Monday, March 28, 2016

Swami vivekanand

स्वामी विवेकानंद के 8 पाठ : .

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1. “एक विचार लो, उस विचार को अपनी जिंदगी बना लो, उसके सपने देखो, उसके बारे में सोचो, अपने हर अंग, मस्तिष्क, शरीर, नसें, ग्रंथिया से उसके बारे में सोचो, हर दूसरे विचार को त्याग दो। यह सफल होने का सबसे अच्छा तरीका है, और इसी तरह से बहुत सी महान आत्मायें उतपन्न होती हैं।”
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2. “आपको अपने अंदर से ही आगे आना होगा, कोई आपको नहीं सिखा सकता , कोई आपको अध्यात्मिक नहीं बना सकता है। यहां कोई शिक्षक नहीं है, सिर्फ आपकी आत्मा ही आपको सिखा सकती है”
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3. “सभी शक्तियां आपके अंदर हैं, आप उनसे सबकुछ कर सकते है। उनमें विश्वास रखिए, कभी नहीं सोचिए की आप कमजोर हैं, कभी यह भी ना सोचें की आप थोडे मुर्ख हैं। आप सबकुछ कर सकते हैं, वह भी बिना किसी की दया से। खडे हो और अपनी दिव्यता को महसुस करो।”
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4. “आपका सबसे बड़ा शत्रु खुद आपका खुद को कमजोर सोचना ही है।”
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5. “हमेशा निडर रहो, निर्भीक होकर अपने विचारों को वहां तक जाने दो जहां तक वह जाने देते हैं, निजरता से उनका जिंदगी भर पालन भी करो।”
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6. “हम वही होते हैं जो हमारे 'विचार' हमें बनाते है, इसलिए इसका ध्यान रखो कि आप क्या सोचते हो। शब्द तो आते-जाते रहते हैं, पर 'विचार' हमेशा साथ रहते हैं।”
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7. “ना तो ज्यादा बोलो और ना ही अनदेखा करो.., आपको हर तरफ से ज्ञान मिल सकता है।” ........ और सबसे बडी बात ...
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8. “जो आग हमें जलाती है वही हमें पालती भी है तो यह आग की गलती नहीं है कि आप जल रहे हैं।”
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------------ Hardik Savani ------------

Sunday, March 27, 2016

Ramcharitmanas aranya Kand



जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम

श्रीरामचरितमानस–अरण्यकाण्ड दोहा संख्या 038से आगे .......

चौपाई :

गुनातीत सचराचर स्वामी। राम उमा सब अंतरजामी॥
कामिन्ह कै दीनता देखाई। धीरन्ह कें मन बिरति दृढ़ाई॥
क्रोध मनोज लोभ मद माया। छूटहिं सकल राम कीं दाया॥
सो नर इंद्रजाल नहिं भूला। जा पर होइ सो नट अनुकूला॥
उमा कहउँ मैं अनुभव अपना। सत हरि भजनु जगत सब सपना॥
पुनि प्रभु गए सरोबर तीरा। पंपा नाम सुभग गंभीरा॥
संत हृदय जस निर्मल बारी। बाँधे घाट मनोहर चारी॥
जहँ तहँ पिअहिं बिबिध मृग नीरा। जनु उदार गृह जाचक भीरा॥

भावार्थ:- (शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती ! श्री रामचंद्रजी गुणातीत (तीनों गुणों से परे), चराचर जगत् के स्वामी और सबके अंतर की जानने वाले हैं। (उपर्युक्त बातें कहकर) उन्होंने कामी लोगों की दीनता (बेबसी) दिखलाई है और धीर (विवेकी) पुरुषों के मन में वैराग्य को दृढ़ किया है॥ क्रोध, काम, लोभ, मद और माया- ये सभी श्री रामजी की दया से छूट जाते हैं। वह नट (नटराज भगवान्) जिस पर प्रसन्न होता है, वह मनुष्य इंद्रजाल (माया) में नहीं भूलता॥ हे उमा ! मैं तुम्हें अपना अनुभव कहता हूँ- हरि का भजन ही सत्य है, यह सारा जगत् तो स्वप्न (की भाँति झूठा) है। फिर प्रभु श्री रामजी पंपा नामक सुंदर और गहरे सरोवर के तीर पर गए॥ उसका जल संतों के हृदय जैसा निर्मल है। मन को हरने वाले सुंदर चार घाट बँधे हुए हैं। भाँति-भाँति के पशु जहाँ-तहाँ जल पी रहे हैं। मानो उदार दानी पुरुषों के घर याचकों की भीड़ लगी हो!॥

दोहा :

पुरइनि सघन ओट जल बेगि न पाइअ मर्म।
मायाछन्न न देखिऐ जैसें निर्गुन ब्रह्म॥39 क॥
सुखी मीन सब एकरस अति अगाध जल माहिं।
जथा धर्मसीलन्ह के दिन सुख संजुत जाहिं॥39 ख॥

भावार्थ:- घनी पुरइनों (कमल के पत्तों) की आड़ में जल का जल्दी पता नहीं मिलता। जैसे माया से ढँके रहने के कारण निर्गुण ब्रह्म नहीं दिखता॥उस सरोवर के अत्यंत अथाह जल में सब मछलियाँ सदा एकरस (एक समान) सुखी रहती हैं। जैसे धर्मशील पुरुषों के सब दिन सुखपूर्वक बीतते हैं॥39 (क-ख)॥
सभी स्नेही मानसप्रेमी साधकजनों को हमारी स्नेहमयी राम राम |

जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम

श्रीरामचरितमानस–अरण्यकाण्ड दोहा संख्या 037से आगे .......

चौपाई :

बिटप बिसाल लता अरुझानी। बिबिध बितान दिए जनु तानी॥
कदलि ताल बर धुजा पताका। देखि न मोह धीर मन जाका॥
बिबिध भाँति फूले तरु नाना। जनु बानैत बने बहु बाना॥
कहुँ कहुँ सुंदर बिटप सुहाए। जनु भट बिलग बिलग होइ छाए॥
कूजत पिक मानहुँ गज माते। ढेक महोख ऊँट बिसराते॥
मोर चकोर कीर बर बाजी। पारावत मराल सब ताजी॥
तीतिर लावक पदचर जूथा। बरनि न जाइ मनोज बरूथा॥
रथ गिरि सिला दुंदुभीं झरना। चातक बंदी गुन गन बरना॥
मधुकर मुखर भेरि सहनाई। त्रिबिध बयारि बसीठीं आई॥
चतुरंगिनी सेन सँग लीन्हें। बिचरत सबहि चुनौती दीन्हें॥
लछिमन देखत काम अनीका। रहहिं धीर तिन्ह कै जग लीका॥
ऐहि कें एक परम बल नारी। तेहि तें उबर सुभट सोइ भारी॥

भावार्थ:- विशाल वृक्षों में लताएँ उलझी हुई ऐसी मालूम होती हैं मानो नाना प्रकार के तंबू तान दिए गए हैं। केला और ताड़ सुंदर ध्वजा पताका के समान हैं। इन्हें देखकर वही नहीं मोहित होता, जिसका मन धीर है॥ अनेकों वृक्ष नाना प्रकार से फूले हुए हैं। मानो अलग-अलग बाना (वर्दी) धारण किए हुए बहुत से तीरंदाज हों। कहीं-कहीं सुंदर वृक्ष शोभा दे रहे हैं। मानो योद्धा लोग अलग-अलग होकर छावनी डाले हों॥ कोयलें कूज रही हैं, वही मानो मतवाले हाथी (चिग्घाड़ रहे) हैं। ढेक और महोख पक्षी मानो ऊँट और खच्चर हैं। मोर, चकोर, तोते, कबूतर और हंस मानो सब सुंदर ताजी (अरबी) घोड़े हैं॥ तीतर और बटेर पैदल सिपाहियों के झुंड हैं। कामदेव की सेना का वर्णन नहीं हो सकता। पर्वतों की शिलाएँ रथ और जल के झरने नगाड़े हैं। पपीहे भाट हैं, जो गुणसमूह (विरुदावली) का वर्णन करते हैं ॥ भौंरों की गुंजार भेरी और शहनाई है। शीतल, मंद और सुगंधित हवा मानो दूत का काम लेकर आई है। इस प्रकार चतुरंगिणी सेना साथ लिए कामदेव मानो सबको चुनौती देता हुआ विचर रहा है॥ हे लक्ष्मण ! कामदेव की इस सेना को देखकर जो धीर बने रहते हैं, जगत् में उन्हीं की (वीरों में) प्रतिष्ठा होती है। इस कामदेव के एक स्त्री का बड़ा भारी बल है। उससे जो बच जाए, वही श्रेष्ठ योद्धा है॥

दोहा :

तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ।
मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुँ छोभ॥38 क॥
लोभ कें इच्छा दंभ बल काम कें केवल नारि।
क्रोध कें परुष बचन बल मुनिबर कहहिं बिचारि॥38 ख॥

भावार्थ:- हे तात ! काम, क्रोध और लोभ- ये तीन अत्यंत दुष्ट हैं। ये विज्ञान के धाम मुनियों के भी मनों को पलभर में क्षुब्ध कर देते हैं ॥ लोभ को इच्छा और दम्भ का बल है, काम को केवल स्त्री का बल है और क्रोध को कठोर वचनों का बाल है, श्रेष्ठ मुनि विचार कर ऐसा कहते हैं ॥38 (क-ख)॥

गोस्वामी तुलसीदासरचित श्रीरामचरितमानस, अरण्यकाण्ड, दोहा संख्या 038, टीकाकार श्रद्धेय भाई श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दार, पुस्तक कोड-81, गीताप्रेस गोरखपुर
गोस्वामी तुलसीदासरचित श्रीरामचरितमानस, अरण्यकाण्ड, दोहा संख्या 039, टीकाकार श्रद्धेय भाई श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दार, पुस्तक कोड-81, गीताप्रेस गोरखपुर

Why not to sleep facing head to north

अक्सर हमें हमारी माँ और बुढ़े लोग हमें कहते हैं कि इस तरफ पैर करके मत सो इस दिशा में पैर करके आपको नहीं सोना चाहिए इत्यादि। हम उनसे सवाल तो बहुत पुछते हैं कि आखिर क्यों नहीं इस दिशा में पैर रखकर नहीं सोना चाहिए, या इस दिशा में ही क्यों पैर रखने चाहिए। दरअसल यह कोई अंधविश्वास नहीं है यह वैज्ञानिको द्वारा सिद्ध बात है। हम इसलिए आज इसको लिख रहे हैं क्योंकि बहुत से लोग अभी भी इस बात से अनभिज्ञ हैं। आईये तो जानते हैं उत्तर दिशा में ही पैर करके क्यों सोना चाहिए दिक्षिण में क्यों नहीं।।

 “वास्तु शास्त्र के अनुसार सोते समय पैर को उत्तर दिशा की ओर रखना चाहिए” जानिये वैज्ञानिक कारण:-

1. मनुष्य के सिर सकारत्म उर्जा का स्त्रोत है ,इसे चुम्बकीय उत्तर माना गया है |
2 .जब हम उत्तर में सिर करके सोते हैं तो हमारा सिर और उत्तर दिशा की सकारात्मक उर्जा एक दुसरे का प्रतिरोध [प्रतिकर्षित] करते हैं । वैज्ञानिक मानते हैं कि पृथ्वी का चुंबकीय नोर्थ पोल हमारे सिर के चुंबकीय पोल से मिलकर के एक दूसरे का प्रतिरोध करता है जिससे लोगों की स्मरण शक्ति पर असर पड़ता है।
3.इस प्रतिरोध के फलस्वरूप रात को सोते समय नीद में बाधा उत्पन्न होता है ,नीद गहरी नही होती ,दिन भर हाथ पैर मे दर्द की शिकायत लोग करते हैं ।
4.सनातन धर्म के अनुसार मृतक को उत्तर दिशा में सिर रखकर दरवाजे के पास सुलाने का विधान है।
5.इसलिए उत्तर दिशा में सोने से हमारी प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है और बीमार होने की सम्भावना बड जाती है ।
6. दक्षिण की ओर सिर होने से नींद अच्छी आती है। इससे सुबह मन शांत रहता है और तनाव पर नियंत्रण करना आसान होता है।

पौराणिक कारण

7.  माँ पार्वती जब स्नान कर रही थी उस समय नवनिर्मित गणेश जी द्वार पर लोगों को अंदर आने से मना कर रहे थे ,भगवान शिव को अंदर आने से मना करने पर भगवान शिव ने गणेश जी सिर काट दिया । माँ पार्वती के आग्रह पर –भगवान शिव ने अपने अनुचर को आदेश दिया कि जो भी इस पृथ्वी पर उत्तर दिशा में सिर करके सो रहा हो उसका सिर काटकर ले आवो ,उस युग में लोग शास्त्र के अनुकूल शयन करते थे इसलिए कोई भी व्यक्ति उत्तर दिशा की ओर सिर करके सोते नही मिला । अंत में अनुचरों को हाथी का एक बच्चा उत्तर दिशा में सिर करके सोते मिला ,हाथी के उस बच्चे का सिर काटकर भगवान गणेश जी को जीवित किया गया । हाथी के बच्चे का सिर इसलिए कटा क्योंकि वो उत्तर दिशा में सिर करके सो रहा था , कलयुग में क्यों हम शिव जी अनुचरों को अपने घर आमंत्रित करें —
8 .इसलिए दक्षिण में सिर करके और उत्तर में पैर करके सोयें इससे भगवान शिव प्रसन्न ही होंगे।
9. शास्त्रों के अनुसार दक्षिण दिसा यमराज की दिशा है। इसी दिशा में यमराज के दूत घूमते हैं और दक्षिण मैं पैर करके सोने से वह हमारी उम्र को कम कर देते हैं।
10. सोते समय पूर्व की ओर पैर नहीं होने चाहिए। इससे जीवन में विभिन्न दोषों का प्रवेश होता है। यह सूर्यदेव की दिशा है। अतः ऋषियों ने इस ओर पैर कर सोना निषिद्ध माना है।

Shiva mantra

॥ श्रीशिवाष्टकम् २ ॥ श्रीगणेशाय नमः । प्रभुमीशमनीशमशेषगुणं गुणहीनमहीश-गलाभरणम् । रण-निर्जित-दुर्ज्जयदैत्यपुरं प्रणमामिशिवं शिवकल्पतरुम् ॥ १॥ गिरिराज सुतान्वित-वाम तनुं तनु-निन्दित-राजित-कोटीविधुम् । विधि-विष्णु-शिवस्तुत-पादयुगं प्रणमामिशिवं शिवकल्पतरुम् ॥ २॥ शशिलाञ्छित-रञ्जित-सन्मुकुटं कटिलम्बित-सुन्दर-कृत्तिपटम् । सुरशैवलिनी-कृत-पूतजटं प्रणमामिशिवं शिवकल्पतरुम् ॥ ३॥ नयनत्रय-भूषित-चारुमुखं मुखपद्म-पराजित-कोटिविधुम् । विधु-खण्ड-विमण्डित-भालतटं प्रणमामिशिवं शिवकल्पतरुम् ॥ ४॥ वृषराज-निकेतनमादिगुरुं गरलाशनमाजि विषाणधरम् । प्रमथाधिप-सेवक-रञ्जनकं प्रणमामिशिवं शिवकल्पतरुम् ॥ ५॥ मकरध्वज-मत्तमतङ्गहरं करिचर्म्मगनाग-विबोधकरम् । वरदाभय-शूलविषाण-धरं प्रणमामिशिवं शिवकल्पतरुम् ॥ ६॥ जगदुद्भव-पालन-नाशकरं कृपयैव पुनस्त्रय रूपधरम् । प्रिय मानव-साधुजनैकगतिं प्रणमामिशिवं शिवकल्पतरुम् ॥ ७॥ न दत्तन्तु पुष्पं सदा पाप चित्तैः पुनर्जन्म दुःखात् परित्राहि शम्भो । भजतोऽखिल दुःख समूह हरं प्रणमामिशिवं शिवकल्पतरुम् ॥ ८॥ ॥ इति शिवाष्टकं सम्पूर्णम् ॥

Saturday, March 26, 2016

मृत्यु के बाद आत्मा दूसरा शरीर कितने दिनों के अन्दर धारण करता है

मृत्यु के बाद आत्मा दूसरा शरीर कितने दिनों के अन्दर धारण करता है? किन-किन योनियों में प्रवेश करता है? क्या मनुष्य की आत्मा पशु-पक्षियों की योनियों में जन्म लेने के बाद फिर लौट के मनुष्य योनियों में बनने का कितना समय लगता है? आत्मा माता-पिता के द्वारा गर्भधारण करने से शरीर धारण करता है यह मालूम है लेकिन आधुनिक पद्धतियों के द्वारा टेस्ट ट्यूब बेबी, सरोगसि पद्धति, गर्भधारण पद्धति, स्पर्म बैंकिंग पद्धति आदि में आत्मा उतने दिनों तक स्टोर किया जाता है क्या?
– मृत्यु के  बाद आत्मा कब शरीर धारण करता है, इसका ठीक-ठीक ज्ञान तो परमेश्वर को है। किन्तु जैसा कुछ ज्ञान हमें शास्त्रों से प्राप्त होता है वैसा यहाँ लिखते हैं। बृहदारण्यक-उपनिषद् में मृत्यु व अन्य शरीर धारण करने का वर्णन मिलता है। वर्तमान शरीर को छोड़कर अन्य शरीर प्राप्ति में कितना समय लगता है, इस विषय में उपनिषद् ने कहा- तद्यथा तृणजलायुका तृणस्यान्तं गत्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्यात्मानम् उपसँ्हरत्येवमेवायमात्मेदं शरीरं निहत्याऽविद्यां गमयित्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्य् आत्मानमुपसंहरति।। – बृ. ४.४.३ जैसे तृण जलायुका (सुंडी=कोई कीड़ा विशेष) तिनके के अन्त पर पहुँच कर, दूसरे तिनके को सहारे के लिए पकड़ लेती है अथवा पकड़ कर अपने आपको खींच लेती है, इसी प्रकार यह आत्मा इस शरीररूपी तिनके को परे फेंक कर अविद्या को दूर कर, दूसरे शरीर रूपी तिनके का सहारा लेकर अपने आपको खींच लेता है। यहाँ उपनिषद् संकेत कर रहा है कि मृत्यु के बाद दूसरा शरीर प्राप्त होने में इतना ही समय लगता है, जितना कि एक कीड़ा एक तिनके से दूसरे तिनके पर जाता है अर्थात् दूसरा शरीर प्राप्त होने में कुछ ही क्षण लगते हैं, कुछ ही क्षणों में आत्मा दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाता है। आपने पूछा है- आत्मा कितने दिनों में दूसरा शरीर धारण कर लेता है, यहाँ शास्त्र दिनों की बात नहीं कर रहा कुछ क्षण की ही बात कह रहा है। मृत्यु के विषय में उपनिषद् ने कुछ विस्तार से बताया है, उसका भी हम यहाँ वर्णन करते हैं- स यत्रायमात्माऽबल्यं न्येत्यसंमोहमिव न्येत्यथैनमेते प्राणा अभिसमायन्ति स एतास्तेजोमात्राः समभ्याददानो हृदयमेवान्ववक्रामति स यत्रैष चाक्षुषः पुरुषः पराङ् पर्यावर्ततेऽथारूपज्ञो भवति।। – बृ. उ.४.४.१ अर्थात् जब मनुष्य अन्त समय में निर्बलता से मूर्छित-सा हो जाता है, तब आत्मा की चेतना शक्ति जो समस्त बाहर और भीतर की इन्द्रियों में फैली हुई रहती है, उसे सिकोड़ती हुई हृदय में पहुँचती है, जहाँ वह उसकी समस्त शक्ति इकट्ठी हो जाती है। इन शक्तियों के सिकोड़ लेने का इन्द्रियों पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसका वर्णन करते हैं कि जब आँख से वह चेतनामय शक्ति जिसे यहाँ पर चाक्षुष पुरुष कहा है, वह निकल जाती तब आँखें ज्योति रहित हो जाती है और मनुष्य उस मृत्यु समय किसी को देखने अथवा पहचानने में अयोग्य हो जाता है। एकीभवति न पश्यतीत्याहुरेकी भवति, न जिघ्रतीत्याहुरेकी भवति, न रसयत इत्याहुरेकी भवति, न वदतीत्याहुरेकी भवति, न शृणोतीत्याहुरेकी भवति, न मनुत इत्याहुरेकी भवति, न स्पृशतीत्याहुरेकी भवति, न विजानातीत्याहुस्तस्य हैतस्य हृदयस्याग्रं प्रद्योतते तेन प्रद्योतेनैष आत्मा निष्क्रामति चक्षुष्टो वा मूर्ध्नो वाऽन्येभ्यो वा शरीरदेशेभ्यस्तमुत्क्रामन्तं प्राणोऽनूत्क्रामति प्राणमनूत्क्रामन्तं सर्वे प्राणा अनूत्क्रामन्ति सविज्ञानो भवति, सविज्ञानमेवान्ववक्रामति तं विद्याकर्मणी समन्वारभेते पूर्वप्रज्ञा च।। – बृ.उ. ४.४.२ अर्थात् जब वह चेतनामय शक्ति आँख, नाक,जिह्वा, वाणी, श्रोत्र, मन और त्वचा आदि से निकलकर आत्मा में समाविष्ट हो जाती है, तो ऐसे मरने वाले व्यक्ति के पास बैठे हुए लोग कहते हैं कि अब वह यह नहीं देखता, नहीं सूँघता इत्यादि। इस प्रकार इन समस्त शक्तियों को लेकर यह जीव हृदय में पहुँचता है और जब हृदय को छोड़ना चाहता है तो आत्मा की ज्योति से हृदय का अग्रभाग प्रकाशित हो उठता है। तब हृदय से भी उस ज्योति चेतना की शक्ति को लेकर, उसके साथ हृदय से निकल जाता है। हृदय से निकलकर वह जीवन शरीर के किस भाग में से निकला करता है, इस सम्बन्ध में कहते है कि वह आँख, मूर्धा अथवा शरीर के अन्य भागों-कान, नाक और मुँह आदि किसी एक स्थान से निकला करता है। इस प्रकार शरीर से निकलने वाले जीव के साथ प्राण और समस्त इन्द्रियाँ भी निकल जाया करती हैं। जीव मरते समय ‘सविज्ञान’ हो जाता है अर्थात् जीवन का सारा खेल इसके सामने आ जाता है। इसप्रकार निकलने वाले जीव के साथ उसका उपार्जित ज्ञान, उसके किये कर्म और पिछले जन्मों के संस्कार, वासना और स्मृति जाया करती है। इस प्रकार से उपनिषद् ने मृत्यु का वर्णन किया है। अर्थात् जिस शरीर में जीव रह रहा था उस शरीर से पृथक् होना मृत्यु है। उस मृत्यु समय में जीव के साथ उसका सूक्ष्म शरीर भी रहता, सूक्ष्म शरीर भी निकलता है। आपने पूछा किन-किन योनियों में प्रवेश करता है, इसका उत्तर  है जिन-जिन योनियों के कर्म जीव के साथ होते हैं उन-उन योनियों में जीव जाता है। यह वैदिक सिद्धान्त है, यही सिद्धान्त युक्ति तर्क से भी सिद्ध है। इस वेद, शास्त्र, युक्ति, तर्क से सिद्ध सिद्धान्त को भारत में एक सम्प्रदाय रूप में उभर रहा समूह, जो दिखने में हिन्दू किन्तु आदतों से ईसाई, वेदशास्त्र, इतिहास का घोर शत्रु ब्रह्माकुमारी नाम का संगठन है। वह इस शास्त्र प्रतिपादित सिद्धान्त को न मान यह कहता है कि मनुष्य की आत्मा सदा मनुष्य का ही जन्म लेता है, इसी प्रकार अन्य का आत्मा अन्य शरीर में जन्म लेता है। ये ब्रह्माकुमारी समूह यह कहते हुए पूरे कर्म फल सिद्धान्त को ताक पर रख देता है। यह भूल जाता है कि जिसने घोर पाप कर्म किये हैं वह इन पाप कर्मों का फल इस मनुष्य शरीर में भोग ही नहीं सकता, इन पाप कर्मों को भोगने के लिए जीव को अन्य शरीरों में जाना पड़ता है। वेद कहता है- असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः। ताँऽस्ते प्रेत्यापि गच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः।। – यजु. ४०.३ इस मन्त्र का भाव यही है कि जो आत्मघाती=घोर पाप कर्म करने वाले जन है वे मरकर घोर अन्धकार युक्त=दुःखयुक्त तिर्यक योनियों को प्राप्त होते हैं। ऐसे-ऐसे वेद के अनेकों मन्त्र हैं जो इस प्रकार के कर्मफल को दर्शाते हैं। किन्तु इन ब्रह्माकुमारी वालों को वेद शास्त्र से कोई लेना-देना नहीं है। ये तो अपनी निराधार काल्पनिक वाग्जाल व भौतिक ऐश्वर्य के द्वारा भोले लोगों को अपने जाल में फँसा अपनी संख्या बढ़ाने में लगे हैं।
 

Sunday, March 20, 2016

How to increase positive energy at home

 Most of these problems are connected to major Vastu and Feng Shui Defects says Dr Snehal S Deshpande N.D., Advanced Feng Shui and Pyravastu Consultant.
Main entrance is the mouth of a house which brings in main energy, so you should avoid a property which has a door facing South West as it is the entry of the devil energy and brings in struggle and misfortunes. If your house already has the one, fix 2 Hanumanji's tiles ( with the Gada in his left hand) outside the door and see the difference.

Mandir/altar is the king of all vastu rules - place it in the North East and rest of the things will automatically start falling in place. Face east while praying.

Kitchen is the symbol of prosperity - and should be ideally placed in the south east. Kitchen in the north or north east may bring financial and health problems. In this case hang 3 bronze bowls upside down on the ceiling but do not hang over the stove.

Master bedroom is the Key to enter the door of stability and it must be in the south west. You should sleep with your head in the south or west. But a bread winner should never sleep in the north east .

Bath rooms and toilets have the energy of 'HELL' - which are best in west or south. But should never be in north and north east or they bring financial, health and educational problems.
Center is the nose of your house - from where your house breaths. It must be open and clutter free. A wall here gives stomach and financial problems so fix a zero watt blue bulb on this wall and keep it on 24 *7.
 Cuts in any direction make a house paralyzed - mainly cuts in south west, north, north east and south east give serious problems. There are many mysteries and secrets regarding the cuts and their cures.

An evil energy resides in the deep holes in the South West - underground water tank or a well here is the threatening defect. Water placement (only underground) is good in north, north east (not on the axis).

Water streams, air cavities which are present 200 meters down the earth create a stress line and weaken the EMF of the earth and give birth to geopathic stress. Sleeping on severe geopathic stress is the main reason of major and recurring illnesses.

Divine secret - Last commandment is very important. If you have a very good house as per the vastu rules stated above and the flying Star Chart or the Feng Shui of your place is very bad, the house is not auspicious. It will give miseries to the occupant. And vice versa.
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