका हल खोज लिया गया है। फिर भी यह बात विज्ञान सम्मत नहीं मानी जाती, क्योंकि यह धर्म का विषय है।
मुख्यत: तीन तरह के शरीर होते हैं- स्थूल, सूक्ष्म और कारण। व्यक्ति जब मरता है तो जीवनी शक्ति स्थूल शरीर छोड़कर पूर्णत: सूक्ष्म में ही विराजमान हो जाती है। सूक्ष्म शरीर के विसरित होने के बाद व्यक्ति दूसरा शरीर धारण कर लेता है, लेकिन कारण शरीर बीज रूप है जो अनंत जन्मों तक हमारे साथ रहता है।
आत्मा शरीर में रहकर चार स्तर से गुजरती है : छांदोग्य उपनिषद (8-7) के अनुसार आत्मा चार स्तरों में स्वयं के होने का अनुभव करती है- (1)जाग्रत (2)स्वप्न (3)सुषुप्ति और (4)तुरीय अवस्था।
तीन स्तरों का अनुभव प्रत्येक मनुष्य को होता ही है, व्यक्ति जाग्रत, स्वप्न और फिर सुषुप्ति अवस्था में जीता है लेकिन चौथे स्तर में वही जीता है जो ‍आत्मवान हो गया है या जिसने मोक्ष पा लिया है। वह शुद्ध तुरीय अवस्था में होती है जहां न तो जाग्रति है, न स्वप्न, न सु‍षुप्ति है ऐसे मनुष्य सिर्फ दृष्टा होते हैं- जिसे पूर्ण-जागरण की अवस्था भी कहा जाता है।
प्रथम तीनों अवस्थाओं के कई स्तर है। कोई जाग्रत रहकर भी स्वप्न जैसा जीवन जिता है, जैसे खयाली राम या कल्पना में ही जीने वाला। कोई चलते-फिरते भी नींद में रहता है, जैसे कोई नशे में धुत्त, चिंताओं से घिरा या फिर जिसे कहते हैं तामसिक।
हमारे आसपास जो पशु-पक्षी हैं वे भी जाग्रत हैं, लेकिन हम उनसे कुछ ज्यादा होश में हैं तभी तो हम मानव हैं। जब होश का स्तर गिरता है तब हम पशुवत हो जाते हैं। कहते भी हैं कि व्यक्ति नशे में व्यक्ति जानवर बन जाता है। पेड़-पौधे और भी गहरी बेहोशी में हैं।
मरने के बाद व्यक्ति का जागरण, स्मृति कोष और भाव तय करता है कि इसे किस योनी में जन्म लेना चाहिए इसीलिए वेद कहते हैं कि जागने का सतत अभ्यास करो। जागरण ही तुम्हें प्रकृति से मुक्त करा सकता है।
क्या होता है मरने के बाद : सामान्य व्यक्ति जैसे ही शरीर छोड़ता है, सर्वप्रथम तो उसकी आंखों के सामने गहरा अंधेरा छा जाता है, जहां उसे कुछ भी अनुभव नहीं होता। कुछ समय तक कुछ आवाजें सुनाई देती है कुछ दृश्य दिखाई देते हैं जैसा कि स्वप्न में होता है और फिर धीरे-धीरे वह गहरी सुषुप्ति में खो जाता है, जैसे कोई कोमा में चला जाता है।
गहरी सुषुप्ति में कुछ लोग अनंतकाल के लिए खो जाते हैं, तो कुछ इस अवस्था में ही किसी दूसरे गर्भ में जन्म ले लेते हैं। प्रकृ‍ति उन्हें उनके भाव, विचार और जागरण की अवस्था अनुसार गर्भ उपलब्ध करा देती है। जिसकी जैसी योग्यता वैसा गर्भ या जिसकी जैसी गति वैसी सुगति या दुर्गति। गति का संबंध मति से होता है। सुमति हो तो सुगति। दुरमति हो तो दुर्गति होती है ।
लेकिन यदि व्यक्ति स्मृतिवान (चाहे अच्छा हो या बुरा) है तो सु‍षुप्ति में जागकर चीजों को समझने का प्रयास करता है। फिर भी वह जाग्रत और स्वप्न अवस्था में भेद नहीं कर पाता है। वह कुछ-कुछ जागा हुआ और कुछ-कुछ सोया हुआ सा रहता है, लेकिन उसे उसके मरने की खबर रहती है। ऐसा व्यक्ति तब तक जन्म नहीं ले सकता जब तक की उसकी इस जन्म की स्मृतियों का नाश नहीं हो जाता। कुछ अपवाद स्वरूप जन्म ले लेते हैं जिन्हें पूर्व जन्म का ज्ञान हो जाता है।
लेकिन जो व्यक्ति बहुत ही ज्यादा स्मृतिवान, जाग्रत या ध्यानी है उसके लिए दूसरा जन्म लेने में कठिनाइयां खड़ी हो जाती है, क्योंकि प्राकृतिक नियमों के अनुसार दूसरे जन्म के लिए बेहोश और स्मृतिहीन रहना जरूरी है।
इनमें से कुछ लोग जो सिर्फ स्मृतिवान हैं वे भूत, प्रेत या पितर योनी में रहते हैं और जो जाग्रत हैं वे कुछ काल तक अच्छे गर्भ की तलाश का इंतजार करते हैं। लेकिन जो सिर्फ ध्यानी है या जिन्होंने गहरा ध्यान किया है वे अपनी इच्छा अनुसार कहीं भी और कभी भी जन्म लेने के लिए स्वतंत्र हैं। यह प्राथमिक तौर पर किए गए तीन तरह के विभाजन है। विभाजन और भी होते हैं जिनका वेदों में उल्लेख मिलता है।
जब हम गति की बात करते हैं तो तीन तरह की गति होती है। सामान्य गति, सद्गगति और दुर्गति। सद्गगति वाला ईश्वरीय ऊर्जा के निकट स्वतंत्र होता है, सामान्य गति वाला कामनाओं के प्रभाव में शीघ्र जन्म लेता है, तामसिक प्रवृत्ति व कर्म से दुर्गति ही प्राप्त होती है, अर्थात इसकी कोई ग्यारंटी नहीं है कि व्यक्ति कब, कहां और कैसी योनी में जन्म ले। यह चेतना में डिमोशन जैसा है। प्रकृति को चाहिए जागरण, समर्पण और संकल्प। तो संकल्प लें की आज से हम विचार और भाव के जाल को काटकर सिर्फ दृष्टा होने का अभ्यास करेंगे।

त्राटक साधना

त्राटक साधना से दिव्य दृष्टि कैसे जागृति करें
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मानवी विद्युत का अत्यधिक प्रवाह नेत्रों द्वारा ही होता है, इसलिए जिस प्रकार कल्पनात...्मक विचार शक्ति को सीमाबद्ध करने के लिए ध्यान योग की साधना की जाती है, उसी प्रकार मानवी विद्युत प्रवाह को दिशा विशेष में प्रयुक्त करने के लिए नेत्रों से ईक्षण शक्ति की सधना की जाती है। इस प्रक्रिया को त्राटक का नाम दिया गया है।
त्राटक साधना का उद्देश्य अपनी दृष्टि क्षमता में इतनी तीक्ष्णता उत्पन्न करना है कि वह दृश्य की गहराई में उतर सके और उसके अन्तराल में जो अति महत्त्वपूर्ण घटित हो रहा है उसे पकड़ने और ग्रहण करने में समर्थ हो सके। वैज्ञानिकों, कलाकारों, तत्त्वदर्शियों में यही विशेषता होती है कि सामान्य समझी जाने वाली घटनाओं को अपनी तीक्ष्ण दृष्टि से देखते हैं और उसी में से ऐसे तथ्य ढूँढ़ निकालते हैं जो अद्भुत एवं असाधारण सिद्ध होते हैं।

दिव्य चक्षुओं से सम्भव हो सकने वाली सूक्ष्म दृष्टि और चर्म चक्षुओं की एकाग्रता युक्त तीक्ष्णता के समन्वय की साधना को त्राटक कहते हैं। इसका योगाभ्यास में अति महत्त्वपूर्ण स्थान है। वेधक दृष्टि में हानिकारक और लाभदायक दोनों तत्त्व निहित हैं । यह तो सामान्य स्तर के त्राटक उपचार का किया कौतुक हुआ। अध्यात्म क्षेत्र में आगे बढ़ने वाले इसी प्रयोग की उच्च भूमिका में प्रवेश करके दिव्य दृष्टि विकसित की जा सकती है और उस अदृश्य को देख पाते हैं जिसे देख सकना चर्म चक्षुओं के लिए असम्भव है ।
त्राटक का वास्तविक उद्देश्य दिव्य दृष्टि प्राप्त करना ही है जिससे सूक्ष्म जगत देखा जा सकता है। अतः जमीन में दबी हुई रत्न राशि को खोजा या पाया जा सकता है। देश, काल, पात्र की स्थूल सीमाओं को लाँघ कर अविज्ञात और अदृश्य का परिचय प्राप्त किया जा सकता है। दिव्य दृष्टि से तो किसी के अन्तः क्षेत्र के गहराई में प्रवेश करके वहाँ ऐसा परिवर्तन किया जा सकता है जिससे उसका जीवन का स्तर एवं स्वरूप ही बदल जाय। इस प्रकार त्राटक की साधना यदि सही रीति से सही उद्देश्य के लिए की जा सके तो उससे साधक को अन्त चेतना के विकसित होने का असाधारण लाभ मिलता है साथ ही जिस प्राणी या पदार्थ पर इस दिव्य दृष्टि का प्रभाव डाला जाय उसे भी विकासोन्मुख करके लाभान्वित किया जा सकता है।

विधि :
यह सिद्धि रात्रि में अथवा किसी अँधेरे वाले स्थान पर करना चाहिए। प्रतिदिन लगभग एक निश्चित समय पर बीस मिनट तक करना चाहिए। स्थान शांत एकांत ही रहना चाहिए। साधना करते समय किसी प्रकार का व्यवधान नहीं आए, इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए। शारीरिक शुद्धि व स्वच्छ ढीले कपड़े पहनकर किसी आसन पर बैठ जाइए।
त्राटक के लिये किसी भगवान, देवी, देवता, महापुरुष के चित्र, मुर्ति या चिन्ह का प्रयोग किया जाता है। इसके अलावा गोलाकार, चक्राकार, बिन्दु, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, आदि दृष्य का भी प्रयोग किया जा सकता है। इसके लिए त्राटक केंद्र को अपने से लगभग ३ फीट की दूरी पर अपनी आंखों के बराबर स्तर पर रखकर उसे सामान्य तरीके से लगातार बिना पलक झपकाए जितनी देर तक देख सकें देखें। कुछ दिनों उपरांत आपको ज्योति के प्रकाश के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखाई देगा। मन मे कोई विचार न आने दें। धीरे धीरे मन शांत होने लगेगा।
इस स्थिति के पश्चात उस ज्योति में संकल्पित व्यक्ति व कार्य भी प्रकाशवान होने लगेगा। इस आकृति के अनुरूप ही घटनाएँ जीवन में घटित होने लगेंगी। इस अवस्था के साथ ही आपकी आँखों में एक विशिष्ट तरह का तेज आ जाएगा। जब आप किसी पर नजरें डालेंगे, तो वह आपके मनोनुकूल कार्य करने लगेगा।
इस सिद्धि का उपयोग सकारात्मक तथा निरापद कार्यों में करने से ईश्वरीय कृपा से त्राटक शक्ति की वृद्धि होने लगती है। त्राटक सिद्धि योगियों में दृष्टिमात्र से अग्नि उत्पन्न करने वाली ऊर्जा आ जाती है। इस सिद्धि से मन में एकाग्रता, संकल्प शक्ति व कार्य सिद्धि के योग बनते हैं। कमजोर नेत्र ज्योति वालों को इस साधना को शनैः-शनैः वृद्धिक्रम में करना चाहिए।
योगेश मिश्र जी !

बुद्धि बढ़ाने और पढ़ा हुआ न भूलने का मंत्र

बुद्धि बढ़ाने और पढ़ा हुआ न भूलने का मंत्र
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मंत्र :: ॐ नमो भगवती सरस्वती परमेश्वरी वाक्य वादिनी है विद्या देही भगवती हंसवाहिनी... बुद्धि में देही प्रज्ञा देही,देही विद्या देही देही परमेश्वरी सरस्वती स्वाहा।
विधी- यह मंत्र अत्यन्त तीव्र एवं प्रभावी होता है। बसंत पंचमी के दिन या किसी भी रविवार को सरस्वती माता के चित्र के समक्ष दूध से बना प्रसाद चढ़ाकर उक्त मंत्र का विधि पूर्वक 11माला जप करें तथा खीर का भोजन करें तो यह मंत्र सिद्ध हो जाता है। फिर जब भी पढ़ने बैठे इस मंत्र का 7 बार जप करें तो पढ़ा हुआ तुरंत याद हो जाता है और बुद्धि तीव्र हो जाती है।

इष्ट देव की पूजा की आवश्यकता क्यों ?

इष्ट देव की पूजा की आवश्यकता क्यों ?

व्यक्ति शारीरिक रूप से कितना भी सामर्थ्यवान हो यदि वह यात्रा पैदल करे तो यात्रा का समय अधिक लगेगा .. यही यात्रा यदि कार ...अथवा हवाई जहाज से की जाये तो यात्रा का समय और भी कम किया जा सकता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक जगत के कुछ नियम होते है और उन नियमों की अपनी सीमाए होती है .
साधारणतः सभी व्यक्ति यह समझते है कि हम किसी भी स्वरुप की अराधना कर सकते है किन्तु यहाँ पर यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि इश्वर ने विभिन्न स्वरुप क्यों धारण किये ? यदि रूप धारण ही करना था तो एक स्वरुप से भी काम चल सकता था .इश्वर के विभिन्न रूप उस सर्वशक्तिमान इश्वर के विभिन्न गुणों और कार्यों का निर्धारण करते है . जैसे विद्या की प्राप्ति के लिए सरस्वती जी , विघ्नों को दूर करने के लिए गणपति जी और धन की प्राप्ति के लिए लक्ष्मी जी की अराधना की जाती है क्योंकि उस विशेष स्वरुप में एक विशेष गुण की ऊर्जा होती है जिससे वह विशेष इच्छापूर्ती शीघ्र हो जाती है किन्तु इस का अर्थ यह नहीं होता कि सभी स्वरूपों की अराधना एक साथ कर ली जाये। यदि किसी व्यक्ति के पास दस कार हो तो वह सभी करों में एक साथ यात्रा नहीं कर सकता है। इसी प्रकार सभी स्वरूपों की अराधना एक साथ नहीं की जा सकती है । इष्ट देव इश्वर के उसी स्वरुप को बनाया जाता है जो ऊर्जा जीव की ऊर्जा स्तर के अनुकूल हो और उसके सबसे निकट हो। इष्ट देवता ही कुण्डलिनी शक्ति अथवा आत्म ज्ञान के जागरण के लिए प्रथम द्वार होते हैं . यदि प्रथम द्वार ही बंद हो तो दिव्य चेतना ऊर्जा का प्रवाह कैसे प्रारम्भ होगा .
हिन्दू पद्धति में मुख्यतः पांच इष्ट देवता सांसारिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए बताये गए है – सूर्य देव , शक्ति आराधना (दुर्गा , लक्ष्मी , सरस्वती) , भगवान् विष्णु और उनके अन्य अवतार और भगवान् शिव . दक्षिण भारत में कार्तिकेय भगवान् को इष्ट देवता का स्थान दिया गया है . निम्नलिखित देव ग्रहों के अधिपति है –
• सूर्य —विष्णु , रमा, शिव
• चन्द्र —कृष्ण, शिवा, पार्वती
• मंगल – हनुमान , श्री नरसिम्हा, दुर्गा
• बुध – विष्णु
• गुरु – विष्णु, श्री वामन, दत्तात्रेय
• शुक्र - महा लक्ष्मी, परशुराम , माँ गौरी
• शनि - हनुमान, कूर्मा, शिव, विष्णु
• राहु – माँ दुर्गा
• केतु – गणेश , मत्स्य
ग्रहों के माध्यम से व्यक्ति की उर्जा का स्तर और अनुकूलता का निर्धारण कर इष्ट का निर्धारण किया जाता है। इष्ट अत्यंत महत्त्वपूर्ण सीढ़ी है उस अनन्त को पाने के लिए । एक जागृत और सिद्ध गुरु शिष्य के शारीरिक , मानसिक और आध्यात्मिक स्तर को ग्रहों के माध्यम से ज्ञात कर विभिन्न स्तरों को संतुलन करने हेतु उपयुक्त इष्ट देव और मंत्र का चुनाव करता है। जब सही इष्ट की आराधना और सही मंत्र का निरंतर जाप किया जाता है तो शरीर , मन और आत्मा के मध्य नकारात्मक कर्मों की बाधाएं हटने लगती है और परम चेतना से संपर्क स्थापित होने लगता है।

मंत्र शक्ति का वैज्ञानिक विशलेषण

मंत्र शक्ति का वैज्ञानिक विशलेषण

मंत्र ध्वनि-विज्ञान का सूक्ष्मतम विज्ञान है मंत्र-शरीर के अन्दर से सूक्ष्म ध्वनि को विशिष्ट तरंगों में बदल कर ब्रह्मांड में प्र...वाहित करने की क्रिया है जिससे बड़े-बड़े कार्य किये जा सकते हैं… प्रत्येक अक्षर का विशेष महत्व और विशेष अर्थ होता है.. प्रत्येक अक्षर के उच्चारण में चाहे वो वाचिक, उपांसू या मानसिक हो विशेष प्रकार की ध्वनि निकलती है तथा शरीर में एवं विशेष अंगो, नाड़ियों में विशेष प्रकार का कम्पन पैदा करती है । जिससे शरीर से विशेष प्रकार की ध्वनि तरंगे निकलती हैं, जो वातावरण-आकाशीय तरंगो से संयोग करके विशेष प्रकार की क्रिया करती है। विभिन्न अक्षर (स्वर-व्यंजन) एक प्रकार के बीज मंत्र हैं । विभिन्न अक्षरों के संयोग से विशेष बीज मंत्र तैयार होते हैं जो एक विशेष प्रकार का प्रभाव डालते हैं, परन्तु जैसे अंकुर उत्पन्न करने में समर्थ सारी शक्ति अपने में रखते हुये भी धान, जौ, गेहूँ अदि संस्कार के अभाव में अंकुर उत्पन्न नहीं कर सकते वैसे ही मंत्र-यज्ञ आदि कर्म भी सम्पूर्ण फलजनित शक्ति से सम्पन्न होने पर भी यदि ठीक-ठीक से अनुष्ठित न किये जाय तो कदापि फलोत्पादक नहीं होते हैं ।
घर्षण के नियमों से सभी लोग भलीभातिं परिचित होगें, घर्षण से ऊर्जा आदि पैदा होती है, मंत्रों के जप से तथा श्वास के शरीर में आवागमन से, विशेष अक्षरों के अनुसार विशेष स्थानों की नाड़ियों में कम्पन(घर्षण) पैदा होने से विशेष प्रकार का विद्युत प्रवाह पैदा होता हैं, जो साधक के ध्यान लगाने से एकत्रित होता हैं तथा मंत्रों के अर्थ (साधक को अर्थ ध्यान रखते हुए उसी भाव से ध्यान एकाग्र करना आवश्यक होता है) के आधार पर ब्रह्मांड में उपस्थित अपने ही अनुकूल उर्जा से संपर्क करके तदानुसार प्रभाव पैदा होता हैं, रेडियो, टी०वी० या अन्य विद्युत उपकरणों में आजकल रिमोट कन्ट्रोल का सामान्य रूप से प्रयोग देखा जा सकता है, इसका सिद्धान्त भी वही है जो मंत्रों के जप से निकलने वाली सूक्ष्म ऊर्जा भी ब्रह्मांड की ऊर्जा से संयोंग करके वातावरण पर बिशेष प्रभाव डालती है हमारे ऋषि-मुनियों ने दीर्घकाल तक अक्षरों,मत्राओं, स्वरों पर अध्ययन प्रयोग, अनुसंधान करके उनकी शक्तियों को पहचाना जिनका वर्णन वेदों में किया है इन्ही मंत्र शक्तियों से आश्चर्यजनक कार्य होते हैं, जो अविश्वसनीय से लगते हैं, यद्यपि समय एवं सभ्यता तथा सांस्कृतिक बदलाव के कारण उनके वर्णनों में कुछ अपभ्रंस शामिल हो जाने के वावजूद भी उनमें अभी भी काफी वैज्ञानिक अंश ऊपलब्ध है, बस थोड़ा सा उनके वास्तविक सन्दर्भ को दृष्टिगत रखते हुए प्रयोग करके प्रमाणित करने की आवश्यकता है ।

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Sunday, February 28, 2016

Evidence that Ayodhya masjid was Sri RAM TEMPLE

Archaeologist K.K. Muhammed- Excavation proofs say Babri masjid was actually a Hindu Temple in past

This shocking Truth is exposed by Dr KK Muhammed, former Regional Director of Archaeological Survey of India (ASI) that Babri Masjid was actually a Hindu Temple, which was demolished and then refurbished into a mosque during Mughal rule.

He further adds that leftist historians of India like Romila Thapar, irfan habib, akhtar Ali, Bipin chandra, S gopal and many others gave False logics such as there were no historical accounts of demolition of Temple and Hindu/buddhist/ Jain cultural centres in and around Ayodhya before 19th century. While renowned historian MGS Narayanan fully agree with Muhammed, Left centric historians like Dr KN Panikkar dubbed the arguments raised by the author as baseless.

The shocking truth that was found in the Babri Masjid excavation

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Sanskrit faded from being a global language

How Sanskrit faded from being a global language and what shattered the global Vedic culture.

By Stephen Knapp

Sanskrit was an internationally known language even up to the time of the 15th century, this is corroborated by a footnote on page 28, Volume One, of Marco Polo's Memoirs. It explains that in the village of Kenyung Kwan, 40 miles north of Peking, beyond the pass of Nankau, under a, archway, two large inscriptions were engraved in 1345 CE in six languages, including Tibetan, Mongol, Bashpath, Uighur, Chinese, one unknown language, and Sanskrit. Furthermore, another footnote on page 29 of the same volume explains that the annals of the Ming dynasty in 1407 CE mentions the establishment of a linguistic office for diplomatic purpose. This required the study of eight language, including Sanskrit.

So, Sanskrit was an important language. We can see that the farther we go back in time the wider and more frequent was it's use. With so many languages displaying words that derive from Sanskrit, or are corrupted forms of it, we can understand that Sanskrit was the primary language from time immemorial up to the era of the Mahabharata War, So why did Sanskrit go from a global language to one that is presently sparsely used?

It would seem that the Mahabharata War at Kurukshetra (c.3138 BCE) caused the global, united Vedic administration to break up into factions and fragments. The war caused many once united portions of world society to take sides to either support the Pandavas or the Kurus. As explained in the Mausal Parva section of the Mahabharata, after the heavy carnage of the war, masses of people had to flee the area or take refuge in new and unfamiliar areas of the world. This caused the breakdown of the world-wide Vedic social, educational, and administrative system which helped usher in the chaos of the age of Kali-yuga.

As people fled to other areas of the world and splintered away from Vedic society, they, nonetheless, carried with them remnants and memories if the Vedic rituals and customs, as well as speech and language they once knew and practised. However,bereft accompanied it, after many generations of this, the forgetfulness of the ancient ways led them to speak in progressively more distorted forms of Sanskrit and develop^their own peculiar regional forms of speech, customs, and mannerisms. Therefore, people in the British Isles, the Mediterranean, China, Japan, etc., all evolved their own style of vocabulary and remnants of Vedic customs. This is how various forms of language emerged out of Sanskrit, and why many languages and customs and religions have a thread of similarities running through them. The idea of some scholars that Sanskrit, Latin, and Greek are descendants of some previous language in unfounded and simply speculation.

With the dispersal of large masses of people there was the formation of regional states that became isolated and divided, which took the shape of Syria, Assyria, Babylonia, Mesopotamia, Egypt, China, etc, Mr.P.N.Oak provides an interesting explanation in this regard in his book, Some Missing Chapters of World History (p.8): “Like the Vedic empire splitting into regional bits, Vedic society too broke into diverse cults and communities. Consequently their names are all Vedic Sanskrit. Thus, Syria is Sur, Assyria is Asur, Babylonia is Bahubalaniya, Mesopotamia is Mahishipattaniya, etc., while Stoics were Staviks (people given to meditation), Essenes were devotees of Essan(Lord Shiva), Samaritans were Smartas (those whose lives were regulated by the Smriti Vedic texts), Sadduceans were Sadhujans (monks), Malencians were Mlencchas, Philistines were followers of Vedic sage Pulasti, Casseopeans were followers of sage Kashyap, etc.”

This is why so many of the Vedic symbols, or distortions of such, are still important or highly recognized in various parts of the world. For example, the Aryan symbol of the Swastika is a famous sign for auspiciousness and god luck, which was later distorted into a symbol of a different meaning by Hitler and the German army. The Shakti-Chakra or Sri Yantra was held sacred and turned into the sic-pointed Star of Solomon by Jewish people.

Furthermore, we can easily see the many similarities in ancient architecture all over the world. The Vedic culture was not interested in conquering foreign people into submission, but was interested inupgrading people everywhere. Thus, they also spread the ancient science of constructing buildings. Many of the ancient temples and stone mansions we find today are built to the specifications of the Vedic Shilpa Shastras. The reason for the similarity in buildings of the Indians, Iranians, Arabs, Mongols, and even in the Americas is explained in this way.

One western author who also reached this conclusion is E.B.Havell. In his book, Indian Architecture-- Its Psychology, Structure and History (pp.1&2), he writes that all historic architecture is absolutely Hindu (Vedic) in style, concept, and execution. Havell also wrote about the false idea that the beauty and precision of Indian building art must have come from outside India. “All these misconceptions have their root in one fixed idea. The belief that true aesthetic feeling has always been wanting in the Hindu mind and that everything really great in Indian art has been suggested or introduced by foreigners...This persistent habit of looking outside of India for the origins of Indian art must necessarily lead to false conclusions.”

Interestingly, the principles of Vedic architecture can be found a lot closer to home than many people may think P.N.Oak describes in World Vedic Heritage (p.390) that the white house in Washington D.C. Also follows the principles of Vedic architectural design. In the age old tradition, the king's palace was designated as the Dhavala Gruha, which literally translates into White House. The design for such a house is described in two famous Sanskrit classics, the Harsha Charita and Kadambari. Both texts were written by the Sanskrit pundit Banabhatta 1300 years ago during the reign of Harshavardhan. “The traditional Vedic features enjoined for the Hindu Chief Executive's Dhaval Gruha have been reflected in every detail in the White House in Washington D.C and the U.S.Embassy building in New Delhi.”

So, Why can we not remember or find more sources of documented history of our connection with a global Vedic culture? Why do most histories of any country tend to fade out after going back 2500 years? There are several reasons, some of which we will mention later. But one reason is that before the process of fragmentation began after the Mahabharata War at Kurukshetra in 3138 BCE, all regions of the world had not developed a separate identity from the global Vedic Aryan culture. Thus, there was not a need to record a separate regional history other than what was already recorded as a global history, as we presently find in many of the ancient Vedic histories known as the Ithihasas, or Puranas. This is one of the reasons why most regional histories tend not to go back farther in the time 2500 to 3000 years ago. Even the longest regional histories hardly to go back farther than 3000 BCE, the time of Mahabharata War.

Worldwide remnant of Sanskrit

Worldwide remnant of Sanskrit

By Stephen Knapp

The basis of all accomplishments of the Vedic culture is its literature. Max Mueller, in his book India – What Can It Teach Us(p.21), says that, “Historical records (of the Hindus) extend in some respects so far beyond all records and have been preserved to us in such perfect and such legible documents, that we can learn from them lessons which we can learn nowhere else and supply missing links.”

In Volume I (p.163) of Chips From A German Workshop, Max Mueller continues his thoughts on the importance and primordiality of Vedic literature: “Sanskrit no doubt has an immense advantage over all other ancient languages of the East. It is so attractive and has been so widely admired, that it almost seems at times to excite a certain amount of feminine jealousy. We are ourselves Indo-Europeans. In a certain sense we are still speaking and thinking Sanskrit; or more correctly Sanskrit is like a dear aunt to us and she takes the place of a mother who is no more.”

That the entire ancient literature of India is composed in Sankskrit provides compelling evidence that Sanskrit was the only language spoken and understood thousands of years ago. Not only that, but many other texts at the time, along with grants, orders, ordinances, religious prayers and sacraments, were also all in Sanskrit.

Scholar H.H.Wilson wrote in his Preface to his translation of the Vishnu Purana, “The affinities of the Sanskrit language prove a common origin of the now widely scattered nations amongst whose dialects they are traceable, and render it unquestionable that they must all have spread abroad from some central spot in that part of the globe first inhabited by mankind according to the inspired record.”

Let us take a brief look at additional evidence to help verify the idea that Sanskrit was the original language of the world, and that it is connected with numerous countries and cultures.

The fact of the matter is that remnants of Sanskrit can be found worldwide in practically any language. Mr.P.N.Oak provides a great comparison of this in his book, Some Blunder of Indian Historical Research (p.277). This is like a brief overview which we will elaborate further in another chapter. He explains that, “Latin and Persian are dialects of Sanskrit. Greek has borrowed a lot from Sanskrit. French and English are full of Sanskrit words, roots and speech forms. The use of a prefix 'a' for the negative as in 'amoral' is Sanskrit. The termination stry as in dentistry [and] chemistry, derives from the Sanskrit word Shastra meaning science or branch of knowledge. Words fashioned roots like dants (as in 'dental, dentistry'), mrutyu (as in mortal, mortuary, morgue, post mortem) are all Sanskrit. Vesture for apparel in the Sanskrit word vastra. Common words like 'door' (dwar), 'name' (nama) are all Sanskrit.

Numerals like two(dwi), three(troika, tripartite, tripod) is based on the Sanskrit word tri. Four (chatwar), five(panch in Sanskrit), gives us such words as Pentagon, pentecostal. 'Gon' is the Sanskrit Kon meaning angle. Six(shat in Sanskrit), seven(sapta), eight(astha), nine(vava), ten(dasha) gives words like decimel, decade. 'Christ-Mas' is really the month of Christ. In Sanskrit a month is called as mas. The Sanskrit root pada meaning foot leads to words like biped, centipede, pediatrics and tripod. 'Pedestrian' is almost a pure Sanskrit word which is explained in Sanskrit as padais charati iti padacharaha. The root bhara meaning weight gets formed in Latin into 'barus' and gives us words like barometer. The word naktam, meaning night in Sanskrit, has led to words like night, or 'naucht' in German and 'nocturnal.' The English words pedestal retains its almost original Sanskrit form pada-sthala. In French, the words 'roi, rene, deu, genou, naga' meaning king, queen, God, knees, and cobra respectively are all Sanskrit words. The river Nile is the corrupt form of the Sanskrit word neel, namely 'blue.' That is why it is called the blue Nile. In Greenland the Sanskrit word Sambandhi is used in its original Sanskrit sense meaning a relation. In Africa the word simba meaning a lion is the Sanskrit word simha. The Latvian language is based on Panini's Sanskrit grammar. Their capital riga is the very root we find in the word Rig-Veda. Pushtun the language of Afghanistan, is a dialect of Sanskrit as is Siamese, the language of Thailand. In German, the declension of nouns is based almost four-square on the Sanskrit pattern.

“The sequence of week days from Monday to Sunday is followed the word over as laid down by Sanskrit-speaking Indians. In the ancient world the new year began about March-April as in India and Persia even now. The names September, October, November, and December derive from the Sanskrit words Saptama, Asthtama, Navama and Dashama, i.e. the 7th, 8th, 9th, and 10th (months). The deity 'Mitras' was worshipped in the ancient world is the 'Mitra' or the Sun God of the Hindus. Scandinavia is the abode of warriors (Skand Nabhi in Sanskrit) i.e. of the Vikings.” I might also add that Skand comes from the name of the warrior son of the Vedic Lord Shiva, Skanda. And the Scandinavians were the mariner descendants of the Vedic Kshatriya warriors who worshipped Skanda.

In regard to Latin being a dialect of Sanskrit, Godfrey Higgins, in his book The Celtic Druids (p.61), makes a similar conclusion that for some people would be quite controversial. He explains, “There are many objections to the derivation of the Latin from the Greek. Latin exhibits many terms in a more rude form than Greek...Latin was derived from Sanskrit.”

In any case, not only are there many words connected with or derived from Sanskrit, there are many places around the world that also reflect their Vedic connection. For example, the places that end with the suffix sthan, which is the Sanskrit stan, reflect their Vedic connection as found in Baluchistan, Afghanistan, Kurdistan, Kafiristhan, Turkisthan, Bhabulisthan, Kazaksthan, and others, such as Arvasthan which corrupted to Arabia. Countries like like Syria and Assyria show their Sanskrit connection through the Sura and Asura communities mentioned in the Vedic epics. Those countries also spoke Sanskrit until they lost their connection with Indian or Vedic culture. Cities in England show their Sanskrit connection with their corrupted form of puri turned to 'bury' as in Shrewsbury, Ainsbury, and Waterbury.

Even the name “England” comes from the Sanskrit word Angla-Sthan. Herewith we can see that the suffix “land” also shows a corrupted form of Sanskrit and that places such as Deutschland, Greenland, or Iceland, show a Sanskrit connection. For example, the name Deutschland is derived from the Sanskrit Daitya Sthan, Daityas were an ancient, Sanskrit speaking people. They were known as Daityas for being descendants of the woman Diti, as explained in the Vedic texts.

The Caspian Sea and the region of kashmir also derive theur names from Sanskrit being names after the great sage Cashyap, or Kashyapa Muni. Kashyapa was the ancestor of the Daityas who figures prominently in the Vedic epics. The Daityas were also referred to as the Danuv community. The Danube River, being a river that flowed through the land of the Daityas, or Danuvs, was later known as the Danube. Danu was one of the primary goddesses of the Celts, and was the wife of Kashyapa Muni.

Furthermore, the Red sea is so named because that is merely the translation of the Sanskrit Lohit Sagar as was mentioned in the Ramayana when Rama's emissaries were searching for Sita. Lohit means red. This is similar to the name “White Sea,” which is a mere translation of the Sanskrit Ksheer Sagar. We will see more this kind of linguistic, geographical, and archaeological evidence in the coming postings.

(Source: Proof of Vedic Culture's Global Existence)