Sunday, May 8, 2016

हमारे महान ऋषि अविष्कारक – भारत।


भारत की धरती को ऋषि, मुनि, सिद्ध और देवताओं की भूमि पुकारा जाता है। यह कई तरह के विलक्षण ज्ञान व चमत्कारों से अटी पड़ी है। सनातन धर्म वेद को मानता है। प्राचीन ऋषि-मुनियों ने घोर तप, कर्म, उपासना, संयम के जरिए वेद में छिपे इस गूढ़ ज्ञान व विज्ञान को ही जानकर हजारों साल पहले ही कुदरत से जुड़े कई रहस्य उजागर करने के साथ कई आविष्कार किए व युक्तियां बताईं। ऐसे विलक्षण ज्ञान के आगे आधुनिक विज्ञान भी नतमस्तक होता है।
कई ऋषि-मुनियों ने तो वेदों की मंत्र-शक्ति को कठोर योग व तपोबल से साधकर ऐसे अद्भुत कारनामों को अंजाम दिया कि बड़े-बड़े राजवंश व महाबली राजाओं को भी झुकना पड़ा।
अगले पृष्ठों पर जानिए ऐसे ही असाधारण या यूं कहें कि प्राचीन वैज्ञानिक ऋषि-मुनियों द्वारा किए आविष्कार व उनके द्वारा उजागर रहस्यों को जिनसे आप भी अब तक अनजान होंगे –

1. महर्षि दधीचि –

महातपोबलि और शिव भक्त ऋषि थे। वे संसार के लिए कल्याण व त्याग की भावना रख वृत्तासुर का नाश करने के लिए अपनी अस्थियों का दान करने की वजह से महर्षि दधीचि बड़े पूजनीय हुए। इस संबंध में पौराणिक कथा है कि
एक बार देवराज इंद्र की सभा में देवगुरु बृहस्पति आए। अहंकार से चूर इंद्र गुरु बृहस्पति के सम्मान में उठकर खड़े नहीं हुए। बृहस्पति ने इसे अपना अपमान समझा और देवताओं को छोड़कर चले गए। देवताओं ने विश्वरूप को अपना गुरु बनाकर काम चलाना पड़ा, किंतु विश्वरूप देवताओं से छिपाकर असुरों को भी यज्ञ-भाग दे देता था। इंद्र ने उस पर आवेशित होकर उसका सिर काट दिया। विश्वरूप त्वष्टा ऋषि का पुत्र था। उन्होंने क्रोधित होकर इंद्र को मारने के लिए महाबली वृत्रासुर को पैदा किया। वृत्रासुर के भय से इंद्र अपना सिंहासन छोड़कर देवताओं के साथ इधर-उधर भटकने लगे।
ब्रह्मादेव ने वृत्तासुर को मारने के लिए वज्र बनाने के लिए देवराज इंद्र को तपोबली महर्षि दधीचि के पास उनकी हड्डियां मांगने के लिये भेजा। उन्होंने महर्षि से प्रार्थना करते हुए तीनों लोकों की भलाई के लिए अपनी हड्डियां दान में मांगी। महर्षि दधीचि ने संसार के कल्याण के लिए अपना शरीर दान कर दिया। महर्षि दधीचि की हड्डियों से वज्र बना और वृत्रासुर मारा गया। इस तरह एक महान ऋषि के अतुलनीय त्याग से देवराज इंद्र बचे और तीनों लोक सुखी हो गए।

2. आचार्य कणाद –

कणाद परमाणुशास्त्र के जनक माने जाते हैं। आधुनिक दौर में अणु विज्ञानी जॉन डाल्टन के भी हजारों साल पहले आचार्य कणाद ने यह रहस्य उजागर किया कि द्रव्य के परमाणु होते हैं।

3. भास्कराचार्य –

आधुनिक युग में धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति (पदार्थों को अपनी ओर खींचने की शक्ति) की खोज का श्रेय न्यूटन को दिया जाता है। किंतु बहुत कम लोग जानते हैं कि गुरुत्वाकर्षण का रहस्य न्यूटन से भी कई सदियों पहले भास्कराचार्यजी ने उजागर किया। भास्कराचार्यजी ने अपने ‘सिद्धांतशिरोमणि’ ग्रंथ में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बारे में लिखा है कि ‘पृथ्वी आकाशीय पदार्थों को विशिष्ट शक्ति से अपनी ओर खींचती है। इस वजह से आसमानी पदार्थ पृथ्वी पर गिरता है’।

4. आचार्य चरक –

‘चरकसंहिता’ जैसा महत्तवपूर्ण आयुर्वेद ग्रंथ रचने वाले आचार्य चरक आयुर्वेद विशेषज्ञ व ‘त्वचा चिकित्सक’ भी बताए गए हैं। आचार्य चरक ने शरीरविज्ञान, गर्भविज्ञान, औषधि विज्ञान के बारे में गहन खोज की। आज के दौर की सबसे ज्यादा होने वाली डायबिटीज, हृदय रोग व क्षय रोग जैसी बीमारियों के निदान व उपचार की जानकारी बरसों पहले ही उजागर की।

5. भारद्वाज –

आधुनिक विज्ञान के मुताबिक राइट बंधुओं ने वायुयान का आविष्कार किया। वहीं हिंदू धर्म की मान्यताओं के मुताबिक कई सदियों पहले ऋषि भारद्वाज ने विमानशास्त्र के जरिए वायुयान को गायब करने के असाधारण विचार से लेकर, एक ग्रह से दूसरे ग्रह व एक दुनिया से दूसरी दुनिया में ले जाने के रहस्य उजागर किए। इस तरह ऋषि भारद्वाज को वायुयान का आविष्कारक भी माना जाता है।

6. कण्व

वैदिक कालीन ऋषियों में कण्व का नाम प्रमुख है। इनके आश्रम में ही राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला और उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था। माना जाता है कि उसके नाम पर देश का नाम भारत हुआ। सोमयज्ञ परंपरा भी कण्व की देन मानी जाती है।

7. कपिल मुनि –

भगवान विष्णु का पांचवां अवतार माने जाते हैं। इनके पिता कर्दम ऋषि थे। इनकी माता देवहूती ने विष्णु के समान पुत्र चाहा। इसलिए भगवान विष्णु खुद उनके गर्भ से पैदा हुए। कपिल मुनि ‘सांख्य दर्शन’ के प्रवर्तक माने जाते हैं। इससे जुड़ा प्रसंग है कि जब उनके पिता कर्दम संन्यासी बन जंगल में जाने लगे तो देवहूती ने खुद अकेले रह जाने की स्थिति पर दुःख जताया। इस पर ऋषि कर्दम देवहूती को इस बारे में पुत्र से ज्ञान मिलने की बात कही। वक्त आने पर कपिल मुनि ने जो ज्ञान माता को दिया, वही ‘सांख्य दर्शन’ कहलाता है।
इसी तरह पावन गंगा के स्वर्ग से धरती पर उतरने के पीछे भी कपिल मुनि का शाप भी संसार के लिए कल्याणकारी बना। इससे जुड़ा प्रसंग है कि भगवान राम के पूर्वज राजा सगर ने द्वारा किए गए यज्ञ का घोड़ा इंद्र ने चुराकर कपिल मुनि के आश्रम के करीब छोड़ दिया। तब घोड़े को खोजते हुआ वहां पहुंचे राजा सगर के साठ हजार पुत्रों ने कपिल मुनि पर चोरी का आरोप लगाया। इससे कुपित होकर मुनि ने राजा सगर के सभी पुत्रों को शाप देकर भस्म कर दिया। बाद के कालों में राजा सगर के वंशज भगीरथ ने घोर तपस्या कर स्वर्ग से गंगा को जमीन पर उतारा और पूर्वजों को शापमुक्त किया।

8. पतंजलि –

आधुनिक दौर में जानलेवा बीमारियों में एक कैंसर या कर्करोग का आज उपचार संभव है। किंतु कई सदियों पहले ही ऋषि पतंजलि ने कैंसर को रोकने वाला योगशास्त्र रचकर बताया कि योग से कैंसर का भी उपचार संभव है।

9. शौनक :

वैदिक आचार्य और ऋषि शौनक ने गुरु-शिष्य परंपरा व संस्कारों को इतना फैलाया कि उन्हें दस हजार शिष्यों वाले गुरुकुल का कुलपति होने का गौरव मिला। शिष्यों की यह तादाद कई आधुनिक विश्वविद्यालयों तुलना में भी कहीं ज्यादा थी।

10. महर्षि सुश्रुत –

ये शल्यचिकित्सा विज्ञान यानी सर्जरी के जनक व दुनिया के पहले शल्यचिकित्सक (सर्जन) माने जाते हैं। वे शल्यकर्म या आपरेशन में दक्ष थे। महर्षि सुश्रुत द्वारा लिखी गई ‘सुश्रुतसंहिता’ ग्रंथ में शल्य चिकित्सा के बारे में कई अहम ज्ञान विस्तार से बताया है। इनमें सुई, चाकू व चिमटे जैसे तकरीबन 125 से भी ज्यादा शल्यचिकित्सा में जरूरी औजारों के नाम और 300 तरह की शल्यक्रियाओं व उसके पहले की जाने वाली तैयारियों, जैसे उपकरण उबालना आदि के बारे में पूरी जानकारी बताई गई है।
जबकि आधुनिक विज्ञान ने शल्य क्रिया की खोज तकरीबन चार सदी पहले ही की है। माना जाता है कि महर्षि सुश्रुत मोतियाबिंद, पथरी, हड्डी टूटना जैसे पीड़ाओं के उपचार के लिए शल्यकर्म यानी आपरेशन करने में माहिर थे। यही नहीं वे त्वचा बदलने की शल्यचिकित्सा भी करते थे।

11. वशिष्ठ :

वशिष्ठ ऋषि राजा दशरथ के कुलगुरु थे। दशरथ के चारों पुत्रों राम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न ने इनसे ही शिक्षा पाई। देवप्राणी व मनचाहा वर देने वाली कामधेनु गाय वशिष्ठ ऋषि के पास ही थी।

12. विश्वामित्र :

ऋषि बनने से पहले विश्वामित्र क्षत्रिय थे। ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को पाने के लिए हुए युद्ध में मिली हार के बाद तपस्वी हो गए। विश्वामित्र ने भगवान शिव से अस्त्र विद्या पाई। इसी कड़ी में माना जाता है कि आज के युग में प्रचलित प्रक्षेपास्त्र या मिसाइल प्रणाली हजारों साल पहले विश्वामित्र ने ही खोजी थी।
ऋषि विश्वामित्र ही ब्रह्म गायत्री मंत्र के दृष्टा माने जाते हैं। विश्वामित्र का अप्सरा मेनका पर मोहित होकर तपस्या भंग होना भी प्रसिद्ध है। शरीर सहित त्रिशंकु को स्वर्ग भेजने का चमत्कार भी विश्वामित्र ने तपोबल से कर दिखाया।

13. महर्षि अगस्त्य –

वैदिक मान्यता के मुताबिक मित्र और वरुण देवताओं का दिव्य तेज यज्ञ कलश में मिलने से उसी कलश के बीच से तेजस्वी महर्षि अगस्त्य प्रकट हुए। महर्षि अगस्त्य घोर तपस्वी ऋषि थे। उनके तपोबल से जुड़ी पौराणिक कथा है कि एक बार जब समुद्री राक्षसों से प्रताड़ित होकर देवता महर्षि अगस्त्य के पास सहायता के लिए पहुंचे तो महर्षि ने देवताओं के दुःख को दूर करने के लिए समुद्र का सारा जल पी लिया। इससे सारे राक्षसों का अंत हुआ।

14. गर्गमुनि –

गर्ग मुनि नक्षत्रों के खोजकर्ता माने जाते हैं। यानी सितारों की दुनिया के जानकार। ये गर्गमुनि ही थे, जिन्होंने श्रीकृष्ण एवं अर्जुन के के बारे नक्षत्र विज्ञान के आधार पर जो कुछ भी बताया, वह पूरी तरह सही साबित हुआ। कौरव-पांडवों के बीच महाभारत युद्ध विनाशक रहा। इसके पीछे वजह यह थी कि युद्ध के पहले पक्ष में तिथि क्षय होने के तेरहवें दिन अमावस थी। इसके दूसरे पक्ष में भी तिथि क्षय थी। पूर्णिमा चौदहवें दिन आ गई और उसी दिन चंद्रग्रहण था। तिथि-नक्षत्रों की यही स्थिति व नतीजे गर्ग मुनिजी ने पहले बता दिए थे।

15. बौद्धयन –

भारतीय त्रिकोणमितिज्ञ के रूप में जाने जाते हैं। कई सदियों पहले ही तरह-तरह के आकार-प्रकार की यज्ञवेदियां बनाने की त्रिकोणमितिय रचना-पद्धति बौद्धयन ने खोजी। दो समकोण समभुज चौकोन के क्षेत्रफलों का योग करने पर जो संख्या आएगी, उतने क्षेत्रफल का ‘समकोण’ समभुज चौकोन बनाना और उस आकृति का उसके क्षेत्रफल के समान के वृत्त में बदलना, इस तरह के कई मुश्किल सवालों का जवाब बौद्धयन ने आसान बनाया।

Shivam Sharma Bhartiya


Saturday, May 7, 2016

600 साल पहले ही तुलसीदास जी ने बता दी थी सूर्य और पृथ्वी के बीच की सटीक दूरी।


भले विज्ञान बहुत तरक्की कर रहा हो और नित नये राज खोल रहा हो पर भारत की भूमि पर हमेशा से ही विज्ञान पर शोध होता रहा है। यही कारण है कि जो ज्ञान आज वैज्ञानिक बताते हैं वे सभी हमें हमारे वेदों में मिलते हैं। विज्ञान को जितान भारतीय मुनियों ने समझा है शायद ही किसी ओर ने जाना हो। इसी बीच हम आपको बताने जा रहे हैं तुलसीदास जी के विज्ञान ज्ञान को कि किस प्रकार उन्होंने सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी को सटीकता से बताया था। उन्हें हुए लगभग 600 साल हो गये हैं पर जब उनकी बात नासा और तमाम संगठन भी सही बताते हैं तो समुचे विश्व को हैरानी होती है, कि भारतीय बहुत वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखते थे।

प्राचीन समय में ही गोस्वामी तुलसीदास ने बता दिया था कि सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी लगभग 15 करोड़ किलोमीटर है।

यह बात किसी आश्चर्य से कम नहीं है। आखिर कैसे तुलसीदास जी ने यह आकलन किया था। और वह भी पूरी तरह से सही है, तो क्या ऐसा संभव है कि विज्ञान ने धर्म की कॉपी की हो।

आइये इस रहस्य को जानते हैं हनुमान चालीसा के माध्यम से जिसके रचयिता गोस्वामी तुलसीदास जी थे।।

हनुमान चालीसा में एक दोहा है:

जुग (युग) सहस्त्र जोजन (योजन) पर भानु. लील्यो ताहि मधुर फल जानू..

इस दोहे का सरल अर्थ यह है कि हनुमानजी ने एक युग सहस्त्र योजन की दूरी पर स्थित भानु यानी सूर्य को मीठा फल समझकर खा लिया था।

हनुमानजी ने एक युग सहस्त्र योजन की दूरी पर स्थित भानु यानी सूर्य को मीठा फल समझकर खा लिया था।

एक युग = 12000 वर्ष
एक सहस्त्र = 1000
एक योजन = 8 मील

युग x सहस्त्र x योजन = पर भानु

12000 x 1000 x 8 मील = 96000000 मील

एक मील = 1.6 किमी

96000000 x 1.6 = 153600000 किमी

इस गणित के आधार गोस्वामी तुलसीदास ने प्राचीन समय में ही बता दिया था कि सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी लगभग 15 करोड़ किलोमीटर है।

इस गणित में युग बताया गया है कि एक युग कितने वर्ष का होता है, फिर सहस्त्र और अंत में योजन, सभी का कुल जोड़ कर जब उसे किलोमीटर से गुना किया जाता है तब यह दूरी सूर्य और पृथ्वी के बीच की दुरी के बराबर ही निकलती है।

अब इसे आज का मानव कोई संयोग भी बोल सकता है या बोल दे कि यह तुक्का ही है।

लेकिन धर्म के जानकर बताते हैं कि हनुमान जी ने बचपन में ही यह दूरी तय कर ली थी, जब वह सूर्य को फल समझकर खाने के लिए पृथ्वी से ही सूर्य पर पहुँच गये थे।

अब इस सच को आप मानें या ना मानें यह तो आपके ऊपर निर्भर करता है लेकिन इससे यह तो सिद्ध हो जाता है कि आज भी धर्म, विज्ञान से कहीं आगे है। धर्म कहता है कि ब्रह्माण्ड में एक नहीं हजारों सूरज, चन्द्रमा हैं और तो औऱ अनगिनत ब्रह्माण की थ्योरी भी वैज्ञानिक रामायण से लेते हैं।

आसान भाषा में देखा जाये तो भारतीय संस्कृति जिसमें वेदों का समावेश है वह आधुनिक विज्ञान से बहुत ऊपर है और इसी कारण से आज भी वेद की कई रिचायें वैज्ञानिकों को समझ नहीं आती हैं।।

From indiannova.in


जम्बू द्वीप - jamboo dweep

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Public
May 02, 2016

जम्बू द्वीप
मंगोलिया था हिन्दू राष्ट्र...!
जम्बू द्वीप में 9 देश है:- इलावृत, भद्राश्व, किंपुरुष, भारत, हरि, केतुमाल, रम्यक, कुरु और हिरण्यमय। पुराणों में जंबूद्वीप के 6 पर्वत बताए गए हैं- हिमवान, हेमकूट, निषध, नील, श्वेत और श्रृंगवान। इलावृत जम्बू द्वीप के बीचोबीच स्थित है।
इस इलावृत के मध्य में स्थित है सुमेरू पर्वत। इलावृत के दक्षिण में कैलाश पर्वत के पास भारतवर्ष, पश्चिम में केतुमाल (ईरान के तेहरान से रूस के मॉस्को तक), पूर्व में हरिवर्ष (जावा से चीन तक का क्षेत्र) और भद्राश्चवर्ष (रूस के कुछ क्षेत्र), उत्तर में रम्यक वर्ष (रूस के कुछ क्षेत्र), हिरण्यमय वर्ष (रूस के कुछ क्षेत्र) और उत्तर कुरुवर्ष (रूस के कुछ क्षेत्र) नामक देश हैं।
पुराणों के अनुसार इलावृत चतुरस्र है। वर्तमान भूगोल के अनुसार पामीर प्रदेश का मान 150X150 मील है अतः चतुरस्र होने के कारण यह 'पामीर' ही इलावृत है। इलावृत से ही ऐरल सागर, ईरान आदि क्षेत्र प्रभावित हैं।
आज के किर्गिस्तान, उज्बेकिस्तान, तजाकिस्तान, मंगोलिया, तिब्बत, रशिया और चीन के कुछ हिस्से को मिलाकर इलावृत बनता है। मूलत: यह प्राचीन मंगोलिया और तिब्बत का क्षेत्र है। एक समय किर्गिस्तान और तजाकिस्तान रशिया के ही क्षेत्र हुआ करते थे। सोवियत संघ के विघटन के बाद ये क्षेत्र स्वतंत्र देश बन गए।
आज यह देश मंगोलिया में 'अतलाई' नाम से जाना जाता है। 'अतलाई' शब्द इलावृत का ही अपभ्रंश है। सम्राट ययाति के वंशज क्षत्रियों का संघ भारतवर्ष से जाकर उस इलावृत देश में बस गया था। उस इलावृत देश में बसने के कारण क्षत्रिय ऐलावत (अहलावत) कहलाने लगे।
इस देश का नाम महाभारतकाल में ‘इलावृत’ ही था। जैसा कि महाभारत में लिखा है कि श्रीकृष्णजी उत्तर की ओर कई देशों पर विजय प्राप्त करके ‘इलावृत’ देश में पहुंचे। इस स्थान को देवताओं का निवास-स्थान माना जाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने देवताओं से ‘इलावृत’ को जीतकर वहां से भेंट ग्रहण की।
इलावृत देश के मध्य में स्थित सुमेरू पर्वत के पूर्व में भद्राश्ववर्ष है और पश्चिम में केतुमालवर्ष है। इन दोनों के बीच में इलावृतवर्ष है। इस प्रकार उसके पूर्व की ओर चैत्ररथ, दक्षिण की ओर गंधमादन, पश्चिम की ओर वैभ्राज और उत्तर की ओर नंदन कानन नामक वन हैं, जहां अरुणोद, महाभद्र, असितोद और मानस (मानसरोवर)- ये चार सरोवर हैं। माना जाता है कि नंदन कानन का क्षेत्र ही इंद्र का लोक था जिसे देवलोक भी कहा जाता है। महाभारत में इंद्र के नंदन कानन में रहने का उल्लेख मिलता है।
सुमेरू के दक्षिण में हिमवान, हेमकूट तथा निषध नामक पर्वत हैं, जो अलग-अलग देश की भूमि का प्रतिनिधित्व करते हैं। सुमेरू के उत्तर में नील, श्वेत और श्रृंगी पर्वत हैं, वे भी भिन्न-भिन्न देशों में स्थित हैं।
( इस पेज पर सभी पोस्ट में तर्कहीन अलौकिक बातों को छोडकर ऐतिहासिक तथ्य ही पकडें ।)
पहले इल : ब्रह्मा के पुत्र अत्रि से चंद्रमा का जन्म हुआ। चंद्रमा से बुध का जन्म हुआ। बुध का विवाह स्वायंभुव मनु की पुत्री इल से हुआ। इल-बुध सहवास से पुरुरवा हुए। पुरुरवा के कुल में ही भरत और कुरु हुए। कुरु से कुरुवंश चला। भारत के समस्त चन्द्रवंशी क्षत्रिय पुरुरवा की ही संतति माने जाते हैं।
ऐल लोगों के साथ उत्तर कुरु लोगों का भी एक बड़ा भाग था। ऐल ही कुरु देश (पेशावर के आसपास का इलाका) में बसने के कारण कुरु कहलाते थे। इतिहासकारों के अनुसार ये ऐल ही पुरुरवा (पुरु) था। यूनान और यहूदियों के पुराने ग्रंथों में ऐल के पुत्रों का जिक्र मिलता है। इस ऐल के नाम पर ही इलावृत देश रखा गया।
दूसरे इल : इस देश (इलावृत) का नाम दक्ष प्रजापति की पुत्री इला के क्षत्रिय पुत्रों से आवृत होने के कारण इलावृत रखा गया। आज यह देश मंगोलिया में 'अतलाई' नाम से जाना जाता है। 'अतलाई' शब्द 'इलावृत' का ही अपभ्रंश है। सम्राट ययाति के वंशज क्षत्रियों का संघ भारतवर्ष से जाकर उस इलावृत देश में आबाद हो गया। उस इलावृत देश में बसने के कारण क्षत्रिय ऐलावत (अहलावत) कहलाने लगे।
तीसरे इल : वायु पुराण के अनुसार त्रेतायुग के प्रारंभ में ब्रह्मा के पुत्र स्वायंभुव मनु के दूसरे पुत्र प्रियवृत ने विश्वकर्मा की पुत्री बहिर्ष्मती से विवाह किया था। प्रियवृत के पुत्र जम्बू द्वीप के राजा अग्नीन्ध्र के 9 पुत्र हुए- नाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्य, हिरण्यमय, कुरु, भद्राश्व और केतुमाल। राजा आग्नीध ने उन सब पुत्रों को उनके नाम से प्रसिद्ध भूखंड दिया। इलावृत को मिला हिमालय के उत्तर का भाग। नाभि को मिला दक्षिण का भाग।
चौथे इल : वैवस्वत मनु के 10 पुत्र थे- इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यंत, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध। पुराणों में वैवस्वत मनु का भी स्थान सुमेर पर्वत बताया जाता है, जो कि इलावृत के मध्य में कहा गया है।
संजय कुमार

Friday, May 6, 2016

।निर्वाणषटकम्।। from Tulsidas Ji.


।निर्वाणषटकम्।।
मनोबुद्धयहंकारचित्तानि नाहं
न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे।
न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायु-
श्चिदानन्दरूपः शिवोSहं शिवोSहम् ।।१।।
मैं मन नहीं हूँ और न मैं बुद्धि, अहंकार या चित्त ही हूँ। मैं न श्रोत्र हूँ और न
जिह्वा, नासिका या नेत्र हूँ। मैं आकाश नहीं हूँ और वायु अग्नि, जल एवं
पृथ्वी भी नहीं हूँ। मैं चिदानंद-रूप हूँ; मैं शिव हूँ ।।1।।
न च प्राणसंज्ञो न वै पंचवायु-
र्न वा सप्तधातुर्न वा पंचकोशः।
न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायु
चिदानंदरूपः शिवोSहं शिवोSहम् ।।२।।
मैं प्राण-संज्ञा नहीं हूँ, मैं पंचवायु नहीं हूँ। मैं सप्तधातु नहीं और न पंचकोश
ही हूँ। मैं हाथ-पाँव, वाणी, गुदा या जननेन्द्रिय भी नहीं हूँ। मैं चिदानंदरूप
हूँ। मैं शिव हूँ; मैं शिव हूँ ।।2।।
न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ
मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्ष-
श्चिदानंदरूपः शिवोSहं शिवोSहम् ।।३।।
मुझमें न द्वेष है, न राग; न लोभ, न मोह; न मद है, न मत्सर। मुझमें धर्म नहीं है, अर्थ
भी नहीं है। न इच्छा है, न मोक्ष ही है। मैं चिदानंदरूप हूँ। मैं शिव हूँ; मैं शिव हूँ
।।3।।
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं
न मंत्रो न तीर्थम् न वेदा न यज्ञा:।
अहं भोजनं नैव भोज्यम् न भोक्ता
चिदानंदरूपः शिवोSहं शिवोSहम् ।।४।।
मैं न पुण्य हूँ, न पाप; न सुख हूँ, न दुःख हूँ। मैं मन्त्र नहीं हूँ, मैं तीर्थ नहीं हूँ। मैं वेद
नहीं हूँ, यज्ञ भी नहीं हूँ। मैं न भोजन हूँ, न भोजन का कर्म हूँ और न भोजन
करने वाला हूँ। मैं चिदानंद-रूप हूँ। मैं शिव हूँ; मैं शिव हूँ ।।4।।
न मृत्युर्न शङ्का न मे जातिभेदः
पिता नैव मे नैव माता च जन्म।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्य-
श्चिदानानंदरूपः शिवोSहं शिवोSहम् ।।५।।
मेरे लिए न मृत्यु है, न शङ्का है; न जाति-भेद है, न माता-पिता हैं। मेरे लिए
जन्म नहीं है। मैं बंधु नहीं हूँ, मित्र नहीं हूँ, गुरु नहीं हूँ, शिष्य नहीं हूँ। मैं
चिदानंदरूप हूँ। मैं शिव हूँ; मैं शिव हूँ ।।5।।
अहं निर्विकल्पो निराकार-रूपो
विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।
न चासंगतं नैव मुक्तिर्न मेय-
श्चिदानन्दरूपः शिवोSहं शिवोSहम् ।।६।।
मैं विचारहीन हूँ; आकारहीन हूँ। सर्वशक्तिमान हूँ, सर्वत्र हूँ।
सभी इन्द्रियों के परे, सबसे अलिप्त हूँ। मेरे लिए मुक्ति भी कुछ नहीं है। मैं
चिदानंद-रूप हूँ। मैं शिव हूँ; मैं शिव हूँ ।।6।।

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Wednesday, May 4, 2016

Som rus v/s sura (wine)जानिये सोमरस और सुरापान में अंतर

कई पश्चमी विद्वानों की तरह भारतीय विद्वानों की ये आम धारणा है कि सोम रस एक तरह का नशीला पदार्थ होता है. ऐसी ही धारणा डॉ.अम्बेडकर की भी थी, डॉ.अम्बेडकर अपनी पुस्तक रेवोलुशन एंड काउंटर रेवोलुशन इन एशिएन्ट  इंडिया में सोम को वाइन कहते है. लेकिन शायद वह वेदों में सोम का अर्थ समझ नहीं पाए,या फिर पौराणिक इन्द्र और सोम की कहानियों के चक्कर में सोम को शराब समझ बैठे.

सोम का वैदिक वांग्मय मे काफी विशाल अर्थ है, सोम को शराब समझने वालो को शतपत के निम्न कथन पर दृष्टी डालनी चाहिए जो कि शराब ओर सोम पर अंतर को स्पष्ट करता है.
शतपत (5:12 ) में आया है :- सोम अमृत है ओर सुरा (शराब) विष है ..
ऋग्वेद में आया है :-” हृत्सु पीतासो मुध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम् ।।
अर्थात सुरापान करने या नशीला पदार्थ पीने वाला अक्सर उत्पाद मचाते है, जबकि सोम के लिए ऐसा नहीं कहा है.

वास्तव मे सोम ओर शराब में उतना ही अंतर है जितना की डालडा या गाय के घी में होता है.
निरुक्त शास्त्र में आया है-
"औषधि: सोम सुनोते: पदेनमभिशुण्वन्ति (निरूकित११-२-२)"
अर्थात सोम एक औषधि है जिसको कूट पीस कर इसका रस निकलते है. लेकिन फिर भी सोम को केवल औषधि या कोई लता विशेष समझना इसके अर्थ को पंगु बना देता है.
सोम का अर्थ बहुत व्यापक है जिसमें से कुछ यहाँ बताने का प्रयास किया है :-
कौषितिकी ब्राह्मणों उपनिषद् में सोम रस का अर्थ चंद्रमा का रस अर्थात चंद्रमा से आने वाला शीतल प्रकाश जिसे पाकर औषधियां पुष्ट होती है,
शतपत में ऐश्वर्य को सोम कहा है -“श्री वै सोम “(श॰4/1/39) अर्थात ऐश्वर्य सोम है.
शतपत में ही अन्न को भी सोम कहा है -” अन्नं वै सोमः “(श ॰ 2/9/18) अर्थात इस अन्न के पाचन से जो शक्ति उत्पन्न होती है वो सोम है.
कोषितिकी मे भी यही कहा है :-“अन्न सोमः”(कौषितिकी9/6)
ब्रह्मचर्य पालन द्वारा वीर्य रक्षा से उत्पन्न तेज को सोम कहा है.
शतपत में आया है-
“रेतो वै सोमः”(श ॰ 1/9/2/6) अर्थात ब्रहमचर्य से उत्पन्न तेज (रेत) सोम है .
कौषितिकी मे भी यही लिखा है :-“रेतः सोम “(कौ॰13/7)
वेदों के शब्दकोष निघुंट मे सोम के अंनेक पर्यायवाची में एक वाक् है ,वाक् श्रृष्टि रचना के लिए ईश्वर द्वारा किया गया नाद या ब्रह्मनाद था .. अर्थात सोम रस का अर्थ प्रणव या उद्गीत की उपासना करना हुआ. वेदों ओर वैदिक शास्त्रों मे सोम को ईश्वरीय उपासना के रूप मे बताया है, जिनमें कुछ कथन यहाँ उद्रत किये है :-

तैतरिय उपनिषद् में ईश्वरीय उपासना को सोम बताया है, ऋग्वेद (10/85/3) में आया है :-
” सोमं मन्यते पपिवान्सत्सम्पिषन्त्योषधिम्|
सोमं यं ब्राह्मणो विदुर्न तस्याश्राति कश्चन||”
अर्थात पान करने वाला सोम उसी को मानता है जो औषधि को पीसते ओर कूटते है , उसका रस पान करते है ,परन्तु जिस सोम को ब्रह्म ,वेद को जानने वाले ,व ब्रह्मचारी लोग जानते है ,उसको मुख द्वारा कोई खा नहीं सकता है ,उस अध्यात्मय सोम को तेज ,दीर्घ आयु ,और आनंद को वे स्वयं ही आनन्द , पुत्र, अमृत रूप में प्राप्त करते हैं.

ऋग्वेद (8/48/3) में आया है :-
”अपाम सोमममृता अभूमागन्मु ज्योतिरविदाम् देवान्|
कि नूनमस्कान्कृणवदराति: किमु धृर्तिरमृत मर्त्यस्य।।”
अर्थात हमने सोमपान कर लिया है, हम अमृत हो गये है, हमने दिव्य ज्योति को पा लिया है, अब कोई शत्रु हमारा क्या करेगा.

ऋग्वेद(8/92/6) में आया है :-
”अस्य पीत्वा मदानां देवो देवस्यौजसा विश्वाभि भुवना भुवति”
अर्थात परमात्मा के संबध मे सोम का पान कर के साधक की आत्मा ओज पराक्रम युक्त हो जाती है,वह सांसारिक द्वंदों से ऊपर उठ जाता है.

गौपथ में सोम को वेद ज्ञान बताया है :-
गोपथ*(पू.२/९) वेदानां दुह्म भृग्वंगिरस:सोमपान मन्यन्ते| सोमात्मकोयं वेद:|तद्प्येतद् ऋचोकं सोम मन्यते पपिवान इति|
वेदो से प्राप्त करने योग्य ज्ञान को विद्वान भृगु या तपस्वी वेदवाणी के धारक ज्ञानी अंगिरस जन सोमपान करना जानते है.
वेद ही सोम रूप है.

सोम का एक विस्तृत अर्थ ऋग्वेद के निम्न मन्त्र मे आता है :-
” अयं स यो वरिमाणं पृथिव्या वर्ष्माणं दिवो अकृणोदयं स:
अयं पीयूषं तिसृपु प्रवत्सु सोमो दाधारोर्वन्तरिक्षम”(ऋग्वेद 6/47/4)
अर्थात व्यापक सोम का वर्णन, वह सोम सबका उत्पादक, सबका प्रेरक पदार्थ व् बल है, जो पृथ्वी को श्रेष्ठ बनाता है, जो सूर्य आकाश एवम् समस्त लोको को नियंत्रण मे करने वाला है, ये विशाल अन्तरिक्ष में जल एवम् वायु तत्व को धारण किये है.

अतः उपरोक्त कथनों से स्पष्ट है कि सोम का व्यापक अर्थ है उसे केवल शराब या लता बताना सोम के अर्थ को पंगु करना है. चूंकि डॉ अम्बेडकर अंग्रेजी भाष्यकारो के आधार पर अपना कथन उदृत करते हैं, तो ऐसी गलती होना स्वाभिक है जैसे कि वह कहते है “यदि यह कहा जाये कि मै संस्कृत का पंडित नही हूँ तो मै मानने को तैयार हूँ . परन्तु संस्कृत का पंडित नहीं होने से मै इस विषय में लिख क्यूँ नही सकता हूँ? संस्कृत का बहुत थोडा अंश जो अंग्रेजी भाषा मे उपलब्ध नही है, इसलिए संस्कृत न जानना मुझे इस विषय पर लिखने से अनधिकारी नही ठहरया जा सकता है, अंग्रेजी अनुवादों के १५ साल अध्ययन करने के बाद मुझे ये अधिकार प्राप्त है ,(शुद्रो की खोज प्राक्कथ पृ॰ २)

अतः स्पष्ट है कि अंग्रेजी टीकाओ के चलते अम्बेडकर जी ने ऐसा लिखा हो लेकिन वो आर्य समाज से भी प्रभावित थे जिसके फल स्वरूप वो कई वर्षो तक नमस्ते शब्द का भी प्रयोग करते रहे थे, लेकिन फिर भी अंग्रेजी भाष्य से पुस्तके लिखना चिंता का विषय है कि उन्होंने ऐसा क्यों किया.

लेकिन अम्बेडकर जी के अलावा अन्य भारतीय विद्वानों ओर वैदिक विद्वानों द्वारा सोम को लता या नशीला पैय बताना इस बात का बोधक है कि अंग्रेजो की मानसिक गुलामी अभी भी हावी है जो हमे उस बारे मे विस्तृत अनुसंधान नहीं करने देती है.


Monday, May 2, 2016

गायत्री मंत्र में छिपा है 'ॐ' का रहस्‍य


गायत्री मंत्र  छिपा है 'ॐ' का रहस्य 

ऋगवेद में मौजूद है गायत्री मंत्र। अनादि काल से सनातनधर्मी इसे सर्वाधिक श्रद्धेय मंत्र के रूप में स्वीकार करते आए हैं। ये मंत्र इस प्रकार है। 

'ॐ भूर्भुव: स्व: 
तत्सवितुर्वरेण्यं 
भर्गो देवस्य धीमहि, 
धीयो यो न: प्रचोदयात्'

दरअसल गायत्री मंत्र की शुरुआत ही 'ॐ' ध्वनि से ही होती है। आदि शंकराचार्य के अनुसार गायत्री मंत्र प्रणव 'ॐ' का ही विस्तृत रूप है। आध्यात्मिक जीवन का श्रीगणेश इसी मंत्र के चिंतन से आरंभ होता है। आइए गायत्री मंत्र और 'ॐ' के रहस्य को इस प्रकार समझने का प्रयास करें। 

नाम की खोज

ॐ  -    ओम (प्रणव अक्षर)
भूः  -   भू-मंडल, भूलोक
भुवः - अंतरिक्ष लोक, गृह मंडल
स्वः -  स्वर्ग लोक, अंतरिक्ष में चक्कर लगाती आकाशगंगाएं

रूप की खोज 

तत् -  वह परमात्मा
सवित – ईश्वर, बनाने वाला (सूरज)
वरेण्यम - वंदना करने योग्य

उपासना  

भर्गो -  तेज का, प्रकाश का
देवस्य -  देवताओं का
धीमहि -  ध्यान करते हैं

प्रार्थना 

धियो - बुद्धि
यो - जो कि
नः - हमें
प्रचोदयात - सन्मार्ग पर प्रेरित करें

इस प्रकार 'ॐ' तथा गायत्री मन्त्र का पूर्ण अर्थ बनता है : 
''हमारा पृथ्वी मंडल, गृह मंडल, अंतरिक्ष मंडल तथा सभी आकाशगंगाओं की गतिशीलता से उत्पन्न महान शोर ही ईश्वर की प्रथम पहचान प्रणव अक्षर 'ॐ' है और वह परमात्मा जो अनेकानेक रूप प्रकाश के रूप में प्रकट है, वंदनीय है। उस परमात्मा के प्रकाश का हम ध्यान करें और यह प्रार्थना भी करें कि  वह हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर लगाये रखे ताकि सद्बुद्धि हमारे चंचल मन को नियंत्रण में रख सके और साधक को ब्रह्म की अनुभूति करा सके। 

'ॐ' का परिचय 

अक्षरात्मक 

इसका वर्णन वेद, उपनिषद विशेषकर माण्डूक्योपनिषद में मिलता है। इसके 12 मन्त्रों में केवल 'ॐ' के विभिन्न पदों, उसके स्वरूप, उसकी विभिन्न मात्राओं तथा तन्मात्रों आदि का वर्णन है। 

ध्वन्यात्मक 

इसका वर्णन करते हुए महर्षि पतंजलि समाधिपाद के 27वें सूत्र में कहते हैं कि 'तस्य वाचक प्रणवः' अर्थात्, उस ईश्वर नामक चेतन तत्व विशेष के अस्तित्व का बोध करने वाला शब्द ध्वन्यात्मक 'ॐ' है। 

अनेक संत महात्माओं ने भी 'ॐ' के ध्वन्यात्मक स्वरुप को ही ब्रह्म माना है तथा 'ॐ' को "शब्द ब्रह्म" भी कहा है।

'ॐ' का उद्गम 

अब मुख्य प्रश्न यह है कि यदि 'ॐ'  एक दिव्य ध्वनि है तो इसका उद्गम क्या है? यदि ब्रह्माण्ड में कतिपय ध्वनि तरंगे व्याप्त हैं तो इनका कारक क्या है? क्योंकि, यह तो विज्ञान का सामान्य सा नियम है कि कोई भी ध्वनि स्वतः उत्पन्न नहीं हो सकती। जहां हरकत होगी वहीं ध्वनि उत्पन्न होगी चाहे वह इन स्थूल कानों से सुनाई दे या नहीं। 

ऊपर लिखे गायत्री मन्त्र के अर्थ में कहा गया कि हमारा पृथ्वी मंडल, गृह मंडल, अंतरिक्ष मंडल तथा सभी आकाशगंगाओं की गतिशीलता से उत्पन्न महान शोर ही ईश्वर की प्रथम पहचान प्रणव अक्षर 'ॐ' है। 

वैज्ञानिक चिंतन

विभिन्न ग्रहों से आ रही विभिन्न ध्वनियों को ध्यान की उच्चतम स्थित में जब मन पूरी तरह विचार शून्य हो, सुना जा सकता है। ऋग्वेद के नादबिंदु उपनिषद् में आंतरिक और आत्मिक मंडलों में शब्द की ध्वनि को समुद्र की लहरों, बादल, ढोल, पानी के झरनों, घंटे जैसी आवाज़ के रूप में सुने जाने का वर्णन है। हठ योग प्रदीपिका में भंवर की गुंजार, घुंगरू, शंख, घंटी, खड़ताल, मुरली, मृदंग, बांसुरी और शेर की गरज जैसी ध्वनियों का वर्णन है। 

गायत्री मन्त्र में 'ॐ' को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि पृथ्वी मंडल, गृह मंडल एवं अंतरिक्ष में स्थित आकाशगंगाओं की गतिशीलता से उत्पन्न सामूहिक ध्वनियां ही 'ॐ' की दिव्य ध्वनि है। यह अब कपोल कल्पना नहीं वास्तविकता है। विभिन ग्रहों की ध्वनियों को अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा के वैज्ञानिकों ने रिकॉर्ड किया है, इन्हें प्लैनेट साउंड के नाम से इंटरनेट पर भी सर्च करके सुना जा सकता है। 

बहुत ज्यादा शक्तिशाली है मंत्र 'ॐ'

विद्वानों का मत है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सदा 'ॐ' की ध्वनि ही गतिमान रहती है। 'ॐ' को सर्वाधिक शक्तिशाली माना गया है। किसी भी मंत्र से पहले यदि 'ॐ' जोड़ दिया जाए तो वह पूर्णतया शुद्ध और शक्ति-सम्पन्न हो जाता है। किसी देवी-देवता, ग्रह या अन्य मंत्रों के पहले 'ॐ' लगाना आवश्यक होता है, जैसे, श्रीराम का मंत्र, 'ॐ रामाय नमः', विष्णु का मंत्र, 'ॐ विष्णवे नमः', शिव का मंत्र 'ॐ नमः शिवाय' आदि। 

कहा जाता है कि 'ॐ' से रहित कोई मंत्र फलदायी नही होता, चाहे उसका कितना भी जाप हो। वैसे मंत्र के रूप में एकमात्र 'ॐ' भी पर्याप्त है। 'ॐ' का दूसरा नाम प्रणव (परमेश्वर) है। "तस्य वाचकः प्रणवः" अर्थात् उस परमेश्वर का वाचक प्रणव है। इस तरह प्रणव अथवा 'ॐ' एवं ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। 'ॐ' अक्षर है इसका क्षरण अथवा विनाश नहीं होता। छान्दोग्योपनिषद् में ऋषियों ने कहा है, "ॐ इत्येतत् अक्षरः"। अर्थात्, 'ॐ' अविनाशी, अव्यय एवं क्षरण रहित है।

मूल ध्वनियों को जानें 

अ उ म् के मेल से ही बना है 'ॐ'। इनमें, "अ" का अर्थ है आर्विभाव या उत्पन्न होना, "उ" का तात्पर्य है उठना, उड़ना अर्थात् विकास, "म" का मतलब है मौन हो जाना अर्थात् "ब्रह्मलीन" हो जाना। 'ॐ' सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और पूरी सृष्टि का प्रतिबिंब है। 

ध्यान बिन्दुपनिषद् के अनुसार 'ॐ' मन्त्र की विशेषता यह है कि पवित्र या अपवित्र सभी स्थितियों में जो इसका जप करता है, उसे लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य होती है। जिस तरह कमल-पत्र पर जल नहीं ठहरता है, ठीक उसी तरह जप-कर्ता पर कोई कलुष नहीं लगता। सनातन धर्म ही नहीं, भारत के अन्य धर्म-दर्शनों में भी 'ॐ' को महत्व प्राप्त है। बौद्ध-दर्शन में "मणिपद्मेहुम" का प्रयोग जप एवं उपासना के लिए प्रचुरता से होता है। इस मंत्र के अनुसार 'ॐ' को "मणिपुर" चक्र में अवस्थित माना जाता है। यह चक्र दस दल वाले कमल के समान है। जैन दर्शन में भी 'ॐ' के महत्व को दर्शाया गया है। 

श्रीगुरु नानक देव जी ने 'ॐ' के महत्व को प्रतिपादित करते हुए लिखा है, " इक ओंकार सतनाम करता पुरख निर्भौ निर्वैर अकाल मूरत....''। यानी 'ॐ' सत्यनाम जपने वाला पुरुष निर्भय, वैर-रहित एवं "अकाल-पुरुष के" सदृश हो जाता है। 'ॐ' इस अनंत ब्रह्माण्ड का नाद है (वैज्ञानिक और आध्यात्मिक दोनों रूपों में) एवं मनुष्य के अंत: स्थल में स्थित परम् ब्रह्म का प्रतीक।

Sunday, May 1, 2016

Kamayani by Jaishankar Prasad -Download In Hindi

Kamayani by Jaishankar Prasad is a Hindi classic poem and is one the best literary works written in modern times in Hindi Literature. Jayshankar Prasad is Chhayavaadi Hindi poet. Kamayani was first published in 1937 and was one of the most popular Hindi poetry in that era. It is based on the story of Manu, the only man who survived from after a pralay yug who was emotionless, however he later started to get involved in emotions, thoughts and actions. And the emotions that Manu poured on characters are Shraddha, Ida, Kilaat and many others.
Kamayani by Jaishankar Prasad has tried to depict the thoughts, emotions and actions of humans.There is a chapter for every emotion and thoughts in Kamayani hindi book pdf. Explaining his metaphorical presentation of Vedic characters, the poet said:
“Ida was the sister of the gods, giving consciousness to entire mankind. For this reason there is an Ida Karma in the Yagnas. This erudition of Ida created a rift between Shraddha and Manu. Then with the progressive intelligence searching for unbridled pleasures, the impasse was inevitable. This story is so very ancient that metaphor has wonderfully mingled with history. Therefore, Manu, Shraddha and Ida while maintaining their historical importance may also express the symbolic import. Manu represents the mind with its faculties of the head and heart and these are again symbolized as Faith (Shraddha) and Intelligence (Ida) respectively. On this data is based the story of Kamayani.”
Download Kamayani Of Jayshankar Prasad In Hindi
It is based on LINK