Wednesday, September 9, 2015

चैतन्य महाप्रभु

श्री राधा रूप का अवतरण..चैतन्य महाप्रभु.

चैतन्य महाप्रभु विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। न्यायशास्त्र में इनको प्रकांड पाण्डित्य प्राप्त था। कहते हैं कि इन्होंने न्यायशास्त्र पर एक अपूर्व ग्रंथ लिखा था, जिसे देख कर इनके एक मित्र को बड़ी ईर्ष्या हुई क्योंकि उन्हें भय था कि इनके ग्रंथ के प्रकाश में आने पर उनके द्वारा प्रणीत ग्रंथ का आदर कम हो जाएगा। इस पर श्री चैतन्य ने अपने ग्रंथ को गंगा जी में बहा दिया। चौबीस वर्ष की अवस्था में चैतन्य महाप्रभु ने गृहस्थाश्रम का त्याग करके सन्न्यास लिया। इनके गुरु का नाम केशव भारती था। इनके जीवन में अनेक अलौकिक घटनाएं हुईं, जिनसे इनके विशिष्ट शक्ति-सम्पन्न भगवद्विभूति होने का परिचय मिलता है। इन्होंने एक बार अद्वैत प्रभु को अपने विश्वरूप का दर्शन कराया था। नित्यानंद प्रभु ने इनके नारायण रूप और श्रीकृष्ण रूप का दर्शन किया था। इनकी माता शची देवी ने नित्यानंद प्रभु और इनको बलराम और श्रीकृष्ण रूप में देखा था। चैतन्य-चरितामृत के अनुसार इन्होंने कई कोढिय़ों और असाध्य रोगों से पीड़ित रोगियों को रोग मुक्त किया था। चैतन्य महाप्रभु के जीवन के अंतिम छ: वर्ष तो राधा-भाव में ही बीते। उन दिनों इनके अंदर महाभाव के सारे लक्षण प्रकट हुए थे। जिस समय यह कृष्ण प्रेम में उन्मत्त होकर नृत्य करने लगते थे, लोग देखते ही रह जाते थे। इनकी विलक्षण प्रतिभा और श्रीकृष्ण भक्ति का लोगों पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वासुदेव सार्वभौम और प्रकाशानंद सरस्वती जैसे वेदांती भी इनके क्षण मात्र के सत्संग से श्रीकृष्ण प्रेमी बन गए। इनके प्रभाव से विरोधी भी इनके भक्त बन गए और जगाई, मधाई जैसे दुराचारी भी संत हो गए। इनका प्रधान उद्देश्य भगवन्नाम का प्रचार करना और संसार में भगवद् भक्ति और शांति की स्थापना करना था। इनके भक्ति-सिद्धांत में द्वैत और अद्वैत का बड़ा ही सुंदर समन्वय हुआ है। इन्होंने कलिमल ग्रसित जीवों के उद्धार के लिए भगवन्नाम-संकीर्तन को ही प्रमुख उपाय माना है। इनके उपदेशों का सार है-
मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन का अधिक से अधिक समय भगवान के सुमधुर नामों के संकीर्तन में लगाए। यही अंत:करण की शुद्धि का सर्वोत्तम उपाय है।
कीर्तन करते समय वह प्रेम में इतना मग्र हो जाए कि उसके नेत्रों से प्रेमाश्रुओं की धारा बहने लगे, उसकी वाणी गद्गद् हो जाए और शरीर पुलकित हो जाए।
भगवन नाम के उच्चारण में देश-काल का कोई बंधन नहीं है। भगवान ने अपनी सारी शक्ति और अपना सारा माधुर्य अपने नामों में भर दिया है। यद्यपि भगवान के सभी नाम मधुर और कल्याणकारी हैं किंतु
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।

कहते हैं, कि इनके हरिनाम उच्चारण से उन्मत्त हो कर जंगल के जानवर भी इनके साथ नाचने लगते थे। बड़े बड़े जंगली जानवर जैसे शेर, बाघ और हाथी आदि भी इनके आगे नतमस्तक हो प्रेमभाव से नृत्य करते चलते थे।

इसे शिक्षाष्टक कहते हैं। किंतु गौरांग के विचारों को श्रीकृष्णदास ने ‘चैतन्य-चरितामृत में संकलित किया है। बाद में भी समय समय पर रूप जीव और सनातन गोस्वामियों ने अपने-अपने ग्रन्थों में चैतन्य-चरित-प्रकाश किया है। इनके विचारों का सार यह है कि:-

श्रीकृष्ण ही एकमात्र देव हैं। वे मूर्तिमान सौन्दर्य हैं, प्रेमपरक है। उनकी तीन शक्तियाँ- परम ब्रह्म शक्ति, माया शक्ति और विलास शक्ति हैं। विलास शक्तियाँ दो प्रकार की हैं- एक है प्राभव विलास-जिसके माध्यम से श्रीकृष्ण एक से अनेक होकर गोपियों से क्रीड़ा करते हैं। दूसरी है वैभव-विलास- जिसके द्वारा श्रीकृष्ण चतुर्व्यूह का रूप धारण करते है। चैतन्य मत के व्यूह-सिद्धान्त का आधार प्रेम और लीला है। गोलोक में श्रीकृष्ण की लीला शाश्वत है। प्रेम उनकी मूल शक्ति है और वही आनन्द का कारण है। यही प्रेम भक्त के चित्त में स्थित होकर महाभाव बन जाता है। यह महाभाव ही राधा है। राधा ही कृष्ण के सर्वोच्च प्रेम का आलम्बन हैं। वही उनके प्रेम की आदर्श प्रतिमा है। गोपी-कृष्ण-लीला प्रेम का प्रतिफल है।

: वैष्णव लोग तो इन्हें श्रीकृष्ण का राधा रानी के संयोग का अवतार मानते हैं।
गौरांग के ऊपर बहुत से ग्रंथ लिखे गए हैं, जिनमें से प्रमुख है श्री कृष्णदास कविराज गोस्वामी विरचित चैतन्य चरितामृत। इसके अलावा श्री वृंदावन दास ठाकुर रचित चैतन्य भागवत[5] तथा लोचनदास ठाकुर का चैतन्य मंगल भी हैं।.....

यही अनन्त ,सर्व व्यापक प्रभु के आत्यंतिक आकर्षण , अथवा भक्ति है जिसको राधा तत्व कहते है । राधा किसी स्त्री का नाम नहीं ये प्रेम तत्व का अलंकारिक चित्रण है । जिसको पाने का अधिकार केवल आत्म बोध के पश्चात ही सम्भव होता है उस से पहले केवल एक उपहास और मनोरंजन मात्र ही रहता है । और इनकी प्रेम कथा सुनने के भी केवल व्ही अधिकारी है जिन्हें आत्मज्ञान प्राप्त हो गया है । अन्य रूप से इनका वर्णन करना भक्त और भक्ति की निंदा है।

 Meenu Ahuja

निष्काम भाव

निष्काम भाव।
यह निष्कामता स्वतःसिद्ध है । कामना बनायी हुई है । अब यह विचार करें । धनकी कामना है, मान-सम्मानकी कामना है । पहले ये थीं नहीं । बाल्यावस्थामें कंकड़-पत्थरसे खेलते थे । उस समय बहुत कम ज्ञान था । कोई विशेष कामना भी नहीं थी, परंतु अब ये कामनाएँ बढ़ती ही जा रही हैं । कभी किसी वस्तुकी कामना करते हैं, कभी किसी वस्तुकी । कभी द्रव्यकी कामना होती है तो कभी मान-सम्मानकी । अतः मानना पड़ेगा कि कामनाएँ पैदा होती हैं और फिर मिट भी जाती हैं, निरन्तर रहती नहीं । लोग कहते हैं कि ‘कामना मिटती नहीं’ परंतु मैं तो कहूँगा कि ‘यह भगवान्‌की परम कृपा है कि कामना चाहे शरीरकी हो या धनकी हो, वह टिकती नहीं ।’ बाल्यावस्थामें कामना खेलकी थी, वह मिट गयी । पीछे दूसरी अनेक हुईं, वे भी मिट गयीं ! यही बात ममताकी है । वह भी जोड़ी जाती है और छोड़ी जा सकती है । किसीके साथ ममता जोड़नेपर जुड़ जाती है और तोड़नेपर टूट जाती है । बहिनोंका जन्म एक परिवारमें होता है; परस्परमें कितना ममत्व होता है, किंतु विवाह होनेपर पतिके परिवारवालोंसे सम्बन्ध जुड़ जाता है, तब पुराने परिवारवालोंसे उतनी ममता नहीं रहती । सहोदर भाईके गोद चले जानेपर उसके साथ वह ममता नहीं रहती जो उसके साथ पहले थी । अधिक क्या, अपने शरीरकी ओर देखें । बाल्यावस्थामें जब हम बच्चे थे तो हमारी माता गोदमें रखती, दूध पिलाती । उसकी कितनी अधिक ममता थी ?अब हम जवान हैं, तब वैसी ही ममता आज भी माँकी है क्या ? और जब हम वृद्ध हो जायँगे तब और भी कम नहीं हो जायगी क्या ?इससे सिद्ध है कि ममता जिन सांसारिक वस्तुओंसे करेंगे, वे रहेंगी नहीं । पर ममता करनेपर जो लोभ, पाप आदि होंगे, वे अवश्य रह जायँगे । व्यापारमें जिस तरह चीजें आती हैं और बिक जाती हैं, पर केवल हानि-लाभ हमारे पास रहता है, वैसे ही ममता करनेसे केवल पाप-ताप ही हाथ लगता है । मुनाफामें शोक-चिन्ता रहेगी । जवान लड़का मर जाता है, वह लड़का न पहले था, न अब है, फिर चिन्ता क्यों करते हैं ? चिन्ता, शोक आदि जो करते हैं बस यही ममताका मुनाफा है ।.....श्रद्धेय श्री स्वामी राम सुख दास जी महाराज.........".एकै साधे सब सधे"...नामक पुस्तक से

होम

प्रश्न '' होम से क्या उपकार होता है ?

उत्तर '' सब लोग जानते हैं की दुर्गंधयुक्त वायु और जल से रोग , रोग से प्राणियों को दुःख , और सुगन्धित वायु तथा जल आरोग्य , और रोग के नष्ट होने से सुख प्राप्त होता है |

प्रश्न ,, चन्दनादि घिसकर किसी को लगावें , व घृतादि किसी को खाने को देवें तो बड़ा उपकार हो ? अग्नि में डाल के व्यर्थ नष्ट करना , बुद्धिमानो का काम नहीं ?

उत्तर,, जो तुम पदार्थ विद्या जानते , तो कभी ऐसी बातें ना कहते | क्योंकि किसी दृव्य का आभाव नहीं होता | देखो ! जँहा होम होता है ,वँहा से दूर देश में स्थित पुरुष के नसिका से सुगन्ध ग्रहण होता है, वैसे दुर्गन्ध का भी !इतने ही से समझ लो की अग्नि में डाला हुआ पदार्थ सूक्ष्म होके फ़ैल के , वायु के साथ दूर देश में जाकर, दुर्गन्ध की निवृति करता है |

प्रश्न ,, जब ऐसा ही है तो केशर ,कस्तूरी, सुगन्धित पुष्प और इत्र आदि के घर में रखने से सुगन्धित वायु होकर सुखकारक होगा ??

उत्तर ,, उस सुगन्ध का वह सामर्थ्य नहीं है की गृहस्थ वायु को निकाल कर ,शुध्द वायु को प्रवेश करा सके , क्योंकि भेदक -शक्ति नहीं है| और अग्नि का ही सामर्थ्य है की वायु और दुर्गन्धयुक्त पदार्थों को छिन्न भिन्न और हल्का करके , बाहर निकाल कर , पवित्र वायु को प्रवेश करा देता है !

प्रश्न '' तो मन्त्र पढ़ के होम करने का क्या प्रयोजन है ?

उत्तर '' मन्त्रों में वह व्याख्यान है की जिससे होम करने के लाभ विदित हो जावें और मन्त्रों की आवृति होने से कंठस्थ्य रहें ! वेद पुस्तकों के पठन पाठन और रक्षा भी होवे ! मन्त्र उच्चारण में सूक्ष्म दिव्य शक्ति निहित होती है जो वायुभूत होकर आकाश में फैलती है तथा वायु प्रदूषण,और वैचारिक प्रदूषण को दूर करती है।

प्रश्न '' क्या इस होम करने के बिना पाप भी होता है ?

उत्तर'' हाँ क्योंकी मनुष्य शरीर से जितना दुर्गंध उत्तपन्न हो के वायु और जल का बिगाड़ कर , रोगोत्प्तत्ति का निमित्त होने से ,प्राणियों को दुःख प्राप्त कराता है,उतना ही पाप उस मनुष्य को होता है ! इसलिए उस पापकर्म के निवारणार्थ , उतना सुगन्ध व उससे अधिक , वायु व् जल में फैलाना चाहिए !और खिलाने व् पिलाने से उसी एक व्यक्ति विशेष को सुख होता है | जितना घृत और सुगन्धादि पदार्थ एक मनुष्य खाता है, उतने दृव्य के होम से लाखों मनुष्यों का उपकार होता है ! परन्तु मनुष्यादि लोग घृतादि उत्तम पदार्थ ना खावें तो उनके शरीर और आत्मा के बल की उन्नति ना हो सके ! इससे अच्छे पदार्थ खाना खिलाना भी चाहिए , परन्तू उसे होम अधिक करना उचित है , इसलिए होम करना अधिक उचित है ,। पृथ्वी पर गौ माता का अवतरण भी यजिय भावनाओं को विस्तृत करने हेतु हुआ है। गौ घृत के यज्ञ से बहुत अधिक मात्र में आक्सीजन बनती है। इसलिए होम करना अत्यावश्यक है |
इति सत्यार्थ प्रकाश तृतीय समुल्लास वर्णनः आसीत्
# इदन्नमम्

दिति और अदिति के मार्ग


😶 "दिति और अदिति के मार्ग ! " 🌞
🔥🔥ओ३म् दिते: पुत्राणामदितेरकारिषमव देवानां बृहतामनर्वणाम् । 🔥🔥
🍃🍂 तेषां हि धाम गभिषक् समुद्रियं नैनान् नमसा परो अस्ति कश्चन ।। 🍂🍃

अथर्व० ७ । ७ । १

ऋषि:- अथर्वा ।। देवता- अदिति: ।। छन्द:- आर्षीजगती ।।

शब्दार्थ-
दिति के पुत्रों (दैत्यों) को मैनें अदिति का कर लिया है, उन्हें मैनें उन महान् अपराश्रित, देवों के अधीन कर लिया है। उन देवों का तेज बड़ा गम्भीर है, क्यूंकि वह नित्य शक्ति के समुद्र से उत्पत्र हुआ है, नम्रता की शक्ति से युक्त इन देवों से परे, बढ़कर और कोई नहीं है।

विनय:-
दिति और अदिति दोनों मुझमें हैं। खण्डित होने वाली विकृति (माया) दिति है और खण्डित न होने वाली प्रकृति (मूलशक्ति) अदिति है। दैत्यों और आदित्यों (देवों) की ये दोनों माताएँ अपने पुत्रों द्वारा मेरे ह्रदय में संघर्ष किया करती हैं। दिति मेरे ह्रदय में स्वार्थ, ईर्ष्या, द्वेष, भय, काम, लोभ आदि असनातन विकारी भावों को जनित करती है और अदिति से परोपकार, करुणा, प्रेम, निर्भयता, वैराग्य, निष्कामता आदि सनातन भावों के पुत्र पैदा हो रहे हैं, पर मेरे इस ह्रदय के संघर्ष में मैं इन दिति के पुत्रों को, इन दैत्य भावों को, अदिति के बना देता हूँ। उन महान् सनातन देवों द्वारा इन दैत्यों को दबा देता हूँ, नीचा कर देता हूँ। वे देव बृहित् हैं और अपराश्रित हैं; ये दैत्य (आसुरभाव) तो इन देवों के ही आश्रित हैं। संसार में ये देवभाव न हों, तो ये आसुरी भाव चल ही न सकें। संसार में सत्य के आश्रय से ही झूठ चल रहा है। सत्य शुद्ध सनातन और अविनाशी, नित्य होता है।अतएव मैं उन सत्य-सनातन दैवी भावों द्वारा इन आसुरी विचारों को सदा दबा देता हूँ। यह क्यों न हो जबकि उन देवों का तेज अति गम्भीर है। वे दैवभाव अपना तेज उस अखण्ड-प्रकृति (परमात्मा) के अक्षय समुद्र द्वारा ग्रहण करते हैं। अतएव मेरे क्षुद्र दुर्भाव इन दैवभावों के धाम (तेज) का पार नहीं पा सकते। इन दुर्भावों में अपनी कुछ शक्ति नहीं होती, इनका अपना कोई आधार नहीं होता; अतः कुछ समय तक उछल-कूद करके अपनी उत्तेजना और अशांति सहित स्वयमेव विनष्ट हो जाते हैं। दैवभावों की अगाध नम्रता ही इन्हें हरा देती है। दैवभावों में यह राजसिक उछल-कूद व अशांति नहीं होती, उनकी सात्त्विक नमस्( नम्रता) में ही सबको नमा देने की अक्षय शक्ति होती है। देवों की इस नम्रता की अगाध शक्ति को हरा सकने वाली और कोई शक्ति संसार में नहीं है, अतः सचमुच इस नम्र, गम्भीर, अचलप्रतिष्ठ दैवभावों की ही सदा विजय होती है। एवं, मेरी इस ह्रदय भूमि में देव-दैत्यों के संग्राम में दिति से उत्पत्र होने वाले पुत्र अदिति (नित्यशक्ति) की अखण्डित शक्ति के अधीन हो जाते हैं, उनके दैवी तेज के सामने ये दब जाते हैं, वहीं विलीन हो जाते हैं।
यही सुर और असुर रुपी महाभारत का संग्राम हर व्यक्ति के ह्रदय में हलचल उथल ,पुथल मचाये है । जो व्यक्तीं पुरुषार्थ द्वारा सत्य की राह पर चलकर इन दोष रुपी असुरों से युद्ध करके इन्हें पराजित करता है उसकी अवश्य ही पांडवों की विजय के समान विजय होती है । तथा सदा के लिए इस महाघोर दुःखरूप संसार से रक्षा होती है।जो असत्य की अथवा आसुरी शक्ति को काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, अभिमान आदि में रत रहता है वो कौरव पक्ष के समान नष्ट भ्रष्ट हो जाता है।
सत्यमेव जयते


🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂
ओ३म् का झंडा 🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩ऊँचा रहे वैदिक विनय से

प्राणायाम.,Pranayam

 
अष्टांग योग का चतुर्थ अंग है प्राणायाम.
'प्राण योग' की विवेचना एवं 'प्राण शक्ति' को बढ़ाने के लिए सबसे सुगम प्राणाकर्षण (प्राणायाम) क्रिया~

(A) प्राण योग :
1. 'प्राण' को जीवनी शक्ति भी कहते हैं। प्राण की प्रमुखता होने के कारण ही प्राणी शब्द बना है । जिस प्राणी में प्राण की जितनी अधिक मात्रा है- वह उतना ही श्रेष्ठ, पराक्रमी, उन्नत एवं महान होता है।

2. जिसमें प्राण की मात्रा जितनी कम है- वह उतना ही निर्बल, निकम्मा, आलसी एवं निम्न स्तर का होगा । प्राणवान की प्रमुख पहचान उसकी 'तेजस्विता' है। गायत्री मन्त्र में इसका संकेत 'भर्ग' शब्द से मिलता है । भर्ग 'तेज' को कहते हैं।

3. प्राण की वृद्धि के लिए 'प्राणायाम' की साधना सर्वश्रेष्ठ है। सात्विक और नियमित आहार, व्यवस्थित दिनचर्या, निश्चिंत मन, प्रसन्न चित्त एवं ब्रह्मचर्य-सभी प्राण शक्ति को बढ़ाते हैं ।

4. प्राण शक्ति को बढ़ाने का अर्थ है- उस दिव्य तत्व को अपने अन्दर भरना जिसके द्वारा मनुष्य की शक्तियाँ अनेक दिशाओं में विकसित होती हैं । इसके द्वारा आयु को भी बढ़ाया जा सकता है। प्राणवान व्यक्तियों की संतान भी सुन्दर, स्वस्थ, तेजवान, कर्मशील एवं दीर्घ-जीवी होती है।

(B) प्राण शक्ति को बढ़ाने के लिए सबसे सुगम प्राणाकर्षण क्रिया~

1. इसका अभ्यास करने के लिए एकान्त स्थान में समतल भूमि पर नरम बिछौना बिछा कर पीठ के बल, मुँह ऊपर रखते हुये, इस प्रकार लेट जाएँ जिससे पैर, कमर, छाती, सिर सब एक सीध में रहें।

2. दोनों हाथ सूर्य चक्र पर रहें (आमाशय का वह स्थान जहाँ पसलियाँ और पेट मिलता है) और मुँह बन्द रखें। शरीर बिल्कुल ढीला छोड़ दें। कुछ देर शिथिलता की भावना करने पर शरीर बिल्कुल ढीला पड़ जाएगा।

3. अब धीरे-धीरे 'नाक द्वारा' साँस खींचना आरम्भ करें और दृढ इच्छा के साथ भावना करें कि 'विश्वव्यापी महान प्राण-भण्डार' में से मैं स्वच्छ प्राण साँस के साथ खींच रहा हूँ और वह प्राण मेरे रक्त प्रवाह तथा समस्त नाडी तन्तुओं में प्रवाहित होता हुआ 'सूर्य चक्र' में एकत्रित हो रहा है।

4. इस भावना को कल्पना लोक में इतनी दृढ़ता के साथ उतारें कि 'प्राण शक्ति' की बिजली जैसी किरणें नासिका द्वारा देह में घुसती हुई चित्रवत दीखने लगें और अपना रक्त का दौरा एवं नाडी समूह तस्वीर की तरह दिखें तथा उसमें प्राण प्रवाह बहता हुआ नजर आवे। भावना की जितनी अधिकता होगी उतनी ही अधिक मात्रा में तुम प्राण खींच सकोगे।

5. फेफड़ों को वायु से अच्छी तरह भर लो और 5-10 सेकेण्ड तक उसे भीतर रोके रहो। साँस रोके रहने के समय अपने अन्दर प्रचुर मात्रा में प्राण भरा हुआ अनुभव करना चाहिए। अब वायु को 'मुँह द्वारा' धीरे-धीरे बाहर निकालो। निकालते समय ऐसा अनुभव करो कि शरीर के सारे दोष, रोग, विष इसके द्वारा निकाल बाहर किये जा रहे हैं। 5-10 सेकेण्ड तक बिना हवा के रहो और फिर उसी प्रकार प्राणाकर्षण प्राणायाम करना आरम्भ कर दो।

6. ध्यान रहे इस प्राणायाम का मूल तत्व साँस खींचने- छोड़ने में नहीं वरन् आकर्षण की उस भावना में है जिसके अनुसार अपने शरीर में प्राण का प्रवेश होता हुआ चित्रवत दिखाई देने लगता है।

7. श्वास द्वारा खींचा हुआ प्राण सूर्य चक्र में जमा होता जा रहा है इसकी विशेष रूप से भावना करो। यदि मुँह द्वारा साँस छोड़ते समय आकर्षित प्राण को छोड़ने की भी कल्पना करने लगे तो वह सारी क्रिया व्यर्थ हो जाएेगी और कोई भी लाभ नहीं मिलेगा।

8. ठीक तरह से प्राणाकर्षण करने पर सूर्य चक्र जागृत होने लगता है - छोटे सूर्य चक्र स्थान पर सूर्य के समान एक छोटा- सा प्रकाश बिन्दु मानस नेत्रों से दीखने लगता है। अभ्यास बढ़ने पर वह साफ, स्वच्छ, बड़ा और प्रकाशवान होता जाता है। जिनका अभ्यास बढ़ा-चढ़ा है- उन्हें आँखें बन्द करते ही अपना सूर्य चक्र साक्षात् सूर्य की तरह तेजपूर्ण दिखाई देने लगता है।

9. इसकी शक्ति से कठिन कार्यों में भी अद्भुत सफलता प्राप्त होती है। अभ्यास पूरा करके उठ बैठो-शान्तिपूर्वक बैठ जाओ, सात्विक जलपान करो, एकदम से किसी कठिन काम में जुट जाना, स्नान,भोजन या मैथुन करना निषिद्ध है।

. संतुलन के प्राणायाम: इस
प्राणायाम में नाड़ी शोधन
सर्वश्रेष्ठ प्राणायाम
माना जाता है। इसमें बाएं और दाएं
नासिक में बारी-बारी से एक के बाद
दूसरे से सांस लेने और छोड़ने
की प्रक्रिया होती है। इसमें इड़ा और
पिंगला दोनों प्रभावित होती हैं। शरीर
और मन दोनों के असंतुलन को इसके
अभ्यास से दूर किया जा सकता है।......श्री राम शर्मा आचार्य ..शांति कुञ्ज

Tuesday, September 8, 2015

योग..

.अर्थात समग्र विकास की उपलब्धि..

योग का अर्थ है-मिलना । जिस साधना द्वारा आत्मा का परमात्मा से मिलना हो सकता है,उसे योग कहा जाता है । जीव की सबसे बड़ी सफलता यह है कि वह ईश्वर को प्राप्त कर ले, छोटे से बड़ा बनने के लिए, अपूर्ण से पूर्ण होने के लिए, बन्ध से मुक्त होने के लिए, वह अतीतकाल से प्रयत्न करता आ रहा है, चौरासी लक्ष योनियों को पार करता हुआ इतना आगे बढ़ा आया है, वह यात्रा ईश्वर से मिलने के लिए है, बिछड़ा हुआ अपनी स्नेहमयी माता को ढूँढ़ रहा है, उसकी गोदी में बैठने के लिए छटपटा रहा है । उस स्वर्गीय मिलन की साधना योग है और उधर बढ़ने का सबसे साफ, सीधा, सरल जो रास्त है, उसी का नाम राजयोग है ।

महर्षि पातंजलि ने इस योग को आठ भागों में विभाजन किया है । योगदर्शन के पाद 2 का 29 वाँ सूत्र है-

यम नियमासन प्राणायाम प्रत्याहार
धारणा ध्यान समाधयोङष्टावंगानि॥
अर्थात-यम, नियम, आसन, प्राणायाम,प्रत्याहार धारणा और समाधि योग के यह आठ अंग हैं ।

योग-दर्शन के पाद 2 सूत्र 30 में यम के सम्बन्ध में बताया गया है-अहिंसा सत्यास्तेय ब्रह्मचय्यार्परिग्रहा यमाः । अर्थात अहिंसा,सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यह पाँच यम है । पाठकों को यम शब्द से भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए,मृत्यु के देवता को भी यम कहते हैं, यहाँ उस यम से कोई तात्पर्य नहीं है यहाँ तो उपरोक्त पाँच व्रतों की एक संज्ञा नियत करके उसका नाम यम रखा गया है । यम शब्द से यहाँ उपरोक्त पाँच व्रतों का ही भाव है । आगे क्रमशः प्रत्येक के बारे में कुछ विवेचना की जाती है ।

१. यम : पांच सामाजिक नैतिकता

(क) अहिंसा - शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को हानि नहीं पहुँचाना
(ख) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना
(ग) अस्तेय - चोर-प्रवृति का न होना
(घ) ब्रह्मचर्य - दो अर्थ हैं:
* चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना
* सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना
(च) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना
२. नियम: पाँच व्यक्तिगत नैतिकता

(क) शौच - शरीर और मन की शुद्धि
(ख) संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना
(ग) तप - स्वयं से अनुशासित रहना
(घ) स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना
(च) ईश्वर-प्रणिधान - ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा
३. आसन: योगासनों द्वारा शारीरिक नियंत्रण

४. प्राणायाम: श्वास-लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण

५. प्रत्याहार: इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना

६. धारणा: एकाग्रचित्त होना

७. ध्यान: निरंतर ध्यान

८. समाधि: आत्मा से जुड़ना, शब्दों से परे परम-चैतन्य की अवस्था

मनुष्य ईश्वर के समकक्ष तो नहीं हो सकता है परन्तु ईश्वर के गुणों को धारण कर सकता है

ईश्वर के गुणों को धारण कर मनुष्य विद्वान बनता है अतः हमें चाहिए की ईश्वर गुणों को धारण कर जीवन सफल बनाये

यजुर्वेद ॥७-७॥

आ या॑यो भूष शुचिपा॒ उप॑ नः स॒हस्रन्ते नि॒युतो॑ विश्ववार । उपो॑ ते॒ऽअन्धो॒ मद्य॑मयामि॒ यस्य॑ देव दधि॒षे पू॑र्व॒पेयँ॑ वा॒यवे॑ त्वा ॥

भावार्थ:- जो योगी प्राण के तुल्य सब को भूषित करता,

ईश्वर के तुल्य अच्छे-अच्छे गुणों में व्याप्त होता है

और अन्न वा जल के सदृश सुख देता है, वही योग में समर्थ होता है।।

औ३म

मनुष्यों को उचित है की विद्वजनों का उपदेश सुने, योगविद्या का ग्रहण करें और नित्य योगाभ्यास करते हुए अपने व्यवहार को अच्छा बनाये

यजुर्वेद ॥७-९॥

अ॒यँवाम्मित्रावरुणा सु॒तः सोम॑ऽऋतावृधा । ममेदि॒ह श्रु॒त हव॑म् । उ॑पया॒मगृ॑हीतोसि मि॒त्रावरु॑णाभ्यां त्वा ॥

मनुष्यों को उचित है कि इस योगविघया का ग्रहण, श्रेष्ठ पुरुषों का उपदेश सुन और यमनियमों को धारण करके योगाभ्यास के साथ अपना बर्ताव रक्खें।।
 Meenu Ahuja

 
ॐ..केवल 1 शब्द नहीं है। यह 3 शब्दों से बना है। अ+उ+म्। इन तीन शब्दों का अर्थ भी अलग-अलग है। अ का मतलब है उत्पन्न होना। उ से तात्पर्य विकास और म् का अर्थ उड़ना या उठना है। ॐ शब्द ब्रहमाण्ड की उत्पत्ति का एक कारक है। इस शब्द में कई बीमारियों को ठीक करने की अदभुद शक्ति है। यह कई रोगों को जड़ से खत्म कर देता है। वैदिक वाटिका आप को बताएगा ॐ के फायदे।

ॐ ध्वनी के फायदे

थायरायड में
ॐ शब्द का उच्चारण करने से गले में कंपन पैदा होता है। जो सीधे थायरायड ग्रंथी पर प्रभाव डालता है। इस वजह से थायरायड में फायदा मिलता है।

तनाव के लिए
ॐ ध्वनी सीधे दिमाग की नसों पर प्रभाव डालती है। जिस वजह से तनाव धीरे-धीरे कम होने लगता है। और लगातार ॐ ध्वनी का प्रयास करते रहने से तनाव पूरी तरह से दूर हो जाता है।

खून के प्रभाव में
ॐ ध्वनी से शरीर में खून का प्रवाह ठीक तरह से होता है। साथ ही यह हृदय संबंधी बीमारियों को दूर करने में सहायक है।

घबराहट में
जिन लोगों को घबराहट की समस्या है या श्वांस संबंधी रोग है वे ॐ का उच्चारण करें। लाभ जरूर मिलेगा।

फेफड़ों की समस्या में
ॐ के उच्चारण में इतनी शक्ति है कि वह फेफड़ों की समस्या को भी ठीक कर सकता है यह फेफड़ों को मजबूत बनाता है। कुछ प्राणायमों के साथ ॐ का उच्चारण करने से फायदा मिलता है।

ॐ और रीढ़ की हड्डी
ॐ शब्द के उच्चारण से जो ध्वनी तंरगे पैदा होती हैं। उससे शरीर में कंपन आता है और यह कंपन रीढ़ की हड्डी को प्रभावित करके इसकी क्षमता को बढ़ता है।

ॐ और थकान की समस्या
यदि काम से काफी थक गएं हो तो थोड़ी देर बैठकर ॐ का उच्चारण करें यह थकान को जल्दी ठीक कर देती है।

ॐ के नियमित उच्चारण से पाचन शक्ति तेज होती है और पेट की समस्याएं भी नहीं होती हैं।

नींद की समस्या में ॐ
जिन लोगों को नींद न आने की परेशानी होती हो वे रात को सोते समय नींद आने तक मन में ॐ उच्चारण करें।


ॐ बेहद शक्तिशाली शब्द है जिसका फायदा न केवल आपका ध्यान केंद्रित करता है बल्कि आपको कई गंभीर बीमारीयों से भी बचाता है। इसलिए ॐ शब्द का प्रयोग हमेशा करते रहें। वैदिक वाटिका आपकी अच्छी सेहत के लिए आप तक जानकारी पहुंचाता रहेगा।
 

सांख्य दर्शन by कपिल मुनि

भारत धर्म के मुख्य 6 धर्म स्तम्भ है षट् दर्शन...जिसमे एक है सांख्य दर्शन। जिसका प्रतिपादन कपिल मुनि ने किया था।
क्या है इस सांख्य दर्शन की भूमिका..
संख्य सृष्टि रचना की व्याख्या एवं प्रकृति और पुरूष की पृथक-पृथक व्याख्या करता है। सांख्य सर्वाधिक पौराणिक दर्शन माना जाता है। भारतीय समाज पर इसका इतना व्यापक प्रभाव हो चुका था कि महाभारत (श्रीमद्भगवद्गीता),विभिन्न पुराणों, उपनिषदों, चरक संहिता और मनु संहिता में सांख्य के विशिष्ट उल्लेख मिलते है। इसके पारंपरिक जन्मदाता कपिल मुनि थे। सांख्य दर्शन में छह अध्याय और ४५१ सूत्र है।
प्रकृति से लेकर स्थुल-भूत पर्यन्त सारे तत्वों की संख्या की गणना किये जाने से इसे सांख्य दर्शन
कहते है। सांख्य सांख्या द्योतक है। इस शास्त्र का नाम सांख्य दर्शन इसलिए पड़ा कि इसमें २५ तत्व या सत्य-सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। सांख्य दर्शन की मान्यता है कि संसार की हर वास्तविक वस्तु का उद्गम पुरूष और प्रकृति से हुआ है। पुरूष में स्वयं आत्मा का भाव है जबकि प्रकृति पदार्थ और सृजनात्मक शक्ति की जननी है। विश्व की आत्मायें संख्यातीत है जिसमें चेतना तो है पर गुणों का अभाव है। वही प्रकृति मात्र तीन गुणो के समन्वय से बनी है। इस त्रिगुण सिद्धान्त के अनुसार सत्व, राजस्व तथा तमस की उत्पत्ति होती है। प्रकृति की अविकसित अवस्था में यह गुण निष्क्रिय होते है पर परमात्मा के तेज सृष्टि के उदय की प्रक्रिया प्रारम्भ होते ही प्रकृति के तीन गुणो के बीच का समेकित संतुलन टूट जाता है। सांख्य के अनुसार २४ मूल तत्व होते है जिसमें प्रकृति और पुरूष पच्चीसवां है। प्रकृति का स्वभाव अन्तर्वर्ती और पुरूष का अर्थ व्यक्ति-आत्मा है। विश्व की आत्माएं संख्यातीत है। ये सभी आत्मायें समान है और विकास की तटस्थ दर्शिकाएं हैं। आत्माए¡ किसी न किसी रूप में प्रकृति से संबंधित हो जाती है और उनकी मुक्ति इसी में होती है कि प्रकृति से अपने विभेद का अनुभव करे। जब आत्माओं और गुणों के बीच की भिन्नता का गहरा ज्ञान हो जाये तो इनसे मुक्ति मिलती है और मोक्ष संभव होता है।
प्रकृति मूल रूप में सत्व,रजस्,रजस् तमस की साम्यावस्था को कहते है। तीनो आवेश परस्पर एक दूसरे को नि:शेष (neutralize) कर रहे होते हैं। जैसे त्रिकंटी की तीन टांगे एक दूसरे को नि:शेष कर रही होती है।
परमात्मा का तेज परमाणु (त्रित) की साम्यावस्था को भंग करता है और असाम्यावस्था आरंभ होती है।रचना-कार्य में यह प्रथम परिवर्तन है।
इस अवस्था को महत् कहते है। यह प्रकृति का प्रथम परिणाम है। मन और बुध्दि इसी महत् से बनते हैं। इसमें परमाणु की तीन शक्तिया बर्हिमुख होने से आस-पास के परमाणुओ को आकर्षित करने लगती है। अब परमाणु के समूह बनने लगते है। तीन प्रकार के समूह देखे जाते है। एक वे है जिनसे रजस् गुण शेष रह जाता है। यह तेजस अहंकार कहलाता है। इसे वर्तमान वैज्ञानिक भाषा में इलेक्टोन कहते है।
दूसरा परमाणु-समूह वह है जिसमें सत्व गुण प्रधान होता है वह वैकारिक अहंकार कहलाता है। इसे वर्तमान वैज्ञानिक प्रोटोन कहते है।
तीसरा परमाणु-समूह वह है जिसमें तमस् गुण प्रधान होता है इसे वर्तमान विज्ञान की भाषा में न्यूटोन कहते है। यह भूतादि अहंकार है।
इन अहंकारों को वैदिक भाषा में आप: कहा जाता है। ये(अहंकार) प्रकृति का दूसरा परिणाम है।
तदनन्तर इन अहंकारों से पाँच तन्मात्राएँ (रूप, रस) रस,गंध, स्पर्श और शब्द) पाँच महाभूत बनते है अर्थात् तीनों अहंकार जब एक समूह में आते है तो वे परिमण्डल कहाते है।
और भूतादि अहंकार एक स्थान पर (न्यूयादि संख्या में) एकत्रित हो जाते है तो भारी परमाणु-समूह बीच में हो जाते है और हल्के उनके चारो ओर घूमने लगते है। इसे वर्तमान विज्ञान `ऐटम´ कहता है। दार्शनिक भाषा में इन्हें परिमण्डल कहते हैं। परिमण्डलों के समूह पाँच प्रकार के हैं। इनको महाभूत कहते हैं।
१ पार्थिव
२ जलीय
३ वायवीय
४ आग्नेय
५ आकाशीय
संख्या का प्रथम सूत्र है।
अथ त्रिविधदुख: खात्यन्त: निवृत्तिरत्यन्त पुरूषार्थ:।। १ ।।
अर्थात् अब हम तीनों प्रकार के दु:खों-आधिभौतिक (शारीरिक), आधिदैविक एवं आध्यात्मिक से स्थायी एवं निर्मूल रूप से छुटकारा पाने के लिए सर्वोकृष्ट प्रयत्न का इस ग्रन्थ में वर्णन कर रहे हैं।
सांख्य का उद्देश्य तीनो प्रकार के दु:खों की निवृत्ति करना है। तीन दु:ख है।
आधिभैतिक- यह मनुष्य को होने वाली शारीरिक दु:ख है जैसे बीमारी, अपाहिज होना इत्यादि।
आधिदैविक- यह देवी प्रकोपों द्वारा होने वाले दु:ख है जैसे बाढ़, आंधी, तूफान, भूकंप इत्यादि के प्रकोप ।
आध्यात्मिक- यह दु:ख सीधे मनुष्य की आत्मा को होते हैं जैसे कि कोई मनुष्य शारीरिक व दैविक दु:खों के होने पर भी दुखी होता है। उदाहरणार्थ-कोई अपनी संतान अपना माता-पिता के बिछुड़ने पर दु:खी होता है अथवा कोई अपने समाज की अवस्था को देखकर दु:खी होता है।

Monday, September 7, 2015

Mahamritunjay Mantra- महाम़त्युंजय मंत्र

महामृत्युंजय मंत्र है बहुत फलदायी, लेकिन इसका जाप करते समय इन बातों का रखें ध्यान
शास्त्रों और पुराणों में असाध्य रोगों से मुक्ति और अकाल मृत्यु से बचने के लिए महामृत्युंजय जप करने का विशेष उल्लेख मिलता है। महामृत्युंजय भगवान शिव को खुश करने का मंत्र है। इसके प्रभाव से इंसान मौत के मुंह में जाते-जाते बच जाता है, मरणासन्न रोगी भी महाकाल शिव की अद्भुत कृपा से जीवन पा लेता है। बीमारी, दुर्घटना, अनिष्ट ग्रहों के प्रभावों से दूर करने, मौत को टालने और आयु बढ़ाने के लिए सवा लाख महामृत्युंजय मंत्र जप करने का विधान है। महामृत्युंजय मंत्र का जप करना परम फलदायी है, लेकिन इस मंत्र के जप में कुछ सावधानियां बरतना चाहिए जिससे कि इसका संपूर्ण लाभ आपको मिले और आपको कोई हानि न हो। अगर आप नही कर पा रहे इस मंत्र का जाप जो किसी पंडित से जाप कराए यह आपके लिए और अधिक लाभकारी होगा। जानिए महामृत्युंजय मंत्र का जाप करते वक्त किस बातों का ध्यान रखना चाहिए।
महारूद्र सदाशिव को प्रसन्न करने व अपनी सर्वकामना सिद्धि के लिए यहां पर पार्थिव पूजा का विधान है, जिसमें मिटटी के शिर्वाचन पुत्र प्राप्ति के लिए, श्याली चावल के शिर्वाचन व अखण्ड दीपदान की तपस्या होती है। शत्रुनाश व व्याधिनाश हेतु नमक के शिर्वाचन, रोग नाश हेतु गाय के गोबर के शिर्वाचन, दस विधि लक्ष्मी प्राप्ति हेतु मक्खन के शिर्वाचन अन्य कई प्रकार के शिवलिंग बनाकर उनमें प्राण-प्रतिष्ठा कर विधि-विधान द्वारा विशेष पुराणोक्त व वेदोक्त विधि से पूज्य होती रहती है
 ऊॅ हौं जूं सः। ऊॅ भूः भुवः स्वः ऊॅ त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उव्र्वारूकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।। ऊॅ स्वः भुवः भूः ऊॅ। ऊॅ सः जूं हौं।
इस मंत्र का जाप करते वक्त ये बातें रखें ध्यान जो आपके लिए बहुत हा जरुरी है इन बातों को ध्यान न रखनें से इसका प्रभाव उल्टा हो सकता है।
  • महाम़त्युंजय का जो भी मंत्र का जाप करें उसके उच्चारण ठीक ढंग से यानि की शुद्धता के सात करें। एक शब्द की गलती आपको भारी पड़ सकती है।
  • इस मंत्र का जाप एक निश्चित संख्या निर्धारण कर करे। अगले दिन इनकी संख्या बढा एगर चाहे तो लेकिन कम न करें।
  • मंत्र का जाप करते समट उच्चारण होठों से बाहर नहीं आना चाहिए। यदि इसका अभ्यास न हो तो धीमे स्वर में जप करें।
  • इस मंत्र को करते समय धूप-दीप जलते रहना चाहिए। इस बात का विशेष ध्यान रखें।
  • इस मंत्र का जाप केवल रुद्राक्ष माला से ही करे।
  • इस रुद्राक्ष माला को गौमुखी में ही रख कर करें पूरा मंत्र हो जानें के बाद ही गौमुखी से बाहर निकाले।
  • इस मंत्र का जप उसी जगह करे जहां पर भगवान शिव की मूर्ति, प्रतिमा या महामृत्युमंजय यंत्र रखा हो।

  • india TV

  • महामृत्युमंजय मंत्र का जाप करते वक्त शिवलिंग में दूध मिलें जल से अभिषक करते रहे।
  • कभी भी धरती में इस मंत्र या कोई भी पूजा बैठ कर न करें हमेशा कोई आसन या कुश का आसन बिछा कर करें।
  • महामृत्युंजय मंत्र का जाप हमेशा पूर्व दिशा की ओर मुख करके ही करें।
  • इस मंत्र का जाप एक निर्धारित जगह में ही करें। रोज अपनी जगह न बदलें।
  • मंत्र करते समय एकाग्र रखें । अपनें मन को भटकनें न दे।
  • जितने भी दिन का यह जाप हो । उस समय मांसाहार बिल्कुल भी न खाएं।
  • महामृत्युंजय के दिनों में किसी की बुराई या फिर झूठ नही बोलना चाहिए।
  • इस मंत्र का जाप करते समय आलस्य या उबासी को पास न आने दे।







Wednesday, September 2, 2015

Everyday Mantra

O' thou who reposes in peace rests on the great coiled serpent ,the sacred lotus springs from thy navel o' lord thou art the universe & heavens & the lord of the devas, who sustains the universe, who is boundless & infinite like sky, blue as cloud whos colour is & who has beautiful & auspicious body, who is the lover goddess lakshmi ,who has lotus like eyes & who is attainable by yogis by meditation Salutions to that Vishnu who removes the fear of worldy existense & whois the lord of all the devas thou are blessing, who brahmaa the creater & Rudra the destroyer & the gods of water rain & wind praise with songs divine whom the chanters of samaveda praise formly observing the rules of scriptures ,whom the yogis engrossed in meditation see clearly in the mind's eye who's limits are unknown to even gods & demons, bow to that lord vishnu

Chant every morning when wake up inthe good morning
 pls do the chanting the nine holy names of nine immortals

"ashwathama bali vyasa hanuman jammbvan kripaha parushurama vibhishana markandeya "

 Mantra for treatment by touch
 its very simple & very divine & holy first see ur hands & say the following mantra & then rub ur hands ur palms with each other then

 Ayam Me Hasto Bhagwan Ayam Me Bhagavattara
 Ayam Me Vishwa Bheshajo Ayam Shivaabhimarshanah

 Meaning: Both my hands are divine. They can bring prosperity. They can give a soothing effect. Moreover, they are more powerful than being simply divine. All medicines for the diseases of the world lie on my hands. Touch of hands is capable for well being and healing.

 & then chant the holy mantra for eyesight blessu chant the following holy mantra while rubbing the palms with each other gently

 Om mam netrajyoti jagra jagra omshanti

please gently very softly place ur soft palms (very softly & gently) very slightly on ur eyes  on closed eyelids omshanti softly

 & chant this five holy names after food
 Devi Sukanya Maharishi Chyavan( the holy Rishi couple) , Indra ( lord of heavens), Ashwini kumaras( the twin divine physicians) Devi Sukanya Maharishi Chyavan , Indra & Ashwini kumaras i remember these five holy names may i be blessed with good eyesight & good health always om om om omshanti omshanti

omshanti ur eyesight will be fine & great blessu blessu blessu om om om & eat seven almonds with sugar candy & milk everyday u will be blessed with beautifull & great eyesight blessu always good health & long life om om om

 Health Protection Mantra

 ॐ हंसं हंसः

 Om hansam hansaha

 A very divine Mantra for gaining good health,chant every morning 1 mala means 108 times with sincere devotion faithfully "


A Mantra useful in controlling mind emotions& becoming glorious & intelligent
Take some milk in a cup. While gazing at the milk, repeat the following mantra twenty-one times and thereafter drink the milk. This is an excellent aid to Brahmacharya. This Mantra is worth remembering by heart.

ॐ नमो भगवते महाबले पराक्रमाय मनोभिलाषितमं मनः स्तम्भ कुरु कुरु स्वाहा |
Om namo bhagwate mahabale parakramaay manobhilashitam manah stambh kuru kuru swaha |


Divine Mantras

a beeja mantra KHAM 
do this 50 mala or aleast one mala 108 times before a glass of water daily , if u can put a tulsi leaves in that water its is best and drink that water
this will cure all bp & heart & liver related problems hariomshanti

Dharmaraaja mantra for cuing all diseases 

ॐ क्रौं ह्रीं आं वैवस्वताय धर्मराजाय भक्तानुग्रहक्रते नमः ।
aum kraum hrim aam vaivasvataya dharmarajaya bhakta anugrahakrte namah

chant above mantra daily 108 times in the morning

Achyutaaye Govindaaye Anantaaye Naam Bheshjaam,
 Nashyanti Sarv Rogaani Satyam Satyam Vadamyaham."

 Meaning:We invoke the Lord by chanting His Names -

 1. Achyutaaye - The Lord Who never declines. 2. Govindaaye - The Lord by Whose Grace the senses operate in the body 3. Anantaaye - The Lord Who is Limitless and All Powerful take a breath inhale normaly & chant this holy mantra while holding the breath for atmost 1 min & after chanting exale the breath normaly By chanting the Lord's Names, ALL diseases of the body, mind, intellect are destroyed - of this, there is no doubt.

Mantra To Elleviate Sudden Trouble
Chanting this mantra 108 times everyday, elleviates one from miseries and sudden trouble.

ॐ रां रां रां रां रां रां रां रां मम् कष्टं स्वाहा


" Aum raan raan raan raan raan raan raan raan mam kashtam svaahaa "

we can replace मम् (mam) with name of person, whose problems have to be removed.
Note:- in above mantra raan is for 8 times


For Court-cases related problems

पवनतनय बल पवन समाना |
बुद्धि विवेक विज्ञान निधाना ||

pavantanaya bal pavan samaana |
buddhi vivek vigyaan nidhaana ||

Do one mala means 108 times chanting daily of above mantra to get true results of court-cases. Keep your court related files in North-East direction not locked in cupboard or lockers Almirah. in ur room or ur house , which u prefer as safer,Keep the file in lotus feet of your beloved Ishta or Sri Hanumanji's idol or image or photo 
& then do this Stuti
Kavan so kaaj katheena jag mahi
Jo nahi hoi tat tum Pahi

with atmost devotion

Mantra to attain Wealth 

ॐ नमः भाग्यलक्ष्मी च विद्महे |
अष्टलक्ष्मी च धीमहि | तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात | 


om namah bhagyalakshmi cha vidmahe|
ashtalakshmi cha dheemahi | tanno lakshmi prachodayaat | 



निरोगी व श्री सम्पन्न होने के लिये 

ॐ हुं विष्णवे नमः ।

tobecome prosperous & healthy do one mala of aboye holy mantra


Blow away the Impediments
‘tam’ (टं)
is a beej mantra, representing chandradeva, the presiding deity of the Moon. The japa of this mantra is just enough to do away with the sudden impediment inflicting your life.

Write ‘tam’(टं) on a piece of ‘Bhojpatra' and insert it into an amulet. Then put this amulet on your right hand. This will remove all sorts of obstacles out of your way.

Just wear an amulet having in it the mantra, ‘tam’(टं)written eleven times on a piece of paper.
keep this withu, This will also remove all sorts of obstacles out of your way.

This helps in cases of deficiency of calcium, poor lactation among women and also comes in handy in soothing a fretting child.

For Job,Marriage related problems

ॐ घं काली कालीकायै नमः |

Om gham kaalee kaaleekaayai namah | 

chant above mantra 1mala or 108 times

Mantra for Marriage only for females

जय जय गिरिवर राज किशोरी, जय महेश मुख चंद्र चकोरी

jai  jai  girivar  raaj  kishori ,  jai mahesh  mukh  chandra  chakori


Mantras for protection
for safe journey

Om Namo Bhagvate Vaasudevaaya

chant this holy mantra 108 times before going to journeys

Mantra of mother shakti for protection

Om Hreem Om

chant108 times means one mala daily

for all around  protection and safety
always chant the most holy mantra


Narsimha Maha Mantra for protection from all dangers & fears

" Om Ugrram Veeram Maha Vishnum Jvaalantam Sarvatho mukham
Narasimham bheeshanam bhadram mrityum mrityum namamyaaham "

when any danger or fear for lifecomes then,don't worry , chant this most powerfull mantra
all troubles dangers & fears will be gone forever



The Maha Mrityunjaya Mantra
Om Trayambakam Yajaamahe Sugandhim Pushtivardhnam
 Urvvarukamiva Bandhanaan Mrityormuksheeya Maamrataat O






श्री रुद्राष्टकम (Shiva Rudrastakam)

II RAM II
RUDRAASTAK
Uttarkaand – Doha 108
Namaamish mishaan nirvaan rupam |
Vibhum vyaapakam bhram vedasvarupam ||
Nijam nirgunam nirvikalpam niriham |
Chidaakaash maakash vaasam bhajeham ||
Niraakaar mokaar mulam turiyam |
Giraa gyaan gautit misham girisham ||
Karalam maahaakaal kaalam kripaalam |
Gunaagar sansaar paaram nathoham ||
Tushaaraadri sankash gauram gabhiram |
Manobhut koti prabha shri shariram ||
Sphuran mauli kal laulini chaaru gangaa |
Lasad bhaal baalendu kanthe bhujangaa ||
Chalat kundalam bhru sunetram vishaalam |
Prasan naananam neelkantham dayaalam ||
Mrigadish charmaambaram mundamaalam |
Priyam shankaram sarvanaatham bhajaami ||
Prachandam prakrushtam pragalbham paresham |
Akhandam ajam bhaanu koti prakaasham ||
Trayah shul nirmulanam shulapaanim |
Bhajeham bhavani patim bhaav gamyam ||
Kalaatit kalyaan kalpaanth kaari |
Sadaa sajjanaanand dathaa puraari ||
Chidaanand sandoh mohaapahaari |
Prasid prasid prabho man mathaari ||
Na yaavad umaanaath paadaar vindam |
Bhajanatih loke pare va naraanaam ||
Na taavat sukham shanti santaap naasham |
Prasidh prabho sarvabhutadhivaasam ||
Na janaami yogam japam naiv pujam |
Nathau ham sadaa sarvadaa shambhu tubhyam ||
Jaraa janma dukhogh tata pyamaanam |
Prabho pahi aapan namaamish shambho ||
Rudraastakam midam proktam vipren har toshaye |
Yeh pathanthi naraa bhaktyaa tesham shambhu prasidati || 108 ||
Sri Ram Charit Manas, Uttar Kand – Doha108

श्री रूद्र अष्टकम – Sri Rudra Ashtakam







Lyrics to Rudrashtakam (Shiva Stuti)
:
1-Namaa miisha mishaana-nirvaana rupamvibhum vyaapakam brahma-veda-svaroopamnijam nirgunam nirvikalpam nirihamchidaakaasha maakaasha-vaasam bhaje ham
I bow to the Ruler of the Universe, whose very form is Liberation,the omnipotent and all pervading Brahma, manifest as the Vedas.I worship Shiva, shining in his own glory, without physical qualities,Undifferentiated, desireless, all pervading sky of consciousnessand wearing the sky itself as His garment.
niraakaara monkaara-moolam turiiyamgiraa gnaana gotiita miisham giriishamkaraalam mahaa-kaala-kaalam krpaalamgunaagaara samsara paaram nato ham
I bow to the supreme Lord who is the formless source of “OM” 
The Self of All, transcending all conditions and states,Beyond speech, understanding and sense perception, Awe-full, but gracious, the ruler of Kailash,Devourer of Death, the immortal abode of all virtues.
tushaa raadri-sankaasha-gauram gabhirammanobhuta-koti prabha sri sariramsphuran mauli-kallolini-charu-gangalasad-bhaala-balendu kanthe bhujangaa
I worship Shankara, whose form is white as the Himalyan snow,Radiant with the beauty of countless Cupids,Whose head sparkles with the GangaWith crescent moon adorning his brow and snakes coiling his neck,
chalatkundalam bhru sunetram visalamprasannaa-nanam nila-kantham dayaalammrgadhisa charmaambaram mundamaalampriyam sankaram sarvanaatham bhajaami
The beloved Lord of All,with shimmering pendants hanging from his ears,Beautiful eyebrows and large eyes,Full of Mercy with a cheerful countenance and a blue speck on his throat.
pracandam prakrstam pragalbham pareshamakhandam ajam bhaanukoti-prakaasamtrayah-shula-nirmulanam shula-paanimbhaje ham bhavaani-patim bhaava-gamyam
I worship Shankara, Bhavani’s husband,
The fierce, exalted, luminous supreme Lord