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Saturday, October 1, 2016

Yogas & Muhurtas for Travel described in Garuda Purana


In Garuda Purana, Vishnu reveals to Siva, Yogas & Muhurtas, good or bad lunar and week days as per Vedic Astrology when travel should be avoided or undertaken for better prospects.

Lord Vishnu told Shiva : ‘Various Yoginis (goddesses) dwell in different directions on specific lunar days and one should never set out for long journeys on those days.
A yogini named Brahmani dwells in the East on Pratipada(first) and navami(ninth) of both the fortnights of each month and nobody should travel on both these dates towards east.
Maheswari dwells in the north on second and ninth of both the fortnights of each month, so nobody should travel towards north on both these dates.
Varahi dwells in the south on the fifth and thirteenth of both the fortnights of each month and hence it is unadvisable to travel towards south on the those lunar dates.
Indrani dwells in the west on sixth and fourteenth of both the fortnights of each month and therefore nobody should travel in this direction on both the above mentioned dates.’
While giving names of some auspicious Nakshatras suitable for undertaking journeys, lord Vishnu said : ‘Constellations like Aswini, Anuradha, Revati, Mrigasira, Moola, Punarvasu, Pushyami, Hasta and Jyeshta are auspicious for undertaking journeys.
Lord Vishnu, while revealing some specific combinations of days and tithis (lunar days) considered to be inauspicious, said : ‘ One should never travel on the following inauspicious days: Dwadasi falling on Sunday or Ekadasi falling on Monday or Navami falling on Wednesday or Ashtami falling on Thursday or Saptami falling on Friday and Shashti falling on Saturday.

2 Important Yogas in Vedic Panchang revealed by Lord Vishnu

Amrit Yoga

It is the most auspicious yoga for commencing any work. The conjunction of a particular week day and specific nakshatra constitute this yoga.
Few examples of Amrit yoga are Moola nakshatra falling on Sunday, Sravana nakshatra on Monday, Uttara bhadrapada on Tuesday, Kritika on Wednesday, Punarvasu on Thursday, Purva Phalguni on Friday and Swati nakshatra falling on Saturday.

Visha Yoga

It is considered to be an inauspicious yoga and unsuitable for commencing any important work.
Few examples of this particular yoga are Bharani nakshatra falling on Friday, Chitra nakshatra on Monday, Uttarashadha on Tuesday, Dhanishta on Wednesday, Shatabhisha on Thursday, Rohini on Friday and Revati nakshatra falling on Saturday.
Article is in From booksfact.com

Sunday, January 10, 2016

अग्निपुराण , AGNIPURAN

अग्निपुराण भाग – ११६

agnipuran
||श्रीहरि:||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

अग्निपुराण

अध्याय – ११८

अग्निपुराण का माहात्म्य

अग्निदेव कहते हैं – ब्रह्मन ! ‘अग्निपुराण’ ब्रह्मस्वरूप हैं, मैंने तुमसे इसका वर्णन किया | इसमें कहीं संक्षेप से और कहीं विस्तार के साथ ‘परा’ और ‘अपरा’ – इन दो विद्याओं का प्रतिपादन किया गया है | यह महापुराण हैं | ऋक, यजु:, साम और अथर्व- नामक वेदविद्या, विष्णु-महिमा, संसार-दृष्टि, छंद, शिक्षा, व्याकरण, निघुंट, ज्यौतिष, निरुक्त, धर्मशास्त्र, आदि, मीमांसा, विस्तृत न्यायशास्त्र, आयुर्वेद, पुराणविद्या, धनुर्वेद, गंधर्ववेद, अर्थशास्त्र, वेदान्त और महान (परमेश्वर) श्रीहरि – यह सब ‘अपरा विद्या ’ है तथा परम अक्षर तत्त्व ‘परा विद्या’ है | ‘यह सब कुछ विष्णु ही है’ – ऐसा जिसका भाव हो, उसे कलियुग बाधा नहीं पहुँचता | बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान और पितरों का श्राद्ध न करके भी यदि मनुष्य भक्तिपूर्वक श्रीकृष्ण का पूजन करे तो वह पाप का भागी नहीं होता | विष्णु सबके कारण हैं | उनका निरंतर ध्यान करनेवाला पुरुष कभी कष्ट में नहीं पड़ता | यदि परतंत्रता आदि दोषों से प्रभावित होकर तथा विषयों के प्रति चित्त आकृष्ट हो जानेके कारण मनुष्य पाप-कर्म कर बैठे तो भी गोविन्द का ध्यान करके वह सब पापों से मुक्त हो जाता है | दूसरी-दूसरी बहुत सी बातें बनाने से क्या लाभ ?’ध्यान’ वही है, जिसमें गोविन्द का चिन्तन होता हो, ‘कथा’ वही है, जिसमें केशव का कीर्तन हो रहा हो और ‘कर्म’ जाय | वसिष्ठजी ! जिस परमोत्कृष्ट परमार्थतत्त्व का उपदेश न तो पिता पुत्र को और न गुरु शिष्य को कर सकता हैं, वही इस अग्निपुराण के रूप में मैंने आपके प्रति किया है | द्विजवर ! संसार में भटकनेवाले पुरुष को स्त्री, पुत्र और धन-वैभव मिल सकते हैं तथा अन्य अनेकों सुह्रदों की भी प्राप्ति हो सकती है, परन्तु ऐसा उपदेश नहीं मिल सकता | स्त्री, पुत्र, मित्र, खेती-बारी और बंधू-बांधवों से क्या लेना हैं ? यह उपदेश ही सबसे बड़ा बंधु है; क्योंकि यह संसार से मुक्ति दिलानेवाला है ||१-११||
प्राणियों की सृष्टि दो प्रकार की है – ‘दैवी’ और ‘आसुरी’ | जो भगवान् विष्णु की भक्ति में लगा हुआ है, वह ‘दैवी सृष्टि’ के अंतर्गत है तथा जो भगवान् से विमुख है, वह ‘आसुरी सृष्टि’ का मनुष्य है – असुर है | यह अग्निपुराण, जिसका मैंने तुम्हे उपदेश किया है, परम पवित्र, आरोग्य एवं धनका साधक, दुःस्वप्न का नाश करनेवाला, मनुष्यों को सुख और आनन्द देनेवाला तथा भवबंधन से मोक्ष दिलानेवाला है | जिनके घरों में हस्तलिखित अग्निपुराण की पोथी मौजूद होगी,वहा उपद्रवों का जोर नहीं चल सकता | जो मनुष्य प्रतिदिन अग्निपुराण श्रवण करते हैं, उन्हें तीर्थ-सेवन, गोदान, यज्ञ तथा उपवास आदि की क्या आवश्यकता है ? जो प्रतिदिन एक प्रस्थ तिल और एक माशा सुवर्ण दान करता है तथा जो अग्निपुराण का एक ही श्लोक सुनता है, उन दोनों का फल समान है | श्लोक सुनानेवाला पुरुष तिल और सुवर्ण-दान का फल पा जाता है | इसके एक अध्याय का पाठ गोदान से बढकर है | इस पुराण को सुनने की इच्छामात्र करनेसे दिन-रातका किया हुआ पाप नष्ट हो जाता हैं | वृद्धपुष्कर-तीर्थ में सौ कपिला गौओं का दान करने से जो फल मिलता है, वही अग्निपुराण का पाठ करने से मिल जाता हैं | ‘प्रवुत्ति’ और ‘निवृत्ति’ रूप धर्म तथा ‘परा’ और ‘अपरा’ नामवाली दोनों विद्याएँ इस ‘अग्निपुराण’ नामक शास्त्र की समानता नहीं कर सकती | वसिष्ठजी ! प्रतिदिन अग्निपुराण का पाठ अथवा श्रवण करनेवाला भक्त-मनुष्य सब पापों से छुटकारा पा जाता हैं | जिस घरमें अग्निपुराण की पुस्तक रहेगी, वहाँ विघ्न-बाधाओं, अनर्थों तथा चोरों आदि का भय नहीं होगा | जहाँ अग्निपुराण रहेगा, उस घर में गर्भपात का भय न होगा, बालकों को ग्रह नहीं सतायेंगे तथा पिशाच आदि का भय भी निवृत्त हो जायेगा | इस पुराण का श्रवण करनेवाला ब्राह्मण वेदवेत्ता होता है, क्षत्रिय पृथ्वी का राजा होता है, वैश्य धन पाता हैं, शुद्र नीरोग रहता है | जो भगवान विष्णु में मन लगाकर सर्वत्र समानदृष्टि रखते हुए ब्रह्मस्वरुप अग्निपुराण का प्रतिदिन पाठ या श्रवण करता हैं, उसके दिव्य, आन्तरिक्ष और भौम आदि सारे उपद्रव नष्ट हो जाते हैं | इस पुस्तक के पढने-सुनने और पूजन करनवाले पुरुष के और भी जो कुछ पाप होते हैं, उन सबको भगवान् केशव नष्ट कर देते हैं | जो मनुष्य हेमंत-ऋतू में गंध और पुष्प आदि से पूजा करके श्री अग्निपुराण का श्रवण करता हैं, उसे अग्निष्टोम यज्ञ का फल मिलता हैं | शिशिर-ऋतू में इसके श्रवण से पुंडरिक का तथा वसंत-ऋतू में अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है | गर्मी में वाजपेय का, वर्षा में राजसूय का तथा शरद-ऋतू में इस पुराण का पाठ और श्रवण करनेसे एक हजार गोदान करने का फल प्राप्त होता है | वसिष्ठजी ! जो भगवान विष्णु के सम्मुख बैठकर भक्तिपूर्वक अग्निपुराण का पाठ करता हैं | जिसके घरमें हस्तलिखित अग्निपुराण की पूस्तक पूजित होती है, उसे सदा ही विजय प्राप्त होती है तथा भोग और मोक्ष – दोनों ही उसके हाथ में रहते हैं – यह बात पूर्वकाल में कालाग्निस्वरुप श्रीहरि ने स्वयं ही मुझसे बतायी थी | आग्नेय पुराण ब्रह्मविद्या एवं अद्वैतज्ञान रूप है ||१२-३१||
वसिष्ठजी कहते हैं – व्यास ! यह अग्निपुराण ‘परा-अपरा’ – दोनों विद्याओं का स्वरुप है | इसे विष्णु ने ब्रह्मासे तथा अग्निदेव ने समस्त देवताओं और मुनियों के साथ बैठे हुए मुझसे जिस रूपमें सुनाया, उसी रूपमें मैंने तुम्हारे सामने इसका वर्णन किया है | अग्निदेव के द्वारा वर्णित यह ‘आग्नेय पुराण’ वेड के तुल्य माननीय है तथा यह सभी विषयों का ज्ञान करानेवाला हैं | व्यास ! जो इसका पाठ या श्रवण करेगा, जो इसे स्वयं लिखेगा या दूसरों से लिखायेगा, शिष्यों का पढ़ायेगा या सुनायेगा अथवा इस पुस्तक का पूजन या धारण करेगा, वह सब पापों से मुक्त एवं पूर्णमनोरथ होकर स्वर्गलोक में जायगा | जो इस उत्तम पुराण को लिखाकर ब्राह्मणों को दान देता हैं, वह ब्रह्मलोक में जाता हैं तथा अपने कुलकी सौ पीढ़ियों का उद्धार कर देता हैं | जो एक श्लोक का भी पाठ करता हैं, उसका पाप-पंक से छुटकारा हो जाता हैं | इसलिये व्यास ! इस सर्वदर्शनसंग्रहरूप पुराण को तुम्हें श्रवण की इच्छा रखनेवाले शुकादि मुनियों के साथ अपने शिष्यों को सदा सुनाते रहना चाहिये | अग्निपुराण का पठन और चिन्तन अत्यंत शुभ तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला हैं | जिन्होंने इस पुराण का गान किया है, उन अग्निदेवको नमस्कार है ||३२-३८||
व्यासजी कहते हैं – सूत ! पूर्वकाल में वसिष्ठजी के मुख से सुना हुआ यह अग्निपुराण मैंने तुम्हें सुनाया हाउ | ‘परा’ और ‘अपरा’ विद्या इसका स्वरूप है | यह परम पद प्रदान करनेवाला है | आग्नेय पुराण परम दुर्लभ हैं, भाग्यवान पुरुषों को ही यह प्राप्त होता है | ‘ब्रह्म’ या ‘वेड स्वरुप’ इस अग्निपुराण का चिन्तन करनेवाले पुरुष श्रीहरि को प्राप्त होते हैं | इसके चिन्तन से विद्यार्थियों को विद्या और राज्य की इच्छा रखनेवालों को राज्य की प्राप्ति होती है | जिन्हें पुत्र नहीं है, उन्हें पुत्र मिलता हैं तथा जो लोग निराश्रय है, उन्हें आश्रय प्राप्त होता है | सौभाग्य चाहनेवाले सौभाग्य को तथा मोक्ष की अभिलाषा रखनेवाले मनुष्य मोक्ष को पाते हैं | इसे लिखने और लिखानेवाले लोग पापरहित होकर लक्ष्मी को प्राप्त होते हैं | सूत ! तूम शुक और पैल आदि के साथ अग्निपुराण का चिन्तन करो, इससे तुम्हे भोग और मोक्ष- दोनों की प्राप्ति होगी – इसमें तनिक भी संदेह नहीं है | तुम भी अपने शिष्यों और भक्तों को यह पुराण सुनाओ ||३९-४४||
सूतजी कहते हैं – शौनक आदि मुनिवरों ! मैंने श्रीव्यासजी की कृपासे श्रद्धापूर्वक अग्निपुराण का श्रवण किया है | यह अग्निपुराण ब्रह्मस्वरूप हैं | आप सब लोग श्रद्धायुक्त होकर इस नैमिषारण्य में भगवान् श्रीहरि का यजन करते हुए निवास करते हैं, अत: मैंने आपसे इस पुराण का वर्णन किया है | ‘अग्निदेव’ इस पुराण के वक्ता हैं, अतएव यह ‘आग्नेयपुराण’ कहलाता हैं | इसे वेदों के तुल्य माना गया है | यह ‘ब्रह्म’ और ‘विद्या’ – दोनों से युक्त है | इससे बढकर सर्वोत्तम सार, इससे उत्तम सुह्रद, इससे श्रेष्ठ ग्रन्थ तथा इससे उत्कृष्ट कोई गति नहीं हैं | इस पुराण से बढकर शास्त्र नहीं है, इससे बढकर वेदान्त भी नहीं है | यह पुराण सर्वोत्कृष्ट है | इस पृथ्वीपर अग्निपुराण से बढकर श्रेष्ठ और दुर्लभ वस्तु कोई नहीं है ||४५-५१||
इस अग्निपुराण में भगवान् के मत्स्य आदि सम्पूर्ण अवतार, गीता और रामायण का भी इसमें वर्णन है | ‘हरिवंश’ और ‘महाभारत’ का भी परिचय है | नौ प्रकार की सृष्टि का भी दिग्दर्शन कराया गया है | देवताओं की स्थापना के साथ ही दीक्षा तथा पूजा का भी उल्लेख हुआ है | यह पुराण पन्द्रह हजार श्लोकों का है | देवलोक में इसका विस्तार एक अरब श्लोकों में हैं | देवता सदा इस पुराण का पाठ करते हैं | सम्पूर्ण लोकों का हित करने के लिये अग्निदेव ने इसका संक्षेप से वर्णन किया है | शौनकादि मुनियों ! आप इस सम्पूर्ण पुराण को ब्रह्ममय ही समझे | जो इसे सुनता या सुनाता, पढ़ता या पढाता, लिखता या लिखवाता तथा इसका पूजन और कीर्तन करता हैं, वह परम शुद्ध हो सम्पूर्ण मनोरथों को प्राप्त करके कुलसहित स्वर्ग को जाता हैं ||५२-६६ ||
राजाको चाहिये कि संयमशील होकर पुराण के वक्ता का पूजन करे | गौ, भूमि तथा सुवर्ण आदिका दान दे आदि से तृप्त करते हुए वक्ता का पूजन करके मनुष्य पुराण श्रवण का पूरा – पूरा फल पाता है | जो इस पुस्तक के लिये पेटी, सूत, पत्र, काठ की पट्टी, उसे बाँधने की रस्सी तथा वेष्टन वस्त्र आदि दान करता हैं, वह स्वर्गलोक को जाता है | जो अग्निपुराण की पुस्तक का दान करता है, वह ब्रह्मलोक में जाता है | जिसके घर में यह पुस्तक रहती है, उसके यहाँ उत्पातका भय नहीं रहता | वह भोग और मोक्ष को प्राप्त होता है | मुनियों ! आपलोग इस अग्निपुराण को ईश्वररूप मानकर सदा इसका स्मरण रखे ||६७-७१ ||
व्यासजी कहते हैं – तत्पश्चात सूतजी मुनियों से पूजित हो वहाँ से चले गये और शौनक आदि माहात्मा भगवान् श्रीहरि को प्राप्त हुए ||७२||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘अग्निपुराण में वर्णित संक्षिप्त विषय तथा इस पुराण के माहात्म्य का वर्णन ’ नामक एक सौ अठराहवाँ अध्याय पूरा हुआ || ११८ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –

अग्निपुराण भाग – ११५


||श्रीहरि:||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

अग्निपुराण

अध्याय – ११७

यमगीता

अग्निदेव कहते है – ब्रह्मन ! अब मैं ‘यमगीता’ का वर्णन करूँगा, जो यमराज के द्वारा नचिकेता के प्रति कही गयी थी | यह पढने और सुननेवालों को सत्पुरुषों को मोक्ष देनेवाली हैं ||१||
यमराजने कहा – अहो ! कितने आश्चर्य की बात है कि मनुष्य अत्यंत मोह के कारण स्वयं अस्थिरचित्त होकर आसन, शय्या, वाहन, परिधान तथा गृह आदि भोगों को सुस्थिर मानकर प्राप्त करना चाहता हैं | कपिलजी ने कहा है – ‘भोगों में आसक्तिका अभाव तथा सदा ही आत्मतत्त्व का चिन्तन- यह मनुष्यों के परमकल्याण का उपाय हैं |’ ‘सर्वत्र समतापूर्ण दृष्टि तथा ममता और आसक्तिका न होना- यह मनुष्यों के परमकल्याण का साधन हैं’ – यह आचार्य पंचशिख का उदगार हैं | गर्भ से लेकर जन्म और बाल्य आदि वय तथा मनुष्यों के परमकल्याण का हेतु हैं’ – यह गंगा-विष्णु का गान है | ‘आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक दुःख आदि-अन्तवाले हैं, अर्थात ये उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं, अत: इन्हें क्षणिक समझकर धैर्यपूर्वक सहन करना चाहिये, विचलित नहीं होना चाहिये – इस प्रकार उन दु:खों का प्रतिकार ही मनुष्यों के लिये परमकल्याण का साधन हैं’ – यह महाराज जनक का मत हैं | ‘जीवात्मा और परमात्मा वस्तुत: अभिन्न (एक) है; इनमें जो भेद्की प्रतीति होती है, उसका निवारण करना ही परमकल्याण का हेतु हैं’ – यह ब्रह्माजी का सिद्धांत है | जैगीषव्यका कहना है कि ‘ऋग्वेद, युजुर्वेद और सामवेद में प्रतिपादित को कर्म हैं, उन्हें कर्तव्य समझकर अनासक्तभाव से करना श्रेय का साधन हैं |’ ‘सब प्रकार की विधित्सा (कर्मारंभ की आकांक्षा)- का परित्याग आत्मा के सुख का साधन हैं; यही मनुष्यों के लिये परम श्रेय हैं’ – यह देवल का मत बताया गया हैं | ‘ कामनाओं के त्याग से विज्ञान, सुख, ब्रह्म एवं परमपद की प्राप्ति होती हैं | कामना रखनेवालों को ज्ञान नही होता’ – यह सनकादिकों का सिद्धान्त है ||२-१०||
“दूसरे लोग कहते हैं कि प्रवृत्ति और निवृत्ति – दोनों प्रकार के कर्म करने चाहिये | परन्तु वास्तव में नैष्कर्म्य ही ब्रह्म हैं; वाही भगवान् विष्णु का स्वरूप है – यही श्रेय का भी श्रेय हैं | जिस पुरुष को ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है, वह संतों में श्रेष्ठ है; वह अविनाशी परब्रह्म विष्णु से कभी भेद को नहीं प्राप्त होता | ज्ञान, विज्ञान, आस्तिकता, सौभाग्य तथा उत्तम रूप तपस्या से उपलब्ध होते हैं | इतना ही नहीं, मनुष्य अपने मनसे जो-जो वस्तु पाना चाहता हैं, वह सब तपस्या से प्राप्त हो जाती है | विष्णु के समान कोई ध्येय नहीं हैं, निराहार रहनेसे बढ़कर कोई तपस्या नहीं है, आरोग्य के समान कोई बहुमूल्य वस्तु नहीं है और गंगाजी के तुली दूसरी कोई नदी नहीं हैं | जगदगुरु भगवान् विष्णु को छोडकर दूसरा कोई बांधव नहीं है | ‘नीचे-ऊपर, आगे, देह, इन्द्रिय, मन तथा मुख – सब में और सर्वत्र भगवान् श्रीहरि विराजमान हैं |’ इसप्रकार भगवान् का चिन्तन करते हुए जो प्राणों का परित्याग करता हैं, वह साक्षात श्रीहरि के स्वरुप में मिल जाता है | वह जो सर्वत्र व्यापक ब्रह्म हैं, जिससे सबकी उत्पत्ति हुई है, जो सर्वस्वरूप हैं तथा यह सब कुछ जिसका संस्थान (आकार-विशेष) हैं, जो इन्द्रियों से ग्राह्य नहीं हैं, जिसका किसी नाम आदि के द्वारा निर्देश नहीं किया जा सकता, जो सुप्रतिष्ठित एवं सबसे परे हैं, उस परापर ब्रह्म के रूप में साक्षात भगवान् विष्णु ही सबके ह्रदय में विराजमान हैं | वे यज्ञ के स्वामी तथा यज्ञस्वरुप है; उन्हें कोई तो परब्रह्मरूप से प्राप्त करना चाहते हैं, कोई विष्णुरूप से, कोई शिवरूप से, कोई ब्रह्मा और ईश्वररूप से, कोई इन्द्रादि नामों से तथा कोई सूर्य, चन्द्रमा और कालरूप से उन्हें पाना चाहते हैं | ब्रह्मा से लेकर कीटतक सारे जगत को विष्णु का ही स्वरुप कहते हैं | वे भगवान् विष्णु परब्रह्म परमात्मा हैं, जिनके पास पहुँच जानेपर (जिन्हें जान लेने या पा लेनेपर) फिर वहाँ से इस संसार में नहीं लौटना पड़ता | सुवर्ण-दान आदि बड़े-बड़े दान तथा पुण्य-तीर्थों में स्नान करने से, ध्यान लगाने से, व्रत करने से, पूजासे और धर्म की बातें सुनने (एवं उनका पालन करने)- से उनकी प्राप्ति होती है” ||११-२०||
“आत्मा को ‘रथी’ समझो और शरीर को ‘रथ’ | बुद्धि को ‘सारथि’ जानो और मन को ‘लगाम’ | विवेकी पुरुष इन्द्रियों को ‘घोड़े’ कहते हैं और विषयों को उनके ‘मार्ग’ तथा शरीर, इन्द्रिय और मनसहित आत्मा को ‘भोक्ता’ कहते है | जो बुद्धिरूप सारथि अविवेकी होता हैं, जो अपने मनरूपी लगाम को कसकर नहीं रखता, वह उत्तम पद को (परमात्मा को) नही प्राप्त होता; संसाररूपी गर्त में गिरता है | परन्तु जो विवेकी होता हैं और मन को काबू में रखता है, वह उस परमपद को प्राप्त होता हैं, जिससे वह फिर जन्म नहीं लेता | जो मनुष्य विवेकयुक्त बुद्धिरूप सारथि से सम्पन्न और मनरूपी लगाम को काबू में रखनेवाला होता है, वही संसाररूपी मार्ग को पार करता हैं, जहाँ विष्णुका परमपद हैं | इन्दिर्यों की अपेक्षा उनके विषय पर हैं, विषयों से परे मन हैं, मनसे परे बुद्धि है, बुद्धि से परे महान आत्मा (महत्तत्त्व ) हैं, महत्तत्त्व से परे अव्यक्त (मूलप्रकृति) है और अव्यक्त से परे पुरुष (परमात्मा) हैं | पुरुष से परे कुछ भी नहीं हैं, वही सीमा हैं, वही परमगति है | सम्पूर्ण भूतों में छिपा हुआ यह आत्मा प्रकाश में नहीं आता | सूक्ष्मदर्शी पुरुष अपनी तीव्र एवं सूक्ष्म बुद्धिसे ही उसे देख पाते है | विद्वान् पुरुष वाणी को मन में और मन को विज्ञानमयी बुद्धि में लीन करे | इसीप्रकार बुद्धि को महतत्त्व में और महत्तत्व को शांत आत्मा में लीन करे” ||२१-२९||
“यम-नियमादि साधनों से ब्रह्म और आत्मा की एकता को जानकर मनुष्य सत्स्वरूप ब्रह्म ही हो जाता है | अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरीका अभाव), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (संग्रह न करना) – ये पाँच ‘यम’ कहलाते हैं | ‘नियम’ भी पाँच ही हैं – शौच (बाहर-भीतर की पवित्रता), संतोष, उत्तम तप, स्वाध्याय और ईश्वरपूजा | ‘आसन’ बैठने की प्रक्रिया का नाम हैं; उसके ‘पद्मासन’ आदि कई भेद हैं | प्राणवायु को जीतना ‘प्राणायाम’ है | इन्द्रियों का निग्रह ‘प्रत्याहार’ कहलाता हैं | ब्रह्मन ! एक शुभ विषय में जो चित्त को स्थिरतापूर्वक स्थापित करना होता हैं, उसे बुद्धिमान पुरुष ‘धारणा’ कहते हैं | एक ही विषय में बारंबार धारणा करने का नाम ‘ध्यान’ हैं | ‘मैं ब्रम्ह हूँ’ – इस प्रकार के अनुभव में स्थिति होने को ‘समाधि’ कहते हैं | जैसे घडा फूट जानेपर घटाकाश महाकाश से अभिन्न (एक) हो जाता हैं, उसीप्रकार मुक्त जीव ब्रह्म के साथ एकीभाव को प्राप्त होता हैं – वह सत्स्वरूप ब्रह्म ही हो जाता हैं | ज्ञान से ही जीव अपने को ब्रह्म मानता हिन्, अन्यथा नहीं | अज्ञान और उसके कार्यों से मुक्त होनेपर जीव अजर-अमर हो जाता है” ||३०-३६||
अग्निदेव कहते है – वसिष्ठ ! यह मैंने ‘यमगीता’ बतलायी है | इसे पढ़नेवालों को यह भोग और मोक्ष प्रदान करती है | वेदान्त के अनुसार सर्वत्र ब्रह्मबुद्धि का होना ‘आत्यन्तिक लय’ कहलाता हैं ||३७||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘यम गीता-कथन ’ नामक एक सौ सतराहवाँ अध्याय पूरा हुआ || ११७ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –

अग्निपुराण भाग – ११४

||श्रीहरि:||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

अग्निपुराण

अध्याय – ११६

गीता – सार

अब मैं गीता का सार बतलाऊँगा, जो समस्त गीता का उत्तम-से-उत्तम अंश है | पूर्वकाल में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को उसका उपदेश दिया था | वह भोग तथा मोक्ष-दोनों को देनेवाला हैं ||१||
श्रीभगवान ने कहा – अर्जुन ! जिसका प्राण चला गया हैं अथवा जिसका प्राण अभी नहीं गया हैं, ऐसे मरे हुए अथवा जीवित किसी भी देहधारी के लिये शोक करना उचित नहीं हैं; क्योंकि आत्मा अजन्मा, अजर, अमर तथा अभेद्य हैं, इसलिये शोक आदि को छोड़ देना चाहिये | विषयों का चिन्तन करनेवाले पुरुष की उनमें आसक्ति हो जाती हैं; आसक्ति से काम, काम से क्रोध और क्रोध से अत्यंत मोह (विवेक का अभाव) होता हैं | मोह से स्मरणशक्ति का ह्रास और उससे बुद्धिका नाश हो जाता हैं | बुद्धि के नाश से उसका सर्वनाश हो जाता हैं |सत्पुरुषों का संग करनेसे बुरे संग छुट जाते हैं (आसक्तियाँ दूर हो जाती हैं) | फिर मनुष्य अन्य सब कामनाओं का त्याग करके केवल मोक्ष की कामना रखता हैं | कामनाओं के त्याग से मनुष्य की आत्मा अर्थात अपने स्वरूप में स्थिति होती है, उससमय वह ‘स्थिरप्रज्ञ’ कहलाता हैं | सम्पूर्ण प्राणियों के लिये जो रात्रि हैं, अर्थात समस्त जीव जिसकी ओरसे बेखबर होकर सो रहे हैं, उस परमात्मा के स्वरूप में भगवत्प्राप्त संयमी (योगी) पुरुष जागता रहता हैं तथा जिस क्षणभंगुर सांसारिक सुख में सब भूत-प्राणी जागते हैं, अर्थात जो विषय-भोग उनके सामने दिन के समान प्रकट हैं, वह ज्ञानी मुनि के लिये रात्रि के ही समान हैं | जो अपने-आप में ही संतुष्ट हैं, उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं हैं | इस संसार में उस आत्माराम पुरुष को न तो कुछ करने से प्रयोजन है और न न करनेसे ही | महाबाहो ! जो गुण-विभाग और कर्म-विभाग के तत्त्व को जानता हैं, वह यह समझकर कि सम्पूर्ण गुण गुणों में ही बरत रहे हैं, कहीं आसक्त नहीं होता | अर्जुन ! तुम ज्ञानरुपी नौका का सहारा लेने से निश्चय ही सम्पूर्ण पापों को तर जाओगे | ज्ञानरुपी अग्नि सब कर्मों को जलाकर भस्म कर डालती है | जो सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके आसक्ति छोडकर कर्म करता हैं, वह पाप से लिप्त नहीं होता- ठीक उसी तरह जैसे कमल का पत्ता पानी से लिप्त नहीं होता | जिसका अंत:करण योगयुक्त हैं – परमानंदमय परमात्मा में स्थित है तथा जो सर्वत्र समान दृष्टि रखनेवाला हैं, वह योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में तथा सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में देखता हैं | योगभ्रष्ट पुरुष शुद्ध आचार-विचारवाले श्रीमानों (धनवानों) के घरमें जन्म लेता हैं | तात ! कल्याणमय शुभ कर्मो का अनुष्ठान करनेवाला पुरुष कभी दुर्गति को नहीं प्राप्त होता ||२-११||
“मेरी यह त्रिगुणमयी माया अलौकिक हैं; इसका पार पाना बहुत कठिन हैं | जो केवल मेरी शरण लेते हैं, वे ही इस माया को लाँघ पाते हैं | भारतश्रेष्ठ ! आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी – ये चार प्रकार के मनुष्य मेरा भजन करते हैं | इनमें से ज्ञानी तो मूझसे एकीभुत होकर स्थित रहता हैं | अविनाशी परम-तत्त्व (सच्चीदानंदमय परमात्मा) ‘ब्रह्म’ है, स्वभाव अर्थात जीवात्मा को ‘अध्यात्म’ कहते हैं, भूतों की उत्पत्ति और वृद्धि करनेवाले विसर्ग का (यज्ञ-दान आदिके निमित्त किये जानेवाले द्रव्यादि के त्याग का ) नाम ‘कर्म’ हैं, विनाशशील पदार्थ ‘अधिभूत’ है तथा पुरुष (हिरण्यगर्भ) ‘अधिदैवत’ है | देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! इस देह के भीतर मैं वासुदेव ही ‘अधियज्ञ’ हूँ | अन्तकाल में मेरा स्मरण करनेवाला पुरुष मेरे स्वरुप को प्राप्त होता हैं, इसमें तनिक भी संदेह नहीं हैं | मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भाव का स्मरण करते हुए अपने देह का परित्याग करता हैं, उसी को वह प्राप्त होता है | मृत्यु के समय जो प्राणों को भौहों के मध्य में स्थापित करके ‘ॐ’ – इस एकाक्षर ब्रह्म का उच्चारण करते हुए देहत्याग करता है, वह मुझ परमेश्वर को ही प्राप्त करता है | ब्रहमाजी से लेकर तुच्छ किटतक जो कुछ दिखायी देता हैं, सब मेरी ही विभूतियाँ हैं | जितने भी श्रीसंपन्न और शक्तिशाली प्राणी है, सब मेरे अंश है | ‘मैं अकेला ही सम्पूर्ण विश्व के रूप में स्थित हूँ’ – ऐसा जानकर मनुष्य मुक्त हो जाता हैं “ ||१२-१९||
“ यह शरीर ‘क्षेत्र’ हैं; जो इसे जानता हैं, उसको ‘क्षेत्रज्ञ’ को जो याथार्थरूप से जानना हैं, वही मेरे मत में ‘ज्ञान’ है | पाँच महाभूत, अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त (मूलप्रकृति), दस इन्द्रियाँ, एक मन, पाँच इन्द्रियों के विषय, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, स्थूल शरीर, चेतना और धृति – यह विकारोंसहित ‘क्षेत्र’ हैं, जिसे यहाँ संक्षेप से बतलाया गया हैं | अभिमानशून्यता, दम्भ का अभाव, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरुसेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि, अंत:करण की स्थिरता, मन, इन्द्रिय एवं शरीर का निग्रह, विषयभोगों में आसक्ति का अभाव, अहंकार का न होना, जन्म, मृत्यु, जरा, तथा रोग आदि में दुःखरूप दोष का बारंबार विचार करना, पुत्र, स्त्री और गृह आदिमें आसक्ति और ममता का अभाव, प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही समानचित्त रहना (हर्ष-शोक के वशीभूत न होना), मुझ परमेश्वर में अनन्य-भाव से अविचल भक्ति का होना, पवित्र एवं एकांत स्थान में रहने का स्वभाव, विषयी मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का अभाव, अध्यात्म-ज्ञान में स्थिति तथा तत्त्व-ज्ञानस्वरुप परमेश्वर का निरंतर दर्शन- यह सब ‘ज्ञान’ कहा गया हैं और जो इसके विपरीत हैं, वह ‘अज्ञान’ है “ ||२०-२७||
“अब जो ‘ज्ञेय’ अर्थात जानने के योग्य है, उसका वर्णन करूँगा, जिसको जानकर मनुष्य अमृत-स्वरूप परमात्मा को प्राप्त होता है | ‘ज्ञेय तत्त्व’ अनादि है और ‘परब्रह्म’ के नाम से प्रसिद्द है | उसे न ‘सत’ कहा जा सकता है, न ‘असत’ | (वह इन दोनों से विलक्षण है |) उसके सब ओर हाथ-पैर हैं, सब ओर नेत्र, सिर और मुख हैं तथा सब ओर कान हैं | वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है | सब इन्द्रियों से रहित होकर भी समस्त इन्द्रियों के विषयों को जाननेवाला है | सबका धारण-पोषण करनेवाला होकर भी आसक्तिरहित हैं तथा गुणों का भोक्ता होकर भी ‘निर्गुण’ हैं | वह परमेश्वर सम्पूर्ण प्राणियों के बाहर और भीतर विद्यमान हैं | ‘चर’ और ‘अचर’ सब उसी के स्वरूप हैं | सूक्ष्म होने के कारण वह ‘अविज्ञेय’ है | वही निकट हैं और वही दूर | यद्यपि वह विभागरहित हैं (आकाशकी भांति अखंडरूप से सर्वत्र परिपूर्ण है ), तथापि सम्पूर्ण भूतों में विभक्त पृथक-पृथक स्थित हुआ-सा प्रतीत होता है | उसे विष्णुरूप से सब प्राणियों का पोषक, रुद्ररूप से सबका संहारक और ब्रह्मा के रूपसे सबको उत्पन्न करनेवाला जानना चाहिये | वह सूर्य आदि ज्योतियों की भी ज्योति (प्रकाशक) है | उसकी स्थिति अज्ञानमय अन्धकार से परे बतलायी जाती हैं | वह परमात्मा ज्ञानस्वरूप, जानने के योग्य, तत्त्वज्ञान से प्राप्त होनेवाला और सबके ह्रदय में स्थित हैं “ ||२८-३३||
“उस परमात्मा को कितने ही मनुष्य सूक्ष्मबुद्धि से ध्यान के द्वारा अपने अंत:करण में देखते हैं | दुसरे लोग सांख्ययोग के द्वारा तथा कुछ अन्य मनुष्य कर्मयोग के द्वारा देखते हैं | इनके अतिरिक्त जो मंद बुद्धिवाले साधारण मनुष्य हैं, वे स्वयं इस प्रकार न जानते हुए भी दूसरे ज्ञानी पुरुषों से सुनकर ही उपासना करते हैं | वे सुनकर उपासना में लगनेवाले पुरुष भी मृत्युरूप संसार-सागरसे निश्चय ही पार हो जाते हैं | सत्त्वगुण से ज्ञान, रजोगुण से लोभ तथा तमोगुण से प्रमाद, मोह और अज्ञान उत्पन्न होते हैं | गुण ही गुणों में बर्तते है – ऐसा समझकर जो स्थिर रहता हैं, अपनी स्थितिसे विचलित नहीं होता, जो मान –अपमान में तथा मित्र और शत्रुपक्ष में भी समानभाव रखता हैं, जिसने कर्तुत्व के अभिमान को त्याग दिया हैं, वह ‘निर्गुण’ (गुणातीत) कहलाता हैं | जिसकी जड़ ऊपर की ओर (अर्थात परमात्मा हैं ) और ‘शाखा’ नीचे की ओर (यानी ब्रह्माजी आदि) हैं, उस संसाररूपी अश्वत्थ वृक्ष को अनादि प्रवाहरुप से ‘अविनाशी’ कहते हैं | वेद उसके पत्ते हैं | जो उस वृक्ष को मूलसहित यथार्थरूप से जानता हैं, वही वेद के तात्पर्य को जाननेवाला है | इस संसार में प्राणियों की सृष्टि दो प्रकारकी है – एक ‘दैवी’ – देवताओं के – से स्वभाववाली और दूसरी ‘आसुरी’ – असुरों के-से स्वभाववाली | अत: मनुष्यों के अहिंसा आदि सदगुण और क्षमा ‘दैवी सम्पत्ति’ हैं | ‘आसुरी सम्पत्ति’ से जिसकी उत्पत्ति हुई है, उसमें न शौच होता हैं, न सदाचार | क्रोध, लोभ और काम- ये नरक देनेवाले हैं, अत: इन तीनों को त्याग देना चाहिये | सत्त्व आदि गुणों के भेद से यज्ञ, तप और दान तीन प्रकार के माने गये हैं (सात्त्विक, राजस और तामस) | ‘सात्त्विक’ अन्न आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य और सुख की वृद्धि करनेवाला हैं | तीखा और रुखा अन्न ‘राजस’ हैं | वह दुःख, शोक और रोग उत्पन्न करनेवाला हैं | अपवित्र, जूठा, दुर्गन्धयुक्त और नीरस आदि अन्न ‘तामस’ माना गया हैं | ‘यज्ञ करना कर्तव्य हैं’ – यह समझकर निष्कामभाव से विधिपूर्वक किया जानेवाला यज्ञ ‘सात्त्विक’ है | फल की इच्छासे किया जाननेवाला यज्ञ ‘तामस’ है | श्रद्धा और मन्त्र आदिसे युक्त एवं विधि-प्रतिपादित जो देवता आदि की पूजा तथा अहिंसा आदि तप हैं, उन्हें ‘शारीरिक तप’ कहते हैं | अब वाणी से किये जानेवाले तप को बताया जाता हैं | जिससे किसीको उद्वेग न हो – ऐसा सत्य वचन, स्वाध्याय और मनोनिग्रह – ये ‘मानस तप’ है | कामनारहित तप ‘सात्त्विक’ फल आदि के लिये किया जानेवाला तप ‘राजस’ तथा दूसरों को पीड़ा देने के लिये किया हुआ तप ‘तामस’ कहलाता हैं | उत्तम देश, काल और पात्र में दिया हुआ दान ‘सात्त्विक’ है, प्रत्युपकार के लिये दिया जानेवाला दान ‘राजस’ हैं तथा अयोग्य देश, काल आदि में अनादरपूर्वक दिया हुआ दान ‘तामस; कहा गया हैं | ‘ॐ’, ‘तत’, और ‘सत’ – ये परब्रह्म परमात्मा के तीन प्रकार के नाम बताये गये हैं | यज्ञ-दान आदि कर्म मनुष्यों को भोग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं | जिन्होंने कामनाओं का त्याग नहीं किया हैं, उन सकामी पुरुषों के कर्म का बुरा, भला और मिला हुआ – तीन प्रकार का फल होता हैं | यह फल मृत्यु के पश्चात प्राप्त होता हैं | संन्यासी (त्यागी पुरुषों) – के कर्मों का त्याग किया जाता हैं, वह ‘तामस’ हैं, शरीर को कष्ट पहुँचने के भय से किया हुआ त्याग ‘राजस’ हैं तथा कामना के त्याग से सम्पन्न होनेवाला त्याग ‘सात्त्विक’ कहलाता हैं | अधिष्ठान, कर्ता, भिन्न-भिन्न करण, नाना प्रकारकी अलग-अलग चेष्टाएँ तथा दैव – वे पाँच ही कर्म के कारण हैं | सब भूतों में एक परमात्मा का ज्ञान ‘सात्त्विक’, भेद्ज्ञान ‘राजस’ और अतात्त्विक ज्ञान ‘तामस’ है | निष्काम भाव से किया हुआ कर्म ‘सात्त्विक’, कामना के लिये किया जानेवाला, ‘राजस’ तथा मोहवश किया हुआ कर्म ‘तामस’ हैं | कार्य की सिद्धि और असिद्धि में सम (निर्विकार) रहनेवाला कर्ता ‘सात्त्विक’, हर्ष और शोक करनेवाला ‘राजस’ तथा शठ और आलसी कर्ता ‘तामस’ कहलाता हैं | कार्य-अकार्य के तत्त्व को समझनेवाली बुद्धि ‘राजसी’ तथा विपरीत धारणा रखनेवाली बुद्धि ‘तामसी’ मानी गयी हैं | मन को धारण करनेवाली धृति ‘सात्त्विकी’, प्रीतिकी कामानावाली धृति ‘तामसी’ हैं | जिसका परिणाम सुखद हो, वह सत्त्व से उत्पन्न होनेवाला ‘सात्त्विक सुख’ है | जो आरम्भ में सुखद प्रतीत होनेपर भी परिणाम में दुःखद हो वह ‘राजस सुख’ हैं तथा जो आदि और अंत में भी दुःख-ही-दुःख हैं, वह आपातत: प्रतीत होनेवाला सुख ‘तामस’ कहा गया हैं | जिससे सब भूतों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह सम्पूर्ण जगत व्याप्त हैं, उस विष्णु को अपने-अपने स्वाभाविक कर्मद्वारा पूजकर मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त कर लेता हैं | जो सब अवस्थाओंमें और सर्वदा मन, वाणी एवं कर्म के द्वारा ब्रह्मा से लेकर तुच्छ कीटपर्यन्त सम्पूर्ण जगत को भगवान् विष्णु का स्वरुप समझता हैं, वह भगवान् में भक्ति रखनेवाला भागवत पुरुष सिद्धि को प्राप्त होता हैं” ||३४-५८||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘गीता-सार-निरूपण ’ नामक एक सौ पंधरवाँ अध्याय पूरा हुआ || ११६ ||

अग्निपुराण भाग – ११३

 
||श्रीहरि:||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

अग्निपुराण

अध्याय – ११५

जडभरत और सौवीर-नरेश का संवाद – अद्वैत ब्रह्मविज्ञान का वर्णन

अब मैं उस ‘अद्वैत ब्रह्मविज्ञान’ का वर्णन करूँगा, जिसे भरत ने (सौवीरराज को) बतलाया था | प्राचीनकाल की बात हैं, राजा भरत शालग्राम क्षेत्र में रहकर भगवान वासुदेव की पूजा आदि करते हुए तपस्या कर रहे थे | उनकी एक मृग के प्रति आसक्ति हो गयी थी, इसलिये अन्तकाल में उसीका स्मरण करते हुए प्राण त्याग ने के कारण उन्हें मृग होना पड़ा | मृगयोनि में भी वे ‘जातिस्मर’ हुए – उन्हें पूर्वजन्म की बातों का स्मरण रहा | अत: यस मृगशरीर का परित्याग करके वे स्वयं ही योगबल से एक ब्राह्मण के रूप में प्रकट हुए | उन्हें अद्वैत ब्रह्म का पूर्ण बोध था | वे साक्षात ब्रह्मस्वरुप थे, तो भी लोक में जडवत (ज्ञानशून्य मूक की भांति) व्यवहार करते थे | उन्हें ह्रष्ट-पुष्ट देखकर सौवीर-नरेश के सेवक ने बेगार में लगाने के योग्य समझा (और राजाकी पाल की ढोने में नियुक्त कर दिया) | सेवक के कहने से वे सौवीरराज की पालकी ढोने लगे | यद्यपि वे ज्ञानी थे, तथापि बेगार में पकड़ जानेपर अपने प्रारब्धभोग का क्षय करने के लिये राजा का भार वहन करने लगे; परन्तु उनकी गति मंद थी | वे पालकी में पीछे की ओर लगे थे तथा उनके सिवा दूसरे जितने कहार थे, वे सब-के-सब तेज चल रहे थे | राजाने देखा, ‘अन्य कहार शीघ्रगामी हैं तथा तीव्रगति से चल रहे हैं | यह जो नया आया हैं, इसकी गति बहुत मंद हैं |’ तब वे बोले ||१-५||
राजा ने कहा – अरे ! क्या तू थक गया ? अभी तो तूने थोड़ी ही दुरतक मेरी पालकी ढोयी है | क्या परिश्रम नहीं सहा जाता ? क्या तू मोठा-ताजा नहीं है ? देखने में तो खूब मुस्टंड जान पड़ता हैं ||६||
ब्राह्मण ने कहा – राजन ! न मैं मोटा हूँ, न मैंने तुम्हारी पालकी ढोयी हैं, न मुझे थकावट आयी है, न परिश्रम करना पड़ा है और न मुझपर तुम्हारा कुछ भार ही है | पृथ्वीपर दोनों पैर हैं, पैरोंपर जघाएं हैं, जघाओं के ऊपर ऊरू और ऊरुओं के ऊपर उदर (पेट) हैं | उदरके ऊपर वक्ष:स्थल, भुजाएँ और कंधे हैं तथा कंधों के ऊपर यह पालकी रखी गयी है | फिर मेरे ऊपर यहाँ कौन-सा भार हैं ? इस पालकीपर तुम्हारा कहा जानेवाला यह शरीर रखा हुआ है | वास्तव में तुम वहाँ (पालकी में ) हो और मैं वहाँ (पृथ्वी) पर हूँ – ऐसा जो कहा जाता हैं , वह सब मिथ्था हैं | सौवीरनरेश ! मैं, तुम तथा अन्य जितने भी जीव हैं, सबका भार पंचभूतों के द्वारा ही ढोया जा रहा हैं | ये पंचभूत भी गुणों के प्रवाह में पडकर चल रहे हैं | पृथ्वीनाथ ! सत्त्व आदि गुण कर्मों के अधीन हैं तथा कर्म अविद्या के द्वारा संचित हैं, जो सम्पूर्ण जीवों में वर्तमान हैं | आत्मा तो शुद्ध, अक्षर (अविनाशी), शांत, निर्गुण और प्रकति से परे हैं | सम्पूर्ण प्राणियों में एक ही आत्मा हैं | उसकी न तो कभी वृद्धि होती है और न ह्रास ही होता है | राजन ! जब उसकी वृद्धि नहीं होती और ह्रास भी नहीं होता तो तुमने किस युक्ति से व्यंगपूर्वक यह प्रश्न किया हैं कि ‘क्या तू मोटा-ताजा नहीं हैं ?’ यदि प्रथ्वी, पैर, जंघा, ऊरू, कटि और उदर आदि आधारों एवं कन्धोपर रखी हुई यह पालकी मेरे लिये भारस्वरूप हो सकती है तो यह आपत्ति तुम्हारे लिये भी समान ही है, अर्थात तुम्हारे लिये भी यह भाररूप कही जा सकती हैं तथा इस युक्ति से अन्य सभी जन्तुओं ने भी केवल पालकी ही नहीं उठा रखी है, पर्वत, पेड़, घर और पृथ्वी आदि का भार भी अपने ऊपर ले रखा हैं | नरेश ! सोचो तो सही, जब प्रकृतिजन्य साधनों से पुरुष सर्वथा भिन्न हैं तो कौन-सा महान भार मुझे सहन करना पड़ता हैं ? जिस द्रव्य से यह पालकी बनी है, उसीसे मेरे, तुम्हारे तथा इन सम्पूर्ण प्राणियों के शरीरों का निर्माण हुआ हैं; इन सबकी समान द्रव्यों से पुष्टि हुई है ||७-१८||
यह सुनकर राजा पालकी से उतर पड़े और ब्राह्मण के चरण पकड़कर क्षमा माँगते हुए बोले – ‘भगवन ! अब पालकी छोडकर मुझपर कृपा कीजिये | मैं आपके मुख से कुछ सुनना चाहता हूँ ; मुझे उपदेश दीजिये | साथ ही यह भी बताइये कि आप कौन हैं ? और किस निमित्त अथवा किस कारण से यहाँ आपका आगमन हुआ हैं ?’ ||१९||
ब्राह्मणने कहा – राजन ! सुनो – ‘मैं अमुक हूँ’ – यह बात नही कही जा सकती | (तथा तुमने जो आनेका कारण पूछा हैं, उसके सम्बन्ध में मुझे इतना ही कहना हैं कि ) कहीं भी आने-जाने की क्रिया कर्मफल का उपयोग करने के लिये ही होती हैं | सुख-दुःख के उपभोग ही भिन्न-भिन्न देश (अथवा शरीर) आदि की प्राप्ति करानेवाले हैं तथा धर्माधर्मजनित सुख-दु:खों को भोगने के लिये ही जीव नाना प्रकार के देश (अथवा शरीर) आदि को प्राप्त होता हैं ||२०-२१||
राजाने कहा – ब्रह्मन ! ‘जो हैं’ (अर्थात जो आत्मा सत्स्वरूप से विराजमान हैं तथा कर्त्ता-भोक्तारूप में प्रतीत हो रहा हैं) उसे ‘मैं हूँ ‘ – यों कहकर क्यों नहीं बताया जा सकता ? द्विजवर ! आत्मा के लिये ‘अहम’ शब्द का प्रयोग तो दोषावह नहीं जान पड़ता ||२२||
ब्राह्मणने कहा – राजन ! आत्मा के लिये ‘अहम’ शब्द का प्रयोग दोषावह नहीं हैं, तुम्हारा यह कथन बिलकुल ठीक हैं; परन्तु अनात्मा में आत्मत्त्वका बोध करानेवाला ‘अहम’ शब्द तो दोषावह हैं ही | अथवा जहाँ कोई भी शब्द भ्रमपूर्ण अर्थ को लक्षित कराता हो, वहाँ उसका प्रयोग दोषयुक्त ही है | जब सम्पूर्ण शरीर में एक ही आत्मा की स्थिति है, तो ‘कौन तुम और कौन मैं हूँ’ ये सब बातें व्यर्थ हैं | राजन ! ‘तुम राजा हो, यह पालकी हैं, हमलोग इसे ढोनेवाले कहार हैं, ये आगे चलनेवाले सिपाही हैं तथा यह लोक तुम्हारे अधिकार में हैं’ – यह जो कहा जाता हैं, यह सत्य नहीं हैं | वृक्षसे लकड़ी होती है और लकड़ी से यह पालकी है, हमलोग इसे ढोनेवाले कहार हैं, ये आगे चलनेवाले सिपाही हैं तथा यह लोक तुम्हारे अधिकार में हैं’ – यह जो कहा जाता हैं, यह सत्य नहीं है | वृक्ष से लकड़ी होती हैं और लकड़ी से यह पालकी बनी है, जिसके ऊपर तुम बैठे हुए हो | सौवीरनरेश ! बोलो तो, इसका ‘वुक्ष’ और ‘लकड़ी’ नाम क्या हो गया ? कोई भी चेतन मनुष्य यह नहीं कहता कि ‘महाराज’ वृक्ष अथवा लकड़ीपर चढ़े हुए हैं |’ सब तुम्हे पालकीपर ही सवार बतलाते हैं | (किन्तु पालकी क्या हैं ?) नृपश्रेष्ठ ! रचनाकला के द्वारा एक विशेष आकर में परिणत हुई लकड़ियों का समूह ही तो पालकी हैं | यदि तुम इसे कोई भिन्न वस्तु मानते हो तो इसमें से लकड़ियों को अलग करके ‘पालकी’ नामकी कोई चीज ढूँढों तो सही | ‘यह पुरुष, यह स्त्री, यह गौ, यह घोडा, यह हाथी, यह पक्षी और यह वृक्ष है ‘ – इसप्रकार कर्मजनित भिन्न-भिन्न शरीरों में लोगोने नाना प्रकार के नामों का आरोप कर लिया हैं | इ संज्ञाओं को लोककल्पित ही समझना चाहिये | जिव्हा ‘अहम’ (मैं) – का उच्चारण करती हैं, दाँत, होठ, तालू और कंठ आदि भी उसका उच्चारण करते हैं, किन्तु ये ‘अहम’ (मैं) पदके वाच्यार्थ नहीं हैं; क्योंकि ये सब –के-सब शब्दोच्चारण के साधनमात्र हैं | किन कारणों या उक्तियों से जिव्हा कहती हैं कि “वाणी ही ‘अहम’ (मैं) हूँ |” यद्यपि जिव्हा यह कहती हैं, तथापि ‘यदि मैं वाणी नहीं हूँ’ ऐसा कहा जाय तो यह कदापि मिथ्था नहीं हैं | राजन ! मस्तक और गुदा आदि के रूप में जो शरीर हैं, वह पुरुष (आत्मा)- से सर्वथा भिन्न हैं, ऐसी दशामें मैं किस अवयव के लिये ‘अहम’ संज्ञा का प्रयोग करूँ ? भूपालशिरोमणे ! यदि मुझ (आत्मा) से भिन्न कोई भी अपनी पृथक सत्ता रखता हो तो ‘यह मैं हूँ’, ‘यह दूसरा हैं’ – ऐसी बात भी कही जा सकती हैं | वास्तव में पर्वत, पशु तथा वृक्ष आदि का भेद सत्य नहीं हैं | शरीरदृष्टि से ये जितने भी भेद प्रतीत हो रहे हैं, सब-के-सब कर्मजन्य हैं | संसार में जिसे ‘राजा’ या ‘राजसेवक’ कहते हैं, वह तथा और भी इस तरह की जितनी संज्ञाएँ हैं, वे कोई भी निर्विकार सत्य नहीं है | भूपाल ! तुम सम्पूर्ण लोक के राजा हो, अपने पिताके पुत्र हो, शत्रु के लिए शत्रु हो, धर्मपत्नी के पति हो और पुत्र के पिता हो – इतने नामों के होते हुए मैं तुम्हें क्या कहकर पुकारूँ ? पृथ्वीनाथ ! क्या यह मस्तक तुम हो ? किन्तु जैसे मस्तक तुम्हारा हैं, वैसे ही उदर भी तो हैं ? (फिर उदर क्यों नहीं हो ? ) तो क्या इन पैर आदि अंगों में से तुम कोई हो ? नहीं, तो य सब तुम्हारे क्या हैं ? महाराज ! इन समस्त अवयवों से तुम पृथक हो, अत: इनसे अलग होकर ही अच्छी तरह विचार करो कि ‘वास्तव में मैं कौन हूँ ‘ ||२३-३७||
यह सुनकर राजाने उन भगवत्स्वरूप अवधूत ब्राह्मण से कहा ||३८||
राजा बोले – ब्रह्मन ! मैं आत्मकल्याण के लिये उद्यत होकर महर्षि कपिल के पास कुछ पूछने के लिये जा रहा था | आप भी मेरे लिये इस पृथ्वीपर महर्षि कपिल के ही अंश है, अत: आप ही मुझे ज्ञान दें | जिससे ज्ञानरुपी महासागर की प्राप्ति होकर परम कल्याण की सिद्धि हो, वह उपाय मुझे बताइये ||३९-४०||
ब्राह्मणने कहा – राजन ! तुम फिर कल्याण का ही उपाय पूछने लगे | ‘परमार्थ क्या हैं ?’ यह नहीं पूछते | ‘परमार्थ’ ही सब प्रकार के कल्याणों का स्वरूप हैं | मनुष्य देवताओं की आराधना करके धन-सम्पत्ति की इच्छा करता हैं, पुत्र और राज्य पाना चाहता हैं; किन्तु सौवीरनरेश ! तुम्हीं बताओं, क्या यही उसका श्रेय है ? (इसीसे उसका कल्याण होगा? ) विवेकी पुरुष की दृष्टि में तो परमात्मा की प्राप्ति ही श्रेय हैं; यज्ञादि की क्रिया तथा द्रव्य की सिद्धि को वह श्रेय नहीं मानता | परमात्मा और आत्मा का संयोग – उनके एकत्वका बोध ही ‘परमार्थ’ माना गया है | परमात्मा एक अर्थात अद्वितीय हैं | वह सर्वत्र समानरूप से व्यापक, शुद्ध, निर्गुण, प्रकृति से परे, जन्म-वृद्धि आदि से रहित, सर्वगत, अविनाशी, उत्कृष्ट, ज्ञानस्वरूप, गुण-जाति आदि के संसर्ग से रहित एवं विभु है | अब मैं तुम्हें निदाघ और ऋतू (ऋभु) का संवाद सुनाता हूँ, ध्यान देकर सुनो- ऋतू ब्रह्माजी के पुत्र और ज्ञानी थे | पुलस्त्यनंदन निदाघ ने उनकी शिष्यता ग्रहण की | ऋतू से विद्या पढ़ लेने के पश्चात् निदाघ देवि का नदी के तटपर एक नगर में जाकर रहने लगे | ऋतू ने अपने शिष्य के निवासस्थान का पता लगा लिया था | हजार दिव्य वर्ष बीतने के पश्चात एक दिन ऋतू निदाघ को देखने के लिये गये | उससमय निदाघ बलिवैश्वदेव के अनन्तर अन्न-भोजन करके अपने शिष्य से कह रहे थे – ‘भोजन के बाद मुझे तृप्ति हुई हैं |; क्योंकि भोजन ही अक्षय-तृप्ति प्रदान करनेवाला हैं |’ (यह कहकर वे तत्काल आये हुए अतिथि से भी तृप्ति के विषय में पूछने लगे) ||४१-४८||
तब ऋतूने कहा – ब्राह्मण ! जिसको भूख लगी होती है, उसीको भोजन के पश्चात तृप्ति होती हैं | मुझे तो कभी भूख ही नहीं लगी, फिर मेरी तृप्ति के विषय में क्यों पूछते हो ? भूख और प्यास देह के धर्म हैं | मुझ आत्मा का ये कभी स्पर्श नहीं करते | तुमने पूछा हैं, इसलिये कहता हूँ | मुझे सदा ही तृप्ति बनी रहती हैं | पुरुष (आत्मा) आकाश की भांति सर्वत्र व्याप्त हैं और मैं वह प्रत्यगात्मा ही हूँ; अत: तुमने जो मुझसे यह पूछा कि ‘आप कहाँ से आते हैं ?’ यह प्रश्न कैसे सार्थक हो सकता हैं ? मैं न कहीं जाता हूँ, न आता हूँ और न किसी एक स्थान में रहता हूँ | न तुम मुझसे भिन्न हो, न मैं तुमसे अलग हूँ | जैसे मिटटी का घर मिटटी से लीपनेपर सुदृढ़ होता हैं, उसीप्रकार यह पार्थिव देह ही अन्न के परमाणुओं से पुष्ट होता हैं | ब्रह्मन ! मैं तुम्हारा आचार्य ऋतू हूँ और तुम्हें ज्ञान देने के लिये यहाँ आया हूँ; अब जाऊँगा | तुम्हें परमार्थतत्त्व का उपदेश कर दिया | इसप्रकार तुम इस सम्पूर्ण जगत को एकमात्र वासुदेवसंज्ञक परमात्मा का ही स्वरुप समझो; इसमें भेद का सर्वथा अभाव हैं ||४९-५५||
तत्पश्चात एक हजार वर्ष व्यतीत होनेपर ऋतू पुन: उस नगर में गये | वहाँ जाकर उन्होंने देखा – ‘निदाघ नगर के पास एकांत स्थान में खड़े हैं |’ तब वे उनसे बोले – ‘भैया ! इस एकांत स्थान में क्यों खड़े हो ?’ ||५६||
निदाघ ने कहा – ब्रह्मन ! मार्ग में मनुष्यों की बहुत बड़ी भीड़ खड़ी हैं; क्योंकि ये नरेश इस समय इस रमणीय नगर में प्रवेश करना चाहते हैं, इसीलिये मैं यहाँ ठहर गया हूँ ||५७||
ऋतूने पूछा – द्विजश्रेष्ठ ! तुम यहाँ की सब बातें जानते हो; बताओ | इनमे कौन नरेश हैं और कौन दूसरे लोग हैं ? ||५८||
निदाघ ने कहा – ब्रह्मन ! जो इस पर्वतशिखर के समान खड़े हुए मतवाले गजराजपर चढ़े हैं, वही ये नरेश हैं तथा जो उन्हें चारों ओरसे घेरकर खड़े हैं, वे ही दुसरे लोग हैं | यह नीचेवाला जिव हाथी हैं और ऊपर बैठे हुए सज्जन महाराज हैं ||५९||
ऋतू ने कहा – ‘मुझे समझाकर बताओ, इनमें कौन राजा हैं और कौन हाथी ?’ निदाघ बोले – ‘अच्छा, बतलाता हूँ |’ यह कहकर निदाघ ऋतू के ऊपर चढ़ गये और बोले – ‘अब दृष्टांत देखकर तुम वाहन को समझ लो | मैं तुम्हारे ऊपर राजा के समान बैठा हूँ और तुम मेरे नीचे हाथी के समान खड़े हो |’ तब ऋतू ने निदाघ से कहा – ‘मैं कौन हूँ और तुम्हें क्या कहूँ ?’ इतना सुनते ही निदाघ उतरकर उनके चरणों में पड़ गये और बोले – ‘निश्वय ही आप मेरे गुरूजी महाराज हैं ; क्योंकि दूसरे किसी का ह्रदय ऐसा नही हैं, जो निरतंर अद्वैत-संस्कार से सुसंस्कृत रहता हो |’ ऋतू ने निदाघ से कहा – ‘मैं तुम्हें ब्रह्म का बोध कराने के ;लिये आया था और परमार्थ-सारभूत अद्वैततत्व का दर्शन तुम्हें करा दिया’ ||६०-६४||
ब्राह्मण (जडभरत) कहते हैं – राजन ! निदाघ उस उपदेश के प्रभाव से अद्वैतपरायण हो गये | अब वे सम्पूर्ण प्राणियों को अपने से अभिन्न देखने लगे | उन्होंने ज्ञानसे मोक्ष प्राप्त किया था, उसीप्रकार तुम भी प्राप्त करोगे | तुम, मैं तथा यह सम्पूर्ण जगत – सब एकमात्र व्यापक विष्णु का स्वरुप हैं | जैसे एक ही आकाश नील-पीले आदि भेदों से अनेक-सा दिखायी देता हैं, उसीप्रकार भ्रांतदृष्टिवाले पुरुषों को एक ही आत्मा भिन्न-भिन्न रूपों में दिखायी देता हैं ||६५-६७||
अग्निदेव कहते हैं – वसिष्ठजी ! इस सारभूत ज्ञान के प्रभाव से सौवीरनरेश भव-बंधन से मुक्त हो गये | ज्ञानस्वरुप ब्रह्म ही इस अज्ञानमय संसारवृक्ष का शत्रु हैं, इसका निरंतर चिन्तन करते रहिये ||६८||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘अद्वैत ब्रह्म का निरूपण ’ नामक एक सौ पंधरवाँ अध्याय पूरा हुआ || ११५ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
 

अग्निपुराण भाग – ११२

 
||श्रीहरि:||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

अग्निपुराण

अध्याय – ११४

भगवत्स्वरूप का वर्णन तथा ब्रह्मभाव की प्राप्ति का उपाय

अग्निदेव कहते हैं – वसिष्ठजी ! धर्मात्मा पुरुष यज्ञ के द्वारा देवताओं को, तपस्याद्वारा विराट के पद को, कर्म के सन्यांसद्वारा ब्रह्मपद को, वैराग्य से प्रकृति में लय को और ज्ञान से कैवल्यपद (मोक्ष) – को प्राप्त होता है – इसप्रकार ये पाँच गतियाँ मानी गयी हैं | प्रसन्नता, संताप और विषाद आदि से निवृत्त होना ‘वैराग्य’ हैं जो कर्म किये जा चुके हैं तथा जो अभी नहीं किये गये हैं, उन सब (की आसक्ति, फलेच्छा और संकल्प) का परित्याग ‘सन्यास’ कहलाता हैं | ऐसा हो जानेपर अव्यक्त से लेकर विशेषपर्यन्त सभी पदार्थो के प्रति अपने मन में कोई विकार नहीं रह जाता | जड और चेतन की भिन्नता का ज्ञान (विवेक) होने से ही ‘परमार्थज्ञान’ की प्राप्ति बतलायी जाती है | परमात्मा सब के आधार हैं, वे ही परमेश्वर हैं | वेदों और वेदान्तों (उपनिषदों) में ‘विष्णु’ नामसे उनका यशोगान किया जाता हैं | वे यज्ञों के स्वामी हैं | प्रवृत्तिमार्ग से चलनेवाले लोग यज्ञपुरुष के रूप में उनका यजन करते हैं तथा निवृत्तिमार्ग के पथिक ज्ञानयोग के द्वारा उन ज्ञानस्वरुप परमात्मा का साक्षात्कार करते हैं | ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत आदि वचन उन पुरुषोत्तम के ही स्वरुप है ||१-६||
महामुने ! उनकी प्राप्ति के दो हेतु बताये गये हैं – ‘ज्ञान’ और ‘कर्म’ | ‘ज्ञान’ दो प्रकारका है – ‘आगमजन्य’ और ‘विवेकजन्य’ | शब्दब्रह्म (वेदादि शास्र और प्रणव) का बोध ‘आगमजन्य’ है तथा परब्रह्म का ज्ञान ‘विवेकजन्य’ ज्ञान है | ‘ब्रह्म’ दो प्रकार से जाननेयोग्य हैं –‘ शब्दब्रह्म’ और ‘परब्रह्म’ | वेदादि विद्या को ‘शब्दब्रह्म’ या ‘अपरब्रह्म’ कहते है एयर सत्स्वरूप अक्षरतत्त्व ‘परब्रह्म’ कहलाता हैं | यह परब्रह्म ही ‘भगवत’ शब्द का मुख्य वाच्यार्थ है | पूजा (सम्मान) आदि अन्य अर्थो में जो उसका प्रयोग होता हैं, वह औपचारिक (गौण) हैं | महामुने ! ‘भगवत’ शब्द में जो ‘भकार’ है, उसके दो अर्थ हैं – पोषण करनेवाला और सबका आधार तथा ‘गकार’ का अर्थ हैं – नेता (कर्मफल की प्राति करानेवाला), गमयिता (प्रेरक) और स्रष्टा (सृष्टि करनेवाला) | सम्पूर्ण ऐश्वर्य, पराक्रम (अथवा धर्म), यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य – इन छ: का नाम ‘भग’ है | विष्णु में सम्पूर्ण भूत निवास करते हैं | ये भगवान् सबके धारक तथा ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव- इन तीन रूपों में विराजमान हैं | अत: श्रीहरि में ही ‘भगवान्’ पद मुख्यवृत्ति से विद्यमान है, अन्य किसी के लिये तो उसका उपचार (गौणवृत्ति) से ही प्रयोग होता हैं | जो सम्पूर्ण प्राणियों के उत्पत्ति-विनाश, आवागमन तथा विद्या-अविद्या को जानता हैं, वही ‘भगवान’ कहलाने योग्य हैं | त्याग करनेयोग्य दुर्गुण आदि को छोडकर सम्पूर्ण ज्ञान, शक्ति, परम ऐश्वर्य, वीर्य तथा समग्र तेज- ये ‘भगवत’ शब्द के वाच्याथ हैं ||७-१४||
पूर्वकाल में राजा के शिध्वज ने खांडिक्य जनक से इसप्रकार उपदेश दिया था – “अनात्मा में जो आत्मबुद्धि होती है, अपने स्वरूप की भावना होती हैं, वही अविद्याजनित संसारबंधन का कारण हैं | इस अज्ञान की ‘अहंता’ और ‘ममता’ – दो रूपों में स्थिति हैं | देहाभिमानी जीव मोहान्धकार से आच्छादित हो, कुत्सित बुद्धि के कारण इस पाश्वभौतिक शरीर में यह दृढ़ भावना कर लेता है कि ‘मैं ही यह देह हूँ |’ इसीप्रकार इस शरीर से उत्पन्न किये हुए पुत्र-पौत्र आदि में ‘ये मेरे हैं’ – ऐसी निश्चित धारणा बना लेता हैं | विद्वान पुरुष अनात्मभुत शरीरमें समभाव रखता हैं – उसके प्रति वह राग-द्वेष के वशीभूत नहीं होता | मनुष्य अपने शरीर की भलाई के लिये ही सारे कार्य करता हैं; किन्तु जब पुरुष से शरीर भिन्न है, तो वह सारा कर्म केवल बंधन का ही कारण होता हैं | वास्तव में तो आत्मा निर्वाणमय (शांत), ज्ञानमय तथा निर्मल हैं | दु:खानुभवरूप जो धर्म हैं, वह प्रकृतिका हैं, आत्मा का नहीं; जैसे जल स्वयं तो अग्नि से असंग हैं, कित्नु आगपर रखी हुई बटलोई के संसर्ग से उसमें तापजनित खलखलाहट आदि के शब्द होते हैं | महामुने ! इसीप्रकार आत्मा भी प्रकति के संग से अहंता-ममता आदि दोष स्वीकार करके प्राकृत धर्मों को ग्रहण करता हैं, वास्तव में तो वह उनसे सर्वथा भिन्न और अविनाशी है | विषयों में आसक्त हुआ मन बंधन का कारण होता हैं और वही जब विषयों से निवृत्त हो जाता हैं तो ज्ञान-प्राप्ति में सहायक होता है | अत: मन को विषयों से हटाकर ब्रह्मस्वरूप श्रीहरि का स्मरण करना चाहिये | मुने ! जैसे चुम्बक पत्थर लोहे को अपनी ओर खींच लेता हैं, उसीप्रकार जो ब्रह्म का ध्यान करता है, उसे वह ब्रह्म अपनी ही शक्ति से अपने स्वरूप में मिला लेता हैं | अपने प्रयत्न की अपेक्षा से जो मन की विशिष्ट गति होती है, उसका ब्रह्म से संयोग होना ही ‘योग’ कहलाता हैं | वह परब्रह्म को प्राप्त होता हैं ||१५-२५||
‘अत: यम, नियम, प्रत्याहार, प्राणजय, प्राणायम, इन्द्रियों को विषयों की ओर से हटाने तथा उन्हें अपने वश में करने आदि उपायों के द्वारा चित्त को किसी शुभ आश्रय में स्थापित करे | ‘ब्रह्म’ ही चित्त का शुभ आश्रय है | यह ‘मूर्त’ और ‘अमूर्त’ रूप से दो प्रकार का है | सनक-सनंदन आदि मुनि ब्रह्मभावना से युक्त हैं तथा देवताओं से लेकर स्थावर-जंगम-पर्यन्त सम्पूर्ण प्राणी कर्म-भावना से युक्त हैं | हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा) आदि में ब्रह्मभावना और कर्मभावना दोनों ही हैं | इस तरह यह तीन प्रकार की भावना बतायी गयी हैं | ‘सम्पूर्ण विश्व ब्रह्म हैं ‘- इस भाव से ब्रह्म की उपासना की जाती हैं | जहाँ सब भेद शांत हो जाते हैं, जो सत्तामात्र और वाणी का अगोचर हैं तथा जिसे स्वसंवेद्य (स्वयं ही अनुभव करनेयोग्य) माना गया हैं, वही ‘ब्रह्मज्ञान’ हैं | वही रूपहीन विष्णु का उत्कृष्ट स्वरूप हैं, जो अजन्मा और अविनाशी है | अमूर्तरूप का ध्यान पहले कठिन होता है, अत: मूर्त आदि का ही चिन्तन करे | ऐसा करनेवाला मनुष्य भगवद्भाव को प्राप्त हो परमात्मा के साथ एकीभूत-अभिन्न हो जाता है | भेद की प्रतीति तो अज्ञान से ही होती हैं ‘ ||२६-३२||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘ब्रह्मज्ञाननिरूपण ’ नामक एक सौ चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ || ११४ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
 

अग्निपुराण भाग – १११

 
||श्रीहरि:||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

अग्निपुराण

अध्याय – ११३

निदिध्यासनरूप ज्ञान

अग्निदेव कहते हैं – ब्रह्मन ! मैं पृथ्वी, जल और अग्नि से रहित स्वप्रकाशमय परब्रह्म हूँ | मैं वायु और आकाश में विलक्षण, कारण और कार्य से भिन्न, विराटस्वरुप (स्थूल ब्रह्मांड) से पृथक, जाग्रत-अवस्था से रहित, ‘विश्व’ रूपसे विलक्षण, आकार अक्षर से रहित, वाक्, पानि और चरण से हीन, पायु (गुदा) और उपस्थ (लिंग या योनि ) से रहित, कान, त्वचा और नेत्रसे हीन, रस और रूपसे शून्य, सब प्रकार की गंधों से रहित, जिव्हा और नासिका से शून्य , स्पर्श और शब्द से हीन , मन और बुद्धि से रहित, चित्त और अहंकार से वर्जित, प्राण और अपान से पृथक, व्यान और उदान से विलग, समान नामक वायु से भिन्न , जरा और मृत्यु से रहित, शोक और मोह की पहुँच से दूर, क्षुधा और पिपासा से शून्य, श्ब्दोत्पत्ति आदिसे वर्जित, हिरण्यगर्भ से विलक्षण, स्वप्नावस्था से रहित, तैजस आदि से पृथक, अपकार आदिसे हीन, स्माज्ञान से शून्य, अध्याहार से रहित , सत्वादि गुणों से विलक्षण, सदसद्भाव से रहित, सब अवयवों से रहित, भेदाभेदसे रहित, सुषुप्तावस्था से शून्य, प्राज्ञ-भाव से रहित, मकारादी से रहित, मान और मेय से रहित, मिति (माप) और माता (माप करनेवाले) से भिन्न , साक्षित्त्व आदिसे रहित, कार्य-कारण से भिन्न ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ |
मैं देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, प्राण और अहंकाररहित तथा जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति आदिसे मुक्त तुरीय ब्रह्म हूँ | मैं नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सत्य, आनंद और अद्वैतरूप ब्रह्म हूँ | मैं विज्ञानयुक्त ब्रह्म हूँ | मैं सर्वथा मुक्त और प्रणवरूप हूँ | मैं ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ और मोक्ष देनेवाला समाधिरूप परमात्मा भी मैं ही हूँ ||१-२३ ||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘ब्रह्मज्ञाननिरूपण ’ नामक एक सौ तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ || ११३ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –
 

अग्निपुराण भाग – ११०

 
||श्रीहरि:||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

अग्निपुराण

अध्याय – ११२

श्रवण एवं मननरूप ज्ञान

अग्निदेव कहते है – अब मैं संसाररूप अज्ञानजनित बंधन से छुटकारा पाने के लिये ‘ब्रह्मज्ञान’ का वर्णन करता हूँ | ‘ यह आत्मा परब्रह्म हैं और वह ब्रह्म मैं ही हूँ |’ ऐसा निश्वय हो जानेपर मनुष्य मुक्त हो जाता हैं | घट आदि वस्तुओं की भान्ति यह देह दृश्य होने के कारण आत्मा नहीं हैं; क्योंकि सो जानेपर अथवा मृत्यु हो जानेपर यह बात निश्चितरूप से समझ में आ जाती है कि ‘देह से आत्मा भिन्न है’ | यदि देह ही आत्मा होता तो सोने या मरने के बाद भी पूर्ववत व्यवहार करता; (आत्मा के) ‘अविकारी’ आदि विशेषणों के समान विशेषण से युक्त निर्विकाररूप में प्रतीत होता | नेत्र आदि इन्द्रियाँ भी आत्मा नहीं है; क्योंकि वे ‘करण’ हैं | यही हाल मन और बुद्धि का भी है | वे भी दीपक की भान्ति प्रकाश के ‘करण’ हैं, अत: आत्मा नहीं हो सकते | ‘प्राण’ भी आत्मा नहीं है; क्योंकि सुषुप्तावस्था में उसपर जड़ता का प्रभाव रहता हैं | जाग्रत और स्वप्नावस्था में प्राण के साथ चैतन्य मिला-सा रहता है, इसलिये उसका [पृथक बोध नहीं होता, परन्तु सुषुप्तावस्था में प्राण विज्ञानरहित हैं – यह बात स्पष्टरूप से जानी जाती है | अतएव आत्मा इन्द्रिय आदि रूप नही हैं \ इन्द्रिय आदि आत्मा के करणमात्र है | अहंकार भी आत्मा नहीं हैं; क्योंकि देह की भान्ति वह भी आत्मा से पृथक उपलब्ध होता है | पूर्वोक्त देह आदि से भिन्न यह आत्मा सबके ह्दय में अन्तर्यामीरूप से स्थित है | यह रात में जलते हुए दीपक की भान्ति सबका द्रष्टा और भोक्ता हैं ||१-७||
समाधि के आरम्भकाल में नुनिको इसप्रकार चिन्तन करना चाहिये –‘ब्रह्मसे आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जलसे प्रथ्वी तथा पृथ्वी से सूक्ष्म शरीर प्रकट हुआ है |’ अपंचीकृत भूतों से पंचीकृत भूतों की उत्पत्ति हुई है | फिर स्थूल शरीर का ध्यान करके ब्रह्म में उसके लय होने की भावना करे | पंचीकृत भुत तथा उनके कार्यों को ‘विराट’ कहते हैं | आत्मा का वह स्थूल शरीर अज्ञान से कल्पित हैं | इन्द्रियों के द्वारा जो ज्ञान होता हैं, उसे धीर पुरुष ‘जागत-अवस्था’ मानते हैं | जाग्रत के अभिमानी आत्मा का नाम ‘विश्व’ हैं | ये (इन्द्रिय-विज्ञान, जाग्रत-अवस्था और उसके अभिमानी देवता) तीनों प्रणव की प्रथम मात्रा ‘अकारस्वरुप’ हैं | अपंचीकृत भुत और उनके कार्य को ‘लिंग’ कहा गया है | सत्रह तत्त्वों (दस इन्द्रिय, पंचतन्मात्रा तथा मन और बुद्धि) –से युक्त जो आत्मा का सूक्ष्म शरीर हैं, जिसे ‘हिरण्यगर्भ’ नाम दिया गया हैं, उसीको ‘लिंग’ कहते हैं | जाग्रत-अवस्था के संस्कार से उत्पन्न विषयों की प्रतीति को ‘स्वप्न’ कहा गया है | उसका अभिमानी आत्मा ‘तैजस’ नामसे प्रसिद्ध हैं | वह जाग्रत के प्रपंच से पृथक तथा प्रणव की दूसरी मात्रा ‘उकाररूप’ है | स्थूल और सूक्ष्म – दोनों शरीरों का एक ही कारण हैं – ‘आत्मा’ | आभासयुक्त ज्ञान को ‘अध्याह्र्त ज्ञान’ कहते हैं | इन अवस्थाओं का साक्षी ‘ब्रह्म’ न सत हैं, न असत और न सदसतरूप ही है | वह न तो अवयवयुक्त हैं और न अवयव से रहित; न भिन्न हैं न अभिन्न; भिन्नाभिन्नरूप भी नहीं हैं | वह सर्वथा अनिर्वचनीय है | इस बंधनभुत संसार की सृष्टि करनेवाला भी वही हैं | ब्रह्म एक है और केवल ज्ञान से प्राप्त होता हैं; कर्मोद्वारा उसकी उपलब्धि नहीं हो सकती ||८-१७||
जब ब्राह्यज्ञान के साधनभूत इन्द्रियों का सर्वथा लय हो जाता है, केवल बुद्धि की ही स्थिति रहती हैं, उस अवस्था को ‘सुषुप्ति’ कहते हैं | ‘बुद्धि’ और ‘सुषुप्ति’ दोनों के अभिमानी आत्मा का नाम ‘प्राज्ञ’ है | ये तीनों ‘मकार’ एवं प्रणवरूप माने गये हैं | यह प्राज्ञ ही अकार, उकार और मकारस्वरुप हैं | ‘अहम’ पदका लक्ष्यार्थभुत चित्स्वरूप आत्मा इन जाग्रत और स्वप्न आदि अवस्थाओं का साक्षी हैं | उसमे अज्ञान और उसके कार्यभूत स्न्सारादिक बंधन नहीं हैं | मैं नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सत्य, आनंद एवं अद्वैतस्वरुप ब्रह्म हूँ | मैं ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ | सर्वथा मुक्त प्रणव (ॐ) वाच्य परमेश्वर हूँ | मैं ही ज्ञान एवं समाधिरूप ब्रह्म हूँ | बंधनका नाश करनेवाला भी मैं ही हूँ | चिरंतन, आनंदमय, सत्य, ज्ञान और अनंत आदि नामों से लक्षित परब्रह्म मैं ही हूँ | ‘यह आत्मा परब्रह्म हैं, वह ब्रह्म तुम हो’- इस प्रकार गुरुद्वारा बोध कराये जानेपर जीव यह अनुभव करता हैं कि मैं इस देहसे विलक्षण परब्रह्म हूँ | वह जो सूर्यमंडल में प्रकाशमय पुरुष हैं, वह मैं ही हूँ | मैं ही ॐकार तथा अखंड परमेश्वर हूँ | इसप्रकार ब्रह्म को जाननेवाला पुरुष इस असार संसार में मुक्त होकर ब्रह्मरूप हो जाता है ||१८-२४||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘ब्रह्मज्ञाननिरूपण ’ नामक एक सौ बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ || ११२ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ

अग्निपुराण भाग – १०९

 
||श्रीहरि:||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

अग्निपुराण

अध्याय – १११

धारणा

अग्निदेव कहते हैं – मुने ! ध्येय वस्तु में जो मन की स्थिति होती है, उसे ‘धारणा’ कहते हैं | ध्यान की ही भांति उसके भी दो भेद हैं – ‘साकार’ और ‘निराकार’ | भगवान् के ध्यान में जो मन को लगाया जाता हैं, उसे क्रमश: ‘मूर्त’ और ‘अमूर्त’ धारणा कहते हैं | इस धारणा से भगवान् की प्राप्ति होती है | जो बाहर का लक्ष्य हैं, उससे मन जबतक विचलित नहीं होत्ता, तबतक किसी भी प्रदेश में मन की स्थिति को ‘धारणा’ कहते हैं | देह के भीतर नियत समयतक जो मन को रोक रखा जाता हैं और वह अपने लक्ष्य से विचलित नहीं होता, यही अवस्था ‘धारणा’ कहलाती है | बारह आयाम की ‘धारणा’ होती है, बारह ‘धारणा’ का ‘ध्यान’ होता है तथा बारह ध्यानपर्यन्त जो मन की एकाग्रता हैं, उसे ‘समाधि’ कहते है | जिसका मन धारणा के अभ्यास में लगा हुआ है, उसी अवस्था में यदि उसके प्राणों का परित्याग हो जाय तो वह पुरुष अपने इक्कीस पीढ़ी का उद्धार करके अत्यंत उत्कृष्ट स्वर्गपद को प्राप्त होता है | योगियों के जिस-जिस अंग में व्याधि की सम्भावना हो, उस-उस अंग को बुद्धि से व्याप्त करके तत्त्वों की धारणा करनी चाहिये | द्विजोत्तम ! आग्नेयी, वारुणी, ऐशानी और अम्रुतात्मिका – ये विष्णु की चार प्रकार की धारणा करनी चाहिये | उससमय अग्नियुक्त शिखामन्त्र का , जिसके अंत में ‘फट’ शब्दका प्रयोग होता हैं, जप करना उचित है | नाड़ियों के द्वारा विकट, दिव्य एवं शुभ शुलाग्र का वेधन करे | पैर के अँगूठे से लेकर कपोलतक किरणों का समूह व्याप्त है और वह बड़ी तेजी के साथ ऊपर-नीचे तथा इधर-उधर फ़ैल रहा है, ऐसी भावना करे | महामुने ! श्रेष्ठ साधक को तबतक रश्मि-मंडल का चिन्तन करते रहना चाहिये , जबतक कि वह अपने सम्पूर्ण शरीर को उसके भीतर भस्म होता न देखे | तदनन्तर उस धारणा का उपसंहार करे | इसके द्वारा द्विजगण शीत और श्लेष्मा आदि रोग तथा अपने पापों का विनाश करते है | (यह ‘आग्नेयी धारणा’ है ) ||१-१०||
तत्पश्चात धीरभावसे विचार करते हुए मस्तक और कंठ के अधोमुख होने का चिन्तन करे | उस समय साधक का चित्त नष्ट नहीं होता | वह पुन: अपने अंत:करणद्वारा ध्यान में लग जाय और ऐसी धारणा करे कि जल के अनंत कण प्रकट होकर एक-दुसरे से मिलकर हिमराशि को उत्पन्न करते हैं और और उससे इस पृथ्वीपर जल की धाराएँ प्रवाहित होकर सम्पूर्ण विश्व को आप्लावित कर रही है | इसप्रकार उस हिमस्पर्श से शीतल अमृतस्वरुप जल के द्वारा क्षोमवश ब्रह्मरन्ध्र से लेकर मूलाधारपर्यन्त सम्पूर्ण चक्र-मंडल को आप्लावित करके सुषुम्ना नाडी के भीतर होकर पूर्ण चन्द्रमंडल का चिन्तन करे | भूख-प्यास आदि के क्रम से प्राप्त होनेवाले क्लेशों से अत्यंत पीड़ित होकर अपनी तुष्टि के लिये इस ‘वारुणी धारणा’ का चिन्तन करना चाहिये तथा उससमय आलस्य छोडकर विष्णु मन्त्र का जप करना भी उचित है | यह ‘वारुणी धारणा’ बतलायी गयी, अब ‘ऐशानी धारणा’ का वर्णन सुनिये ||११-१५||
प्राण और अपान का क्षय होनेपर ह्रदयाकाश में ब्रह्ममय कमल के ऊपर विराजमान भगवान् विष्णु के प्रसाद (अनुग्रह) का तबतक चिन्तन करता रहे, जबतक कि सारी चिंता का नाश न हो जाय | तत्पश्च्यात व्यापक ईश्वररूप से स्थित होकर परम शांत, निरंजन, निराभास एवं अर्द्धचन्द्रस्वरुप सम्पूर्ण महाभाव का जप और चिन्तन करे | जबतक गुरु के मुख से जीवात्मा को ब्रह्म का ही अंश (या साक्षात ब्रह्मरूप) नहीं जान लिया जाता, तबतक यह सम्पूर्ण चराचर जगत असत्य होनेपर भी सत्यव्रत प्रतीत होता है | उस परम तत्त्व का साक्षात्कार हो जानेपर ब्रह्मा से लेकर यह सारा चराचर जगत, प्रमाता, मान और मेय (ध्याता, ध्यान और ध्येय) – सब कुछ ध्यानगत ह्रदय-कमल में लीन हो जाता हैं | जप, होम और पूजन आदि को माता की दी हुई मिठाई की भाँती मधुर एवं लाभकर जानकार विष्णुमंत्र के द्वारा उसका श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान करे |
अब मैं ‘अमृतमयी धारणा’ बतला रहा हूँ – मस्तक की नाड़ी के केंद्रस्थान में पूर्ण चन्द्रमा के समान आकारवाले कमल का ध्यान करे तथा प्रयत्नपूर्वक यह भावना करे की ‘आकाश में दस हजार चन्द्रमा के समान प्रकाशमान एक पूर्ण चन्द्रमंडल उदित हुआ है, जो कल्याणमय कल्लोलों से परिपूर्ण है |’ ऐसा ही ध्यान अपने ह्रदय-कमल में भी करे और उसके मध्यभाग में अपने शरीर को स्थित देखे | धारणा आदि के द्वारा साधक के सभी क्लेश दूर हो जाते हैं ||१६-२२||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘ध्याननिरूपण ’ नामक एक सौ ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ || १११ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ

अग्निपुराण भाग – १०८

 
||श्रीहरि:||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

अग्निपुराण

अध्याय – ११०

ध्यान

अग्निदेव कहते हैं – मुने ! ‘ध्यै – चिन्तायाम’ – यह धातु है | अर्थात ‘ध्यै’ धातुका प्रयोग चिन्तन के अर्थ में होता है | (‘ध्यै’ से ही ‘ध्यान’ शब्द की सिद्धि होती है) अत: स्थिरचित्त से भगवान् विष्णु का बारंबार चिन्तन करना ‘ध्यान’ कहलाता हैं | समस्त उपाधियों से मुक्त मनसहित आत्मा का ब्रह्मविचार में परायण होना भी ‘ध्यान’ ही है | ध्येयरूप आधार में स्थित एवं सजातीय प्रतीतियों से मुक्त चित्त को जो विजातीय प्रतीतियों से रहित प्रतीति होती है, उसको भी ‘ध्यान’ कहते हैं | जिस किसी प्रदेश में भी ध्येय वस्तु के चिन्तन में एकाग्र हुए चित्त को प्रतीति के साथ जो अभेद-भावना होती है, उसका नाम भी ‘ध्यान’ है | इसप्रकार ध्यानपरायण होकर जो अपने शरीर का परित्याग करता हैं, वह अपने कुल, स्वजन और मित्रों का उद्धार करके स्वयं भगवत्स्वरूप हो जाता हैं | इस तरह जो प्रतिदिन एक या आधे मुहूर्ततक भी श्रद्धापूर्वक श्रीहरि का ध्यान करता हैं, वह भी जिस गति को प्राप्त करता हैं, उसे सम्पूर्ण महायज्ञों के द्वारा भी कोई भी पा सकता ||१-६||
तत्त्ववेत्ता योगी को चाहिये कि वह ध्याता, ध्यान, ध्येय तथा ध्यान का प्रयोजन – इन चार वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करके योग का अभ्यास करे | योगाभ्यास से मोक्ष तथा आठ प्रकार के महान ऐश्वर्यो (अणिमा आदि सिद्धियों) – की प्राप्ति होती है | जो ज्ञान-वैराग्य से सम्पन्न, श्रद्धालु, क्षमाशील, विष्णुभक्त तथा ध्यान में सदा उत्साह रखनेवाला हो, ऐसा पुरुष ही ‘ध्याता’ माना गया हैं | ‘व्यक्त और अव्यक्त, जो कुछ प्रतीत होता है, सब परम ब्रह्म परमात्मा का ही स्वरुप हैं’ – इस प्रकार विष्णु का चिन्तन करना ‘ध्यान’ कहलाता है | सर्वज्ञ परमात्मा श्रीहरि को सम्पूर्ण कलाओं से युक्त तथा निष्कल जानना चाहिये | आनिमादि ऐश्वर्यों की प्राप्ति तथा मोक्ष – ये ध्यान के प्रयोजन हैं | भगवान् विष्णु ही कर्मों के फल की प्राप्ति करानेवाले हैं, अत: उन परमेश्वर का ध्यान करना चाहिये | वे ही ध्येय हैं | चलते-फिरते, खड़े होते, सोते-जागते, आँख खोलते और आँख मीचते समय भी, शुद्ध या अशुद्ध अवस्था में भी निरंतर परमेश्वर का ध्यान करना चाहिये ||७-११||
अपने देहरूपी मन्दिर के भीतर मन में स्थित ह्रदयकमलरूपी पीठ के मध्यभाग में भगवान् केशव की स्थापना करके ध्यानयोग के द्वारा उनका पूजन करे | ध्यानयज्ञ श्रेष्ठ, शुद्ध और सब दोषों से रहित है | उसके द्वारा भगवान् का यजन करके मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सकता हैं | बाह्यशुद्धि से युक्त यज्ञोंद्वारा भी इस फल की प्राप्ति नहीं हो सकती | हिंसा आदि दोषों से मुक्त होने के कारण ध्यान अंत: करण की शुद्धि का प्रमुख साधन और चित्त को वशमें करनेवाला है | इसलिए ध्यानयज्ञ सबसे श्रेष्ठ और मोक्षरूपी फल प्रदान करनेवाला है; अत: अशुद्ध एवं अनित्य बाह्य साधन यज्ञ आदि कर्मों का त्याग करके योग का ही विशेषरूप से अभ्यास करे | पहले विकारयुक्त, अव्यक्त तथा भोग्य-भोग से युक्त तीनों गुणोंका क्रमश: अपने ह्रदय में ध्यान करे | तमोगुण को रजोगुण से आच्छादित करके रजोगुण को सत्त्वगुण से आच्छादित करे | इसके बाद पहले कृष्ण, फिर रक्त, तत्पश्चात श्वेतवर्णवाले तीनों मंडलों का क्रमश: ध्यान करे | इसप्रकार जो गुणों का ध्यान बताया गया, वह ‘अशुद्ध ध्येय’ है | उसका त्याग करके ‘शुद्ध ध्येय’ का चिन्तन करे | पुरुष (आत्मा) सत्त्वोपाधिक गुणों से अतीत चौबीस तत्त्वों से परे पचीसवाँ तत्त्व है, यह ‘शुद्ध ध्येय’ हैं | पुरुष के ऊपर उन्हीं की नाभिसे प्रकट हुआ एक दिव्य कमल स्थित हैं, जो प्रभु का ऐश्वर्य ही जान पड़ता हैं | उसका विस्तार बारह अंगुल है | वह शुद्ध, विकसित तथा श्वेत वर्ण का है | उसका मृणाल आठ अंगुल का है | उस कमल के आठ पत्तों को अणिमा आदि आठ ऐश्वर्य जानना चाहिये | उसकी कर्णिका का केसर ‘ज्ञान’ तथा नाल ‘उत्तम वैराग्य’ है | ‘विष्णु-धर्म’ ही उसकी जड़ है | इसप्रकार कमल का चिन्तन करे | धर्म, ज्ञान, वैराग्य एवं कल्याणमय ऐश्वर्य-स्वरुप उस श्रेष्ठ कमल को, जो भगवान् का आसन हैं, जानकर मनुष्य अपने सब दु:खों से छुटकारा पा जाता है | उस कमलकर्णिका के मध्यभाग में ॐकारमय ईश्वर का ध्यान करे | उनकी आकृति शुद्ध दीपशिखा के समान देदीप्यमान एवं अँगूठे के बराबर है | वे अत्यंत निर्मल हैं | कदम्बपुष्प के समान उनका गोलाकार स्वरूप ताराकी भाँती स्थित है | अथवा कमल के ऊपर प्रकति और पुरुष से भी अतीत परमेश्वर विराजमान हैं, ऐसा ध्यान करे तथा परम अक्षर ॐकार का निरंतर जप करता रहे | साधक को अपने मन को स्थिर करने के लिये पहले स्थूल का ध्यान करना चाहिये | फिर क्रमश: मन के स्थिर हो जानेपर उसे सूक्ष्म तत्त्व के चिंतन में लगाना चाहिये ||१२-२६||
नाभि-मूल में स्थित जो कमल की नाल है, उसका विस्तार दस अंगुल हैं | नाल के ऊपर अष्टदल कमल हैं, जो बारह अंगुल विस्तृत है | उसकी कर्णिका के केसर में सूर्य, सोम तथा अग्नि – तीन देवताओं का मंडल हैं | अग्निमंडल के भीतर शंख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण करनेवाले चतुर्भुज विष्णु अथवा आठ भुजाओं से युक्त भगवान् श्रीहरि विराजमान हैं | अष्टभुज भगवान् के हाथों में शंख-चक्रादि के अतिरिक्त शांगधनुष, अक्षमाला, पाश तथा अंगकुश शोभा पाते हैं | उनके श्रीविग्रह का वर्ण श्वेत एवं सुवर्ण के समान उद्दीप्त हैं | वक्ष:स्थल में श्रीवत्स का चिन्ह और कौस्तुभमणि शोभा पा रहे हैं | गले में वनमाला और सोने का हार है | कानों में मकराकार कुंडल जगमगा रहे हैं | मस्तकपर रत्नमय उज्ज्वल किरीट सुशोभित हैं | श्रीअंगों पर पीताम्बर शोभा पाटा हैं | वे सब प्रकार के आभूषणों से अलंकृत हैं | उनका आकार बहुत बड़ा अथवा एक बित्ते का हैं | जैसी इच्छा हो, वैसी ही छोटी या बड़ी आकृति का ध्यान करना चाहिये | ध्यान के समय ऐसी भावना करे कि , ‘ मैं ज्योतिर्मय ब्रह्म हूँ- मैं ही नित्यमुक्त प्रणवरूप वासुदेवसंज्ञक परमात्मा हूँ |’ ध्यान से थक जानेपर मन्त्र का जप करे और जप से थकनेपर ध्यान करे | इसप्रकार जो जप और ध्यान आदि में लगा रहता है, उसके ऊपर भगवान् विष्णु शीघ्र ही प्रसन्न होते है | दूसरे-दूसरे यज्ञ जपयज्ञ की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हो सकते | जप करनेवाले पुरुष के पास आधि, व्याधि और ग्रह नहीं फटकने पाते | जप करने से भोग, मोक्ष तथा मृत्यु-विजयरूप फल की प्राप्ति होती हैं ||२७-३५||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘ध्याननिरूपण ’ नामक एक सौ दसवाँ अध्याय पूरा हुआ || ११० ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ

अग्निपुराण भाग – १०७

 
||श्रीहरि:||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

अग्निपुराण

अध्याय – १०९

गवायुर्वेद

धन्वन्तरि कहते हैं – सुश्रुत ! राजा को गौओं का पालन करना चाहिये | अब मैं ‘गोशान्ति’ का वर्णन करता हूँ | गौएँ पवित्र एवं मंगलमयी हैं | गौओं में सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित हैं | गौओं का गोबर और मूत्र अलक्ष्मी (दरिद्रता) – के नाश का सर्वोत्तम साधन है | उनके शरीर को खुजलाना, सींगों को सहलाना और उनको जल पिलाना भी अलक्ष्मी का निवारण करनेवाला हैं | गोमूत्र, गोबर, गोदुग्ध, दधि, घृत और कुशोदक – यह ‘षडंग; (पंचगव्य) पीने के लिये उत्कृष्ट वस्तु तथा दु:स्वप्नों आदि का निवारण करनेवाला हैं | गोरोचना विष और राक्षसों को विनाश करती हैं | गौओं को ग्रास देनेवाला स्वर्ग को प्राप्त होता हैं | जिस के घर में गौएँ दु:खित होकर निवास करती हैं, वह मनुष्य नरकगामी होता हैं | दुसरे की गाय को ग्रास देनेवाला स्वर्ग को और गोहित में तत्पर ब्रम्हलोक को प्राप्त होता हैं | गोदान, गो-माहात्म्य-कीर्तन और गोरक्षण से मानव अपने कुल का उद्धार कर देता हैं | यह पृथ्वी गौओं के श्वास से पवित्र होती हैं | उनके स्पर्श से पापों का क्षय होता हैं | एक दिन गोमूत्र, गोमय, घृत, दूध, दधि और कुश का जल एवं एक दिन उपवास चांडाल को भी शुद्ध कर देता है | पूर्वकाल में देवताओं ने भी समस्त पापों के विनाश के लिये इसका अनुष्ठान किया था | इनमें से प्रत्येक वस्तुका क्रमश: तीन-तीन दिन भक्षण करके रहा जाय, उसे ‘महासान्तपन व्रत’ कहते हैं | यह व्रत सम्पूर्ण कामनाओं को सिद्ध करनेवाला और समस्त पापों का विनाश करनेवाला है | केवल दूध पीकर इक्कीस दिन रहने से ‘कृच्छातिकृच्छ व्रत’ होता हैं | इसके अनुष्ठान से श्रेष्ठ मानव सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को प्राप्तकर पापमुक्त हो स्वर्गलोक में जाते हैं | तीन दिन गरम गोमूत्र, तीन दिन गरम घृत, तीन दिन गरम दूध और तीन दिन गरम वायु पीकर रहे | यह ‘तप्तकृच्छ व्रत’ कहलाता हैं, जो समस्त पापों का प्रशमन करनेवाला और ब्रह्मलोक की प्राप्ति करानेवाला है | यदि इन वस्तुओं को इसी क्रम से शीतल करके ग्रहण किया जाय, तो ब्रम्हाजी के द्वारा कथित ‘शीतकृच्छ’ होता है, जो ब्रम्हलोकप्रद है ||१-११||
एक मासतक गोव्रती होकर गोमूत्र से प्रतिदिन स्नान करे, गोरस से जीवन चलावे, गौओं का अनुगमन करे आयर गौओं के भोजन करने के बाद भोजन करे | इससे मनुष्य निष्पाप होकर गोलोक को प्राप्त करता हैं | गोमती विद्या के जप से भी उत्तम गोलोक की प्राप्ति होती हैं | उस लोक में मानव विमान में अप्सराओं के द्वारा नृत्य-गीत से सेवित होकर प्रमुदित होता है | गौएँ सदा सुरभिरूपिणी हैं | वे गुग्गुल के समान गंध से संयुक्त हैं | गौएँ समस्त प्राणियों की प्रतिष्ठा हैं | गौएँ परम मंगलमयी हैं | गौएँ परम अन्न और देवताओं के लिये उत्तम हविष्य हैं | वे सम्पूर्ण प्राणियों को पवित्र करनेवाले दुग्ध और गोमूत्र का वहन एंव क्षरण करती हैं और मन्त्रपूत हविष्य से स्वर्ग में स्थित देवताओं को तृप्त करती हैं | ऋषियों के अग्निहोत्र में गौएँ होमकार्य में प्रयुक्त होती हैं | गौएँ सम्पूर्ण मनुष्यों की उत्तम शरण हैं | गौएँ परम पवित्र, महामंगलमयी, स्वर्ग की सोपानभुत, धन्य और सनातन (नित्य) हैं | श्रीमती सुरभि-पुत्री गौओं को नमस्कार हैं | ब्रम्हसुताओं को नमस्कार हैं | पवित्र गौओं को नमस्कार है | ब्रह्मसुताओं को नमस्कार हैं | पवित्र गौओं को बारंबार नमस्कार हैं | ब्राह्मण और गौएँ एक ही कुल की दी शाखाएँ हैं | एक के आश्रय में मन्त्र की स्थिति हैं और दूसरी में हविष्य प्रतिष्ठित हैं | देवता, ब्राह्मण, गौ, साधू और साध्वी स्त्रियों के बलपर यह सारा संसार टिका हुआ हैं, इसीसे वे परम पूजनीय हैं | गौएँ जिस स्थानपर जल पीती हैं, वह स्थान तीर्थ हैं | गंगा आदि पवित्र नदियाँ गोस्वरुपा ही हैं | सुश्रुत ! मैंने यह गौओं के माहात्म्य का वर्णन किया, अब उनकी चिकित्सा सुनो ||१२-२२||
गौओं के श्रुंगरोगों में सोंठ, खरेटी और जटामांसी को सिलपर पीसकर उसमें मधु, सैन्धव और तैल मिलाकर प्रयोग करे | सभी प्रकार के कर्णरोगों में मंजिष्ठा, हिंग और सैन्धव डालकर सिद्ध किया हुआ तैल प्रयोग करना चाहिये या लहसुन के साथ पकाया हुआ तैल प्रयोग करना चाहिये | दंतशूल में बिल्वमूल, अपामार्ग, धान की पाटला और कुटज का लेप करे | वह शुलनाशक हैं | दंतशूल का हरण करनेवाले द्रव्यों और कुटकों घृत में पकाकर देनेसे मुखरोगों का निवारण होता हैं | जिव्हा-रोगों में सैन्धव लवण प्रशस्त हैं | गलग्रह रोग में सोंठ, हल्दी, दारुहल्दी और त्रिफला विहित हैं | ह्रद्रोग , वस्तिरोग, वातरोग और क्षयरोग में गौओं को घृतमिश्रित त्रिफला का अनुपान प्रशस्त बताया गया है | अतिसार में हल्दी, दारुहल्दी और पाठा (नेमुक) दिलाना चाहिये | सभी प्रकार के कोष्ठगत’ रोगों में, शाखा (पैर-पुच्छादी) गत रोगों में एवं कास, श्वास एवं अन्य साधारण रोगों में सोंठ, भारंगी देनी चाहिये | हड्डी आदि टूटनेपर लवणयुक्त प्रियंगु का लेप करना चाहिये | तैल वातरोग का हरण करता हैं | पित्तरोग में तैल में पकायी हुई मुलहठी, कफरोग में मधुसहित त्रिकुट (सोंठ, मिर्च और पीपल) तथा रक्तविकार में मजबूत नखों का भस्म हितकर है | भग्नक्षत में तैल एवं घृत पकाया हुआ हरताल दे | उड़द, टिल, गेहूँ, दुग्ध, जल और घृत – इनका लवणयुक्त पिंड गोवत्सों के लिये पुष्टिप्रद हैं | विषानी बल प्रदान करनेवाली हैं | ग्रहबाधा के विनाश के लिये धुप का प्रयोग करना चाहिये | देवदारु, वचा, जटामांसी, गुग्गुल, हिंगू और सर्षप- इनकी धुप गौओं के ग्रहजनित रोगों का नाश करने में हितकर हैं | इस धुप से धुपित करके गौओं के गले में घंटा बाँधना चाहिये | असगंध और तिलों के साथ नवनीत का भक्षण कराने से गौ दुग्धवती होती हैं | जो वृष घरमें मदोन्मत हो जाता हैं, उसके लिये हिंगू परम रसायन हैं ||२३-२५||
पंचमी तिथि को सदा शांति के निमित्त गोमयपर भगवान् लक्ष्मी-नारायण का पूजन करे | यह ‘अपरा शान्ति कही गयी हैं | आश्विन के शुक्लपक्ष की पूर्णिमा को श्रीहरि का पूजन करे | श्रीविष्णु, रूद्र, ब्रह्मा, सूर्य, अग्नि और लक्ष्मी का घृत से पूजन करे | दही भलीभाँति खाकर गोपुजन करके अग्नि की प्रदक्षिणा करे | गृह के बहिर्भाग में गीत और वाद्य की ध्वनि के साथ वृषभयुद्ध का आयोजन करे | गौओं को लवण और ब्राह्मणों को दक्षिणा दे | मकरसंक्रांति आदि नौमित्तिक पर्वोपर भी लक्ष्मीसहित श्रीविष्णु को भूमिस्थ कलम के मध्य में और पूर्व आदि दिशाओं में कमल-केसरपर देवताओं की पूजा करे | कमल के बहिर्भाग में मंगलमय ब्रह्मा, सूर्य, बहुरूप, बलि, आकाश, विश्वरूप का तथा ऋद्धि, सिद्धि, शान्ति और रोहिणी आदि दिग्धेनु, चन्द्रमा और शिव का कृशर (खिचड़ी) से पूजन करे | द्विक्पालों की कलशस्थ पद्मपत्रपर अर्चना करे | फिर अग्नि में सर्षण, अक्षत, तंडुल और खैर वृक्ष की समिधाओं का हवन करे | ब्राह्मण को सौ-सौ भर सुवर्ण और काँस्य आदि धातु दान करे | फिर क्षीरसंयुक्त गौओं की पूजा करके उन्हें शान्ति के निमित्त छोड़े ||३६-४३||
अग्निदेव कहते हैं – वसिष्ठ ! शालिहोत्र ने सुश्रुत को ‘अश्वायुर्वेद’ और पाल्काप्यने अंगराज को ‘गवायुर्वेद’ का उपदेश किया था ||४४||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘गवायुर्वेद का वर्णन ’ नामक एक सौ नववाँ अध्याय पूरा हुआ || १०९ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ santshriasharamjiashram.org