Saturday, March 28, 2015

Moon and Earth effect on Human beings

The spiritual effect of the moon on man :
All objects including stars, planets and satellite bodies along with their gross (tangible) attributes emanate subtle (intangible) frequencies. These physical attributes and subtle-frequencies affect us in varying degrees at a physical and subtle-level.
The frequencies emanating from the Moon affect the frequencies of the mental body, i.e. mind of human beings. By ‘mind’ we mean our feelings, emotions and desires. The mind consists of the conscious mind and the sub-conscious mind. Within the sub-conscious mind we have a number of impressions that are embedded that decide our basic nature and personality. We are however not aware of the thoughts or impressions in our sub-conscious mind. These impressions get collected over a number of lifetimes.
These impressions in our mind are the catalysts for all our thoughts and subsequent actions. Both the impressions and our thoughts have their own subtle-frequencies.
The moon frequencies are slightly more subtle (intangible) than the subtle-frequencies of our thoughts but are less subtle than the frequencies of the impressions in our mind. The moon frequencies have the capacity to make the thought frequencies from the impressions in our sub-conscious mind to surface to the conscious mind. Once in the conscious mind we become aware of them. Thus one will be influenced as per the predominant impressions in one’s mind. We have explained this in more detail in the next section.
Similarly the moon also affects the mind of animals. However as the sub-conscious mind of animals consists of impressions related only to basic desires such as hunger, sex, sleep etc., the heightened thoughts are related to these basic instincts only.
On new moon day, the non-illuminated, i.e. dark side of the Moon faces towards Earth. Darkness emanates Raja-Tama predominant frequencies. Hence compared to when the illuminated side faces Earth, more subtle basic Raja-Tama predominant frequencies are transmitted towards Earth.
Alternatively, on a full moon day there is a decrease in the Raja-Tama because of the increased illumination. However on a full moon day as the moon frequencies are more active, a heightened activity of the mind is observed as explained above in point 2. Depending on the types of impressions from the sub-conscious mind that are activated, the heightened activity can range from heightened random thoughts to heightened mind activity of specific thoughts.
For example, a person who is a writer and is focusing on some book that he is writing is more likely to get heightened thought activity mainly pertaining to the book and creativity in writing style. These types of thoughts will arise out of the talent centre. Hence he may find that he can write prolifically on a full moon day.
However for most people the thoughts are random. If there are a number of dominant personality defects such as anger, greed, etc. then they too may surface and dominate our thoughts during this period. For example an alcoholic will get more thoughts about the need to drink alcohol on this day.
It is also possible to awaken thoughts about Spirituality that lie inert in the sub-conscious mind of a spiritual person by taking advantage of the heightened mind activity and by increasing spiritual practice on a full moon day.
From hinduismdemystify

Friday, March 27, 2015

VEDAS DO NOT ALLOW ANIMAL SLAUGHTER

जैसी कुछ लोगों की प्रचलित मान्यता है
कि यज्ञ में पशु वध किया जाता है,
वैसा बिलकुल नहीं है | वेदों में यज्ञ
को श्रेष्ठतम कर्म या एक
ऐसी क्रिया कहा गया है जो वातावरण
को अत्यंत शुद्ध करती है |
अध्वर इति यज्ञानाम –
ध्वरतिहिंसा कर्मा तत्प्रतिषेधः
निरुक्त २।७
निरुक्त या वैदिक शब्द व्युत्पत्ति शास्त्र में
यास्काचार्य के अनुसार यज्ञ का एक नाम
अध्वर भी है | ध्वर का मतलब है हिंसा सहित
किया गया कर्म, अतः अध्वर का अर्थ
हिंसा रहित कर्म है | वेदों में अध्वर के ऐसे
प्रयोग प्रचुरता से पाए जाते हैं |
महाभारत के परवर्ती काल में वेदों के गलत
अर्थ किए गए तथा अन्य कई धर्म – ग्रंथों के
विविध तथ्यों को भी प्रक्षिप्त किया गया |
आचार्य शंकर वैदिक
मूल्यों की पुनः स्थापना में एक सीमा तक
सफल रहे | वर्तमान समय में स्वामी दयानंद
सरस्वती – आधुनिक भारत के पितामह ने
वेदों की व्याख्या वैदिक भाषा के
सही नियमों तथा यथार्थ प्रमाणों के आधार
पर की | उन्होंने वेद-भाष्य, सत्यार्थ प्रकाश,
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका तथा अन्य
ग्रंथों की रचना की | उनके इस साहित्य से
वैदिक मान्यताओं पर आधारित व्यापक
सामाजिक सुधारणा हुई तथा वेदों के बारे में
फैली हुई भ्रांतियों का निराकरण हुआ |
आइए,यज्ञ के बारे में वेदों के मंतव्य को जानें

अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परि भूरसि
स इद देवेषु गच्छति
ऋग्वेद १ ।१।४
हे दैदीप्यमान प्रभु ! आप के द्वारा व्याप्त
हिंसा रहित यज्ञ सभी के लिए लाभप्रद दिव्य
गुणों से युक्त है तथा विद्वान
मनुष्यों द्वारा स्वीकार किया गया है | ऋग्वेद
में सर्वत्र यज्ञ को हिंसा रहित कहा गया है
इसी तरह अन्य तीनों वेद भी वर्णित करते हैं |
फिर यह कैसे माना जा सकता है कि वेदों में
हिंसा या पशु वध की आज्ञा है ?
यज्ञों में पशु वध की अवधारणा उनके
(यज्ञों ) के विविध प्रकार के नामों के कारण
आई है जैसे अश्वमेध यज्ञ, गौमेध यज्ञ
तथा नरमेध यज्ञ | किसी अतिरंजित
कल्पना से भी इस संदर्भ में मेध का अर्थ वध
संभव नहीं हो सकता |
यजुर्वेद अश्व का वर्णन करते हुए कहता है –
इमं मा हिंसीरेकशफं पशुं कनिक्रदं वाजिनं
वाजिनेषु
यजुर्वेद १३।४८
इस एक खुर वाले, हिनहिनाने वाले तथा बहुत से
पशुओं में अत्यंत वेगवान प्राणी का वध मत
कर |अश्वमेध से अश्व को यज्ञ में बलि देने
का तात्पर्य नहीं है इसके विपरीत यजुर्वेद में
अश्व को नही मारने का स्पष्ट उल्लेख है |
शतपथ में अश्व शब्द राष्ट्र या साम्राज्य के
लिए आया है | मेध अर्थ वध नहीं होता | मेध
शब्द बुद्धिपूर्वक किये गए कर्म को व्यक्त
करता है | प्रकारांतर से उसका अर्थ मनुष्यों में
संगतीकरण का भी है | जैसा कि मेध शब्द के
धातु (मूल ) मेधृ -सं -ग -मे के अर्थ से स्पष्ट
होता है |
राष्ट्रं वा अश्वमेध:
अन्नं हि गौ:
अग्निर्वा अश्व:
आज्यं मेधा:
(शतपथ १३।१।६।३)
स्वामी दयानन्द सरस्वती सत्यार्थ प्रकाश
में लिखते हैं :-
राष्ट्र या साम्राज्य के वैभव, कल्याण और
समृद्धि के लिए समर्पित यज्ञ ही अश्वमेध
यज्ञ है | गौ शब्द का अर्थ पृथ्वी भी है |
पृथ्वी तथा पर्यावरण की शुद्धता के लिए
समर्पित यज्ञ गौमेध कहलाता है | ” अन्न,
इन्द्रियाँ,किरण,पृथ्वी, आदि को पवित्र
रखना गोमेध |” ” जब मनुष्य मर जाय, तब
उसके शरीर का विधिपूर्वक दाह करना नरमेध
कहाता है | ”
३.गौ – मांस का निषेध
वेदों में पशुओं की हत्या का विरोध तो है
ही बल्कि गौ- हत्या पर तो तीव्र
आपत्ति करते हुए उसे निषिद्ध माना गया है |
यजुर्वेद में गाय को जीवनदायी पोषण
दाता मानते हुए गौ हत्या को वर्जित
किया गया है |
घृतं दुहानामदितिं जनायाग्ने मा हिंसी:
यजुर्वेद १३।४९
सदा ही रक्षा के पात्र गाय और बैल को मत
मार |
आरे गोहा नृहा वधो वो अस्तु
ऋग्वेद ७ ।५६।१७
ऋग्वेद गौ- हत्या को जघन्य अपराध घोषित
करते हुए मनुष्य हत्या के तुल्य मानता है और
ऐसा महापाप करने वाले के लिये दण्ड
का विधान करता है |
सूयवसाद भगवती हि भूया अथो वयं
भगवन्तः स्याम
अद्धि तर्णमघ्न्ये विश्वदानीं पिब
शुद्धमुदकमाचरन्ती
ऋग्वेद १।१६४।४०
अघ्न्या गौ- जो किसी भी अवस्था में
नहीं मारने योग्य हैं, हरी घास और शुद्ध जल के
सेवन से स्वस्थ रहें जिससे कि हम उत्तम सद्
गुण,ज्ञान और ऐश्वर्य से युक्त हों |वैदिक
कोष निघण्टु में गौ या गाय के
पर्यायवाची शब्दों में अघ्न्या, अहि- और
अदिति का भी समावेश है | निघण्टु के
भाष्यकार यास्क इनकी व्याख्या में कहते हैं -
अघ्न्या – जिसे कभी न मारना चाहिए | अहि –
जिसका कदापि वध नहीं होना चाहिए |
अदिति – जिसके खंड नहीं करने चाहिए | इन
तीन शब्दों से यह भलीभांति विदित होता है
कि गाय को किसी भी प्रकार से पीड़ित
नहीं करना चाहिए | प्राय: वेदों में गाय
इन्हीं नामों से पुकारी गई है |
अघ्न्येयं सा वर्द्धतां महते सौभगाय
ऋग्वेद १ ।१६४।२७
अघ्न्या गौ- हमारे लिये आरोग्य एवं सौभाग्य
लाती हैं |
सुप्रपाणं भवत्वघ्न्याभ्य:
ऋग्वेद ५।८३।८
अघ्न्या गौ के लिए शुद्ध जल
अति उत्तमता से उपलब्ध हो |
यः पौरुषेयेण क्रविषा समङ्क्ते यो अश्व्येन
पशुना यातुधानः
यो अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने
तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च
ऋग्वेद १०।८७।१६
मनुष्य, अश्व या अन्य पशुओं के मांस से पेट
भरने वाले तथा दूध देने
वाली अघ्न्या गायों का विनाश करने
वालों को कठोरतम दण्ड देना चाहिए

GITA

'पवित्र गीता के बारे में कुछ विद्वानों की राय
अल्बर्ट आइंस्टीन
जब भी मैं भगवद्गीता पढ़ता हूं
तो पता चलता है कि भगवान ने किस प्रकार
संसार की रचना की है। इसके सामने सब कुछ
फीका लगता है।
महात्मा गांधी
जब भी मैं भ्रम की स्थिति में रहता हूं, जब
भी मुझे निराशा का अनुभव होता है और मुझे
लगता है कि कहीं से भी कोई उम्मीद नहीं है
तब मं भगवद्गीता की शरण में चला जाता हूं।
ऐसा करते ही मैं अथाह दु:खों के बीच
भी मुस्कराने लग जाया करता हूं। वे लोग
जो गीता का अध्ययन और मनन करते हैं
उन्हंे हमेशा शुद्ध विचार और
खुशियां मिला करती हैं और प्रत्येक दिन वे
गीता के नए अर्थ को प्राप्त करते हैं।
हर्मन हीज
भगवद्गीता का सबसे बड़ा आश्चर्य जीवन
की बुद्धिमानी के बारे में रहस्योद्घाटन
करना है जिसकी मदद से मनोविज्ञान धर्म
के रूप में फलता फू लता है।
आदि शंकर
भगवद्गीता के स्पष्ट ज्ञान को प्राप्त
करने के बाद मानव अस्तित्व के सारे
उद्देश्यों की पूर्ति हो जाती है। यह सारे
वैदिक ग्रंथों का सार तत्व है।
रुडोल्फ स्टेनर
भगवद्गीता को पूरी तरह समझने के लिए
अपनी आत्मा को इस काम में लगाना होगा।'
पवित्र गीता के बारे में कुछ विद्वानों की राय
अल्बर्ट आइंस्टीन
जब भी मैं भगवद्गीता पढ़ता हूं
तो पता चलता है कि भगवान ने किस प्रकार
संसार की रचना की है। इसके सामने सब कुछ...
फीका लगता है।
महात्मा गांधी
जब भी मैं भ्रम की स्थिति में रहता हूं, जब
भी मुझे निराशा का अनुभव होता है और मुझे
लगता है कि कहीं से भी कोई उम्मीद नहीं है
तब मं भगवद्गीता की शरण में चला जाता हूं।
ऐसा करते ही मैं अथाह दु:खों के बीच
भी मुस्कराने लग जाया करता हूं। वे लोग
जो गीता का अध्ययन और मनन करते हैं
उन्हंे हमेशा शुद्ध विचार और
खुशियां मिला करती हैं और प्रत्येक दिन वे
गीता के नए अर्थ को प्राप्त करते हैं।
हर्मन हीज
भगवद्गीता का सबसे बड़ा आश्चर्य जीवन
की बुद्धिमानी के बारे में रहस्योद्घाटन
करना है जिसकी मदद से मनोविज्ञान धर्म
के रूप में फलता फू लता है।
आदि शंकर
भगवद्गीता के स्पष्ट ज्ञान को प्राप्त
करने के बाद मानव अस्तित्व के सारे
उद्देश्यों की पूर्ति हो जाती है। यह सारे
वैदिक ग्रंथों का सार तत्व है।
रुडोल्फ स्टेनर
भगवद्गीता को पूरी तरह समझने के लिए
अपनी आत्मा को इस काम में लगाना होगा।

All living creature are one

जहाँ अन्य संप्रदायों में अन्य जीवों को उपभोग का साधन समझा जाता है, केवल हिंदु धर्म ही सभी जीवों से प्रेम की शिक्षा देता है । एकमात्र हिंदु धर्म ही है जो न केवल मानव-मात्र अपितु प्राणी-मात्र के कल्याण की शिक्षा देता है ।
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥
गीता -अध्याय 5 श्लोक 18...
जो लोग विद्या और विनय संपन्न होकर
ब्राह्मण ,गाय ,कुत्ता , हाथी और चंडाल
को समान दृष्टि से देखते हैं , वास्तव में
वही पंडित कहलाने के योग्य हैं .
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥
गीता -अध्याय 6 श्लोक 32
जो लोग सभी प्राणियों को अपने जैसा , और
उनके सुख दुःख को भी अपना जैसा समझते
हैं ,वही लोग परम श्रेष्ठ योगी कहलाते हैं
http://hindu/geeta/toc.htm

"ॐ"ohm

'"ॐ" केवल एक पवित्र ध्वनि ही नहीं, अपितु
अनंत शक्ति का प्रतीक है। ॐ अर्थात् ओउम्
तीन अक्षरों से बना है, जो सर्व विदित है । अ
उ म् । "अ" का अर्थ है आर्विभाव या उत्पन्न
होना , "उ" का तात्पर्य है उठना,
उड़ना अर्थात् विकास, "म" का मतलब है मौन
हो जाना अर्थात् "ब्रह्मलीन" हो जाना । ॐ
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और
पूरी सृष्टि का द्योतक है ।
ॐ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन
चारों पुरुषार्थों का प्रदायक है । मात्र ॐ
का जप कर कई साधकों ने अपने उद्देश्य
की प्राप्ति कर ली। कोशीतकी ऋषि निस्संतान
थे, संतान प्राप्तिके लिए उन्होंने
सूर्यका ध्यान कर ॐ का जाप किया तो उन्हे
पुत्र प्राप्ति हो गई । गोपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में
उल्लेख है कि जो "कुश" के आसन पर पूर्व
की ओर मुख कर एक हज़ार बार ॐ रूपी मंत्र
का जाप करता है, उसके सब कार्य सिद्ध
हो जाते हैं।
उच्चारण की विधि : प्रातः उठकर पवित्र
होकर ओंकार ध्वनि का उच्चारण करें। ॐ
का उच्चारण पद्मासन, अर्धपद्मासन,
सुखासन, वज्रासन में बैठकर कर सकते हैं।
इसका उच्चारण 5, 7, 10, 21 बार अपने
समयानुसार कर सकते हैं। ॐ जोर से बोल सकते
हैं, धीरे-धीरे बोल सकते हैं। ॐ जप माला से
भी कर सकते हैं।
ॐ के उच्चारण से शारीरिक लाभ -
1. अनेक बार ॐ का उच्चारण करने से
पूरा शरीर तनाव-रहित हो जाता है।
2. अगर आपको घबराहट या अधीरता होती है
तो ॐ के उच्चारण से उत्तम कुछ भी नहीं।
3. यह शरीर के विषैले तत्त्वों को दूर करता है,
अर्थात तनाव के कारण पैदा होने वाले
द्रव्यों पर नियंत्रण करता है।
4. यह हृदय और ख़ून के प्रवाह को संतुलित
रखता है।
5. इससे पाचन शक्ति तेज़ होती है।
6. इससे शरीर में फिर से
युवावस्था वाली स्फूर्ति का संचार होता है।
7. थकान से बचाने के लिए इससे उत्तम उपाय
कुछ और नहीं।
8. नींद न आने की समस्या इससे कुछ ही समय
में दूर हो जाती है। रात को सोते समय नींद आने
तक मन में इसको करने से निश्चित नींद
आएगी।
9. कुछ विशेष प्राणायाम के साथ इसे करने से
फेफड़ों में मज़बूती आती है।
10. ॐ के पहले शब्द का उच्चारण करने से
कंपन पैदा होती है। इन कंपन से रीढ़
की हड्डी प्रभावित होती है और
इसकी क्षमता बढ़ जाती है।
11. ॐ के दूसरे शब्द का उच्चारण करने से गले
में कंपन पैदा होती है जो कि थायरायड
ग्रंथी पर प्रभाव डालता है।'"ॐ" केवल एक पवित्र ध्वनि ही नहीं, अपितु
अनंत शक्ति का प्रतीक है। ॐ अर्थात् ओउम्
तीन अक्षरों से बना है, जो सर्व विदित है । अ
उ म् । "अ" का अर्थ है आर्विभाव या उत्पन्न
होना , "उ" का तात्पर्य है उठना,...
उड़ना अर्थात् विकास, "म" का मतलब है मौन
हो जाना अर्थात् "ब्रह्मलीन" हो जाना । ॐ
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और
पूरी सृष्टि का द्योतक है ।
ॐ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन
चारों पुरुषार्थों का प्रदायक है । मात्र ॐ
का जप कर कई साधकों ने अपने उद्देश्य
की प्राप्ति कर ली। कोशीतकी ऋषि निस्संतान
थे, संतान प्राप्तिके लिए उन्होंने
सूर्यका ध्यान कर ॐ का जाप किया तो उन्हे
पुत्र प्राप्ति हो गई । गोपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में
उल्लेख है कि जो "कुश" के आसन पर पूर्व
की ओर मुख कर एक हज़ार बार ॐ रूपी मंत्र
का जाप करता है, उसके सब कार्य सिद्ध
हो जाते हैं।
उच्चारण की विधि : प्रातः उठकर पवित्र
होकर ओंकार ध्वनि का उच्चारण करें। ॐ
का उच्चारण पद्मासन, अर्धपद्मासन,
सुखासन, वज्रासन में बैठकर कर सकते हैं।
इसका उच्चारण 5, 7, 10, 21 बार अपने
समयानुसार कर सकते हैं। ॐ जोर से बोल सकते
हैं, धीरे-धीरे बोल सकते हैं। ॐ जप माला से
भी कर सकते हैं।
ॐ के उच्चारण से शारीरिक लाभ -
1. अनेक बार ॐ का उच्चारण करने से
पूरा शरीर तनाव-रहित हो जाता है।
2. अगर आपको घबराहट या अधीरता होती है
तो ॐ के उच्चारण से उत्तम कुछ भी नहीं।
3. यह शरीर के विषैले तत्त्वों को दूर करता है,
अर्थात तनाव के कारण पैदा होने वाले
द्रव्यों पर नियंत्रण करता है।
4. यह हृदय और ख़ून के प्रवाह को संतुलित
रखता है।
5. इससे पाचन शक्ति तेज़ होती है।
6. इससे शरीर में फिर से
युवावस्था वाली स्फूर्ति का संचार होता है।
7. थकान से बचाने के लिए इससे उत्तम उपाय
कुछ और नहीं।
8. नींद न आने की समस्या इससे कुछ ही समय
में दूर हो जाती है। रात को सोते समय नींद आने
तक मन में इसको करने से निश्चित नींद
आएगी।
9. कुछ विशेष प्राणायाम के साथ इसे करने से
फेफड़ों में मज़बूती आती है।
10. ॐ के पहले शब्द का उच्चारण करने से
कंपन पैदा होती है। इन कंपन से रीढ़
की हड्डी प्रभावित होती है और
इसकी क्षमता बढ़ जाती है।
11. ॐ के दूसरे शब्द का उच्चारण करने से गले
में कंपन पैदा होती है जो कि थायरायड
ग्रंथी पर प्रभाव डालता है।

हिन्दू धर्म में श्री राम चन्द्र

'हिन्दू धर्म में श्री राम चन्द्र जी भगवान के रूप
में पूजे जाते हैं !!! उनके वंश वृक्ष का अवलोकन
करें ।।
शास्त्रों के अनुसार
ब्रह्माजी की उन्चालिसवी पीढ़ी में भगवाम
श्रीराम का जन्म हुआ था । श्री राम
को श्रीहरि विष्णु का सातवाँ अवतार
माना जाता है।
वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे – इल, इक्ष्वाकु,
कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त,करुष,
महाबली, शर्याति और पृषध।
श्री राम का जन्म इक्ष्वाकु के कुल में हुआ
था और एक मान्यता के अनुसार जैन धर्म के
तीर्थंकर निमि भी इसी कुल के थे।
मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु से विकुक्षि,
निमि और दण्डक पुत्र उत्पन्न हुए। इस तरह
से यह वंश परम्परा चलते-चलते
हरिश्चन्द्र, रोहित, वृष, बाहु और सगरतक
पहुँची। इक्ष्वाकु प्राचीन कौशल देश के
राजा थे और इनकी राजधानी अयोध्या थी।
रामायण के बालकांड में गुरु
वशिष्ठजी द्वारा राम के कुल का वर्णन
किया गया है जो इस प्रकार है ……….
१ – ब्रह्माजी से मरीचि हुए।
२ – मरीचि के पुत्र कश्यप हुए।
३ – कश्यप के पुत्र विवस्वान थे।
४ – विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए.वैवस्वत
मनु के समय जल प्रलय हुआ था।
५ – वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम
इक्ष्वाकु था।
इक्ष्वाकु ने
अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस
प्रकार इक्ष्वाकु कुलकी स्थापना की।
६ – इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए।
७ – कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था।
८ – विकुक्षि के पुत्र बाण हुए।
९ – बाण के पुत्र अनरण्य हुए।
१०- अनरण्य से पृथु हुए
११- पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ।
१२- त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए।
१३- धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था।
१४- युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए।
१५- मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ।
१६- सुसन्धि के दो पुत्र हुए- ध्रुवसन्धि एवं
प्रसेनजित।
१७- ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुए।
१८- भरत के पुत्र असित हुए।
१९- असित के पुत्र सगर हुए।
२०- सगर के पुत्र का नाम असमंज था।
२१- असमंज के पुत्र अंशुमान हुए।
२२- अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए।
२३- दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए।
भागीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर
उतारा था.भागीरथ के पुत्र ककुत्स्थ थे।
२४- ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए।
रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश
होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम
रघुवंश हो गया,तब से श्री राम के कुल को रघु
कुल भी कहा जाता है।
२५- रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए।
२६- प्रवृद्ध के पुत्र शंखण थे।
२७- शंखण के पुत्र सुदर्शन हुए।
२८- सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था।
२९- अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग हुए।
३०- शीघ्रग के पुत्र मरु हुए।
३१- मरु के पुत्र प्रशुश्रुक थे।
३२- प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुए।
३३- अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था।
३४- नहुष के पुत्र ययाति हुए।
३५- ययाति के पुत्र नाभाग हुए।
३६- नाभाग के पुत्र का नाम अज था।
३७- अज के पुत्र दशरथ हुए।
३८- दशरथ के चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण
तथा शत्रुघ्न हुए।
इस प्रकार ब्रह्मा की उन्चालिसवी (39)
पीढ़ी में श्रीराम का जन्म हुआ…..
जय श्री राम !!'हिन्दू धर्म में श्री राम चन्द्र जी भगवान के रूप
में पूजे जाते हैं !!! उनके वंश वृक्ष का अवलोकन
करें ।।
शास्त्रों के अनुसार
ब्रह्माजी की उन्चालिसवी पीढ़ी में भगवाम...
श्रीराम का जन्म हुआ था । श्री राम
को श्रीहरि विष्णु का सातवाँ अवतार
माना जाता है।
वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे – इल, इक्ष्वाकु,
कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त,करुष,
महाबली, शर्याति और पृषध।
श्री राम का जन्म इक्ष्वाकु के कुल में हुआ
था और एक मान्यता के अनुसार जैन धर्म के
तीर्थंकर निमि भी इसी कुल के थे।
मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु से विकुक्षि,
निमि और दण्डक पुत्र उत्पन्न हुए। इस तरह
से यह वंश परम्परा चलते-चलते
हरिश्चन्द्र, रोहित, वृष, बाहु और सगरतक
पहुँची। इक्ष्वाकु प्राचीन कौशल देश के
राजा थे और इनकी राजधानी अयोध्या थी।
रामायण के बालकांड में गुरु
वशिष्ठजी द्वारा राम के कुल का वर्णन
किया गया है जो इस प्रकार है ……….
१ – ब्रह्माजी से मरीचि हुए।
२ – मरीचि के पुत्र कश्यप हुए।
३ – कश्यप के पुत्र विवस्वान थे।
४ – विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए.वैवस्वत
मनु के समय जल प्रलय हुआ था।
५ – वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम
इक्ष्वाकु था।
इक्ष्वाकु ने
अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस
प्रकार इक्ष्वाकु कुलकी स्थापना की।
६ – इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए।
७ – कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था।
८ – विकुक्षि के पुत्र बाण हुए।
९ – बाण के पुत्र अनरण्य हुए।
१०- अनरण्य से पृथु हुए
११- पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ।
१२- त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए।
१३- धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था।
१४- युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए।
१५- मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ।
१६- सुसन्धि के दो पुत्र हुए- ध्रुवसन्धि एवं
प्रसेनजित।
१७- ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुए।
१८- भरत के पुत्र असित हुए।
१९- असित के पुत्र सगर हुए।
२०- सगर के पुत्र का नाम असमंज था।
२१- असमंज के पुत्र अंशुमान हुए।
२२- अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए।
२३- दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए।
भागीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर
उतारा था.भागीरथ के पुत्र ककुत्स्थ थे।
२४- ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए।
रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश
होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम
रघुवंश हो गया,तब से श्री राम के कुल को रघु
कुल भी कहा जाता है।
२५- रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए।
२६- प्रवृद्ध के पुत्र शंखण थे।
२७- शंखण के पुत्र सुदर्शन हुए।
२८- सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था।
२९- अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग हुए।
३०- शीघ्रग के पुत्र मरु हुए।
३१- मरु के पुत्र प्रशुश्रुक थे।
३२- प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुए।
३३- अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था।
३४- नहुष के पुत्र ययाति हुए।
३५- ययाति के पुत्र नाभाग हुए।
३६- नाभाग के पुत्र का नाम अज था।
३७- अज के पुत्र दशरथ हुए।
३८- दशरथ के चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण
तथा शत्रुघ्न हुए।
इस प्रकार ब्रह्मा की उन्चालिसवी (39)
पीढ़ी में श्रीराम का जन्म हुआ…..
जय श्री राम !!

धर्म

'"धर्म" शब्द सर्वप्रथम हिंदु संस्कृति में प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ केवल कोई उपासना पद्धति न होकर उच्च मानवीय गुणों से है । अतः धर्म केवल एक है, और वह है- "सनातन हिंदु धर्म".. जहाँ धर्म के कई लक्षण बताए गये हैं--मनुस्मृति
मनु ने धर्म के दस लक्षण गिनाए हैं:
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं
शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं
धर्मलक्षणम्।। (मनुस्मृति ६.९२)
(धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, शौच
(स्वच्छता), इन्द्रियों को वश मे रखना, बुद्धि,
विद्या, सत्य और क्रोध न करना ; ये दस धर्म
के लक्षण हैं।)
याज्ञवक्य
याज्ञवल्क्य ने धर्म के नौ (9) लक्षण गिनाए
हैं:
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
दानं दमो दया शान्ति: सर्वेषां धर्मसाधनम्।।
(अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय), शौच
(स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह
(इन्द्रियों को वश में रखना), दान, संयम (दम),
दया एवं शान्ति)
श्रीमद्भागवत
श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध में सनातन
धर्म के तीस लक्षण बतलाये हैं और वे बड़े
ही महत्त्व के हैं :
सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय
आर्जवम्।।
संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:।
नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।।
अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च
यथार्हत:।
तेषात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव।।
श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:।
सेवेज्यावनतिर्दास्यं
सख्यमात्मसमर्पणम्।।
नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:।
त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन
तुष्यति।।
महात्मा विदुर
महाभारत के महान यशस्वी पात्र विदुर ने धर्म
के आठ अंग बताए हैं -
इज्या (यज्ञ-याग, पूजा आदि), अध्ययन,
दान, तप, सत्य, दया, क्षमा और अलोभ ।
उनका कहना है कि इनमें से प्रथम चार
इज्या आदि अंगों का आचरण मात्र दिखावे के
लिए भी हो सकता है, किन्तु अन्तिम चार सत्य
आदि अंगों का आचरण करने वाला महान बन
जाता है।
तुलसीदास द्वारा वर्णित धर्मरथ
सुनहु सखा, कह कृपानिधाना, जेहिं जय होई
सो स्यन्दन आना।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका, सत्य सील दृढ़
ध्वजा पताका।
बल बिबेक दम पर-हित घोरे,
छमा कृपा समता रजु जोरे।
ईस भजनु सारथी सुजाना, बिरति चर्म
संतोष कृपाना।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचण्डा, बर
बिग्यान कठिन कोदंडा।
अमल अचल मन त्रोन सामना, सम जम
नियम सिलीमुख नाना।
कवच अभेद बिप्र-गुरुपूजा, एहि सम बिजय
उपाय न दूजा।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें, जीतन कहँ न
कतहूँ रिपु ताकें।
महा अजय संसार रिपु, जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होई दृढ़, सुनहु सखा मति-
धीर।। (लंकाकांड)
पद्मपुराण
ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा च प्रवर्तते।
दानेन नियमेनापि क्षमा शौचेन वल्लभ।।
अहिंसया सुशांत्या च अस्तेयेनापि वर्तते।
एतैर्दशभिरगैस्तु धर्ममेव सुसूचयेत।।
(अर्थात ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, संयम,
क्षमा, शौच, अहिंसा, शांति और अस्तेय इन
दस अंगों से युक्त होने पर ही धर्म
की वृद्धि होती है।)
धर्मसर्वस्वम्
जिस नैतिक नियम को आजकल 'गोल्डेन रूल'
या 'एथिक आफ रेसिप्रोसिटी' कहते हैं उसे
भारत में प्राचीन काल से मान्यता है। सनातन
धर्म में इसे 'धर्मसर्वस्वम्" (=धर्म का सब
कुछ) कहा गया है:
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं
श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।।
(पद्मपुराण, शृष्टि 19/357-358)
(अर्थ: धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो ! और
सुनकर इसका अनुगमन करो। जो आचरण
स्वयं के प्रतिकूल हो, वैसा आचरण दूसरों के
साथ नहीं करना चाहिये।)'"धर्म" शब्द सर्वप्रथम हिंदु संस्कृति में प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ केवल कोई उपासना पद्धति न होकर उच्च मानवीय गुणों से है । अतः धर्म केवल एक है, और वह है- "सनातन हिंदु धर्म".. जहाँ धर्म के कई लक्षण बताए गये हैं--मनुस्मृति
मनु ने धर्म के दस लक्षण गिनाए हैं:
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं
शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं...
धर्मलक्षणम्।। (मनुस्मृति ६.९२)
(धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, शौच
(स्वच्छता), इन्द्रियों को वश मे रखना, बुद्धि,
विद्या, सत्य और क्रोध न करना ; ये दस धर्म
के लक्षण हैं।)
याज्ञवक्य
याज्ञवल्क्य ने धर्म के नौ (9) लक्षण गिनाए
हैं:
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
दानं दमो दया शान्ति: सर्वेषां धर्मसाधनम्।।
(अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय), शौच
(स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह
(इन्द्रियों को वश में रखना), दान, संयम (दम),
दया एवं शान्ति)
श्रीमद्भागवत
श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध में सनातन
धर्म के तीस लक्षण बतलाये हैं और वे बड़े
ही महत्त्व के हैं :
सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय
आर्जवम्।।
संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:।
नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।।
अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च
यथार्हत:।
तेषात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव।।
श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:।
सेवेज्यावनतिर्दास्यं
सख्यमात्मसमर्पणम्।।
नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:।
त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन
तुष्यति।।
महात्मा विदुर
महाभारत के महान यशस्वी पात्र विदुर ने धर्म
के आठ अंग बताए हैं -
इज्या (यज्ञ-याग, पूजा आदि), अध्ययन,
दान, तप, सत्य, दया, क्षमा और अलोभ ।
उनका कहना है कि इनमें से प्रथम चार
इज्या आदि अंगों का आचरण मात्र दिखावे के
लिए भी हो सकता है, किन्तु अन्तिम चार सत्य
आदि अंगों का आचरण करने वाला महान बन
जाता है।
तुलसीदास द्वारा वर्णित धर्मरथ
सुनहु सखा, कह कृपानिधाना, जेहिं जय होई
सो स्यन्दन आना।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका, सत्य सील दृढ़
ध्वजा पताका।
बल बिबेक दम पर-हित घोरे,
छमा कृपा समता रजु जोरे।
ईस भजनु सारथी सुजाना, बिरति चर्म
संतोष कृपाना।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचण्डा, बर
बिग्यान कठिन कोदंडा।
अमल अचल मन त्रोन सामना, सम जम
नियम सिलीमुख नाना।
कवच अभेद बिप्र-गुरुपूजा, एहि सम बिजय
उपाय न दूजा।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें, जीतन कहँ न


कतहूँ रिपु ताकें।
महा अजय संसार रिपु, जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होई दृढ़, सुनहु सखा मति-
धीर।। (लंकाकांड)
पद्मपुराण
ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा च प्रवर्तते।
दानेन नियमेनापि क्षमा शौचेन वल्लभ।।
अहिंसया सुशांत्या च अस्तेयेनापि वर्तते।
एतैर्दशभिरगैस्तु धर्ममेव सुसूचयेत।।
(अर्थात ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, संयम,
क्षमा, शौच, अहिंसा, शांति और अस्तेय इन
दस अंगों से युक्त होने पर ही धर्म
की वृद्धि होती है।)
धर्मसर्वस्वम्
जिस नैतिक नियम को आजकल 'गोल्डेन रूल'
या 'एथिक आफ रेसिप्रोसिटी' कहते हैं उसे
भारत में प्राचीन काल से मान्यता है। सनातन
धर्म में इसे 'धर्मसर्वस्वम्" (=धर्म का सब
कुछ) कहा गया है:
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं
श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।।
(पद्मपुराण, शृष्टि 19/357-358)
(अर्थ: धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो ! और
सुनकर इसका अनुगमन करो। जो आचरण
स्वयं के प्रतिकूल हो, वैसा आचरण दूसरों के
साथ नहीं करना चाहिये।)