Showing posts with label dharma and religion. Show all posts
Showing posts with label dharma and religion. Show all posts

Monday, March 23, 2015

सदाचार के बिना कभी धर्म नहीं

'सदाचार के बिना कभी धर्म नहीं होता :  

========= सदाचार से ही अन्तःशुद्धि एवं बाह्यःशुद्धि होता हैं =========

आचारहीनं न पुनन्ति वेदा यद्यप्यधीता: सह षड्भिरंगे:।
छन्दांस्येनं मुत्युकाले त्यजन्ति नीडं शकुन्ता इव जातपक्षा:।।

~ (वशिष्ठस्मृति 6/3, देवी भागवत 11/2/1)

” शिक्षा , कल्प, निरूक्त, छन्द, व्याकरण और ज्योतिष -इन छ: अंगो सहित अध्ययन किये हुए वेद भी आचारहीन मनुष्य को पवित्र नहीं करते। मृत्युकाल में आचारहीन मनुष्य को वेद वैसे ही छोड़ देते हैं, जैसे पंख उगने पर पक्षी अपने घोंसले को। "   

आचाराल्लभते ह्यायुराचारादीप्सिता: प्रजा:।
आचाराद्धनमक्षयम् आचारो हन्त्यलक्षणम्।।

~ (मनुस्मृति 4/156)

" मनुष्य आचार से आयु को प्राप्त करता हैं, आचार से अभिलाषित सन्तान को प्राप्त करता हैं, आचार से अक्षय धन को प्राप्त करता हैं और आचार से ही अनिष्ट लक्षण को नष्ट कर देता हैं। "

दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति नििन्दत:।
दु:खभागी च सततं व्याधितोऽल्पायुरेव च।।

~ (मनुस्मृति 4/157, वशिष्ठस्मृति 6/6)

" दुराचारी पुरूष संसार में निन्दित , सर्वदा दु:खभागी, रोगी और अल्पायु होता हैं। "
—————————————————

आचार: फलते धर्ममाचार: फलते धनम्।
आचाराच्छिªयमाप्नोति आचारो हन्त्यलक्षणम्।।

~ (महाभारत, उद्योगपर्व , 113/15)

" आचार ही धर्म को सफल बनाता हैं, आचार ही धनरूपी फल देता हैं, आचार से मनुष्य को सम्पत्ति प्राप्त होती हैं और आचार ही अशुभ लक्षणों का नाश कर देता हैं। "
—————————————————

कुलानि समुपेतानि गोभि: पुरूशतोर्थत:।
कुलसंख्यां न गच्छन्ति यानि हीनानि वृत्तत:।।
वृत्ततस्त्वविहीनानि कुलान्यल्पधनान्यपि।
कुलसंख्यां च गच्छन्ति कशऽन्ति च महद् यश:।।

~ (महाभारत, उद्योगपर्व, 36/28-29)

" गौओं, मनुष्यों और धन से संपन्न होकर भी जो कुल सदाचार से हीन हैं, वे अच्छे कुल की गणना में नहीं आ सकते। परन्तु थोड़े धन वाले कुल भी यदि सदाचार से संपन्न हैं तो वे अच्छे कुलों की गणना में आ जाते हैं और महान् यश को प्राप्त करते हैं। "
—————————————————

वृत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमेति च याति च।
अक्षीणो वित्तत: क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हत:।।

~ (महाभारत, उद्योगपर्व, 36/30)

सदाचार की रक्षा यत्नपूर्वक करनी चाहिये। धन तो आता और जाता रहता हैं। धन क्षीण हो जाने पर भी सदाचारी मनुष्य क्षीण नहीं माना जाता, किन्तु जो सदाचार से भ्रष्ट हो गया, उसे तो नष्ट ही समझना चाहिये।´
—————————————————

न कुलं वृत्तहीनस्य प्रमाणमिति मे मति:।
अन्तेश्वपि हि जातानं वृत्तमेव विशिश्यते।।

~ (महाभारत, उद्योगपर्व, 34/41)

" मेरा ऐसा विचार है कि सदाचार से हीन मनुष्य का केवल ऊँचा कुल मान्य नहीं हो सकता, क्योंकि नीच कुल में उत्पन्न मनुष्यों का भी सदाचार श्रेष्ठ माना जाता हैं। " 

स्दाचारवता पुंसा जितौ लोकावुभावपि।।
साधव: क्षीणदोशास्तु सच्छब्द: साधुवाचक:।
तेशामाचरणं यत्तु सदाचारस्स उच्यते।।

~ (विष्णुपुराण 3/11/2-3)

" सदाचारी मनुष्य इहलोक और परलोक दोनों को ही जीत लेता हैं। `सत्´ शब्द का अर्थ साधु हैं और साधु वही हैं, जो दोषरहित हो। इस साधु पुरूष का जो आचरण होता हैं, उसी को सदाचार कहते हैं। " 

सर्वोऽयं ब्राह्मणो लोके वृत्तेन तु विधीयते।
वृत्ते स्थितस्तु शूद्रोऽपि ब्राह्मणत्वं नियच्छति।।

~ (महाभारत, अनुशासनपर्व, 143/51)

" लोक में यह सारा ब्राह्मण-समुदाय सदाचार से ही अपने पर पर बना हुआ हैं। सदाचार में स्थित रहने वाला शूद्र भी (इस जन्म में) ब्राह्मणत्व (गुण) को प्राप्त हो सकता हैं । "
—————————————————

आचाराल्लभते चायुराचाराल्लभते प्रजा:।
आचारदéमक्षय्यमाचारो हन्ति पातकम्।।
आचार: परमो धर्मो नृणां कल्याणकारक:।
इह लोके सुखी भूत्वा परत्र लभते सुखम्।।

~ (देवी भागवत, 11/1/10-11)

" आचार से ही आयु, सन्तान तथा प्रचुर अन्न की उपलब्धि होती है। आचार सम्पूर्ण पातकों को दूर कर देता है। आचारवान् मनुष्य इस लोक में सुख भोगकर परलोक में भी सुखी होता हैं। "
————————————————–

आचारवान् सदा पूत: सदैवाचारवान् सुखी।
आचारवान् सदा धन्य: सत्यं च नारद।।

~ (देवी भागवत, 11/24/98)

" (भगवान नारायण बोले-) नारद ! आचारवान् मनुष्य सदा पवित्र, सदा सुखी और सदा ही धन्य हैं-यह सत्य हैं, सत्य हैं। "   

।। ॐ शान्ति शान्ति शान्ति ।।'सदाचार के बिना कभी धर्म नहीं होता :
========= सदाचार से ही अन्तःशुद्धि एवं बाह्यःशुद्धि होता हैं =========
आचारहीनं न पुनन्ति वेदा यद्यप्यधीता: सह षड्भिरंगे:।
छन्दांस्येनं मुत्युकाले त्यजन्ति नीडं शकुन्ता इव जातपक्षा:।।
~ (वशिष्ठस्मृति 6/3, देवी भागवत 11/2/1)
” शिक्षा , कल्प, निरूक्त, छन्द, व्याकरण और ज्योतिष -इन छ: अंगो सहित अध्ययन किये हुए वेद भी आचारहीन मनुष्य को पवित्र नहीं करते। मृत्युकाल में आचारहीन मनुष्य को वेद वैसे ही छोड़ देते हैं, जैसे पंख उगने पर पक्षी अपने घोंसले को। "
आचाराल्लभते ह्यायुराचारादीप्सिता: प्रजा:।
आचाराद्धनमक्षयम् आचारो हन्त्यलक्षणम्।।
~ (मनुस्मृति 4/156)
" मनुष्य आचार से आयु को प्राप्त करता हैं, आचार से अभिलाषित सन्तान को प्राप्त करता हैं, आचार से अक्षय धन को प्राप्त करता हैं और आचार से ही अनिष्ट लक्षण को नष्ट कर देता हैं। "
दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति नििन्दत:।
दु:खभागी च सततं व्याधितोऽल्पायुरेव च।।
~ (मनुस्मृति 4/157, वशिष्ठस्मृति 6/6)
" दुराचारी पुरूष संसार में निन्दित , सर्वदा दु:खभागी, रोगी और अल्पायु होता हैं। "
—————————————————
आचार: फलते धर्ममाचार: फलते धनम्।
आचाराच्छिªयमाप्नोति आचारो हन्त्यलक्षणम्।।
~ (महाभारत, उद्योगपर्व , 113/15)
" आचार ही धर्म को सफल बनाता हैं, आचार ही धनरूपी फल देता हैं, आचार से मनुष्य को सम्पत्ति प्राप्त होती हैं और आचार ही अशुभ लक्षणों का नाश कर देता हैं। "
—————————————————
कुलानि समुपेतानि गोभि: पुरूशतोर्थत:।
कुलसंख्यां न गच्छन्ति यानि हीनानि वृत्तत:।।
वृत्ततस्त्वविहीनानि कुलान्यल्पधनान्यपि।
कुलसंख्यां च गच्छन्ति कशऽन्ति च महद् यश:।।
~ (महाभारत, उद्योगपर्व, 36/28-29)
" गौओं, मनुष्यों और धन से संपन्न होकर भी जो कुल सदाचार से हीन हैं, वे अच्छे कुल की गणना में नहीं आ सकते। परन्तु थोड़े धन वाले कुल भी यदि सदाचार से संपन्न हैं तो वे अच्छे कुलों की गणना में आ जाते हैं और महान् यश को प्राप्त करते हैं। "
—————————————————
वृत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमेति च याति च।
अक्षीणो वित्तत: क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हत:।।
~ (महाभारत, उद्योगपर्व, 36/30)
सदाचार की रक्षा यत्नपूर्वक करनी चाहिये। धन तो आता और जाता रहता हैं। धन क्षीण हो जाने पर भी सदाचारी मनुष्य क्षीण नहीं माना जाता, किन्तु जो सदाचार से भ्रष्ट हो गया, उसे तो नष्ट ही समझना चाहिये।´
—————————————————
न कुलं वृत्तहीनस्य प्रमाणमिति मे मति:।
अन्तेश्वपि हि जातानं वृत्तमेव विशिश्यते।।
~ (महाभारत, उद्योगपर्व, 34/41)
" मेरा ऐसा विचार है कि सदाचार से हीन मनुष्य का केवल ऊँचा कुल मान्य नहीं हो सकता, क्योंकि नीच कुल में उत्पन्न मनुष्यों का भी सदाचार श्रेष्ठ माना जाता हैं। "
स्दाचारवता पुंसा जितौ लोकावुभावपि।।
साधव: क्षीणदोशास्तु सच्छब्द: साधुवाचक:।
तेशामाचरणं यत्तु सदाचारस्स उच्यते।।
~ (विष्णुपुराण 3/11/2-3)
" सदाचारी मनुष्य इहलोक और परलोक दोनों को ही जीत लेता हैं। `सत्´ शब्द का अर्थ साधु हैं और साधु वही हैं, जो दोषरहित हो। इस साधु पुरूष का जो आचरण होता हैं, उसी को सदाचार कहते हैं। "
सर्वोऽयं ब्राह्मणो लोके वृत्तेन तु विधीयते।
वृत्ते स्थितस्तु शूद्रोऽपि ब्राह्मणत्वं नियच्छति।।
~ (महाभारत, अनुशासनपर्व, 143/51)
" लोक में यह सारा ब्राह्मण-समुदाय सदाचार से ही अपने पर पर बना हुआ हैं। सदाचार में स्थित रहने वाला शूद्र भी (इस जन्म में) ब्राह्मणत्व (गुण) को प्राप्त हो सकता हैं । "
—————————————————
आचाराल्लभते चायुराचाराल्लभते प्रजा:।
आचारदéमक्षय्यमाचारो हन्ति पातकम्।।
आचार: परमो धर्मो नृणां कल्याणकारक:।
इह लोके सुखी भूत्वा परत्र लभते सुखम्।।
~ (देवी भागवत, 11/1/10-11)
" आचार से ही आयु, सन्तान तथा प्रचुर अन्न की उपलब्धि होती है। आचार सम्पूर्ण पातकों को दूर कर देता है। आचारवान् मनुष्य इस लोक में सुख भोगकर परलोक में भी सुखी होता हैं। "
————————————————–
आचारवान् सदा पूत: सदैवाचारवान् सुखी।
आचारवान् सदा धन्य: सत्यं च नारद।।
~ (देवी भागवत, 11/24/98)
" (भगवान नारायण बोले-) नारद ! आचारवान् मनुष्य सदा पवित्र, सदा सुखी और सदा ही धन्य हैं-यह सत्य हैं, सत्य हैं।

Wednesday, March 11, 2015

ऋता, सत्य एवं धर्म ,what is DHARMA. It is not religion.

'ऋता, सत्य एवं धर्म : 

============ ऋता, सत्य, धर्म : अर्थ एवं तात्पर्य ============

धर्म का परिभाषा क्या हैं ये लेकर विद्वज्जनों में भी मतभेद नजर आता हैं । धर्म  शब्द " ध्रु " धातु से उत्पन्न होता हैं जिसका अर्थ हैं सम्भालना, धारण करना या पोषण करना । ऋषियों ने " धर्म " को " ऋता " एवं " सत्य " के साथ ही निकट अर्थ में उल्लेख किया हैं ।   

श्री विद्यारण्य जी ने " ऋता " का संज्ञा निरूपण करते समय कहा हैं " अन्तर्दृष्टि " एवं " ईश्वर-दर्शन " । तैत्तिरीय उपनिषद् में भी " सत्य " एवं " धर्म " शब्द के साथ ही ऋता शब्द आता हैं । इसमें शिष्यों को सत्य कहने और धर्माचारण करने के लिए कहा जा रहा हैं । (" सत्यं वद, धर्मं चर ") 

आचार्य श्री शंकर भागवतपाद जी के अनुसार " सत्य " का अर्थ हैं सत्य-कथन एवं " धर्म " का अर्थ हैं सत्य-कार्य अर्थात सत्य को कार्य में परिणत करना ।  

" सत्यमिति यथाशास्त्रार्थत स एव अनुष्ठीयमानः धर्मनाम भवति " 
________________________________________

अब इस विषय पर श्री के. वालसुब्रमनिय अय्यर जी का व्याख्या भी देखते हैं : 

" ये तीन शब्दों (सत्य, ऋता एवं धर्म) की तात्पर्य विचार करने से ये स्पष्ट होता हैं की धर्म का मूल भित्ति ही एक व्यक्ति के जीवन का आदर्श हैं । " ऋता " शब्द से " अन्तर्दृष्टि " एवं सत्य का अनुभव, " सत्य " शब्द से मन में जिस प्रकार से उस सत्य का अनुभव हो रहा हैं उसको शब्दों में व्यक्त करना, और " धर्म " से जीवन में आचरण करते समय उस सत्य का पालन करना समझा जाता हैं । " धर्म " तो जीवनधारण करने का वो पद्धति हैं जिससे सत्य को कार्य में परिणत किया जाता हैं एक अन्तर्दृष्टिसम्पन्न मनुष्य के द्वारा, जिस सत्य का बोध उन्हें हुआ हैं एवं जैसे वो सत्य को प्रकाश करता हैं । संक्षेप में कहा जाए तो - " ऋता " = सत्य चिन्तन, " सत्य " = सत्य वचन, " धर्म " = सत्य को कार्य में परिणत करना । "  

ज्ञानीयों के लिए " धर्म " एवं " सत्य " का एक ही अर्थ हैं एवं इसका उद्येश्य ये हैं --- उस सत्य की दिशा में आगे बढ़ना जो केवल स्वयं ही सत्य-स्वरुप हैं । उन लोगों के लिए सत्य को मन में, शब्दों में एवं कार्य में परिणत करने के अतिरिक्त और कोई उद्येश्य नहीं हैं ।  

(साभार : Hindu Dharma, voice of Swami Shri Chandrashekharendra Saraswati Mahaswami Ji, Kanchi Paramacharya)
________________________________________

इसी लिए वेद वाणी हैं : 

ऋतस्य पन्थां न तरन्ति दुष्कृतः।। 

~ ऋग्वेद ९/७३/६

अर्थात् सत्य के मार्ग को दुष्कर्मी पार नहीं कर पाते। 

जबकि~

सुगा ऋतस्य पन्थाः।।

~ ऋग्वेद ८/३१/१३

अर्थात् सत्य का मार्ग सुख से गमन करने योग्य है,सरल है।

क्योंकि~

सत्यस्य नावः सुकृतमपीपरन्।।

~ ऋग्वेद ९/७३/१

अर्थात् सत्य की नौका धर्मात्माओं को पार लगाया करती है। 

ऋतावृधौ ऋतस्पशौ बृहन्तं क्रतुं ऋतेन आशाथे।।

~ सामवेद 

अर्थात् सत्य को बढ़ाने वाले, सत्य को स्पर्श करने वाले, सत्य से ही महान् कार्य करते हैं

" किम् सत्यं ? " इस प्रश्न का उत्तर में आदिगुरू शंकराचार्य जी ने कहा " भुतहितं " । सत्य या सत्यनिष्ठा वो हैं जो समग्र भूतों की (सकल प्राणीयों की) मंगलसाधन के लिए कहा जाता हैं । 

" को धर्मः " ? इसका उत्तर आचार्य ने दिया " अभिमतो यः शिष्टानां निज-कुलीनानाम् " 

इसका अर्थ ये हैं : " ज्ञानियों एवं निज परिवार के शिष्टाचारसम्पन्न गुरुजनों द्वारा जो निर्धारित होता हैं वो धर्म हैं । " 

चार पुरुषार्थों में धर्म प्रथम, अर्थ द्वितीय, काम तृतीय एवं मोक्ष चतुर्थ हैं। इसका कारण ये हैं की मोक्ष मार्ग का योग्य अधिकारी अत्यन्त दुर्लभ हैं । 

व्यासदेव जी भारत-सावित्री में कहते हैं : 

ऊर्ध्वबाहुम्विरौम्येश न च कश्चित् शृणोति मे | 
धर्मादर्थश्च कामश्च स धर्म किं न सेव्यते ||  

~ महाभारत, स्वर्गारोहणपर्व, अध्याय (खिला) ५, श्लोक ४९ 

" उर्ध्ववाहू होकर उच्च स्वर में मैं ये घोषणा करता हूँ किन्तु कोई सुनता नहीं --- धर्म से ही अर्थ एवं काम लाभ होता हैं, तो धर्म का अनुसरण क्यूँ नहीं किया जाये ? "   

श्री आद्य शंकराचार्य जी देखते हैं ज्ञानी एवं पंडित व्यक्ति, यहाँ तक की अत्यन्त सूक्ष्मदृष्टीसम्पन्न आत्मदर्शी भी कदाचित् तमसाच्छन्न होकर ये समझ नहीं पाता, यद्यपि बिबिध शास्त्रों में स्पष्ट रूप से ये वर्णित हैं । 

सत्य का प्रत्यक्ष अनुभूति केवल उनको ही होता हैं जिसका मन में श्रद्धा हैं : 

शास्त्रस्य गुरुवाक्यस्य सत्यबुद्ध्यवधारणम् ।
सा श्रद्धा कथिता सद्भिर्यया वस्तूपलभ्यते ॥

~ विवेकचूड़ामणि, २५

" गुरुवाक्य एवं वेदान्तवाक्य को यथार्त सत्य मानकर दृढ़ता के साथ अन्तर में धारण करना ही ज्ञानियों ने श्रद्धा कहा हैं । इस श्रद्धा आत्मस्वरुप उपलब्धि करने का सहाय हैं । "

शास्त्रानुसार विचार करके एवं गुरु द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर चलकर अविद्या की वन्धन से मुक्ति मिलती हैं एवं आत्मज्ञान लाभ होता हैं और ये शास्त्रों द्वारा भी समर्थित हैं । 

अथवा शास्त्रोक्त विधि से मन को नियन्त्रणपूर्वक एकमुखी करके निरन्तर सत्य का ध्यान करते समय जो अनुभूति होता हैं वो भी उस सद्वस्तु को लाभ करने का एक उपाय हैं ।   

धन्य हैं वो क्षण जब नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त आनन्दमय आत्मा का अनुभूति होता हैं । इसी लिए धर्म अर्थात " वेदोक्त सनातन धर्म " अनुसरण करना मनुष्यजन्म को सार्थक बनाने के लिए सर्वकाल में प्रसिद्द हैं ।  

धर्म ही हमारा एकमात्र रक्षक हैं । 

 || ॐ शान्ति शान्ति शान्ति  ||'ऋता, सत्य एवं धर्म :
  ऋता, सत्य, धर्म : अर्थ एवं तात्पर्य -
धर्म का परिभाषा क्या हैं ये लेकर विद्वज्जनों में भी मतभेद नजर आता हैं । धर्म शब्द " ध्रु " धातु से उत्पन्न होता हैं जिसका अर्थ हैं सम्भालना, धारण करना या पोषण करना । ऋषियों ने " धर्म " को " ऋता " एवं " सत्य " के साथ ही निकट अर्थ में उल्लेख किया हैं ।
श्री विद्यारण्य जी ने " ऋता " का संज्ञा निरूपण करते समय कहा हैं " अन्तर्दृष्टि " एवं " ईश्वर-दर्शन " । तैत्तिरीय उपनिषद् में भी " सत्य " एवं " धर्म " शब्द के साथ ही ऋता शब्द आता हैं । इसमें शिष्यों को सत्य कहने और धर्माचारण करने के लिए कहा जा रहा हैं । (" सत्यं वद, धर्मं चर ")
आचार्य श्री शंकर भागवतपाद जी के अनुसार " सत्य " का अर्थ हैं सत्य-कथन एवं " धर्म " का अर्थ हैं सत्य-कार्य अर्थात सत्य को कार्य में परिणत करना ।
" सत्यमिति यथाशास्त्रार्थत स एव अनुष्ठीयमानः धर्मनाम भवति "
________________________________________
अब इस विषय पर श्री के. वालसुब्रमनिय अय्यर जी का व्याख्या भी देखते हैं :
" ये तीन शब्दों (सत्य, ऋता एवं धर्म) की तात्पर्य विचार करने से ये स्पष्ट होता हैं की धर्म का मूल भित्ति ही एक व्यक्ति के जीवन का आदर्श हैं । " ऋता " शब्द से " अन्तर्दृष्टि " एवं सत्य का अनुभव, " सत्य " शब्द से मन में जिस प्रकार से उस सत्य का अनुभव हो रहा हैं उसको शब्दों में व्यक्त करना, और " धर्म " से जीवन में आचरण करते समय उस सत्य का पालन करना समझा जाता हैं । " धर्म " तो जीवनधारण करने का वो पद्धति हैं जिससे सत्य को कार्य में परिणत किया जाता हैं एक अन्तर्दृष्टिसम्पन्न मनुष्य के द्वारा, जिस सत्य का बोध उन्हें हुआ हैं एवं जैसे वो सत्य को प्रकाश करता हैं । संक्षेप में कहा जाए तो - " ऋता " = सत्य चिन्तन, " सत्य " = सत्य वचन, " धर्म " = सत्य को कार्य में परिणत करना । "
ज्ञानीयों के लिए " धर्म " एवं " सत्य " का एक ही अर्थ हैं एवं इसका उद्येश्य ये हैं --- उस सत्य की दिशा में आगे बढ़ना जो केवल स्वयं ही सत्य-स्वरुप हैं । उन लोगों के लिए सत्य को मन में, शब्दों में एवं कार्य में परिणत करने के अतिरिक्त और कोई उद्येश्य नहीं हैं ।
(साभार : Hindu Dharma, voice of Swami Shri Chandrashekharendra Saraswati Mahaswami Ji, Kanchi Paramacharya)

 ________________________________________
इसी लिए वेद वाणी हैं :
ऋतस्य पन्थां न तरन्ति दुष्कृतः।।
~ ऋग्वेद ९/७३/६
अर्थात् सत्य के मार्ग को दुष्कर्मी पार नहीं कर पाते।
जबकि~
सुगा ऋतस्य पन्थाः।।
~ ऋग्वेद ८/३१/१३
अर्थात् सत्य का मार्ग सुख से गमन करने योग्य है,सरल है।
क्योंकि~
सत्यस्य नावः सुकृतमपीपरन्।।
~ ऋग्वेद ९/७३/१
अर्थात् सत्य की नौका धर्मात्माओं को पार लगाया करती है।
ऋतावृधौ ऋतस्पशौ बृहन्तं क्रतुं ऋतेन आशाथे।।
~ सामवेद
अर्थात् सत्य को बढ़ाने वाले, सत्य को स्पर्श करने वाले, सत्य से ही महान् कार्य करते हैं
" किम् सत्यं ? " इस प्रश्न का उत्तर में आदिगुरू शंकराचार्य जी ने कहा " भुतहितं " । सत्य या सत्यनिष्ठा वो हैं जो समग्र भूतों की (सकल प्राणीयों की) मंगलसाधन के लिए कहा जाता हैं ।
" को धर्मः " ? इसका उत्तर आचार्य ने दिया " अभिमतो यः शिष्टानां निज-कुलीनानाम् "
इसका अर्थ ये हैं : " ज्ञानियों एवं निज परिवार के शिष्टाचारसम्पन्न गुरुजनों द्वारा जो निर्धारित होता हैं वो धर्म हैं । "
चार पुरुषार्थों में धर्म प्रथम, अर्थ द्वितीय, काम तृतीय एवं मोक्ष चतुर्थ हैं। इसका कारण ये हैं की मोक्ष मार्ग का योग्य अधिकारी अत्यन्त दुर्लभ हैं ।
व्यासदेव जी भारत-सावित्री में कहते हैं :
ऊर्ध्वबाहुम्विरौम्येश न च कश्चित् शृणोति मे |
धर्मादर्थश्च कामश्च स धर्म किं न सेव्यते ||
~ महाभारत, स्वर्गारोहणपर्व, अध्याय (खिला) ५, श्लोक ४९
" उर्ध्ववाहू होकर उच्च स्वर में मैं ये घोषणा करता हूँ किन्तु कोई सुनता नहीं --- धर्म से ही अर्थ एवं काम लाभ होता हैं, तो धर्म का अनुसरण क्यूँ नहीं किया जाये ? "
श्री आद्य शंकराचार्य जी देखते हैं ज्ञानी एवं पंडित व्यक्ति, यहाँ तक की अत्यन्त सूक्ष्मदृष्टीसम्पन्न आत्मदर्शी भी कदाचित् तमसाच्छन्न होकर ये समझ नहीं पाता, यद्यपि बिबिध शास्त्रों में स्पष्ट रूप से ये वर्णित हैं ।
सत्य का प्रत्यक्ष अनुभूति केवल उनको ही होता हैं जिसका मन में श्रद्धा हैं :
शास्त्रस्य गुरुवाक्यस्य सत्यबुद्ध्यवधारणम् ।
सा श्रद्धा कथिता सद्भिर्यया वस्तूपलभ्यते ॥
~ विवेकचूड़ामणि, २५
" गुरुवाक्य एवं वेदान्तवाक्य को यथार्त सत्य मानकर दृढ़ता के साथ अन्तर में धारण करना ही ज्ञानियों ने श्रद्धा कहा हैं । इस श्रद्धा आत्मस्वरुप उपलब्धि करने का सहाय हैं । "
शास्त्रानुसार विचार करके एवं गुरु द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर चलकर अविद्या की वन्धन से मुक्ति मिलती हैं एवं आत्मज्ञान लाभ होता हैं और ये शास्त्रों द्वारा भी समर्थित हैं ।
अथवा शास्त्रोक्त विधि से मन को नियन्त्रणपूर्वक एकमुखी करके निरन्तर सत्य का ध्यान करते समय जो अनुभूति होता हैं वो भी उस सद्वस्तु को लाभ करने का एक उपाय हैं ।
धन्य हैं वो क्षण जब नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त आनन्दमय आत्मा का अनुभूति होता हैं । इसी लिए धर्म अर्थात " वेदोक्त सनातन धर्म " अनुसरण करना मनुष्यजन्म को सार्थक बनाने के लिए सर्वकाल में प्रसिद्द हैं ।
धर्म ही हमारा एकमात्र रक्षक हैं ।
|| ॐ शान्ति शान्ति शान्ति ||