Thursday, December 17, 2015

शरीर मूल रूप से पांच तत्व, Five elements in body

20150217_CHI_0204-e"शरीर मूल रूप से पांच तत्वों – जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि और आकाश का एक खेल है। शरीर की बनावट में, 72% पानी, 12% पृथ्वी, 6% वायु, 4% अग्नि है और बाकी का 6% आकाश है।" आइये जानते हैं कुछ ऐसे सरल उपाय, जिनसे हम इन पांच तत्वों को शुद्ध बना सकते हैं...
ये पंचतत्व आपके भीतर किस तरह काम करते हैं, यह आपके बारे में सब कुछ तय कर देता है। ‘भूत’ का मतलब होता है तत्व, और ‘भूतशुद्धि’ का मतलब है तत्वों की गंदगी खत्म करना। इसका अर्थ भौतिकता से मुक्त होना भी है। योग में भूतशुद्धि एक बुनियादी साधना है जो उस आयाम के लिए हमें तैयार करती है जो भौतिक या शरीर की सीमाओं से परे है।
प्राकृतिक तरीके से भूतशुद्धि करने के लिए आप कुछ आसान सी चीजें कर सकते हैं। यह सबसे उत्तम भूतशुद्धि नहीं है, मगर आप अपने पंचतत्वों की थोड़ी-बहुत शुद्धि कर सकते हैं।
जल
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पांच तत्वों में सबसे बड़ा मामला जल का है। आपको जल पर बहुत ध्यान देना चाहिए क्योंकि वह शरीर में 72% है।
जल जिस भी चीज़ के संपर्क में आता है उसके गुणों को अपने भीतर याद रखता है। जल को शुद्ध करने के लिए आप उसमें नीम या तुलसी की कुछ पत्तियां डाल दें। इससे रासायनिक अशुद्धियां तो नहीं हटेंगी, लेकिन इससे जल बहुत जीवंत और ऊर्जावान हो जाएगा।
अगर आप सीधे नल से पानी पीते हैं, तो आप एक खास मात्रा में जहर पी रहे हैं। अगर आप इस जल को तांबे के एक बरतन में दस से बारह घंटे तक रखें, तो उस नुकसान की भरपाई हो सकती है।
धरती
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धरती हमारे शरीर में 12% होती है।
भोजन आपके शरीर में किस तरह जाता है, किसके हाथों से आपके पास आता है, आप उसे कैसे खाते हैं, उसके प्रति आपका रवैया कैसा है, ये सब चीजें महत्वपूर्ण हैं। सबसे बढ़कर, जिस भोजन को आप खाते हैं, वह जीवन का अंश होता है। हमारा भरण – पोषण करने के लिए जीवन के दूसरे रूप अपने आप को खत्म कर रहे हैं।
अगर हम जीवन के उन सभी अंशों के प्रति बहुत आभारी होते हुए भोजन करें, जो हमारे जीवन को बनाए रखने के लिए अपना जीवन त्याग रहे हैं, तो भोजन आपके भीतर बहुत अलग तरीके से काम करेगा।
बस नंगे पांव अपने बगीचे में रोजाना एक घंटे तक चलें,जहां कीड़े-मकोड़े और कांटें न हों,एक सप्ताह के भीतर आपका स्वास्थ्य काफी बेहतर हो जाएगा। इसे आजमा कर देखें। इतना ही नहीं,अपने ऊंचे बिस्तर के बदले फर्श पर सो कर देखें,आपको बेहतर स्वास्थ्य का एहसास होगा।
वायु
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वायु हमारे शरीर में 6% है। उसमें 1% से भी कम आप अपनी सांस के रूप में लेते हैं। बाकी आपके अंदर बहुत से रूपों में घटित हो रही है। आप जिस हवा में सांस लेते हैं, सिर्फ वही आपको प्रभावित नहीं करती, आप उसे अपने भीतर कैसे रखते हैं, यह भी महत्वपूर्ण है। आपको उस 1% का ध्यान रखना चाहिए। लेकिन अगर आप किसी शहर में रह रहे हैं, तो सांस के रूप में शुद्ध हवा लेना आपके बस में नहीं है।
पार्क में या झील किनारे टहलने जाएं। खास तौर पर अगर आपके बच्चे हैं, तो यह बहुत जरूरी है कि आप कम से कम महीने में एक बार उन्हें बाहर घुमाने ले जाएं – सिनेमा या ऐसी किसी जगह नहीं। क्योंकि उस हॉल के बंद दायरे में सीमित वायु उन सभी ध्वनियों और भावनाओं से प्रभावित होती हैं जो परदे के ऊपर या लोगों के दिमागों में उभरते हैं। उन्हें सिनेमा ले जाने की बजाय, नदी के पास ले जाएं, उन्हें तैरना या पहाड़ पर चढ़ना सिखाएं। इसके लिए आपको हिमालय तक जाने की जरूरत नहीं है। छोटा सा टिला भी किसी बच्चे के लिए एक पहाड़ है। यहां तक कि एक चट्टान से भी काम चल सकता है। किसी चट्टान पर चढ़कर बैठें। बच्चों को खूब मजा आएगा और उनका स्वास्थ्य अच्छा होगा। आप भी स्वस्थ हो जाएंगे, आपका शरीर और मन अलग तरीके से काम करेगा।
खुली हवा में खड़े होकर वायु स्नान करें आपकी सेहत भी अच्छी हो जाएगी, साथ ही आपका शरीर और दिमाग अलग तरह से काम करने लगेगा। और सबसे बड़ी बात यह होगी कि इस तरह आप सृष्टि के संपर्क में होंगे, जो सबसे महत्वपूर्ण चीज है।
अग्नि
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आप इस बात का भी ध्यान रख सकते हैं कि आपके अंदर किस तरह की अग्नि जलती है।
हर दिन अपने शरीर पर थोड़ी धूप लगने दें, क्योंकि धूप अब भी शुद्ध है। खुशकिस्मती से उसे कोई दूषित नहीं कर सकता। आपके अंदर किस तरह की आग जलती है- लालच की आग, नफरत की आग, क्रोध की आग, प्रेम की आग या करुणा की आग, अगर आप इस बात का ख्याल रखें, तो आपको अपने शारीरिक और मानसिक कल्याण के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है। वह अपने आप हो जाएगा।
आकाश
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आकाश सृष्टि और सृष्टि के स्रोत के बीच एक मध्य स्थिति है।
अगर हम बाकी चार तत्वों को ठीक ढंग से रखें, तो आकाश खुद अपना ध्यान रख लेगा। अगर आप जानते हैं कि अपने जीवन में आकाश का सहयोग कैसे लेना है, तो आपका जीवन आनंदमय हो जाएगा।

Saturday, December 5, 2015

Bramhgupt calculated earth's radius and Pi value

ब्रह्मगुप्त (५९८-६६८) प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ थे। वे तत्कालीन गुर्जर प्रदेश (भीनमाल) के अन्तर्गत आने वाले प्रख्यात शहर उज्जैन (वर्तमान मध्य प्रदेश) की अन्तरिक्ष प्रयोगशाला के प्रमुख थे और इस दौरान उन्होने दो विशेष ग्रन्थ लिखे: ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त (सन ६२८ में) और खण्डखाद्यक या खण्डखाद्यपद्धति (सन् ६६५ ई में)।
ये अच्छे वेधकर्ता थे और इन्होंने वेधों के अनुकूल भगणों की कल्पना की है। प्रसिद्ध गणितज्ञ ज्योतिषी, भास्कराचार्य बहुत स्थानों पर इनकी विद्वत्ता की प्रशंसा की है। मध्यकालीन यात्री अलबरूनी ने भी ब्रह्मगुप्त का उल्लेख किया है।
ब्रह्मस्फुटसिद्धांत' उनका सबसे पहला ग्रन्थ माना जाता है जिसमें शून्य का एक अलग अंक के रूप में उल्लेख किया गया है। यही नहीं, बल्कि इस ग्रन्थ में ऋणात्मक (negative) अंकों और शून्य पर गणित करने के सभी नियमों का वर्णन भी किया गया है। ये नियम आज की समझ के बहुत करीब हैं। "ब्रह्मस्फुटसिद्धांत" के साढ़े चार अध्याय मूलभूत गणित को समर्पित हैं। १२वां अध्याय, गणित, अंकगणितीय शृंखलाओं तथा ज्यामिति के बारे में है। १८वें अध्याय, कुट्टक (बीजगणित) में आर्यभट्ट के रैखिक अनिर्धार्य समीकरण (linear indeterminate equation, equations of the form ax − by = c) के हल की विधि की चर्चा है। (बीजगणित के जिस प्रकरण में अनिर्धार्य समीकरणों का अध्ययन किया जाता है, उसका पुराना नाम ‘कुट्टक’ है। ब्रह्मगुप्त ने उक्त प्रकरण के नाम पर ही इस विज्ञान का नाम सन् ६२८ ई. में ‘कुट्टक गणित’ रखा। ब्रह्मगुप्त ने द्विघातीय अनिर्धार्य समीकरणों (Nx2 + 1 = y2) के हल की विधि भी खोज निकाली। इनकी विधि का नाम चक्रवाल विधि है। गणित के सिद्धान्तों का ज्योतिष में प्रयोग करने वाला वह प्रथम व्यक्ति था। उनके ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त के द्वारा ही अरबों को भारतीय ज्योतिष का पता लगा। अब्बासिद ख़लीफ़ा अल-मंसूर (७१२-७७५ ईस्वी) ने बग़दादकी स्थापना की और इसे शिक्षा के केन्द्र के रूप में विकसित किया। उसने उज्जैन के कंकः को आमंत्रित किया जिसने ब्रह्मस्फुटसिद्धांत के सहारे भारतीय ज्योतिष की व्याख्या की। अब्बासिद के आदेश पर अल-फ़ज़री ने इसका अरबी भाषा में अनुवाद किया।

ब्रह्मगुप्त ने किसी वृत्त के क्षेत्रफल को एक समान क्षेत्रफल वाले वर्ग से स्थानान्तरित करने का भी यत्न किया।
ब्रह्मगुप्त ने पृथ्वी की परिधि ज्ञात की थी, जो आधुनिक मान के निकट है।
ब्रह्मगुप्त पाई (pi) (३.१४१५९२६५) का मान १० के वर्गमूल (३.१६२२७७६६) के बराबर माना।
ब्रह्मगुप्त अनावर्त वितत भिन्नों के सिद्धांत से परिचित थे। इन्होंने एक घातीय अनिर्धार्य समीकरण का पूर्णाकों में व्यापक हल दिया, जो आधुनिक पुस्तकों में इसी रूप में पाया जाता है और अनिर्धार्य वर्ग समीकरण, K y2 + 1 = x2, को भी हल करने का प्रयत्न किया।
ब्रह्मगुप्त का सबसे महत्वपूर्ण योगदान चक्रीय चतुर्भुज पर है। उन्होने बताया कि चक्रीय चतुर्भुज के विकर्ण परस्पर लम्बवत होते हैं। ब्रह्मगुप्त ने चक्रीय चतुर्भुज के क्षेत्रफल निकालने का सन्निकट सूत्र (approximate formula) तथा यथातथ सूत्र (exact formula) भी दिया है।
चक्रीय चतुर्भुज के क्षेत्रफल का सन्निकट सूत्र:
 

चक्रीय चतुर्भुज के क्षेत्रफल का यथातथ सूत्र:
 
जहाँ t = चक्रीय चतुर्भुज का अर्धपरिमाप तथा p, q, r, s उसकी भुजाओं की नाप है। हेरोन का सूत्र, जो एक त्रिभुज के क्षेत्रफल निकालने का सूत्र है, इसका एक विशिष्ट रूप है।
===================स्वदेशी अपनाये 
बाबा रामदेव भारतीय संस्कृति को बचाने के लिए ५०० आचार्यकुलम खोल रहे हैं जिसमे लगभग १०००० करोड़ का निवेश होगा . https://www.youtube.com/watch?v=XcC-62kAnUg


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लंदन का प्रसिद्ध सेंट जेम्स स्कूल .इस विद्यालय का लगभग हर विद्यार्थी संस्कृत भाषा का अध्ययन करता है . इस विद्यालय के अधयापकों से पूछने पर कि आप अपने स्कूल में संस्कृत क्यों पढातें है तो उनका कहना है कि संस्कृत बोलने से हमारे मस्तिष्क में तंरगे (vibrarations ) उत्पन्न होती है उसके कारण मस्तिष्क कई गुना तेज काम करता है और छात्रों का मानसिक विकास होता है .

Vedic biology

प्राणि विज्ञान का गूढ़ ज्ञान

भारतीय परम्परा के अनुसार सृष्टि में जीवन का विकास क्रमिक रूप से हुआ है। इसकी अभिव्यक्ति अनेक ग्रंथों में हुई है। श्रीमद्भागवत पुराण में वर्णन आता है-

सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयात्मशक्तया
वृक्षान् सरीसृपपशून् खगदंशमत्स्यान्।
तैस्तैर अतुष्टहृदय: पुरुषं विधाय
व्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देव:॥ ११-९-२८

विश्व की मूलभूत शक्ति सृष्टि के रूप में अभिव्यक्त हुई। इस क्रम में वृक्ष, सरीसृप, पशु, पक्षी, कीड़े, मकोड़े, मत्स्य आदि अनेक रूपों में सृजन हुआ। परन्तु उससे उस चेतना को पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं हुई, अत: मनुष्य का निर्माण हुआ जो उस मूल तत्व का साक्षात्कार कर सकता था।

प्राणियों का प्राचीन भारतीय वर्गीकरण
दूसरी बात, भारतीय परम्परा में जीवन के प्रारंभ से मानव तक की यात्रा में ८४ लाख योनियों के बारे में कहा गया। आधुनिक विज्ञान भी मानता है कि अमीबा से लेकर मानव तक की यात्रा में चेतना १ करोड़ ४४ लाख योनियों से गुजरी है। आज से हजारों वर्ष पूर्व हमारे पूर्वजों ने यह साक्षात्कार किया, यह आश्चर्यजनक है। अनेक आचार्यों ने इन ८४ लाख योनियों का वर्गीकरण किया है।

समस्त प्राणियों को दो भागों में बांटा गया है, योनिज तथा आयोनिज। दो के संयोग से उत्पन्न या अपने आप ही अमीबा की तरह विकसित होने वाले।

इसके अतिरिक्त स्थूल रूप से प्राणियों को तीन भागों में बांटा गया:-

जलचर - जल में रहने वाले सभी प्राणी।
थलचर - पृथ्वी पर विचरण करने वाले सभी प्राणी।
नभचर - आकाश में विहार करने वाले सभी प्राणी।

इसके अतिरिक्त प्राणियों की उत्पत्ति के आधार पर ८४ लाख योनियों को चार प्रकार में वर्गीकृत किया गया।

जरायुज - माता के गर्भ से जन्म लेने वाले मनुष्य, पशु जरायुज कहलाते हैं।
अण्डज - अण्डों से उत्पन्न होने वाले प्राणी अण्डज कहलाये।
स्वदेज- मल, मूत्र, पसीना आदि से उत्पन्न क्षुद्र जन्तु स्वेदज कहलाते हैं।
उदि्भज- पृथ्वी से उत्पन्न प्राणियों को उदि्भज वर्ग में शामिल किया गया।

बृहत् विष्णु पुराण में संख्या के आधार पर विविध योनियों का वर्गीकरण किया गया।

स्थावर - २० लाख प्रकार
जलज - ९ लाख प्रकार
कूर्म- भूमि व जल दोनों जगह गति ऐ ९ लाख प्रकार
पक्षी- १० लाख प्रकार
पशु- ३० लाख प्रकार
वानर - ४ लाख प्रकार
शेष मानव योनि में।

इसमें एक-एक योनि का भी विस्तार से विचार हुआ। पशुओं को साधारणत: दो भागों में बांटा (१) पालतू (२) जंगली।

इसी प्रकार शरीर रचना के आधार पर भी वर्गीकरण हुआ।

इसका उल्लेख विभिन्न आचार्यों के वर्गीकरण के सहारे ‘प्राचीन भारत में विज्ञान और शिल्प‘ ग्रंथ में किया गया है। इसके अनुसार (१) एक शफ (एक खुर वाले पशु) - खर (गधा), अश्व (घोड़ा), अश्वतर (खच्चर), गौर (एक प्रकार की भैंस), हिरण इत्यादि।

(२) द्विशफ (दो खुल वाले पशु)- गाय, बकरी, भैंस, कृष्ण मृग आदि।

(३) पंच अंगुल (पांच अंगुली) नखों (पंजों) वाले पशु- सिंह, व्याघ्र, गज, भालू, श्वान (कुत्ता), श्रृगाल आदि। (प्राचीन भारत में विज्ञान और शिल्प-पृ. सं. १०७-११०)

डा. विद्याधर शर्मा ‘गुलेरी‘ अपने ग्रंथ ‘संस्कृत में विज्ञान‘ में चरक द्वारा किए गए प्राणियों के वर्गीकरण के बारे में बताते हैं।

चरक का वर्गीकरण
चरक ने भी प्राणियों को उनके जन्म के अनुसार जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उदि्भज वर्गों में विभाजित किया है (चरक संहिता, सूत्रस्थान, २७/३५-५४) उन्होंने प्राणियों के आहार-विहार के आधार पर भी निम्न प्रकार से वर्गीकरण किया है-

१. प्रसह- जो बलात् छीनकर खाते हैं। इस वर्ग में गौ, गदहा, खच्चर, ऊंट, घोड़ा, चीता, सिंह, रीछ, वानर, भेड़िया, व्याघ्र, पर्वतों के पास रहने वाले बहुत बालों वाले कुत्ते, बभ्रु, मार्जार, कुत्ता, चूहा, लोमड़ी, गीदड़, बाघ, बाज, कौवा, शशघ्री (ऐसे पक्षी जो शशक को भी अपने पंजों में पकड़ कर उठा ले जाते हैं) चील, भास, गिद्ध, उल्लू, सामान्य घरेलू चिड़िया (गौरेया), कुरर (वह पक्षी जो जल स्थित मछली को अपने नख से भेद कर उड़ा ले जाता है।)

भूमिशय-बिलों में रहने वाले जन्तु-सर्प (श्वेत-श्यामवर्ण का) चित्रपृष्ठ (जिसकी पृष्ठ चित्रित होती है), काकुली मृग-एक विशेष प्रकार का सर्प- मालुयासर्प, मण्डूक (मेंढक) गोह, सेह, गण्डक, कदली (व्याघ्र के आकार की बड़ी बिल्ली), नकुल (नेवला), श्वावित् (सेह का भेद), चूहा आदि।

अनूपदेश के पशु-अर्थात् जल प्रधान देश में रहने वाले प्राणी। इन में सूकर (महा शूकर), चमर (जिनकी पूंछ चंवर बनाने के काम आती है), गैण्डा, महिष (जंगली भैंसा), नीलगाय, हाथी, हिरण , वराह (सुअर) बारहसिंगा- बहुत सिंगों वाले हिरण सम्मिलित हैं।

वारिशय-जल में रहने वाले जन्तु-कछुआ, केकड़ा, मछली, शिशुमार (घड़ियाल, नक्र की एक जाति) पक्षी। हंस, तिमिंगिल, शुक्ति (सीप का कीड़ा), शंख, ऊदबिलाव, कुम्भीर (घड़ियाल), मकर (मगरमच्छ) आदि।

वारिचारी-जल में संचार करने वाले पक्षी - हंस क्रौञ्च, बलाका, बगुला, कारण्डव (एक प्रकार का हंस), प्लव, शरारी, केशरी, मानतुण्डका, मृणालण्ठ, मद्गु (जलकाक), कादम्ब (कलहंस), काकतुण्डका (श्वेत कारण्डव-हंस की जाति) उत्क्रोश (कुरर पक्षी की जाति) पुण्डरीकाक्ष, चातक, जलमुर्गा, नन्दी मुखी, समुख, सहचारी, रोहिणी, सारस, चकवा आदि।

जांगल पशु- स्थल पर उत्पन्न होने वाले तथा जंगल में संचार करने वाले पशु- चीतल, हिरण, शरभ (ऊंट के सदृश बड़ा और आठ पैर वाला, जिसमें चार पैर पीठ पर होते हैं-ऐसा मृग), चारुष्क (हरिण की जाति) लाल वर्ण का हरिण, एण (काला हिरण) शम्बर (हिरण भेद) वरपोत (मृग भेद), ऋष्य आदि जंगली मृग।

विष्किर पक्षी-जो अपनी चोंच और पैरों से इधर-उधर बिखेर कर खाते हैं, वे विष्किर पक्षी हैं। इनमें लावा (बटेर), तीतर, श्वेत तीतर, चकोर, उपचक्र (चकोर का एक भेद), लाल वर्ग का कुक्कुभ (कुको), वर्तक, वर्तिका, मोर, मुर्गा, कंक, गिरिवर्तक, गोनर्द, क्रनर और बारट आदि।

प्रतुद पक्षी-जो चोंच या पंजों से बार-बार चोट लगाकर आहार को खाते हैं। कठफोड़ा भृंगराज (कृष्णवर्ण का पक्षी विशेष), जीवंजीवक, (विष को देखने से ही इस पक्षी की मृत्यु हो जाती है), कोकिल, कैरात (कोकिक का भेद), गोपपुत्र- प्रियात्मज, लट्वा, बभ्रु, वटहा, डिण्डिमानक, जटायु, लौहपृष्ठ, बया, कपोत (घुग्घु), तोता, सारंग (चातक), शिरटी, शरिका (मैना) कलविंक (गृहचटक अथवा लाल सिर और काली गर्दन वाली गृहचटक सदृश चिड़ियां), चटक, बुलबुल, कबूतर आदि।

उपर्युक्त वर्गीकरण के साथ चरक ने इन प्राणियों की मांस और उसके उपयोग के साथ ही बात, पित्त और कफ पर उसके प्रभाव की भी विस्तृत विवेचना प्रस्तुत की है। चकोर, मुर्गी, मोर, बया और चिड़ियों के अंडों की भी आहार के रूप में चर्चा की गई है।

ऐसे ही सुश्रुत की सुश्रुत संहिता, पाणिनि के अष्टाध्यायी, पतञ्जलि के महाभाष्य, अमर सिंह के अमरकोष, दर्शन के प्रशस्तपादभाष्य आदि ग्रंथों में प्राणियों के वर्गीकरण के विस्तृत विवरण मिलते हैं। (प्राचीन भारत में विज्ञान और शिल्प-पृ.सं.११५-११७)

पशु-चिकित्सा
पुराणों के अन्य विषयों के साथ-साथ पशु-चिकित्सा के विषय में भी उल्लेख मिलते हैं। अश्वों की चिकित्सा के लिए आयुर्वेद का एक अलग विभाग था। इसका ‘शालिहोत्र‘ नाम रखा गया। अश्वों के सामान्य परिचय, उनके चलने के प्रकार, उनके रोग और उपचार आदि विषय पुराणों में वर्णित हैं। अग्निपुराण में अश्वचालन और अश्वचिकित्सा का विस्तृत विवरण है। गजचिकित्सा के साथ ही गजशान्ति के उपाय भी बताये गए हैं। गरुड़पुराण में भी पालकाप्य ऋषि के हस्तिविद्या विषयक ग्रन्थ का उल्लेख है। अग्निपुराण में गायों की चिकित्सा का विस्तृत विवरण है।

शालिहोत्र संहिता में अश्वचिकित्सा
मानव चिकित्सा क्षेत्र में चरक संहिता और सुश्रुतसंहिता जितनी महत्वपूर्ण हैं, अश्वचिकित्सा क्षेत्र में शालिहोत्र संहिता उतनी ही महत्वपूर्ण है। शालिहोत्र का काल ई।पू. लगभग ८०० वर्ष आंका जा सकता है। उनकी संहिता ‘हय आयुर्वेद‘ एवं ‘तुरगशास्त्र‘ के नाम से भी प्रसिद्ध रही है। मूल ग्रन्थ में १२,००० श्लोकों का समावेश है। यह आठ भागों में विभक्त था। इस ग्रन्थ के कुछ ही भाग अब उपलब्ध हैं। इसमें अश्वों के लक्षण, उनके सभी रोग और उनके निदान, चिकित्सा, औषधियों और उनके स्वास्थ्य रक्षण के विचार विस्तार से बताए गए हैं। इस संहिता का अनुवाद अरबी, फारसी, तिब्बती एवं अंग्रेजी भाषाओं में किया गया है। पशुचिकित्सा विशेषज्ञों के अनुसार यह अश्व चिकित्सा के आधुनिक ग्रन्थ से भी उत्कृष्ट ग्रन्थ है। (प्राचीन भारत में विज्ञान शिल्प- पृ. सं. १२५-१२६)

ll जय श्री राम ll

Vedic math

वैदिक गणित से है यूरोप अमेरिका भी हैरान..क्यों आइये देखें तेज़ी से फैलती भारतीय गणन परंपरा : प्रामाणिक और चमत्कारी 
क्या यह संभव है कि जिस भारत ने हजारों साल पहले दुनिया को शून्य और दशमलव प्रणाली दी है, उसके पास अपना कोई अलग गणित-ज्ञान न रहा हो? जिन वेदों की गागर में अपने समय के समूचे ज्ञान-विज्ञान का महासागर भरा हो, उस में गणित-ज्ञान नाम की सरिता के लिए स्थान न बचा हो? 
जर्मनी में सबसे कम समय का एक नियमित टेलीविजन कार्यक्रम है 'विसन फोर अख्त।' हिंदी में अर्थ हुआ 'आठ के पहले ज्ञान की बातें'। देश के सबसे बड़े रेडियो और टेलीविजन नेटवर्क एआरडी के इस कार्यक्रम में, हर शाम आठ बजे होने वाले मुख्य समाचारों से ठीक पहले, भारतीय मूल के विज्ञान पत्रकार रंगा योगेश्वर केवल दो मिनटों में ज्ञान-विज्ञान से संबंधित किसी दिलचस्प प्रश्न का सहज-सरल उत्तर देते हैं। ऐसे ही एक कार्यक्रम में रंगा योगेश्वर बता रहे थे कि भारत की क्या अपनी कोई अलग गणित है? वहाँ के लोग क्या किसी दूसरे ढंग से हिसाब लगाते हैं? 
देखिए उदाहरण :  multiply 23 by 12:
2 3
| × |
1 2
2×1 2×2+3×1 3×2
2_____7_____6 
So 23 × 12 = 276 
भारत में कम ही लोग जानते हैं कि वैदिक गणित नाम का भी कोई गणित है। जो जानते भी हैं, वे इसे विवादास्पद मानते हैं कि वेदों में किसी अलग गणना प्रणाली का उल्लेख है। पर विदेशों में बहुत-से लोग मानने लगे हैं कि भारत की प्राचीन वैदिक विधि से गणित के हिसाब लगाने में न केवल मजा आता है, उससे आत्मविश्वास मिलता है और स्मरणशक्ति भी बढ़ती है। मन ही मन हिसाब लगाने की यह विधि भारत के स्कूलों में शायद ही पढ़ाई जाती है। भारत के शिक्षाशास्त्रियों का अब भी यही विश्वास है कि असली ज्ञान-विज्ञान वही है, जो इंग्लैंड-अमेरिका से आता है। 
घर का जोगी जोगड़ा 
घर का जोगी जोगड़ा, आन गाँव का सिद्ध। जबकि सच्चाई यह है कि इंग्लैंड-अमेरिका जैसे आन गाँव वाले भी योगविद्या की तरह ही आज भारतीय वैदिक गणित पर चकित हो रहे हैं और उसे सीख रहे हैं। उसे सिखाने वाली पुस्तकों और स्कूलों की भरमार हो गई है। बिना कागज-पेंसिल या कैल्क्युलेटर के मन ही मन हिसाब लगाने का उससे सरल और तेज तरीका शायद ही कोई है। रंगा योगेश्वर ने जर्मन टेलीविजन दर्शकों को एक उदाहरण से इसे समझायाः
'मान लें कि हमें 889 में 998 का गुणा करना है। प्रचलित तरीके से यह इतना आसान नहीं है। भारतीय वैदिक तरीके से उसे ऐसे करेंगेः दोनों का सब से नजदीकी पूर्णांक एक हजार है। उन्हें एक हजार में से घटाने पर मिले 2 और 111 । इन दोनों का गुणा करने पर मिलेगा 222 । अपने मन में इसे दाहिनी ओर लिखें। अब 889 में से उस दो को घटाएँ, जो 998 को एक हजार बनाने के लिए जोड़ना पड़ा। मिला 887। इसे मन में 222 के पहले बाईं ओर लिखें। यही, यानी 887 222, सही गुणनफल है।' 
यूनान और मिस्र से भी पुराना 
भारत का गणित-ज्ञान यूनान और मिस्र से भी पुराना बताया जाता है। शून्य और दशमलव तो भारत की देन हैं ही, कहते हैं कि यूनानी गणितज्ञ पाइथागोरस का प्रमेय भी भारत में पहले से ज्ञात था। लेकिन, यह ज्ञान समय की धूल के नीचे दबता गया। उसे झाड़-पोंछ कर फिर से निकाला पुरी के शंकराचार्य रहे स्वामी भारती कृष्णतीर्थजी महाराज ने 1911 से 1918 के बीच। वे एक विद्वान पुरुष थे। संस्कृत और दर्शनशास्त्र के अलावा गणित और इतिहास के भी ज्ञाता थे। सात विषयों में मास्टर्स (MA) की डिग्री से विभूषित थे। उन्होंने पुराने ग्रंथों और पांडुलिपियों का मंथन किया और निकाले वे सूत्र, जिन के आधार पर वैदिक विधि से मन ही मन हिसाब लगाये जा सकते हैं।
16 Sutras + 14 subsutras = 1 Amazingly Fast Calculating System! (एक विज्ञापन) 
विधि के विरोध के आगे विवश 
लगता है कि विधि के विधान को भी गणित की वैदिक विधि के विस्तार से कुछ विरोध था। कहा जाता है कि भारती कृष्णतीर्थजी ने वैदिक गणित के 16 मूल सूत्रों की व्याख्या करने वाली 16 पुस्तकों की पांडुलिपियाँ लिखीं थीं, पर वे कहीं गुम हो गईं या नष्ट हो गईं। उन्होंने ये पांडुलिपियाँ अपने एक शिष्य को संभाल कर रखने के लिए दी थीं। उन के खोजे सूत्र अंकगणित ही नहीं, बीजगणित और भूमिति सहित गणित की हर शाखा से संबंधित थे।
अपने अंतिम दिनों में उन्होंने एक बार फिर यह भगीरथ प्रयास करना चाहा, लेकिन विधि के विधान ने एक बार फिर टाँग अड़ा दी। वे केवल एक ही सूत्र पर दुबारा लिख पाए। उन्होंने जो कुछ लिखा था और उनके शिष्यों ने उनसे जो सीखा- सुना था, उसी के संकलन के आधार पर 1965 में वैदिक गणित नाम से एक पुस्तक प्रकाशित होने वाली थी। प्रकाशन से पहले ही बीमारी के कारण उनका जीवनकाल (1884 से 1960) पूरा हो चुका था।
पश्चिम की बढ़ती दिलचस्पी 
1960 वाले दशक के अंतिम दिनों में वैदिक गणित की एक प्रति जब लंदन पहुँची, तो इंग्लैंड के जाने-माने गणितज्ञ भी चकित रह गये। उन्होंने उस पर टिप्पणियाँ लिखीं और व्याख्यान दिए। जिन्हें 1981 में पुस्तकाकार प्रकाशित किया गया। यहीं से शुरू होता है पश्चिमी देशों में वैदिक गणित का मान-सम्मान और प्रचार-प्रसार। 
कुछ साल पहले लंदन के सेंट जेम्स स्कूल ने अपने यहाँ वैदिक गणित की पढ़ाई शुरू की। आज उसे भारत से अधिक इंग्लैंड, अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के सरकारी और निजी स्कूलों में पढ़ाया जाता है। शिक्षक गणित को रोचक और सरल बनाने के लिए उसका सहारा लेते हैं। वैदिक विधि से बड़ी संख्याओं का जोड़-घटाना और गुणा-भाग ही नहीं, वर्ग और वर्गमूल, घन और घनमूल निकालना भी संभव है। 
नासा की जिज्ञासा 
ऑस्ट्रेलिया के कॉलिन निकोलस साद वैदिक गणित के भक्त हैं। उन्होंने अपना उपनाम 'जैन' रख लिया है और ऑस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स प्रांत में बच्चों को वैदिक गणित सिखाते हैं। उनका दावा हैः 'अमेरिकी अंतरिक्ष अधिकरण नासा गोपनीय तरीके से वैदिक गणित का कृत्रिम बुद्धिमत्ता वाले रोबोट बनाने में उपयोग कर रहा है। नासा वाले समझना चाहते हैं कि रोबोट में आदमी के दिमाग की नकल कैसे की जा सकती है ताकि रोबोट ही दिमाग की तरह हिसाब भी लगा सके-- उदाहरण के लिए कि 96 गुणा 95 कितना हुआ....9120।' 
कॉलिन निकोलस साद ने वैदिक गणित पर किताबें भी लिखी हैं। बताते हैं कि वैदिक गणित कम से कम ढाई से तीन हजार साल पुराना विज्ञान है। उस में मन ही मन हिसाब लगाने के जो16 सूत्र बताए गए हैं, वे इस विधि का उपयोग करने वाले की स्मरणशक्ति भी बढ़ाते हैं। 
चमकदार प्राचीन विद्या 
साद अपने बारे में कहते हैं, 'मेरा काम अंकों की इस चमकदार प्राचीन विद्या के प्रति बच्चों में प्रेम जगाना है। मेरा मानना है कि बच्चों को सचमुच वैदिक गणित सीखना चाहिए। भारतीय योगियों ने उसे हजारों साल पहले विकसित किया था। आप उनसे गणित का कोई भी प्रश्न पूछ सकते थे और वे मन की कल्पनाशक्ति से देख कर फट से जवाब दे सकते थे। उन्होंने तीन हजार साल पहले शून्य की अवधारणा प्रस्तुत की और दशमलव वाला बिंदु सुझाया। उनके बिना आज हमारे पास कंप्यूटर नहीं होता।' 
साद उर्फ जैन ने मानो वैदिक गणित के प्रचार-प्रसार का व्रत ले रखा है,' मैं पिछले 25 सालों से लोगों को बता रहा हूँ कि आप अपने बच्चों के लिए सबसे अच्छा काम यही कर सकते हैं कि उन्हें वैदिक गणित सिखाएँ। इससे आत्मविश्वास, स्मरणशक्ति और कल्पनाशक्ति बढ़ती है। इस गणित के 16 मूल सूत्र जानने के बाद बच्चों के लिए हर ज्ञान की खिड़की खुल जाती है।'

Sanskrit language is complete and origin of all

संस्कृत के ये तथ्य जानकर आप भी सिखाना चाहेगें संस्कृत .
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भारत में संस्कृत भाषा की सेक्लुरिस्म के कारण जो भी हाल हो परन्तु विश्व में संस्कृत भाषा का पूरी तरह से दबदवा है 

१. संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार विश्व की 97% भाषाओँ के शब्द संस्कृत भाषा से लिए गए हैं
२. कंप्यूटर की algorithm संस्कृत में बनी है न कि अंग्रेजी भाषा में |
३. संस्कृत में दुनिया में किसी भी भाषा से अधिक शब्द हैं बर्तमान में संस्कृत में 102 अरब 78 करोड़ 50 लाख शब्द है|फिर भी संस्कृत में सबसे कम शब्दों में एक वाक्य पूर्ण हो जाता है 

४. FORBES MAGAZINE के जुलाई 1987 के अंक में संस्कृत को कंप्यूटर सॉफ्टवेयर के लिए सबसे बेहतर भाषा माना गया है |

५. नासा के संस्कृत अनुसार पृथ्वी पर बोली जाने वाली सबसे स्पष्ट भाषा है जिसके कारण संस्कृत कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के लिए सबसे उत्तम भाषा है नासा के पास ताडपत्रों लिखी संस्कृत 60000 पांडुलिपियाँ है जिस पर नासा अनुसन्धान कर रहा है 

६. नासा के  6TH and 7th generation के सुपर कंप्यूटर पूर्णतय संस्कृत भाषा पर आधारित होगें जो वर्ष 2034 तक बनकर तैयार हो जायेगें 

७. संस्कृत सिखाने से मस्तिष्क तेज हो जाता है और स्मरण रखें शक्ति बढ़ जाती है इसलिए लन्दन और आयरलैंड के कई विद्यालयों में संस्कृत एक अनिवार्य (compulsory) विषय है 

८. अमेरिका की International Vedic Hindu University के अनुसार संस्कृत अकेली  एसी भाषा है जिसे बोलने में जीभ की सभी मांसपेशियों का प्रयोग करती है जिससे शारीर में रक्त संचार बेहतर होता है 

९. विश्व के लगभग 17 से अधिक देशों में संस्कृत तकनीकी भाषा की तरह पढाई जाती है  

हम संस्कृत को आम लोगो बोल चाल की भाषा कैसे बना सकते है ? 
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मित्रो अगर हम धीरे धीरे हिंदी में संस्कृत भाषा के शब्द जोड़ते जाये तो धीरे धीरे संस्कृत भाषा आम बोल चाल की भाषा बन सकती है . जैसे की आदि शकराचार्य ने जब बुद्ध धर्म को शस्तरार्थ कर के परास्त किया था तो तब भारत में पाली भाषा चलती थी और आदि शकराचार्य ने अपने शिष्यों से कहा था पाली में संस्कृत के शब्द जोड़ते जाओ धीरे धीरे पाली संस्कृत बन जाएगी . आप भी अपनी प्रतिदिन की भाषा में संस्कृत के शबदों का अत्यधिक मात्रा में प्रयोग करें . धन्यबाद 
जैसे BED ROOM -शयन कक्ष , HOME WORK -ग्रह कार्य , CLASS -कक्षा , FIRST - प्रथम , आदि
Youtube ये विडियो देखने के लिए क्लिक करें 
https://www.youtube.com/watch?v=usoxdTARwW0&feature=share

Thursday, December 3, 2015

Tripurasundari Astakam त्रिपुरसुन्दरी अष्टकम्

Tripurasundari Astakam

॥ त्रिपुरसुन्दरी अष्टकम् ॥
|| tripurasundarī aṣṭakam ||
written by śrī ādi śaṅkarācārya



कदम्बवनचारिणीं मुनिकदम्बकादम्बिनीं
नितम्बजितभूधरां सुरनितम्बिनीसेविताम् ।
नवाम्बुरुहलोचनां अभिनवाम्बुदश्यामलां
त्रिलोचनकुटुम्बिनीं त्रिपुरसुन्द्रीमाश्रये ॥ १ ॥

kadambavanacāriṇīṁ munikadambakādambinīṁ
nitambajitabhūdharāṁ suranitambinīsevitām |
navāmburuhalocanāṁ abhinavāmbudaśyāmalāṁ
trilocanakuṭumbinīṁ tripurasundrīmāśraye || 1 ||


I seek shelter in Goddess tripurasundarī, who roams in the kadamba* forest; who is a galaxy of clouds to the galaxy of rshis (quenching their spiritual thirst as the bank of clouds quenches the thirst of the earthly beings); whose hips excel the mountains; who is served by the celestial damsels; whose eyes resemble the fresh lotus; swarthy like the newly formed nimbus; who is the wife of the three-eyed one (Lord śiva).

*Kadamba is a kind of tree (Nauclea cadamba). It is said to put forth orange-colored fragrant buds at the roaring of thunder clouds. A withered relic of the kadamba tree is still preserved in the precincts of the Madurai Meenakshi temple. Here, kadamba forest stands for the Universe, which Devī permeates.


कदम्बवनवासिनीं कनकवल्लकीधारिणीं
महार्हमणिहारिणीं मुखसमुल्लसद्वारुणीम् ।
दयाविभवकारिणीं विशदलोचनीं चारिणीं
त्रिलोचनकुटुम्बिनीं त्रिपुरसुन्दरीमाश्रये ॥ २ ॥

kadambavanavāsinīṁ kanakavallakīdhāriṇīṁ
mahārhamaṇihāriṇīṁ mukhasamullasadvāruṇīm |
dayāvibhavakāriṇīṁ viśadalocanīṁ cāriṇīṁ
trilocanakuṭumbinīṁ tripurasundarīmāśraye || 2 ||


I seek shelter in Goddess tripurasundarī, who roams in the kadambaforest; who holds a golden vīṇā; who wears a garland of precious gems; whose face glows deeply with ambrosia; who bestows prosperity through mercy; who is clear-eyed and wandering; who is the wife of the three-eyed one (Lord śiva).


कदम्बवनशालया कुचमरोल्लसन्मालया
कुचोपमितशैलया गुरुकृपालसद्वेलया ।
मदारुणकपोलया मधुरगीतवाचालया
कयाऽपि घननीलया कवचिता वयं लीलया ॥ ३ ॥

kadambavanaśālayā kucamarollasanmālayā
kucopamitaśailayā gurukṛpālasadvelayā |
madāruṇakapolayā madhuragītavācālayā
kayā'pi ghananīlayā kavacitā vayaṁ līlayā || 3 ||


We are overwhelmed (or impressed) by her play, by her panoply, by her abode in the kadamba forest (meaning here, the entire Universe), by the garland gracing her massive breasts, by her breasts which rival the mountains (represents her cosmic motherhood, and her eagerness to nourish the entire world), by the splendid flow of her grace, by her cheeks rudded by wine, by her melodious musical voice, by her cloud-like dark blue color.


कदम्बवनमध्यगां कनकमण्डलोपस्थितां
षडम्बुरुहवासिनीं सततसिद्धसौदामिनीम् ।
विडम्बितजपारुचिं विकचचन्द्रचूडामणीं
त्रिलोचनकुटुम्बिनीं त्रिपुरसुन्दरीमाश्रये ॥ ४ ॥

kadambavanamadhyagāṁ kanakamaṇḍalopasthitāṁ
ṣaḍamburuhavāsinīṁ satatasiddhasaudāminīm |
viḍambitajapāruciṁ vikacacandracūḍāmaṇīṁ
trilocanakuṭumbinīṁ tripurasundarīmāśraye || 4 ||


I seek shelter in Goddess tripurasundarī, who is in the midst of thekadamba forest; who is seated on a golden disc; who resides in six lotus flowers; who is a lightening to the constant siddhas; who is splendorously mocking the red hibiscus flower; who has a cloudless moon for her crest jewel; who is the wife of the three-eyed one (Lordśiva).


कुचाञ्चितविपञ्चिकां कुटिलकुन्तलालंकृतां
कुशेशयनिवासिनीं कुटिलचित्तविद्वेषिणीम् ।
मदारुणविलोचनां मनसिजारिसंमोहिनीं
मतङ्गमुनिकन्यकां मधुरभाषिणीमाश्रये ॥ ५ ॥

kucāñcitavipañcikāṁ kuṭilakuntalālaṁkṛtāṁ
kuśeśayanivāsinīṁ kuṭilacittavidveṣiṇīm |
madāruṇavilocanāṁ manasijārisaṁmohinīṁ
mataṅgamunikanyakāṁ madhurabhāṣiṇīmāśraye || 5 ||


I seek shelter in her whose breasts are graced by the vīṇā; who is adorned with curly tresses of hair; who is residing in a lotus; who scorns the evil-minded ones; whose eyes are reddish from nectar; who captivates the enemy of Cupid (that is, Lord śiva); who is the daughter of sage Mataṅga; who converses mellifluously.


स्मरप्रथमपुष्पिणीं रुधिरबिन्दुनीलाम्बरां
गृहीतमधुपात्रिकां मदविढणर्नेत्राञ्चलाम् ।
घनस्तनभरोन्नतां गलितचूलिकां श्यामलां
त्रिलोचनकुटुम्बिनीं त्रिपुरसुन्दरीमाश्रये ॥ ६ ॥

smaraprathamapuṣpiṇīṁ rudhirabindunīlāmbarāṁ
gṛhītamadhupātrikāṁ madaviḍhaṇarnetrāñcalām |
ghanastanabharonnatāṁ galitacūlikāṁ śyāmalāṁ
trilocanakuṭumbinīṁ tripurasundarīmāśraye || 6 ||


I seek shelter in Goddess tripurasundarī, who bears the first flower ofManmatha (Cupid); who is clad in blue garments, spotted with sanguine (red); who is holding a bowl of wine with inebriated eyes, that are drooping at the ends; who has close-set, high and heavy breasts; who has dishevelled locks; who is swarthy (dark-skinned).


सकुङ्कुमविलेपनां अलकचुम्बिकस्तूरिकां
समन्दहसितेक्षणां सशरचापपाशाङ्कुशाम् ।
अशेषजनमोहिनीं अरुणमाल्यभूषाम्बरां
जपाकुसुमभासुरां जपविधौ स्मराम्यम्बिकाम् ॥ ७ ॥

sakuṅkumavilepanāṁ alakacumbikastūrikāṁ
samandahasitekṣaṇāṁ saśaracāpapāśāṅkuśām |
aśeṣajanamohinīṁ aruṇamālyabhūṣāmbarāṁ
japākusumabhāsurāṁ japavidhau smarāmyambikām || 7 ||


I remember in my meditation, Ambikā, the Mother, who is smeared with vermillion; whose forelocks graze the dot of musk; who has softly smiling eyes; who bears arrows, bow, snare and spear; who deludes the entire populace; who is wearing red garments and is shining with thejapā flower.

Note: This ślokaṁ is considered very sacred and it is included in thedhyāna ślokaṁ segment of both lalitā sahasranāmaṁ and lalitā triṣati.


पुरन्दरपुरंध्रिकां चिकुरबन्धसैरंध्रिकां
पितामहपतिव्रतां पटपटीरचर्चारताम् ।
मुकुन्दरमणीमणीं लसदलङ्क्रियाकारिणीं
भजामि भुवनांबिकां सुरवधूटिकाचेटिकाम् ॥ ८ ॥

purandarapuraṁdhrikāṁ cikurabandhasairaṁdhrikāṁ
pitāmahapativratāṁ paṭapaṭīracarcāratām |
mukundaramaṇīmaṇīṁ lasadalaṅkriyākāriṇīṁ
bhajāmi bhuvanāṁbikāṁ suravadhūṭikāceṭikām || 8 ||


I worship the mother of the entire world, who is ruling over the entireśrī puraṁ; who has the celestial queen for plaiting her tresses; who has Lord Brahma's wife's skillful services for anointing with sandal paste; who has the gem-like wife of Lord Viṣṇu to adorn her with lustrous gems; who has the heavenly damsels as her maid-servants.


॥ इति श्रीमद् शङ्कराचार्यविरचितं त्रिपुरसुन्दरी अष्टकं समाप्तम् ॥
|| iti śrīmad śaṅkarācāryaviracitaṁ tripurasundarī aṣṭakaṁ samāptam ||

Thus ends tripurasundarī aṣṭakaṁ, composed by śrīmad śaṅkarācārya.


Sarada Bhujanga Prayatastakam

॥ शारदाभुजङ्गप्रयाताष्टकम् ॥
|| śāradābhujaṅgaprayātāṣṭakam ||
written by śrī ādi śaṅkarācārya



सुवक्षोजकुम्भां सुधापूर्णकुंभां
प्रसादावलम्बां प्रपुण्यावलम्बाम् ।
सदास्येन्दुबिम्बां सदानोष्ठबिम्बां
भजे शारदाम्बामजस्रं मदम्बाम् ॥ १ ॥

suvakṣojakumbhāṁ sudhāpūrṇakuṁbhāṁ
prasādāvalambāṁ prapuṇyāvalambām |
sadāsyendubimbāṁ sadānoṣṭhabimbāṁ
bhaje śāradāmbāmajasraṁ madambām || 1 ||


कटाक्षे दयार्द्रो करे ज्ञानमुद्रां
कलाभिर्विनिद्रां कलापैः सुभद्राम् ।
पुरस्त्रीं विनिद्रां पुरस्तुङ्गभद्रां
भजे शारदाम्बामजस्रं मदम्बाम् ॥ २ ॥

kaṭākṣe dayārdro kare jñānamudrāṁ
kalābhirvinidrāṁ kalāpaiḥ subhadrām |
purastrīṁ vinidrāṁ purastuṅgabhadrāṁ
bhaje śāradāmbāmajasraṁ madambām || 2 ||


ललामाङ्कफालां लसद्गानलोलां
स्वभक्तैकपालां यशःश्रीकपोलाम् ।
करे त्वक्षमालां कनत्प्रत्नलोलां
भजे शारदाम्बामजस्रं मदम्बाम् ॥ ३ ॥

lalāmāṅkaphālāṁ lasadgānalolāṁ
svabhaktaikapālāṁ yaśaḥśrīkapolām |
kare tvakṣamālāṁ kanatpratnalolāṁ
bhaje śāradāmbāmajasraṁ madambām || 3 ||


सुसीमन्तवेणीं दृशा निर्जितैणीं
रमत्कीरवाणीं नमद्वज्रपाणीम् ।
सुधामन्थरास्यां मुदा चिन्त्यवेणीं
भजे शारदाम्बामजस्रं मदम्बाम् ॥ ४ ॥

susīmantaveṇīṁ dṛśā nirjitaiṇīṁ
ramatkīravāṇīṁ namadvajrapāṇīm |
sudhāmantharāsyāṁ mudā cintyaveṇīṁ
bhaje śāradāmbāmajasraṁ madambām || 4 ||


सुशान्तां सुदेहां दृगन्ते कचान्तां
लसत्सल्लताङ्गीमनन्तामचिन्त्याम् ।
स्मरेत्तापसैः सङ्गपूर्वस्थितां तां
भजे शारदाम्बामजस्रं मदम्बाम् ॥ ५ ॥

suśāntāṁ sudehāṁ dṛgante kacāntāṁ
lasatsallatāṅgīmanantāmacintyām |
smarettāpasaiḥ saṅgapūrvasthitāṁ tāṁ
bhaje śāradāmbāmajasraṁ madambām || 5 ||


कुरङ्गे तुरंगे मृगेन्द्रे खगेन्द्रे
मराले मदेभे महोक्षेऽधिरूढाम् ।
महत्यां नवम्यां सदा सामरूपां
भजे शारदाम्बामजस्रं मदम्बाम् ॥ ६ ॥

kuraṅge turaṁge mṛgendre khagendre
marāle madebhe mahokṣe'dhirūḍhām |
mahatyāṁ navamyāṁ sadā sāmarūpāṁ
bhaje śāradāmbāmajasraṁ madambām || 6 ||


ज्वलत्कान्तिवह्निं जगन्मोहनाङ्गीं
भजे मानसाम्भोजसुभ्रान्तभृङ्गीम् ।
निजस्तोत्रसंगीतनृत्यप्रभाङ्गीं
भजे शारदाम्बामजस्रं मदम्बाम् ॥ ७ ॥

jvalatkāntivahniṁ jaganmohanāṅgīṁ
bhaje mānasāmbhojasubhrāntabhṛṅgīm |
nijastotrasaṁgītanṛtyaprabhāṅgīṁ
bhaje śāradāmbāmajasraṁ madambām || 7 ||


भवान्म्भोजनेत्राजसंपूज्यमानां
लसन्मन्दहासप्रभावक्त्रचिह्नाम् ।
चलच्चञ्चलाचारूताटङ्ककर्णो
भजे शारदाम्बामजस्रं मदम्बाम् ॥ ८ ॥

bhavānmbhojanetrājasaṁpūjyamānāṁ
lasanmandahāsaprabhāvaktracihnām |
calaccañcalācārūtāṭaṅkakarṇo
bhaje śāradāmbāmajasraṁ madambām || 8 ||



॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य
श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छङ्करभगवतः कृतौ
शारदाभुजङ्गप्रयाताष्टकं संपूर्णम् ॥

|| iti śrīmatparamahaṁsaparivrājakācāryasya
śrīgovindabhagavatpūjyapādaśiṣyasya
śrīmacchaṅkarabhagavataḥ kṛtau
śāradābhujaṅgaprayātāṣṭakaṁ saṁpūrṇam ||




Sri Gayatri Sahasranama Stotram

॥ श्रीगायत्रीसहस्रनामस्तोत्रम् ॥
śrīgāyatrīsahasranāmastotram 

(देवी भागवतांतर्गत)
(devī bhāgavatāṁtargata)
(from Devī Bhāgavatām)



नारद उवाच -
nārada uvāca -

भगवन्सर्वधर्मज्ञ सर्वशास्त्रविशारद ।
श्रुतिस्मृतिपुराणानां रहस्यं त्वन्मुखाच्छ्रुतम् ॥ १ ॥

bhagavansarvadharmajña sarvaśāstraviśārada
śrutismṛtipurāṇānāṁ rahasyaṁ tvanmukhācchrutam 1 


सर्वपापहरं देव येन विद्या प्रवर्तते ।
केन वा ब्रह्मविज्ञानं किं नु वा मोक्षसाधनम् ॥ २ ॥

sarvapāpaharaṁ deva yena vidyā pravartate
kena vā brahmavijñānaṁ kiṁ nu vā mokṣasādhanam 2 


ब्राह्मणानां गतिः केन केन वा मृत्यु नाशनम् ।
ऐहिकामुष्मिकफलं केन वा पद्मलोचन ॥ ३ ॥

brāhmaṇānāṁ gatiḥ kena kena vā mṛtyu nāśanam
aihikāmuṣmikaphalaṁ kena vā padmalocana 3 


वक्तुमर्हस्यशेषेण सर्वे निखिलमादितः ।
श्रीनारायण उवाच -
साधु साधु महाप्रज्ञ सम्यक् पृष्टं त्वयाऽनघ ॥ ४ ॥

vaktumarhasyaśeṣeṇa sarve nikhilamāditaḥ
śrīnārāyaṇa uvāca -
sādhu sādhu mahāprajña samyak pṛṣṭaṁ tvayā'nagha 4 


शृणु वक्ष्यामि यत्नेन गायत्र्यष्टसहस्रकम् ।
नाम्नां शुभानां दिव्यानां सर्वपापविनाशनम् ॥ ५ ॥

śṛṇu vakṣyāmi yatnena gāyatryaṣṭasahasrakam
nāmnāṁ śubhānāṁ divyānāṁ sarvapāpavināśanam 5 


सृष्ट्यादौ यद्भगवता पूर्वे प्रोक्तं ब्रवीमि ते ।
अष्टोत्तरसहस्रस्य ऋषिर्ब्रह्मा प्रकीर्तितः ॥ ६ ॥

sṛṣṭyādau yadbhagavatā pūrve proktaṁ bravīmi te
aṣṭottarasahasrasya ṛṣirbrahmā prakīrtitaḥ 6 


छन्दोऽनुष्टुप्तथा देवी गायत्रीं देवता स्मृता ।
हलोबीजानि तस्यैव स्वराः शक्तय ईरिताः ॥ ७ ॥

chando'nuṣṭuptathā devī gāyatrīṁ devatā smṛtā
halobījāni tasyaiva svarāḥ śaktaya īritāḥ 7 


अङ्गन्यासकरन्यासावुच्येते मातृकाक्षरैः ।
अथ ध्यानं प्रवक्ष्यामि साधकानां हिताय वै ॥ ८ ॥

aṅganyāsakaranyāsāvucyete mātṛkākṣaraiḥ
atha dhyānaṁ pravakṣyāmi sādhakānāṁ hitāya vai 8 


ध्यानम् -
dhyānam -

रक्तश्वेतहिरण्यनीलधवलैर्युक्ता त्रिनेत्रोज्ज्वलां रक्तां
रक्तवनस्रजं मणिगमैर्युक्तां कुमारीमिमाम् ।
गायत्रीं कमलासनां करतलव्यानद्धकुण्डाम्बुजां पद्माक्षी
च वरस्रजं च दधतीं हंसाधिरूढां भजे ॥ ९ ॥

raktaśvetahiraṇyanīladhavalairyuktā trineetrojjvalāṁ raktāṁ
raktavanasrajaṁ maṇigamairyuktāṁ kumārīmimām
gāyatrīṁ kamalāsanāṁ karatalavyānaddhakuṇḍāmbujāṁ padmākṣī
ca varasrajaṁ ca dadhatīṁ haṁsādhirūḍhāṁ bhaje 9 


अचिन्त्यलक्षणाव्यक्ताप्यर्थमातृमहेश्वरी ।
अमृतार्णवमध्यस्थाप्यजिता चापराजिता ॥ १० ॥

acintyalakṣaṇāvyaktāpyarthamātṛmaheśvarī
amṛtārṇavamadhyasthāpyajitā cāparājitā 10 


अणिमादिगुणाधाराप्यर्कमण्डलसंस्थिता ।
अजराजापराधर्मा अक्षसूत्रधराधरा ॥ ११ ॥

aṇimādiguṇādhārāpyarkamaṇḍalasaṁsthitā
ajarājāparādharmā akṣasūtradharādharā 11 


अकारादिक्षकारान्ताप्यरिषड्वर्गभेदिनी ।
अञ्जनाद्रिप्रतीकाशाप्यञ्जनाद्रिनिवासिनी ॥ १२ ॥

akārādikṣakārāntāpyariṣaḍvargabhedinī
añjanādripratīkāśāpyañjanādrinivāsinī 12 


अदितिश्चाजपाविद्याप्यरविन्दनिभेक्षणा ।
अन्तर्बहिःस्थिताविद्याध्वंसिनी चान्तरात्मिका ॥ १३ ॥

aditiścājapāvidyāpyaravindanibhekṣaṇā
antarbahiḥsthitāvidyādhvaṁsinī cāntarātmikā 13 


अजा चाजमुखावासाप्यरविन्दनिभानना ।
अर्धमात्रार्थदानज्ञाप्यरिमण्डलमर्दिनी ॥ १४ ॥

ajā cājamukhāvāsāpyaravindanibhānanā
ardhamātrārthadānajñāpyarimaṇḍalamardinī 14 


असुरघ्नी ह्यमावास्याप्यलक्ष्मीघ्न्यन्त्यजार्चिता ।
आदिलक्ष्मीश्चादिशक्तिराकृतिश्चायतानना ॥ १५ ॥

asuraghnī hyamāvāsyāpyalakṣmīghnyantyajārcitā
ādilakṣmīścādiśaktirākṛtiścāyatānanā 15 


आदित्यपदवीचाराप्यादित्यपरिसेविता ।
आचार्यावर्तनाचाराप्यादिमूर्तिनिवासिनी ॥ १६ ॥

ādityapadavīcārāpyādityaparisevitā
ācāryāvartanācārāpyādimūrtinivāsinī 16 


आग्नेयी चामरी चाद्या चाराध्या चासनस्थिता ।
आधारनिलयाधारा चाकाशान्तनिवासिनी ॥ १७ ॥

āgneyī cāmarī cādyā cārādhyā cāsanasthitā
ādhāranilayādhārā cākāśāntanivāsinī 17 


आद्याक्षरसमायुक्ता चान्तराकाशरूपिणी ।
आदित्यामण्डलगता चान्तरध्वान्तनाशिनी ॥ १८ ॥

ādyākṣarasamāyuktā cāntarākāśarūpiṇī
ādityāmaṇḍalagatā cāntaradhvāntanāśinī 18 


इन्दिरा चेष्टदा चेष्टा चेन्दीवरनिभेक्षणा ।
इरावती चेन्द्रपदा चेन्द्राणी चेन्दुरूपिणी ॥ १९ ॥

indirā ceṣṭadā ceṣṭā cendīvaranibhekṣaṇā
irāvatī cendrapadā cendrāṇī cendurūpiṇī 19 


इक्षुकोदण्डसंयुक्ता चेषुसंधानकारिणी ।
इन्द्रनीलसमाकारा चेडापिङ्गलरूपिणी ॥ २० ॥

ikṣukodaṇḍasaṁyuktā ceṣusaṁdhānakāriṇī
indranīlasamākārā ceḍāpiṅgalarūpiṇī 20 


इन्द्राक्षीचेश्वरी देवी चेहात्रयविवर्जिता ।
उमा चोषा ह्युडुनिभा उर्वारुकफलानना ॥ २१ ॥

indrākṣīceśvarī devī cehātrayavivarjitā
umā coṣā hyuḍunibhā urvārukaphalānanā 21 


उडुप्रभा चोडुमती ह्युडुपा ह्युडुमध्यगा ।
ऊर्ध्वा चाप्यूर्ध्वकेशी चाप्यूर्ध्वाधोगतिभेदिनी ॥ २२ ॥

uḍuprabhā coḍumatī hyuḍupā hyuḍumadhyagā
ūrdhvā cāpyūrdhvakeśī cāpyūrdhvādhogatibhedinī 22 


ऊर्ध्वबाहुप्रिया चोर्मिमालावाग्ग्रन्थदायिनी ।
ऋतं चर्षिरृतुमती ऋषिदेवनमस्कृता ॥ २३ ॥

ūrdhvabāhupriyā cormimālāvāggranthadāyinī
ṛtaṁ carṣirṛtumatī ṛṣidevanamaskṛtā 23 


ऋग्वेदा ऋणहर्त्री च ऋषिमण्डलचारिणी ।
ऋद्धिदा ऋजुमार्गस्था ऋजुधर्मा ऋतुप्रदा ॥ २४ ॥

ṛgvedā ṛṇahartrī ca ṛṣimaṇḍalacāriṇī
ṛddhidā ṛjumārgasthā ṛjudharmā ṛtupradā 24 


ऋग्वेदनिलया ऋज्वी लुप्तधर्मप्रवर्तिनी ।
लूतारिवरसम्भूता लूतादिविषहारिणी ॥ २५ ॥

ṛgvedanilayā ṛjvī luptadharmapravartinī
lūtārivarasambhūtā lūtādiviṣahāriṇī 25 


एकाक्षरा चैकमात्रा चैका चैकैकनिष्ठिता ।
ऐन्द्री ह्यैरावतारूढा चैहिकामुष्मिकप्रदा ॥ २६ ॥

ekākṣarā caikamātrā caikā caikaikaniṣṭhitā
aindrī hyairāvatārūḍhā caihikāmuṣmikapradā 26 


ओंकारा ह्योषधी चोता चोतप्रोतनिवासिनी ।
और्वा ह्यौषधसम्पन्ना औपासनफलप्रदा ॥ २७ ॥

oṁkārā hyoṣadhī cotā cotaprotanivāsinī
aurvā hyauṣadhasampannā aupāsanaphalapradā 27 


अण्डमध्यस्थिता देवी चाःकारमनुरूपिणी ।
कात्यायनी कालरात्रीः कामाक्षी कामसुन्दरी ॥ २८ ॥

aṇḍamadhyasthitā devī cāḥkāramanurūpiṇī
kātyāyanī kālarātrīḥ kāmākṣī kāmasundarī 28 


कमला कामिनी कान्ता कामदा कालकण्ठिनी ।
करिकुम्भस्तनभरा करवीरसुवासिनी ॥ २९ ॥

kamalā kāminī kāntā kāmadā kālakaṇṭhinī
karikumbhastanabharā karavīrasuvāsinī 29 


कल्याणी कुण्डलवती कुरुक्षेत्रनिवासिनी ।
कुरुविन्ददलाकारा कुण्डली कुमुदालया ॥ ३० ॥

kalyāṇī kuṇḍalavatī kurukṣetranivāsinī
kuruvindadalākārā kuṇḍalī kumudālayā 30 


कालजिह्वा करालास्या कालिका कालरूपिणी ।
कमनीयगुणा कान्तिः कलाधारा कुमुद्वती ॥ ३१ ॥

kālajihvā karālāsyā kālikā kālarūpiṇī
kamanīyaguṇā kāntiḥ kalādhārā kumudvatī 31 


कौशिकी कमलाकारा कामचारप्रभञ्जिनी ।
कौमारी करुणापाङ्गी ककुबन्ता करिप्रिया ॥ ३२ ॥

kauśikī kamalākārā kāmacāraprabhañjinī
kaumārī karuṇāpāṅgī kakubantā karipriyā 32 


केसरी केशवनुता कदम्बकुसुमप्रिया ।
कालिन्दी कालिका काञ्ची कलशोद्भवसंस्तुता ॥ ३३ ॥

kesarī keśavanutā kadambakusumapriyā
kālindī kālikā kāñcī kalaśodbhavasaṁstutā 33 


काममाता क्रतुमती कामरूपा कृपावती ।
कुमारी कुण्डनिलया किराती कीरवाहना ॥ ३४ ॥

kāmamātā kratumatī kāmarūpā kṛpāvatī
kumārī kuṇḍanilayā kirātī kīravāhanā 34 


कैकेयी कोकिलालापा केतकी कुसुमप्रिया ।
कमण्डलुधरा काली कर्मनिर्मूलकारिणी ॥ ३५ ॥

kaikeyī kokilālāpā ketakī kusumapriyā
kamaṇḍaludharā kālī karmanirmūlakāriṇī 35 


कलहंसगतिः कक्षा कृतकौतुकमङ्गला ।
कस्तूरीतिलका कम्प्रा करीन्द्रगमना कुहूः ॥ ३६ ॥

kalahaṁsagatiḥ kakṣā kṛtakautukamaṅgalā
kastūrītilakā kamprā karīndragamanā kuhūḥ 36 


कर्पूरलेपना कृष्णा कपिला कुहराश्रया ।
कूटस्था कुधरा कम्रा कुक्षिस्थाखिलविष्टपा ॥ ३७ ॥

karpūralepanā kṛṣṇā kapilā kuharāśrayā
kūṭasthā kudharā kamrā kukṣisthākhilaviṣṭapā 37 


खङ्गखेटकरा खर्वा खेचरी खगवाहना ।
खट्वाङ्गधारिणी ख्याता खगराजोपरिस्थिता ॥ ३८ ॥

khaṅgakheṭakarā kharvā khecarī khagavāhanā
khaṭvāṅgadhāriṇī khyātā khagarājoparisthitā 38 


खलघ्नी खण्डितजरा खण्डाख्यानप्रदायिनी ।
खण्डेन्दुतिलका गङ्गा गणेशगुहपूजिता ॥ ३९ ॥

khalaghnī khaṇḍitajarā khaṇḍākhyānapradāyinī
khaṇḍendutilakā gaṅgā gaṇeśaguhapūjitā 39 


गायत्री गोमती गीता गान्धारी गानलोलुपा ।
गौतमी गामिनी गाधा गन्धर्वाप्सरसेविता ॥ ४० ॥

gāyatrī gomatī gītā gāndhārī gānalolupā
gautamī gāminī gādhā gandharvāpsarasevitā 40 


गोविन्दचरणाक्रान्ता गुणत्रयविभाविता ।
गन्धर्वी गह्वरी गोत्रा गिरीशा गहना गमी ॥ ४१ ॥

govindacaraṇākrāntā guṇatrayavibhāvitā
gandharvī gahvarī gotrā girīśā gahanā gamī 41 


गुहावासा गुणवती गुरुपापप्रणाशिनी ।
गुर्वी गुणवती गुह्या गोप्तव्या गुणदायिनी ॥ ४२ ॥

guhāvāsā guṇavatī gurupāpapraṇāśinī
gurvī guṇavatī guhyā goptavyā guṇadāyinī 42 


गिरिजा गुह्यमातङ्गी गरुडध्वजवल्लभा ।
गर्वापहारिणी गोदा गोकुलस्था गदाधरा ॥ ४३ ॥

girijā guhyamātaṅgī garuḍadhvajavallabhā
garvāpahāriṇī godā gokulasthā gadādharā 43 


गोकर्णनिलयासक्ता गुह्यमण्डलवर्तिनी ।
घर्मदा घनदा घण्टा घोरदानवमर्दिनी ॥ ४४ ॥

gokarṇanilayāsaktā guhyamaṇḍalavartinī
gharmadā ghanadā ghaṇṭā ghoradānavamardinī 44 


घृणिमन्त्रमयी घोषा घनसम्पातदायिनी ।
घण्टारवप्रिया घ्राणा घृणिसंतुष्टकारिणी ॥ ४५ ॥

ghṛṇimantramayī ghoṣā ghanasampātadāyinī
ghaṇṭāravapriyā ghrāṇā ghṛṇisaṁtuṣṭakāriṇī 45 


घनारिमण्डला घूर्णा घृताची घनवेगिनी ।
ज्ञानधातुमयी चर्चा चर्चिता चारुहासिनी ॥ ४६ ॥

ghanārimaṇḍalā ghūrṇā ghṛtācī ghanaveginī
jñānadhātumayī carcā carcitā cāruhāsinī 46 


चटुला चण्डिका चित्रा चित्रमाल्यविभूषिता ।
चतुर्भुजा चारुदन्ता चातुरी चरितप्रदा ॥ ४७ ॥

caṭulā caṇḍikā citrā citramālyavibhūṣitā
caturbhujā cārudantā cāturī caritapradā 47 


चूलिका चित्रवस्त्रान्ता चन्द्रमःकर्णकुण्डला ।
चन्द्रहासा चारुदात्री चकोरी चन्द्रहासिनी ॥ ४८ ॥

cūlikā citravastrāntā candramaḥkarṇakuṇḍalā
candrahāsā cārudātrī cakorī candrahāsinī 48 


चन्द्रिका चन्द्रधात्री च चौरी चौरा च चण्डिका ।
चञ्चद्वाग्वादिनी चन्द्रचूडा चोरविनाशिनी ॥ ४९ ॥

candrikā candradhātrī ca caurī caurā ca caṇḍikā
cañcadvāgvādinī candracūḍā coravināśinī 49 


चारुदन्दनलिप्ताङ्गी चञ्चच्चामरवीजिता ।
चारुमध्या चारुगतिश्चन्दिला चन्द्ररूपिणी ॥ ५० ॥

cārudandanaliptāṅgī cañcaccāmaravījitā
cārumadhyā cārugatiścandilā candrarūpiṇī 50 


चन्द्रहोमप्रिया चार्वाचरिता चक्रबाहुका ।
चन्द्रमण्डलमध्यस्था चन्द्रमण्डलदर्पणा ॥ ५१ ॥

candrahomapriyā cārvācaritā cakrabāhukā
candramaṇḍalamadhyasthā candramaṇḍaladarpaṇā 51 


चक्रवाकस्तनी चेष्टा चित्रा चारुविलासिनी ।
चित्स्वरूपा चन्द्रवती चन्द्रमाश्चन्दनप्रिया ॥ ५२ ॥

cakravākastanī ceṣṭā citrā cāruvilāsinī
citsvarūpā candravatī candramāścandanapriyā 52 


चोदयित्री चिरप्रज्ञा चातका चारुहेतुकी ।
छत्रयाता छत्रधरा छाया छन्दःपरिच्छदा ॥ ५३ ॥

codayitrī ciraprajñā cātakā cāruhetukī
chatrayātā chatradharā chāyā chandaḥparicchadā 53 


छायादेवी छिद्रनखा छन्नेन्द्रियविसर्पिणी ।
छन्दोऽनुष्टुप्प्रतिष्ठान्ता छिद्रोपद्रवभेदिनी ॥ ५४ ॥

chāyādevī chidranakhā channendriyavisarpiṇī
chando'nuṣṭuppratiṣṭhāntā chidropadravabhedinī 54 


छेदा छत्रेश्वरी छिन्ना छुरिका छेदनप्रिया ।
जननी जन्मरहिता जातवेदा जगन्मयी ॥ ५५ ॥

chedā chatreśvarī chinnā churikā chedanapriyā
jananī janmarahitā jātavedā jaganmayī 55 


जाह्नवी जटिला जेत्री जरामरणवर्जिता ।
जम्बूद्वीपवती ज्वाला जयन्ती जलशालिनी ॥ ५६ ॥

jāhnavī jaṭilā jetrī jarāmaraṇavarjitā
jambūdvīpavatī jvālā jayantī jalaśālinī 56 


जितेन्द्रिया जितक्रोधा जितामित्रा जगत्प्रिया ।
जातरूपमयी जिह्वा जानकी जगती जरा ॥ ५७ ॥

jitendriyā jitakrodhā jitāmitrā jagatpriyā
jātarūpamayī jihvā jānakī jagatī jarā 57 


जनित्री जह्नुतनया जगत्त्रयहितैषिणी ।
ज्वालामुखी जपवती ज्वरघ्नी जितविष्टपा ॥ ५८ ॥

janitrī jahnutanayā jagattrayahitaiṣiṇī
jvālāmukhī japavatī jvaraghnī jitaviṣṭapā 58 


जिताक्रान्तमयी ज्वाला जाग्रती ज्वरदेवता ।
ज्वलन्ती जलदा ज्येष्ठा ज्याघोषास्फोटदिङ्सुखी ॥ ५९ ॥

jitākrāntamayī jvālā jāgratī jvaradevatā
jvalantī jaladā jyeṣṭhā jyāghoṣāsphoṭadiṅsukhī 59 


जम्भिनी जृम्भणा जृम्भा ज्वलन्माणिक्यकुण्डला ।
झिंझिका झणनिर्घोषा झंझामारुतवेगिनी ॥ ६० ॥

jambhinī jṛmbhaṇā jṛmbhā jvalanmāṇikyakuṇḍalā
jhiṁjhikā jhaṇanirghoṣā jhaṁjhāmārutaveginī 60 


झल्लरीवाद्यकुशला ञरूपा ञभुजा स्मृता ।
टङ्कबाणसमायुक्ता टङ्किनी टङ्कभेदिनी ॥ ६१ ॥

jhallarīvādyakuśalā ñarūpā ñabhujā smṛtā
ṭaṅkabāṇasamāyuktā ṭaṅkinī ṭaṅkabhedinī 61 


टङ्कीगणकृताघोषा टङ्कनीयमहोरसा ।
टङ्कारकारिणी देवी ठठशब्दनिनादिनी ॥ ६२ ॥

ṭaṅkīgaṇakṛtāghoṣā ṭaṅkanīyamahorasā
ṭaṅkārakāriṇī devī ṭhaṭhaśabdaninādinī 62 


डामरी डाकिनी डिम्भा डुण्डमारैकनिर्जिता ।
डामरीतन्त्रमार्गस्था डमड्डमरुनादिनी ॥ ६३ ॥

ḍāmarī ḍākinī ḍimbhā ḍuṇḍamāraikanirjitā
ḍāmarītantramārgasthā ḍamaḍḍamarunādinī 63 


डिण्डीरवसहा डिम्भलसत्क्रीडापरायणा ।
ढुण्ढिविघ्नेशजननी ढक्काहस्ता ढिलिव्रजा ॥ ६४ ॥

ḍiṇḍīravasahā ḍimbhalasatkrīḍāparāyaṇā
ḍhuṇḍhivighneśajananī ḍhakkāhastā ḍhilivrajā 64 


नित्यज्ञाजा निरुपमा निर्गुणा नर्मदा नदी ।
त्रिगुणा त्रिपदा तन्त्री तुलसी तरुणा तरुः ॥ ६५ ॥

nityajñājā nirupamā nirguṇā narmadā nadī
triguṇā tripadā tantrī tulasī taruṇā taruḥ 65 


त्रिविक्रमपदाक्रान्ता तुरीयपदगामिनी ।
तरुणादित्यसंकाशा तामसी तुहिना तुरा ॥ ६६ ॥

trivikramapadākrāntā turīyapadagāminī
taruṇādityasaṁkāśā tāmasī tuhinā turā 66 


त्रिकालज्ञानसम्पन्ना त्रिवली च त्रिलोचना ।
त्रिशक्तिस्त्रिपुरा तुङ्गा तुरङ्गवदना तथा ॥ ६७ ॥

trikālajñānasampannā trivalī ca trilocanā
triśaktistripurā tuṅgā turaṅgavadanā tathā 67 


तिमिङ्गिलगिला तीव्रा त्रिस्रोता तामसादिनी ।
तन्त्रमन्त्रविशेषज्ञा तनुमध्या त्रिविष्टपा ॥ ६८ ॥

timiṅgilagilā tīvrā trisrotā tāmasādinī
tantramantraviśeṣajñā tanumadhyā triviṣṭapā 68 


त्रिसन्ध्या त्रिस्तनी तोषासंस्था तालप्रतापिनी ।
ताटङ्किनी तुषाराभा तुहिनाचलवासिनी ॥ ६९ ॥

trisandhyā tristanī toṣāsaṁsthā tālapratāpinī
tāṭaṅkinī tuṣārābhā tuhinācalavāsinī 69 


तन्तुजालसमायुक्ता तारहारावलिप्रिया ।
तिलहोमप्रिया तीर्था तमालकुसुमाकृतिः ॥ ७० ॥

tantujālasamāyuktā tārahārāvalipriyā
tilahomapriyā tīrthā tamālakusumākṛtiḥ 70 


तारका त्रियुता तन्वी त्रिशङ्कुपरिवारिता ।
तलोदरी तिलाभूषा ताटङ्कप्रियवादिनी ॥ ७१ ॥

tārakā triyutā tanvī triśaṅkuparivāritā
talodarī tilābhūṣā tāṭaṅkapriyavādinī 71 


त्रिजटा तित्तिरी तृष्णा त्रिविधा तरुणाकृतिः ।
तप्तकाञ्चनसंकाशा तप्तकाञ्चनभूषणा ॥ ७२ ॥

trijaṭā tittirī tṛṣṇā trividhā taruṇākṛtiḥ
taptakāñcanasaṁkāśā taptakāñcanabhūṣaṇā 72 


त्रैयम्बका त्रिवर्गा च त्रिकालज्ञानदायिनी ।
तर्पणा तृप्तिदा तृप्ता तामसी तुम्बुरुस्तुता ॥ ७३ ॥

traiyambakā trivargā ca trikālajñānadāyinī
tarpaṇā tṛptidā tṛptā tāmasī tumburustutā 73 


तार्क्ष्यस्था त्रिगुणाकारा त्रिभङ्गी तनुवल्लरिः ।
थात्कारी थारवा थान्ता दोहिनी दीनवत्सला ॥ ७४ ॥

tārkṣyasthā triguṇākārā tribhaṅgī tanuvallariḥ
thātkārī thāravā thāntā dohinī dīnavatsalā 74 


दानवान्तकरी दुर्गा दुर्गासुरनिबर्हिणी ।
देवरीतिर्दिवारात्रिर्द्रौपदी दुन्दुभिस्वना ॥ ७५ ॥

dānavāntakarī durgā durgāsuranibarhiṇī
devarītirdivārātrirdraupadī dundubhisvanā 75 


देवयानी दुरावासा दारिद्रयोद्भेदिनी दिवा ।
दामोदरप्रिया दीप्ता दिग्वासा दिग्विमोहिनी ॥ ७६ ॥

devayānī durāvāsā dāridrayodbhedinī divā
dāmodarapriyā dīptā digvāsā digvimohinī 76 


दण्डकारण्यनिलया दण्डिनी देवपूजिता ।
देववन्द्या दिविषदा द्वेषिणी दानवाकृतिः ॥ ७७ ॥

daṇḍakāraṇyanilayā daṇḍinī devapūjitā
devavandyā diviṣadā dveṣiṇī dānavākṛtiḥ 77 


दीनानाथस्तुता दीक्षा दैवतादिस्वरूपिणी ।
धात्री धनुर्धरा धेनुर्धारिणी धर्मचारिणी ॥ ७८ ॥

dīnānāthastutā dīkṣā daivatādisvarūpiṇī
dhātrī dhanurdharā dhenurdhāriṇī dharmacāriṇī 78 


धरन्धरा धराधारा धनदा धान्यदोहिनी ।
धर्मशीला धनाध्यक्षा धनुर्वेदविशारदा ॥ ७९ ॥

dharandharā dharādhārā dhanadā dhānyadohinī
dharmaśīlā dhanādhyakṣā dhanurvedaviśāradā 79 


धृतिर्धन्या धृतपदा धर्मराजप्रिया ध्रुवा ।
धूमावती धूमकेशी धर्मशास्त्रप्रकाशिनी ॥ ८० ॥

dhṛtirdhanyā dhṛtapadā dharmarājapriyā dhruvā
dhūmāvatī dhūmakeśī dharmaśāstraprakāśinī 80 


नन्दा नन्दप्रिया निद्रा नृनुता नन्दनात्मिका ।
नर्मदा नलिनी नीला नीलकण्ठसमाश्रया ॥ ८१ ॥

nandā nandapriyā nidrā nṛnutā nandanātmikā
narmadā nalinī nīlā nīlakaṇṭhasamāśrayā 81 


नारायणप्रिया नित्या निर्मला निर्गुणा निधिः ।
निराधारा निरुपमा नित्यशुद्धा निरञ्जना ॥ ८२ ॥

nārāyaṇapriyā nityā nirmalā nirguṇā nidhiḥ
nirādhārā nirupamā nityaśuddhā nirañjanā 82 


नादबिन्दुकलातीता नादबिन्दुकलात्मिका ।
नृसिंहिनी नगधरा नृपनागविभूषिता ॥ ८३ ॥

nādabindukalātītā nādabindukalātmikā
nṛsiṁhinī nagadharā nṛpanāgavibhūṣitā 83 


नरकक्लेशशमनी नारायणपदोद्भवा ।
निरवद्या निराकारा नारदप्रियकारिणी ॥ ८४ ॥

narakakleśaśamanī nārāyaṇapadodbhavā
niravadyā nirākārā nāradapriyakāriṇī 84 


नानाज्योतिः समाख्याता निधिदा निर्मलात्मिका ।
नवसूत्रधरा नीतिर्निरूपद्रवकारिणी ॥ ८५ ॥

nānājyotiḥ samākhyātā nidhidā nirmalātmikā
navasūtradharā nītirnirūpadravakāriṇī 85 


नन्दजा नवरत्नाढ्या नैमिषारण्यवासिनी ।
नवनीतप्रिया नारी नीलजीमूतनिस्वना ॥ ८६ ॥

nandajā navaratnāḍhyā naimiṣāraṇyavāsinī
navanītapriyā nārī nīlajīmūtanisvanā 86 


निमेषिणी नदीरूपा नीलग्रीवा निशीश्वरी ।
नामावलिर्निशुम्भघ्नी नागलोकनिवासिनी ॥ ८७ ॥

nimeṣiṇī nadīrūpā nīlagrīvā niśīśvarī
nāmāvalirniśumbhaghnī nāgalokanivāsinī 87 


नवजाम्बूनदप्रख्या नागलोकाधिदेवता ।
नूपुराक्रान्तचरणा नरचित्तप्रमोदिनी ॥ ८८ ॥

navajāmbūnadaprakhyā nāgalokādhidevatā
nūpurākrāntacaraṇā naracittapramodinī 88 


निमग्नारक्तनयना निर्घातसमनिस्वना ।
नन्दनोद्याननिलया निर्व्यूहोपरिचारिणी ॥ ८९ ॥

nimagnāraktanayanā nirghātasamanisvanā
nandanodyānanilayā nirvyūhoparicāriṇī 89 


पार्वती परमोदारा परब्रह्मात्मिका परा ।
पञ्चकोशविनिर्मुक्ता पञ्चपातकनाशिनी ॥ ९० ॥

pārvatī paramodārā parabrahmātmikā parā
pañcakośavinirmuktā pañcapātakanāśinī 90 


परचित्तविधानज्ञा पञ्चिका पञ्चरूपिणी ।
पूर्णिमा परमा प्रीतिः परतेजः प्रकाशिनी ॥ ९१ ॥

paracittavidhānajñā pañcikā pañcarūpiṇī
pūrṇimā paramā prītiḥ paratejaḥ prakāśinī 91 


पुराणी पौरुषी पुण्या पुण्डरीकनिभेक्षणा ।
पातालतलनिर्मग्ना प्रीता प्रीतिविवर्धिनी ॥ ९२ ॥

purāṇī pauruṣī puṇyā puṇḍarīkanibhekṣaṇā
pātālatalanirmagnā prītā prītivivardhinī 92 


पावनी पादसहिता पेशला पवनाशिनी ।
प्रजापतिः परिश्रान्ता पर्वतस्तनमण्दला ॥ ९३ ॥

pāvanī pādasahitā peśalā pavanāśinī
prajāpatiḥ pariśrāntā parvatastanamaṇdalā 93 


पद्मप्रिया पद्मसंस्था पद्माक्षी पद्मसम्भवा ।
पद्मपत्रा पद्मपदा पद्मिनी प्रियभाषिणी ॥ ९४ ॥

padmapriyā padmasaṁsthā padmākṣī padmasambhavā
padmapatrā padmapadā padminī priyabhāṣiṇī 94 


पशुपाशविनिर्मुक्ता पुरन्ध्री पुरवासिनी ।
पुष्कला पुरुषा पर्वा पारिजातसुमप्रिया ॥ ९५ ॥

paśupāśavinirmuktā purandhrī puravāsinī
puṣkalā puruṣā parvā pārijātasumapriyā 95 


पतिव्रता पवित्राङ्गी पुष्पहासपरायणा ।
प्रज्ञावतीसुता पौत्री पुत्रपूज्या पयस्विनी ॥ ९६ ॥

pativratā pavitrāṅgī puṣpahāsaparāyaṇā
prajñāvatīsutā pautrī putrapūjyā payasvinī 96 


पट्टिपाशधरा पङ्कितः पितृलोकप्रदायिनी ।
पुराणी पुण्यशीला च प्रणतार्तिविनाशिनी ॥ ९७ ॥

paṭṭipāśadharā paṅkitaḥ pitṛlokapradāyinī
purāṇī puṇyaśīlā ca praṇatārtivināśinī 97 


प्रद्युम्नजननी पुष्टा पितामहपरिग्रहा ।
पुण्डरीकपुरावासा पुण्डरीकसमानना ॥ ९८ ॥

pradyumnajananī puṣṭā pitāmahaparigrahā
puṇḍarīkapurāvāsā puṇḍarīkasamānanā 98 


पृथुजङ्घा पृथुभुजा पृथुपादा पृथूदरी ।
प्रवालशोभा पिङ्गाक्षी पीतवासाः प्रचापला ॥ ९९ ॥

pṛthujaṅghā pṛthubhujā pṛthupādā pṛthūdarī
pravālaśobhā piṅgākṣī pītavāsāḥ pracāpalā 99 


प्रसवा पुष्टिदा पुण्या प्रतिष्ठा प्रणवागतिः ।
पञ्चवर्णा पञ्चवाणी पञ्चिका पञ्चरस्थिता ॥ १०० ॥

prasavā puṣṭidā puṇyā pratiṣṭhā praṇavāgatiḥ
pañcavarṇā pañcavāṇī pañcikā pañcarasthitā 100 


परमाया परज्योतिः परप्रीतिः परागतिः ।
पराकाष्ठा परेशानी पाविनी पावकद्युतिः ॥ १०१ ॥

paramāyā parajyotiḥ paraprītiḥ parāgatiḥ
parākāṣṭhā pareśānī pāvinī pāvakadyutiḥ 101 


पुण्यभद्रा परिच्छेद्या पुष्पहासा पृथूदरी ।
पीताङ्गी पीतवसना पीतशय्या पिशाचिनी ॥ १०२ ॥

puṇyabhadrā paricchedyā puṣpahāsā pṛthūdarī
pītāṅgī pītavasanā pītaśayyā piśācinī 102 


पीतक्रिया पिशाचघ्नी पाटलाक्षी पटुक्रिया ।
पञ्चभक्षप्रियाचारा पूतनाप्राणघातिनी ॥ १०३ ॥

pītakriyā piśācaghnī pāṭalākṣī paṭukriyā
pañcabhakṣapriyācārā pūtanāprāṇaghātinī 103 


पुन्नागवनमध्यस्था पुण्यतीर्थनिषेविता ।
पञ्चाङ्गी च पराशक्तिः परमाह्लादकारिणी ॥ १०४ ॥

punnāgavanamadhyasthā puṇyatīrthaniṣevitā
pañcāṅgī ca parāśaktiḥ paramāhlādakāriṇī 104 


पुष्पकाण्डस्थिता पूषा पोषिताखिलविष्टपा ।
पानप्रिया पञ्चशिखा पन्नहोपरिशायिनी ॥ १०५ ॥

puṣpakāṇḍasthitā pūṣā poṣitākhilaviṣṭapā
pānapriyā pañcaśikhā pannahopariśāyinī 105 


पञ्चमात्रात्मिका पृथ्वी पथिका पृथुदोहिनी ।
पुराणन्यायमीमांसा पाटली पुष्पगन्धिनी ॥ १०६ ॥

pañcamātrātmikā pṛthvī pathikā pṛthudohinī
purāṇanyāyamīmāṁsā pāṭalī puṣpagandhinī 106 


पुण्यप्रजा पारदात्री परमार्गैकगोचरा ।
प्रवालशोभा पूर्णाशा प्रणवा पल्लवोदरी ॥ १०७ ॥

puṇyaprajā pāradātrī paramārgaikagocarā
pravālaśobhā pūrṇāśā praṇavā pallavodarī 107 


फलिनी फलदा फल्गुः फूत्कारी फलकाकृतिः ।
फणीन्द्रभोगशयना फणिमण्डलमण्डिता ॥ १०८ ॥

phalinī phaladā phalguḥ phūtkārī phalakākṛtiḥ
phaṇīndrabhogaśayanā phaṇimaṇḍalamaṇḍitā 108 


बालबाला बहुमता बालातपनिभांशुका ।
बलभद्रप्रिया वन्द्या वडवा बुद्धिसंस्तुता ॥ १०९ ॥

bālabālā bahumatā bālātapanibhāṁśukā
balabhadrapriyā vandyā vaḍavā buddhisaṁstutā 109 


बन्दीदेवी बिलवती बडिशघ्नी बलिप्रिया ।
बान्धवी बोधिता बुद्धिर्बन्धूककुसुमप्रिया ॥ ११० ॥

bandīdevī bilavatī baḍiśaghnī balipriyā
bāndhavī bodhitā buddhirbandhūkakusumapriyā 110 


बालभानुप्रभाकारा ब्राह्मी ब्राह्मणदेवता ।
बृहस्पतिस्तुता वृन्दा वृन्दावनविहारिणी ॥ १११ ॥

bālabhānuprabhākārā brāhmī brāhmaṇadevatā
bṛhaspatistutā vṛndā vṛndāvanavihāriṇī 111 


बालाकिनी बिलाहारा बिलवासा बहूदका ।
बहुनेत्रा बहुपदा बहुकर्णावतंसिका ॥ ११२ ॥

bālākinī bilāhārā bilavāsā bahūdakā
bahunetrā bahupadā bahukarṇāvataṁsikā 112 


बहुबाहुयुता बीजरूपिणी बहुरूपिणी ।
बिन्धुनादकलातीता बिन्दुनादस्वरूपिणी ॥ ११३ ॥

bahubāhuyutā bījarūpiṇī bahurūpiṇī
bindhunādakalātītā bindunādasvarūpiṇī 113 


बद्धगोधाङ्गुलित्राणा बदर्याश्रमवासिनी ।
बृन्दारका बृहत्स्कन्धा बृहती बाणपातिनी ॥ ११४ ॥

baddhagodhāṅgulitrāṇā badaryāśramavāsinī
bṛndārakā bṛhatskandhā bṛhatī bāṇapātinī 114 


वृन्दाध्यक्षा बहुनुता वनिता बहुविक्रमा ।
बद्धपद्मासनासीना बिल्वपत्रतलस्थिता ॥ ११५ ॥

vṛndādhyakṣā bahunutā vanitā bahuvikramā
baddhapadmāsanāsīnā bilvapatratalasthitā 115 


बोधिद्रुमनिजावासा बडिस्था बिन्दुदर्पणा ।
बाला बाणासनवती वडवानलवेगिनी ॥ ११६ ॥

bodhidrumanijāvāsā baḍisthā bindudarpaṇā
bālā bāṇāsanavatī vaḍavānalaveginī 116 


ब्रह्माण्डबहिरन्तःस्था ब्रह्मकङ्कणसूत्रिणी ।
भवानी भीषणवती भाविनी भयहारिणी ॥ ११७ ॥

brahmāṇḍabahirantaḥsthā brahmakaṅkaṇasūtriṇī
bhavānī bhīṣaṇavatī bhāvinī bhayahāriṇī 117 


भद्रकाली भुजङ्गाक्षी भारती भारताशया ।
भैरवी भीषणाकारा भूतिदा भूतिमालिनी ॥ ११८ ॥

bhadrakālī bhujaṅgākṣī bhāratī bhāratāśayā
bhairavī bhīṣaṇākārā bhūtidā bhūtimālinī 118 


भामिनी भोगनिरता भद्रदा भूरिविक्रमा ।
भूतवासा भृगुलता भार्गवी भूसुरार्चिता ॥ ११९ ॥

bhāminī bhoganiratā bhadradā bhūrivikramā
bhūtavāsā bhṛgulatā bhārgavī bhūsurārcitā 119 


भागीरथी भोगवती भवनस्था भिषग्वरा ।
भामिनी भोगिनी भाषा भवानी भूरिदक्षिणा ॥ १२० ॥

bhāgīrathī bhogavatī bhavanasthā bhiṣagvarā
bhāminī bhoginī bhāṣā bhavānī bhūridakṣiṇā 120 


भर्गात्मिका भीमवती भवबन्धविमोचिनी ।
भजनीया भूतधात्रीरञ्जिता भुवनेश्वरी ॥ १२१ ॥

bhargātmikā bhīmavatī bhavabandhavimocinī
bhajanīyā bhūtadhātrīrañjitā bhuvaneśvarī 121 


भुजङ्गवलया भीमा भेरुण्डा भागधेयिनी ।
माता माया मधुमती मधुजिह्वा मधुप्रिया ॥ १२२ ॥

bhujaṅgavalayā bhīmā bheruṇḍā bhāgadheyinī
mātā māyā madhumatī madhujihvā madhupriyā 122 


महादेवी महाभागा मालिनी मीनलोचना ।
मायातीता मधुमती मधुमांसा मधुद्रवा ॥ १२३ ॥

mahādevī mahābhāgā mālinī mīnalocanā
māyātītā madhumatī madhumāṁsā madhudravā 123 


मानवी मधुसम्भूता मिथिलापुरवासिनी ।
मधुकैटभसंहर्त्री मेदिनी मेघमालिनी ॥ १२४ ॥

mānavī madhusambhūtā mithilāpuravāsinī
madhukaiṭabhasaṁhartrī medinī meghamālinī 124 


मन्दोदरी महामाया मैथिली मसृणप्रिया ।
महालक्ष्मीर्महाकाली महाकन्या महेश्वरी ॥ १२५ ॥

mandodarī mahāmāyā maithilī masṛṇapriyā
mahālakṣmīrmahākālī mahākanyā maheśvarī 125 


माहेन्द्री मेरुतनया मन्दारकुसुमार्चिता ।
मञ्जुमञ्जीरचरणा मोक्षदा मञ्जुभाषिणी ॥ १२६ ॥

māhendrī merutanayā mandārakusumārcitā
mañjumañjīracaraṇā mokṣadā mañjubhāṣiṇī 126 


मधुरद्राविणी मुद्रा मलया मलयान्विता ।
मेधा मरकतश्यामा मागधी मेनकात्मजा ॥ १२७ ॥

madhuradrāviṇī mudrā malayā malayānvitā
medhā marakataśyāmā māgadhī menakātmajā 127 


महामारी महावीरा महाश्यामा मनुस्तुता ।
मातृका मिहिराभासा मुकुन्दपदविक्रमा ॥ १२८ ॥

mahāmārī mahāvīrā mahāśyāmā manustutā
mātṛkā mihirābhāsā mukundapadavikramā 128 


मूलाधारस्थिता मुग्धा मणिपूरकवासिनी ।
मृगाक्षी महिषारूढा महिषासुरमर्दिनी ॥ १२९ ॥

mūlādhārasthitā mugdhā maṇipūrakavāsinī
mṛgākṣī mahiṣārūḍhā mahiṣāsuramardinī 129 


योगासना योगगम्या योगा यौवनकाश्रया ।
यौवनी युद्धमध्यस्था यमुना युगधारिणी ॥ १३० ॥

yogāsanā yogagamyā yogā yauvanakāśrayā
yauvanī yuddhamadhyasthā yamunā yugadhāriṇī 130 


यक्षिणी योगयुक्ता च यक्षराजप्रसूतिनी ।
यात्रा यानविधानज्ञा यदुवंशसमुद्भवा ॥ १३१ ॥

yakṣiṇī yogayuktā ca yakṣarājaprasūtinī
yātrā yānavidhānajñā yaduvaṁśasamudbhavā 131 


यकारादिहकारान्ता याजुषी यज्ञरूपिणी ।
यामिनी योगनिरता यातुधानभयङ्करी ॥ १३२ ॥

yakārādihakārāntā yājuṣī yajñarūpiṇī
yāminī yoganiratā yātudhānabhayaṅkarī 132 


रुक्मिणी रमणी रामा रेवती रेणुका रतिः ।
रौद्री रौद्रप्रियाकारा राममाता रतिप्रिया ॥ १३३ ॥

rukmiṇī ramaṇī rāmā revatī reṇukā ratiḥ
raudrī raudrapriyākārā rāmamātā ratipriyā 133 


रोहिणी राज्यदा रेवा रमा राजीवलोचना ।
राकेशी रूपसम्पन्ना रत्नसिंहासनस्थिता ॥ १३४ ॥

rohiṇī rājyadā revā ramā rājīvalocanā
rākeśī rūpasampannā ratnasiṁhāsanasthitā 134 


रक्तमाल्याम्बरधरा रक्तगन्धानुलेपना ।
राजहंससमारूढा रम्भा रक्तबलिप्रिया ॥ १३५ ॥

raktamālyāmbaradharā raktagandhānulepanā
rājahaṁsasamārūḍhā rambhā raktabalipriyā 135 


रमणीययुगाधारा राजिताखिलभूतला ।
रुरुचर्मपरीधाना रथिनी रत्नमालिका ॥ १३६ ॥

ramaṇīyayugādhārā rājitākhilabhūtalā
rurucarmaparīdhānā rathinī ratnamālikā 136 


रोगेशी रोगशमनी राविणी रोमहर्षिणी ।
रामचन्द्रप्रदाक्रान्ता रावणच्छेदकारिणी ॥ १३७ ॥

rogeśī rogaśamanī rāviṇī romaharṣiṇī
rāmacandrapradākrāntā rāvaṇacchedakāriṇī 137 


रत्नवस्त्रपरिच्छन्ना रथस्था रुक्मभूषणा ।
लज्जाधिदेवता लोला ललिता लिङ्गधारिणी ॥ १३८ ॥

ratnavastraparicchannā rathasthā rukmabhūṣaṇā
lajjādhidevatā lolā lalitā liṅgadhāriṇī 138 


लक्ष्मीर्लोला लुप्तविषा लोकिनी लोकविश्रुता ।
लज्जा लम्बोदरी देवी ललना लोकधारिणी ॥ १३९ ॥

lakṣmīrlolā luptaviṣā lokinī lokaviśrutā
lajjā lambodarī devī lalanā lokadhāriṇī 139 


वरदा वन्दिता विद्या वैष्णवी विमलाकृतिः ।
वाराही विरजा वर्षा वरलक्ष्मीर्विलासिनी ॥ १४० ॥

varadā vanditā vidyā vaiṣṇavī vimalākṛtiḥ
vārāhī virajā varṣā varalakṣmīrvilāsinī 140 


विनता व्योममध्यस्था वारिजासनसंस्थिता ।
वारुणी वेणुसम्भूता वीतिहोत्रा विरूपिणी ॥ १४१ ॥

vinatā vyomamadhyasthā vārijāsanasaṁsthitā
vāruṇī veṇusambhūtā vītihotrā virūpiṇī 141 


वायुमण्डलमध्यस्था विष्णुरूपा विधिप्रिया ।
विष्णुपत्नी विष्णुमती विशालाक्षी वसुन्धरा ॥ १४२ ॥

vāyumaṇḍalamadhyasthā viṣṇurūpā vidhipriyā
viṣṇupatnī viṣṇumatī viśālākṣī vasundharā 142 


वामदेवप्रिया वेला वज्रिणी वसुदोहिनी ।
वेदाक्षरपरीताङ्गी वाजपेयफलप्रदा ॥ १४३ ॥

vāmadevapriyā velā vajriṇī vasudohinī
vedākṣaraparītāṅgī vājapeyaphalapradā 143 


वासवी वामजननी वैकुण्ठनिलया वरा ।
व्यासप्रिया वर्मधरा वाल्मीकिपरिसेविता ॥ १४४ ॥

vāsavī vāmajananī vaikuṇṭhanilayā varā
vyāsapriyā varmadharā vālmīkiparisevitā 144 


शाकम्भरी शिवा शान्ता शरदा शरणागतिः ।
शातोदरी शुभाचारा शुम्भासुरविमर्दिनी ॥ १४५ ॥

śākambharī śivā śāntā śaradā śaraṇāgatiḥ
śātodarī śubhācārā śumbhāsuravimardinī 145 


शोभावती शिवाकारा शंकरार्धशरीरिणी ।
शोणा शुभाशया शुभ्रा शिरःसन्धानकारिणी ॥ १४६ ॥

śobhāvatī śivākārā śaṁkarārdhaśarīriṇī
śoṇā śubhāśayā śubhrā śiraḥsandhānakāriṇī 146 


शरावती शरानन्दा शरज्ज्योत्स्ना शुभानना ।
शरभा शूलिनी शुद्धा शबरी शुकवाहना ॥ १४७ ॥

śarāvatī śarānandā śarajjyotsnā śubhānanā
śarabhā śūlinī śuddhā śabarī śukavāhanā 147 


श्रीमती श्रीधरानन्दा श्रवणानन्ददायिनी ।
शर्वाणी शर्वरीवन्द्या षड्भाषा षडृतुप्रिया ॥ १४८ ॥

śrīmatī śrīdharānandā śravaṇānandadāyinī
śarvāṇī śarvarīvandyā ṣaḍbhāṣā ṣaḍṛtupriyā 148 


षडाधारस्थिता देवी षण्मुखप्रियकारिणी ।
षडङ्गरूपसुमतिसुरासुरनमस्कृता ॥ १४९ ॥

ṣaḍādhārasthitā devī ṣaṇmukhapriyakāriṇī
ṣaḍaṅgarūpasumatisurāsuranamaskṛtā 149 


सरस्वती सदाधारा सर्वमङ्गलकारिणी ।
सामगानप्रिया सूक्ष्मा सावित्री सामसम्भवा ॥ १५० ॥

sarasvatī sadādhārā sarvamaṅgalakāriṇī
sāmagānapriyā sūkṣmā sāvitrī sāmasambhavā 150 


सर्वावासा सदानन्दा सुस्तनी सागराम्बरा ।
सर्वैश्वर्यप्रिया सिद्धिः साधुबन्धुपराक्रमा ॥ १५१ ॥

sarvāvāsā sadānandā sustanī sāgarāmbarā |
sarvaiśvaryapriyā siddhiḥ sādhubandhuparākramā || 151 ||


सप्तर्षिमण्डलगता सोममण्डलवासिनी ।
सर्वज्ञा सान्द्रकरुणा समानाधिकवर्जिता ॥ १५२ ॥

saptarṣimaṇḍalagatā somamaṇḍalavāsinī |
sarvajñā sāndrakaruṇā samānādhikavarjitā || 152 ||


सर्वोत्तुङ्गा सङ्गहीना सद्गुणा सकलेष्टदा ।
सरधा सूर्यतनया सुकेशी सोमसंहतिः ॥ १५३ ॥

sarvottuṅgā saṅgahīnā sadguṇā sakaleṣṭadā |
saradhā sūryatanayā sukeśī somasaṁhatiḥ || 153 ||


हिरण्यवर्णा हरिणी ह्रींकारी हंसवाहिनी ।
क्षौमवस्त्रपरीताङ्गी क्षीराब्धितनया क्षमा ॥ १५४ ॥

hiraṇyavarṇā hariṇī hrīṁkārī haṁsavāhinī |
kṣaumavastraparītāṅgī kṣīrābdhitanayā kṣamā || 154 ||


गायत्री चैव सावित्री पार्वती च सरस्वती ।
वेदगर्भा वरारोहा श्रीगायत्री पराम्बिका ॥ १५५ ॥

gāyatrī caiva sāvitrī pārvatī ca sarasvatī |
vedagarbhā varārohā śrīgāyatrī parāmbikā || 155 ||


इति साहस्रकं नाम्नां गायत्र्याश्चैव नारद ।
पुण्यदं सर्वपापघ्नं महासम्पत्तिदायकम् ॥ १५६ ॥

iti sāhasrakaṁ nāmnāṁ gāyatryāścaiva nārada |
puṇyadaṁ sarvapāpaghnaṁ mahāsampattidāyakam || 156 ||


एवं नामानि गायत्र्यास्तोषोत्पत्तिकराणि हि ।
अष्टम्यां च विशेषेण पठितव्यं द्विजैः सह ॥ १५७ ॥

evaṁ nāmāni gāyatryāstoṣotpattikarāṇi hi |
aṣṭamyāṁ ca viśeṣeṇa paṭhitavyaṁ dvijaiḥ saha || 157 ||


जपं कृत्वाहोम पूजाध्यानं कृत्वा विशेषतः ।
यस्मै कस्मै न दातव्यं गायत्र्यास्तु विशेषतः ॥ १५८ ॥

japaṁ kṛtvāhoma pūjādhyānaṁ kṛtvā viśeṣataḥ |
yasmai kasmai na dātavyaṁ gāyatryāstu viśeṣataḥ || 158 ||


सुभक्ताय सुशिष्याय वक्तव्यं भूसु राय वै ।
भ्रष्टेभ्यः साधकेभ्यश्च बान्धवेभ्यो न दर्शयेत् ॥ १५९ ॥

subhaktāya suśiṣyāya vaktavyaṁ bhūsu rāya vai |
bhraṣṭebhyaḥ sādhakebhyaśca bāndhavebhyo na darśayet || 159 ||


यद्गृहे लिखितं शास्त्रं भयं तस्य न कस्यचित् ।
चञ्चलापिस्थिरा भूत्वा कमला तत्र तिष्ठति ॥ १६० ॥

yadgṛhe likhitaṁ śāstraṁ bhayaṁ tasya na kasyacit |
cañcalāpisthirā bhūtvā kamalā tatra tiṣṭhati || 160 ||


इदं रहस्यं परमं गुह्याद्गुह्यतरं महत् ।
पुण्यप्रदं मनुष्याणां दरिद्राणां निधिप्रदम् ॥ १६१ ॥

idaṁ rahasyaṁ paramaṁ guhyādguhyataraṁ mahat |
puṇyapradaṁ manuṣyāṇāṁ daridrāṇāṁ nidhipradam || 161 ||


मोक्षप्रदं मुमुक्षूणां कामिनां सर्वकामदम् ।
रोगाद्वै मुच्यते रोगी बद्धो मुच्येत बन्धनात् ॥ १६२ ॥

mokṣapradaṁ mumukṣūṇāṁ kāmināṁ sarvakāmadam |
rogādvai mucyate rogī baddho mucyeta bandhanāt || 162 ||


ब्रह्महत्या सुरापानं सुवर्णस्तेयिनो नराः ।
गुरुतल्पगतो वापि पातकातन्मुच्यते सकृत् ॥ १६३ ॥

brahmahatyā surāpānaṁ suvarṇasteyino narāḥ |
gurutalpagato vāpi pātakātanmucyate sakṛt || 163 ||


असत्प्रतिग्रहाच्चैवाऽभक्ष्यभक्षाद्विशेषतः ।
पाखण्डानृत्यमुख्यभ्यः पाठनादेव मुच्यते ॥ १६४ ॥

asatpratigrahāccaivā'bhakṣyabhakṣādviśeṣataḥ |
pākhaṇḍānṛtyamukhyabhyaḥ pāṭhanādeva mucyate || 164 ||


इदं रहस्यममलं मयोक्तं पद्मजोद्भव ।
ब्रह्मसायुज्यदं नॄनां सत्यं सन्त्य न संशय ॥ १६५ ॥

idaṁ rahasyamamalaṁ mayoktaṁ padmajodbhava |
brahmasāyujyadaṁ nṝnāṁ satyaṁ santya na saṁśaya || 165 ||



॥ इति श्रीदेवीभागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धो
गायत्रीसहस्रनाम स्तोत्रकथनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥

|| iti śrīdevībhāgavate mahāpurāṇe dvādaśaskandho
gāyatrīsahasranāma stotrakathanaṁ nāma ṣaṣṭho'dhyāyaḥ ||



Saturday, November 28, 2015

वेद

वेद
वेद शब्द संस्कृत भाषा के "विद्" धातु से बना है जिसका अर्थहै: जानना, ज्ञान इत्यादि। वेद हिन्दू धर्म के प्राचीन
पवित्र ग्रंथों का नाम है । वेदों को श्रुति भी कहा जाताहै, क्योकि माना जाता है कि इसके मन्त्रों को परमेश्वर
Sanatan Dharma (ब्रह्म) ने प्राचीन ऋषियों को अप्रत्यक्ष रूप से सुनाया थाजब वे गहरी तपस्या में लीन थे । वेद प्राचीन भारत के वैदिककाल की वाचिक परम्परा की अनुपम कृति है जो पीढी दरपीढी पिछले चार-पाँच हजार वर्षों से चली आ रही है । वेदही हिन्दू धर्म के सर्वोच्च और सर्वोपरि धर्मग्रन्थ हैं ।वेदों का महत्व : भारतीय संस्कृति के मूल वेद हैं। ये हमारे सबसेपुराने धर्म-ग्रन्थ हैं और हिन्दू धर्म का मुख्य आधार हैं। न केवलधार्मिक किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से भी वेदों काअसाधारण महत्त्व है। वैदिक युग के आर्यों की संस्कृति औरसभ्यता जानने का एकमात्र साधन यही है। मानव-जातिऔर विशेषतः आर्य जाति ने अपने शैशव में धर्म और समाज काकिस प्रकार विकास किया इसका ज्ञान वेदों से हीमिलता है। विश्व के वाङ्मय में इनसे प्राचीनतम कोई पुस्तकनहीं है।

आर्य-भाषाओं का मूलस्वरूप निर्धारित करने मेंवैदिक भाषा बहुत अधिक सहायक सिद्ध हुई है। वर्तमानकाल में वेद चार माने जाते हैं - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथाअथर्ववेद।द्वापरयुग की समाप्ति के पूर्व वेदों के उक्त चार विभागअलग-अलग नहीं थे। उस समय तो ऋक्, यजुः और साम - इनतीन शब्द-शैलियों की संग्रहात्मक एक विशिष्ट अध्ययनीयशब्द-राशि ही वेद कहलाती थी। विश्व में शब्द-प्रयोगकी तीन शैलियाँ होती है; जो पद्य (कविता), गद्य औरगानरुप से प्रसिद्ध हैं। पद्य में अक्षर-संख्या तथा पाद एवंविराम का निश्चित नियम होता है। अतः निश्चितअक्षर-संख्या तथा पाद एवं विराम वाले वेद-मन्त्रों कीसंज्ञा ‘ऋक्’ है। जिन मन्त्रों में छन्द के नियमानुसार अक्षर-संख्या तथा पाद एवं विराम ऋषिदृष्ट नहीं है, वे गद्यात्मकमन्त्र ‘यजुः’ कहलाते हैं। और जितने मन्त्र गानात्मक हैं, वेमन्त्र ‘साम’ कहलाते हैं। इन तीन प्रकार की शब्द-प्रकाशन-शैलियों के आधार पर ही शास्त्र एवं लोक में वेद के लिये‘त्रयी’ शब्द का भी व्यवहार किया जाता है। वेद के पठन-पाठन के क्रम में गुरुमुख से श्रवण एवं याद करने का वेद के संरक्षणएवं सफलता की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व है। इसी कारण वेदको ‘श्रुति’ भी कहते हैं। वेद परिश्रमपूर्वक अभ्यास द्वारासंरक्षणीय है, इस कारण इसका नाम ‘आम्नाय’ भी है।द्वापरयुग की समाप्ति के समय वेदपुरुष भगवान् नारायण केअवतार श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास जी ने यज्ञानुष्ठान केउपयोग को दृष्टिगत उस एक वेद के चार विभाग कर दिये और
इन चारों विभागों की शिक्षा चार शिष्यों को दी। येही चार विभाग ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के नाम
से प्रसिद्ध है। पैल, वैशम्पायन, जैमिनि और सुमन्तु नामक - इनचार शिष्यों ने शाकल आदि अपने भिन्न-भिन्न शिष्योंको पढ़ाया। इन शिष्यों के द्वारा अपने-अपने अधीत वेदोंके प्रचार व संरक्षण के कारण वे शाखाएँ उन्हीं के नाम सेप्रसिद्ध हो रही है। शाखा के नाम से सम्बन्धित व्यक्तिका उस वेदशाखा की रचना से सम्बन्ध नहीं है, अपितु प्रचारएवं संरक्षण के कारण सम्बन्ध है।वेदों का प्रधान लक्ष्य आध्यात्मिक ज्ञान देना ही है।अतः वेद में कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड - इन दोनों विषयोंका सर्वांगीण निरुपण किया गया है। वेदों काप्रारम्भिक भाग कर्मकाण्ड है और वह ज्ञानकाण्ड वालेभाग से अधिक है। जिन अधिकारी वैदिक विद्वानों कोयज्ञ कराने का यजमान द्वारा अधिकार प्राप्त होता है,उनको ‘ऋत्विक’ कहते हैं। श्रौतयज्ञ में इन ऋत्विकों के चारगण हैं। होतृगण, अध्वर्युगण, उद्गातृगण तथा ब्रह्मगण। उपर्युक्तचारों गणों के लिये उपयोगी मन्त्रों के संग्रह के अनुसार वेदचार हुए हैं। वेद के असल मन्त्र भाग को संहिता कहते हैं।
ऋग्वेद- इसमें होतृवर्ग के लिये उपयोगी मन्त्रों कासंकलन है। इसमें ‘ऋक्’ संज्ञक (पद्यबद्ध) मन्त्रों कीअधिकता के कारण इसका नाम ऋग्वेद हुआ। इसमेंहोतृवर्ग के उपयोगी गद्यात्मक (यजुः) स्वरुप के भीकुछ मन्त्र हैं। (इसमें देवताओं का आह्वान करने के लियेमन्त्र हैं. यही सर्वप्रथम वेद है. यह वेद मुख्यतः ऋषिमुनियों के लिये होता है।
यजुर्वेद- इसमें यज्ञानुष्ठान सम्बन्धी अध्वर्युवर्ग केउपयोगी मन्त्रों का संकलन है। इसमें ‘गद्यात्मक’मन्त्रों की अधिकता के कारण इसका नाम ‘यजुर्वेद’है। इसमें कुछ पद्यबद्ध, मन्त्र भी हैं, जो अध्वर्युवर्ग केउपयोगी हैं। यजुर्वेद के दो विभाग हैं- (क)शुक्लयजुर्वेद और (ख) कृष्णयजुर्वेद। इसमें यज्ञ की असलप्रक्रिया के लिये गद्य मन्त्र हैं. यह वेद मुख्यतःक्षत्रियो के लिये होता है।सामवेद- इसमें यज्ञानुष्ठान के उद्गातृवर्ग केउपयोगी मन्त्रों का संकलन है। इसमें गायन पद्धति केनिश्चित मन्त्र होने के कारण इसका नाम सामवेदहै। इसमें यज्ञ में गाने के लिये संगीतमय मन्त्र हैं)(यहवेद मुख्यतः गन्धर्व लोगो के लिये होता है।अथर्ववेद- इसमें यज्ञानुष्ठान के ब्रह्मवर्ग के उपयोगी
मन्त्रों का संकलन है। अथर्व का अर्थ है कमियों कोहटाकर ठीक करना या कमी-रहित बनाना। अतःइसमें यज्ञ-सम्बन्धी एवं व्यक्ति सम्बन्धी सुधार याकमी-पूर्ति करने वाले मन्त्र भी है। इसमें पद्यात्मकमन्त्रों के साथ कुछ गद्यात्मक मन्त्र भी उपलब्ध है।इस वेद का नामकरण अन्य वेदों की भाँति शब्द-शैली के आधार पर नहीं है, अपितु इसके प्रतिपाद्यविषय के अनुसार है। इस वैदिक शब्दराशि काप्रचार एवं प्रयोग मुख्यतः अथर्व नाम के महर्षिद्वारा किया गया। इसलिये भी इसका नामअथर्ववेद है। इसमें जादू, चमत्कार, आरोग्य, यज्ञ केलिये मन्त्र हैं. यह वेद मुख्यतः व्यापारियो के लियेहोता है।वेद की संहिताओं में मंत्राक्षरॊं में खड़ी तथा आड़ी रेखायेंलगाकर उनके उच्च, मध्यम, या मन्द संगीतमय स्वर उच्चारण करनेके संकेत किये गये हैं। इनको उदात्त, अनुदात्त ऒर स्वारित केनाम से अभिगित किया गया हैं। ये स्वर बहुत प्राचीन समयसे प्रचलित हैं और महामुनि पतंजलि ने अपने महाभाष्य में इनकेमुख्य मुख्य नियमों का समावेश किया है ।हर वेद के चार भाग होते हैं । पहले भाग (संहिता) के अलावाहरेक में टीका अथवा भाष्य के तीन स्तर होते हैं । कुलमिलाकर ये हैं : संहिता (मन्त्र भाग), ब्राह्मण-ग्रन्थ (गद्यमें कर्मकाण्ड की विवेचना), आरण्यक (कर्मकाण्ड के पीछे केउद्देश्य की विवेचना), उपनिषद (परमेश्वर, परमात्मा-ब्रह्मऔर आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक औरज्ञानपूर्वक वर्णन). ये चार भाग सम्मिलित रूप से श्रुति कहेजाते हैं जो हिन्दू धर्म के सर्वोच्च ग्रन्थ हैं । 
बाकी ग्रन्थस्मृति के अन्तर्गत आते हैं ।आधुनिक विचारधारा के अनुसार चारों वेदों की शब्द-राशि के विस्तार में तीन दृष्टियाँ पायी जाती है:याज्ञिक दृष्टिः इसके अनुसार वेदोक्त यज्ञों काअनुष्ठान ही वेद के शब्दों का मुख्य उपयोग मानागया है। सृष्टि के आरम्भ से ही यज्ञ करने मेंसाधारणतया मन्त्रोच्चारण की शैली, मन्त्राक्षर
एवं कर्म-विधि में विविधता रही है। इसविविधता के कारण ही वेदों की शाखाओं काविस्तार हुआ है। यथा-ऋग्वेद की २१ शाखा,यजुर्वेद की १०१ शाखा, सामवेद की १००० शाखाऔर अथर्ववेद की ९ शाखा- इस प्रकार कुल १,१३१
शाखाएँ हैं। इस संख्या का उल्लेख महर्षि पतञ्जलि नेअपने महाभाष्य में भी किया है। उपर्युक्त १,१३१शाखाओं में से वर्तमान में केवल १२ शाखाएँ ही मूलग्रन्थों में उपलब्ध हैः ऋग्वेद की २१ शाखाओं में सेकेवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं- ( शाकल-शाखा और शांखायन शाखा ), यजुर्वेद मेंकृष्णयजुर्वेद की ८६ शाखाओं में से केवल ४ शाखाओं केग्रन्थ ही प्राप्त है- ( तैत्तिरीय-शाखा,मैत्रायणीय शाखा, कठ-शाखा और कपिष्ठल-शाखा), शुक्लयजुर्वेद की १५ शाखाओं में से केवल २शाखाओं के ग्रन्थ ही प्राप्त है- ( माध्यन्दिनीय-शाखा और काण्व-शाखा ), सामवेद की १,०००शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्तहै- ( कौथुम-शाखा और जैमिनीय-शाखा ),अथर्ववेद की ९ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के हीग्रन्थ प्राप्त हैं- ( शौनक-शाखा और पैप्पलाद-शाखा). उपर्युक्त १२ शाखाओं में से केवल ६ शाखाओंकी अध्ययन-शैली प्राप्त है- शाकल, तैत्तरीय,माध्यन्दिनी, काण्व, कौथुम तथा शौनक शाखा।यह कहना भी अनुपयुक्त नहीं होगा कि अन्यशाखाओं के कुछ और भी ग्रन्थ उपलब्ध हैं, किन्तु उनसेशाखा का पूरा परिचय नहीं मिल सकता एवं बहुत-सी शाखाओं के तो नाम भी उपलब्ध नहीं हैं।
प्रायोगिक दृष्टिः इसके अनुसार प्रत्येक शाखा केदो भाग बताये गये हैं। मन्त्र भाग - यज्ञ मेंसाक्षात्-रुप से प्रयोग आती है तथा ब्राह्मणभाग- जिसमें विधि (आज्ञाबोधक शब्द), कथा,आख्यायिका एवं स्तुति द्वारा यज्ञ कराने की
प्रवृत्ति उत्पन्न कराना, यज्ञानुष्ठान करने कीपद्धति बताना, उसकी उपपत्ति और विवेचन केसाथ उसके रहस्य का निरुपण करना है।साहित्यिक दृष्टि: इसके अनुसार प्रत्येक शाखाकी वैदिक शब्द-राशि का वर्गीकरण- संहिता,
ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् इन चार भागों में है।वेदों के सर्वांगीण अनुशीलन के लिये शिक्षा, कल्प,व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष - इन ६ अंगों के ग्रन्थ हैं।प्रतिपदसूत्र, अनुपद, छन्दोभाषा (प्रातिशाख्य),धर्मशास्त्र, न्याय तथा वैशेषिक- ये ६ उपांग ग्रन्थ भीउपलब्ध है। आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा स्थापत्यवेद- येक्रमशः चारों वेदों के उपवेद कात्यायन ने बतलाये हैं।

Thursday, November 26, 2015

Kabir's Poetry in Hindi, Kabir Dohas

 
Chalti Chakki Dekh Kar, Diya Kabira Roye
Dui Paatan Ke Beech Mein,Sabit Bacha Na Koye



Translation
Looking at the grinding stones, Kabir laments
In the duel of wheels, nothing stays intact.


 
  

 

Bura Jo Dekhan Main Chala, Bura Naa Milya Koye
 

Jo Munn Khoja Apnaa, To Mujhse Bura Naa Koye

 Translation
I searched for the crooked, met not a single one
When searched myself, "I" found the crooked one


 Kaal Kare So Aaj Kar, Aaj Kare So Ub
Pal Mein Pralaya Hoyegi, Bahuri Karoge Kub

Translation
Tomorrows work do today, today's work now
If the moment is lost, the work be done how

 Aisee Vani Boliye, Mun Ka Aapa Khoye
Apna Tan Sheetal Kare, Auran Ko Sukh Hoye
 
Translation
Speak such words, sans ego's ploy
Body remains composed, giving the listener joy


 Dheere Dheere Re Mana, Dheere Sub Kucch Hoye
Mali Seenche So Ghara, Ritu Aaye Phal Hoye

Translation
Slowly slowly O mind, everything in own pace happens
Gardener may water with a hundred pots, fruit arrives only in its season

 
 Sayeen Itna Deejiye, Ja Mein Kutumb Samaye
Main Bhi Bhookha Na Rahun, Sadhu Na Bhookha Jaye

 Translation
Give so much O God, suffice to envelop my clan
I should not suffer cravings, nor the visitor goes unfed.

 
 Bada Hua To Kya Hua, Jaise Ped Khajoor
Panthi Ko Chhaya Nahin, Phal Laage Atidoor 

Translation
In vain is the eminence, just like a date tree
No shade for travelers, fruit is hard to reach
 
 Jaise Til Mein Tel Hai, Jyon Chakmak Mein Aag
Tera Sayeen Tujh Mein Hai, Tu Jaag Sake To Jaag 

Translation
Like sesame contains the oil,  fire in flint-stone
Your temple seats the Divine, realize if you can.

 Mangan Maran Saman Hai, Mat Koi Mange Beekh
Mangan Se Marna Bhala, Yeh Satguru Ki Seekh
 
 Translation
Begging is like perishing, none should go imploring
It is better to die than beg, this is pure Guru's teaching.

 
 Maya Mari Na Man Mara, Mar Mar Gaye Shareer
Asha Trishna Na Mari, Keh Gaye Das Kabir

Translation
Neither illusion nor the mind, only bodies attained death
Hope and delusion did not die, so Kabir said.

 
 Kabira Khara Bazaar Mein, Mange Sabki Khair
Na Kahu Se Dosti, Na Kahu Se Bair
Translation

Kabira in the market place, wishes welfare of all
Neither friendship nor enmity with anyone at all

Kabir Man Nirmal Bhaya, Jaise Ganga Neer
Pache Pache Har Phire, Kahat Kabir Kabir

Translation
Kabir's mind got cleansed like the holy Ganges water
Now everyone follows, saying Kabir Kabir



Pothi Padh Padh Kar Jag Mua, Pandit Bhayo Na Koye
Dhai Aakhar Prem Ke, Jo Padhe so Pandit Hoye

Translation
Reading books everyone died, none became any wise
One who reads the word of Love, only becomes wise



 Dukh Mein Simran Sab Kare, Sukh Mein Kare Na Koye
Jo Sukh Mein Simran Kare, Tau Dukh Kahe Ko Hoye


 In anguish everyone prays to Him,
in joy does none
To One who prays in happiness,
how can sorrow come


Gur Dhobi Sikh Kapda, Saboo Sirjan Har
Surti Sila Pur Dhoiye, Nikse Jyoti Apaar


Translation
Guru the washer man, disciple is the cloth
The name of God liken to the soap
Wash the mind on foundation firm
To realize the glow of Truth


Jeevat Samjhe Jeevat Bujhe, Jeevat He Karo Aas
Jeevat Karam Ki Fansi Na Kaati, Mue Mukti Ki Aas 


Translation
Alive one sees, alive one knows
Thus crave for salvation when full of life
Alive you did not cut the noose of binding actions
Hoping liberation with death!


Akath Kahani Prem Ki, Kutch Kahi Na Jaye
Goonge Keri Sarkara, Baithe Muskae


Translation
Inexpressible is the story of Love
It cannot be revealed by words
Like the dumb eating sweet-meat
Only smiles, the sweetness he cannot tell


Chinta Aisee Dakini, Kat Kaleja Khaye
Vaid Bichara Kya Kare, Kahan Tak Dawa Lagaye


Translation
Worry is the bandit that eats into one's heart
What the doctor can do, what remedy to impart?


Kabira Garv Na Keejiye, Uncha Dekh Aavaas
Kaal Paron Bhuin Letna, Ooper Jamsi Ghaas


Translation
Says Kabir
Don't be so proud and vain
Looking at your high mansion
Death makes one lie on bare land
And grass will grow thereon



Kabira Garv Na Keejiye, Kaal Gahe Kar Kes
Na Jaane Kit Mare Hai, Kya Des Kya Pardesh


Translation
Says Kabir
Don't be so proud and vain
The clutches of Time are dark
Who knows where shall it kill
Whether at home or abroad


Kabira Kiya Kutch Na Hote Hai, Ankiya Sab Hoye
Jo Kiya Kutch Hote Hai, Karta Aur Koye


Translation
Says Kabir
By my doing nothing happens
What I don't does come to pass
If anything happens as if my doing
Then truly it is done by someone else



Jyon Naino Mein Putli, Tyon Maalik Ghat Mahin
Moorakh Log Na Janhin, Baahar Dhudhan Jahin


Translation
Like the pupil in the eyes
The Lord resides inside
Ignorant do not know this fact
They search Him outside

Jab Tun Aaya Jagat Mein, Log Hanse Tu Roye
Aise Karni Na Kari, Pache Hanse Sab Koye


Translation
When you were born in this world
Everyone laughed while you cried
Did not conduct yourself in manner such
That they laugh when you are gone

Pehle Agan Birha Ki, Pachhe Prem Ki Pyas
Kahe Kabir Tab Janiye, Naam Milan Ki Aas


Translation
First the pangs of separation
Then grows the thirst for Love
Says Kabir then only hope
For the union to materialize


Aag Jo Lagi Samand Mein, Dhuan Na Pargat Hoye
So Jane Jo Jarmua, Jaki Lagi Hoye


Translation
With the ocean set ablaze
The smoke remains invisible
Only the one who gets burnt
Feels the heat of loving thought


Kabir So Dhan Sanchiye, Jo Aage Ko Hoye
Sees Charaye Potli, Le Jaat Na Dekhya Koye


Translation
Kabir, save the wealth that 'remains' in the moment ultimate
Departing with a crown of material wealth, none has crossed the gate


Aasa Jive Jag Marey, Log Marey Mar Jayee
Soyee Sube Dhan Sanchate, So Ubrey Jey Khayee


Translation
Hope lives in a dying world, people die and die again
Perish yet hoarding wealth, spend and freedom attain


Ek Kahun To Hai Nahin, Do Kahun To Gaari
Hai Jaisa Taisa Rahe, Kahe Kabir Bichari 


Translation
If I say one, It is not
If I say two, it will be a violation
Let 'It' be what 'It' is
says Kabir upon contemplation


Kabir Yeh Ghar Prem Ka, Khala Ka Ghar Nahin
Sees Utaare Hath Kar, So Pasey Ghar Mahin


Translation
Kabir, this is the abode of love
Not the house of an aunt
Only that one can enter here
Who has relinquished all pride



Maala To Kar Mein Phire, Jeebh Phire Mukh Mahin
Manua To Chahun Dish Phire, Yeh To Simran Nahin


Translation
The rosary rotating by the hand (or) the tongue twisting in the mouth,
With the mind wandering everywhere, this isn't meditation (Oh uncouth!).



Maala Pherat Jug Bhaya, Mita Na Man Ka Pher
Kar Ka Manka Chhor De, Man Ka Manka Pher


Translation
Eons have passed whirling rosary, restless remains the mind 
Give up the beads of rosary and rotate the beads of mind


Kabir Maala Kaath Kee, Kahi Samjhave Tohi
Man Na Firave Aapna, Kaha Firave Mohi


Translation
Kabir, the rosary made of wooden beads explicitly proceeds to educate
(If) you set not your mind in (a focused) motion, (then) to what end you rotate


Jab Mein Tha Tab Hari Nahin, Jab Hari Hai Mein Nahin
Sab Andhiyara Mit Gaya, Jab Deepak Dekhya Mahin


Translation
When "I" was then Hari was not, Now Hari "is" and "I" am not
All the darkness (illusions) mitigated, When I saw the light (illumination) within.

 
Moond Munddavat Din Gaye, Ajhun Na Miliya Raam
Raam Naam Kahu Kya Karey, Je Man Ke Aurey Kaam


Translation
Ages have passed shaving the head,
yet union with Ram is not here
Recitation of Ram Naam is futile,
when mind is engaged elsewhere


Keson Kaha Bigadia, Je Moonde Sau Baar
Man Ko Kahe Na Moondiye, Jaamein Vishey Vikaar


Translation
What harm have the hair done, you shave them hundred times 
Why not shave the mind, that's filled with poisonous thoughts 

Kabir Soota Kya Kare, Koore Kaaj Niwaar
Jis Panthu Tu Chaalna, Soyee Panth Samwaar



Translation
Arise from slumber O Kabir, divest yourself of the rubbish deeds
Be focused and illumine the path on which you were meant to tread


Kabira Teri Jhompri Gal Katiyan Ke Paas
Jo Karenge So Bharenge Tu Kyon Bhayo Udaas


Translation
O Kabir! Your Hut Is Next to the Butchers' Bay
Why Do You Feel Down? For Their Conduct They Only Shall Pay  

Kabir Soyee Soorma, Man Soon Maande Jhoojh
Panch Pyada Paari Le, Door Kare Sab Dooj


Translation
O Kabir, He alone the Warrior, who takes on the "mind" head-on
Crushing the shield of the sensual five, all duality is gone
 
 Guru Kumhar Sikh Kumbh Hai, Gadh Gadh Kadhe Khot
Antar Hath Sahar De, Bahar Bahe Chot




Guru is the Potter, disciple is the (unbaked) pot
Gives Shape and cures the flaws with care
Protecting (always) with palm from inside
While pounding the pot from outside

 Shune Padiya Na Chootiyo Suni Re Jeev Aboojh
Kabir Mari Maidan Mein Kari Indriyan Sun Jhoojh



Liberation comes not in seclusion listen O ignorant jiva
Enter the arena, says Kabir and combat with the senses


Guru Gobind Toh Ek Hain, Dooja Yahu Akar
Aapa Mate Jeevat Mare, Toh Pave Kartar

Both Guru and Gobind (God) are One
The second is this form (body)
Annihilating Ego “I” dies (one Awakens)
Then realizes God

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