Showing posts with label Yoga and kundalini power. Show all posts
Showing posts with label Yoga and kundalini power. Show all posts

Sunday, March 13, 2016

कुण्डलिनी जागरण, Kundalini and Chakra awakening

ऊर्ध्वगमन का अभ्यास शक्तिचालनी मुद्रा द्वारा शक्ति प्रवाह कैसे जाग्रत करें

कुण्डलिनी जागरण में मूलाधार से प्रसुप्त कुण्डलिनी को जागृत करके ऊर्ध्वगामी बनाया जाता... है। उस महाशक्ति की सामान्य प्रवृत्ति अधोगामी रहती है। रति क्रिया में उसका स्खलन होता रहता है। शरीर यात्रा की मल मूत्र विसर्जन प्रक्रिया भी स्वभावतः अधोगामी है। शुक्र का क्षरण भी इसी दिशा में होता है। इस प्रकार यह सारा जीवन अधोगामी प्रवृत्तियों में संलग्न रहता है।
लेकिन कुण्डलिनी शक्ति के जागरण और उत्थान के लिए इस क्षेत्र को ऊर्ध्वगामी बनने का अभ्यास कराया जाता है। ताकि अभीष्ट उद्देश्य की सफलता में सहायता मिल सके। गुदा मार्ग को ऊर्ध्वगामी अभ्यास कराने के लिए हठयोग में ‘वस्ति क्रिया’ है। उसमें गुदा द्वारा से जल को ऊपर खींचा जाता है फिर संचित मल को बाहर निकाला जाता है। इसी प्रकार मूत्र मार्ग से जल ऊपर खींचने और फिर विसर्जित करने की क्रिया वज्रोली कहलाती है। वस्ति और वज्रोली दोनों का ही उद्देश्य इन विसर्जन छिद्रों को अधोमुखी अभ्यासों के साथ ही ऊर्ध्वगामी बनने का प्रशिक्षण दिया जाता है। इन अभ्यासों से कुण्डलिनी को ऊर्ध्वगामी बनाने में सहायता मिलती है।वस्ति और वज्रोली काफी कठिन है।
इस प्रयोग का पूर्वार्ध मूलबन्ध कहलाता है। मूलबन्ध में मात्र संकोचन भर होता है। जितनी देर मल मूत्र छिद्रों को सिकोड़ा जाता रहेगा उतनी देर मूलबन्ध की स्थिति मानी जाएगी यह एक पक्ष है। आधा अभ्यास है। इसमें पूर्णता समग्रता तब आती है जब प्राणायाम की तरह खींचने छोड़ने के दोनों ही अंग पूरे होने लगें। जब संकोचन-विसर्जन संकोचन-विसर्जन का-खींचने ढीला करने, खींचने ढीला करने का-उभय पक्षीय अभ्यास चल पड़े तो समझना चाहिए शक्तिचालनी मुद्रा का अभ्यास हो रहा है।
कमर से नीचे के भाग में अपान वायु रहती है। उसे ऊपर खींचकर कमर से ऊपर रहने वाली प्राणवायु के साथ जोड़ा जाता है। यह पूर्वार्ध हुआ। उत्तरार्ध में ऊपर के प्राण को नीचे के अपान के साथ जोड़ा जाता है। यह प्राण अपान के संयोग की योग शास्त्रों में बहुत महिमा गाई है-यही मूलबन्ध है। मूलबन्ध के अभ्यास से अधोगामी अपान को बलात् ऊर्ध्वगामी बनाया जाय, इससे वह प्रदीप्त होकर अग्नि के साथ साथ ही ऊपर चढ़ता है।मूलबन्ध के अभ्यास से मरुत् सिद्धि होती है अर्थात् शरीरस्थं वायु पर नियन्त्रण होता है। अतः आलस्य विहीन होकर मौन रहते हुए इसका अभ्यास करना चाहिए। प्राण और अपान का समागम नाद बिन्दु की साधना तथा मूलबन्ध का समन्वय, यह कर लेने पर निश्चित रूप से योग की सिद्धि होती है।निरन्तर मूलबन्ध का अभ्यास करने से प्राण और अपान के समन्वय से-अनावश्यक मल नष्ट होते हैं और बद्धता भी यौवन में बदलती है।मूलबन्ध से कुण्डलिनी का प्रवेश ब्रह्म नाड़ी-सुषुम्ना-में होता है। इसलिये योगी जन नित्य ही मूलबन्ध का अभ्यास करें।
इससे आयु में वृद्धि होती है और रोगों का नाश होता है यह अतिशयोक्ति नहीं है । यह विज्ञान सम्मत है। शक्ति कहीं से आती नहीं, सुप्त से जागृत, जड़ से चलायमान हो जाना ही शक्ति का विकास कहा जाता है। बिजली के जनरेटर में बिजली कही से आती नहीं है। चुम्बकीय क्षेत्र में सुक्वायल घुमाने से उसके अन्दर के इलेक्ट्रान विशेष दिशा में चल पड़ते हैं। यह चलने की प्रवृत्ति विद्युत सब्राहक शक्ति (ई॰ एम॰ एफ॰) के रूप में देखी जाती है। शरीरस्थं विद्युत को भी इसी प्रकार दिशा विशेष में प्रवाहित किया जा सके तो शरीर संस्थान एक सशक्त जनरेटर की तरह सक्षम एवं समर्थ बन सकता है। योग साधनाएँ इसी उद्देश्य की पूर्ति करती है।

Saturday, June 13, 2015

गायत्री मन्त्र /Gayatri Mantra and Kundalini


गायत्री मन्त्र जप /उच्चारण मात्र से स्वचालित प्रक्रिया द्वारा शरीर की 24 ग्रन्थियों (चक्रों) के जागरण, स्फुरण का रहस्य~

(गायत्री के ग्रन्थि योग का परिचय) 

1. मनुष्य की देह में जो चक्र और ग्रन्थियाँ गुप्त रूप से रहती हैं- वे चक्र और ग्रन्थियाँ मनुष्य के शुद्ध ह्रदय में प्रचण्ड प्रेरणा को प्रदान करती हैं। उन समस्त चक्र और ग्रन्थियों को जाग्रत करके साधना में रत मनुष्य कुण्डलिनी का साक्षात्कार करता है। वह ही ग्रन्थि योग कहलाता है।

2. गायत्री के अक्षरों का गुम्फन ऐसा है जिससे समस्त गुह्म ग्रन्थियाँ जाग्रत हो जाती हैं। जाग्रत हुई ये सूक्ष्म ग्रन्थियाँ साधक के मन में निस्सन्देह शीघ्र ही दिव्य शक्तियों को पैदा कर देती हैं।

3. मनुष्यों के अन्तःकरण में गायत्री मन्त्र के अक्षरों से सूक्ष्म भूत चौबीस शक्तियाँ प्रकट होती हैं।

4. मनुष्य के शरीर में अनेकों सूक्ष्म ग्रन्थियाँ होती हैं, जिनमें से छै प्रधान ग्रन्थियों/चक्रों का सम्बन्ध कुण्डलिनी-शक्ति जागरण से है। यथा शून्य चक्र, आज्ञा चक्र, विशुद्धारष्य चक्र, अनाहत चक्र, मणिपूरक चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र एवं मूलाधार चक्र। उनके अतिरिक्त और भी अनेकों महत्वपूर्ण ग्रन्थियाँ हैं, जिनका जागरण होने से ऐसी शक्तियों की प्राप्ति होती है, जो जीवनोन्नति के लिए बहुत ही उपयोगी हैं।

5. हमें ज्ञात है कि विभिन्न अक्षरों का उच्चारण मुख के विभिन्न स्थानों से होता है- कुछ का कंठ से, तालू से, होठों एवं दाँतों आदि स्थानों से। जिन स्थानों से गायत्री के विभिन्न शब्दों अक्षरों का मूल उद्गम है वे स्थान भिन्न हैं। शरीर के अन्तर्गत विविध स्थानों के स्नायु समूह तथा नाडी तन्तुओं का जब स्फुरण होता है तब उस शब्द का पूर्व रूप बनता है जो मुख में जाकर उसके किसी भाग से प्रस्फुटित होता है।

6. गायत्री के 24 अक्षर इसी प्रकार के हैं, जिनका उद्गम स्थान इन 24 ग्रन्थियों पर है। जब हम गायत्री मन्त्र का उच्चारण करते हैं तो क्रमशः इन सभी ग्रन्थियों पर आघात पहुँचता है और वे धीरे-धीरे सुप्त अवस्था का परित्याग करके जागृति की ओर चलती हैं। हारमोनियम बजाते समय जिस परदे/ बटन पर हाथ रखते हैं, वह स्वर बोलने लगता है। इसी प्रकार इन 24 अक्षरों के उच्चारण से वे 24 ग्रन्थियाँ झंकृत होने लगती हैं। इस झंकार के साथ उनमें स्वयंमेव (Automatically) जागृति की विद्युत दौड़ती है। फलस्वरूप धीरे-धीरे साधक में अनेकों विशेषतायें पैदा होती जाती हैं और उसे अनेकों प्रकार के भौतिक तथा आध्यात्मिक लाभ मिलने लगते हैं।

7. गायत्री मन्त्र के चौबीसों अक्षर अपने-अपने स्थान पर अवस्थिति उन शक्तियों को जगाते हैं - जिनके फलस्वरूप विविध प्रकार के लाभ होते हैं। इतने महान लाभों के लिए कोई पृथक क्रिया नहीं करनी पड़ती, केवल गायत्री मन्त्र के शब्दोच्चारण मात्र से स्वयंमेव ग्रन्थि जागरण होता चलता है और साधक से अपने आप ग्रन्थि योग की साधना होती चलती है।

8. सम्भवतः यही कारण है कि हिन्दू धर्म ग्रन्थों में, प्रत्येक धार्मिक क्रिया में, पूजा-पाठ में, दैनिक सन्ध्या उपासना में, विभिन्न संस्कारों में- जब भी हो सके अधिकाधिक एवं बार-बार गायत्री मन्त्र का उच्चारण / पाठ / जप करने का विधि-विधान सम्मिलित किया गया है।


By DR SK SHUKLA


Friday, June 5, 2015

Yoga and kundalini power






वायु का संबंध आयु से अनिरुद्ध जोशी ‘शतायु’ कछुए की साँस लेने और छोड़ने की गति इनसानों से
कहीं अधिक दीर्घ है। व्हेल मछली की उम्र का राज
भी यही है। बड़ और पीपल के वृक्ष की आयु का राज
भी यही है।

वायु को योग में प्राण कहते हैं। प्राचीन ऋषि वायु के इस रहस्य को समझते थे तभी तो वे
कुंभक लगाकर हिमालय की गुफा में वर्षों तक बैठे रहते थे।
श्वास को लेने और छोड़ने के दरमियान घंटों का समय
प्राणायाम के अभ्यास से ही संभव हो पाता है। शरीर में दूषित वायु के होने की स्थिति में भी उम्र
क्षीण होती है और रोगों की उत्पत्ति होती है। पेट में
पड़ा भोजन दूषित हो जाता है, जल भी दूषित हो जाता है
तो फिर वायु क्यों नहीं। यदि आप लगातार दूषित वायु
ही ग्रहण कर रहे हैं तो समझो कि समय से पहले ही रोग
और मौत के निकट जा रहे हैं।

हठप्रदीपिका में इसी प्राणरूप वायु के संबंध में कहा गया है
कि जब तक यह वायु चंचल या अस्थिर रहती है, जब तक
मन और शरीर भी चंचल रहता है। इस प्राण के स्थिर होने
से ही स्थितप्रज्ञ अर्थात मोक्ष की प्राप्ति संभव
हो पाती है। जब तक वायु इस शरीर में है, तभी तक जीवन
भी है, अतएव इसको निकलने न देकर कुंभक का अभ्यास बढ़ाना चाहिए, जिससे जीवन बना रहे और जीवन में
स्थिरता बनी रहे।

असंयमित श्वास के कारण :
बाल्यावस्था से ही व्यक्ति असावधानीपूर्ण और अराजक
श्वास लेने और छोड़ने की आदत के कारण ही अनेक
मनोभावों से ग्रसित हो जाता है। जब श्वास चंचल और
अराजक होगी तो चित्त के भी अराजक होने से आयु
का भी क्षय शीघ्रता से होता रहता है। फिर व्यक्ति जैसे-जैसे बड़ा होता है काम, क्रोध, मद,
लोभ, व्यसन, चिंता, व्यग्रता, नकारात्मता और
भावुकता के रोग से ग्रस्त होता जाता है। उक्त रोग
व्यक्ति की श्वास को पूरी तरह तोड़कर शरीर स्थित
वायु को दूषित करते जाते हैं जिसके कारण शरीर
का शीघ्रता से क्षय होने लगता है।

कुंभक का अभ्यास करें :
हठयोगियों ने विचार किया कि यदि सावधानी से
धीरे-धीरे श्वास लेने व छोड़ने और बाद में रोकने
का भी अभ्यास बनाया जाए तो परिणामस्वरूप चित्त में
स्थिरता आएगी। श्वसन-क्रिया जितनी मंद और सूक्ष्म
होगी उतना ही मंद जीवन क्रिया के क्षय होने का क्रम
होगा। यही कारण है कि श्वास-प्रश्वास का नियंत्रण
करने तथा पर्याप्त समय तक उसको रोक रखने (कुंभक) से
आयु के भी बढ़ने की संभावना बढ़ जाती है। इसी कारण योग
में कुंभक या प्राणायाम का सर्वाधिक महत्व माना गया है।

सावधानी :
आंतरिक कुंभक अर्थात श्वास को अंदर खींचकर पेट
या अन्य स्थान में रोककर रखने से पूर्व शरीरस्थ
नाड़ियों में स्थित दूषित वायु को निकालने के लिए
बाहरी कुंभक का अभ्यास करना आवश्यक है।
अतः सभी नाड़ियों सहित शरीर की शुद्धि के बाद ही कुंभक का अभ्यास करना चाहिए। वैसे तो प्राणायाम अनुलोम-विलोम के
भी नाड़ियों की शुद्धि होकर शरीर शुद्ध होता है और
साथ-साथ अनेक प्रकार के रोग भी दूर होते हैं, किन्तु
किसी प्रकार की गलती इस अभ्यास में हुई तो अनेक
प्रकार के रोगों के उत्पन्न होने की संभावना भी रहती है।
अतः उचित रीति से ही प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए।

प्राणायाम का रहस्य :
इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना ये तीन नाड़ियाँ प्रमुख हैं।
प्राणायम के लगातार अभ्यास से ये नाड़ियाँ शुद्ध होकर
जब सक्रिय होती हैं तो व्यक्ति के शरीर में
किसी भी प्रकार का रोग नहीं होता और आयु प्रबल
हो जाती है। मन में किसी भी प्रकार की चंचलता नहीं रहने से स्थिर मन शक्तिशाली होकर
धारणा सिद्ध हो जाती है अर्थात ऐसे व्यक्ति की सोच
फलित हो जाती है। यदि लगातार इसका अभ्यास
बढ़ता रहा तो व्यक्ति सिद्ध हो जाता है।

From matrabhumi.wordpress.com