||श्रीहरि:||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
अग्निपुराण
अध्याय – ११५
जडभरत और सौवीर-नरेश का संवाद – अद्वैत ब्रह्मविज्ञान का वर्णन
अब मैं उस ‘अद्वैत ब्रह्मविज्ञान’ का वर्णन करूँगा, जिसे भरत ने (सौवीरराज को) बतलाया था | प्राचीनकाल की बात हैं, राजा भरत शालग्राम क्षेत्र में रहकर भगवान वासुदेव की पूजा आदि करते हुए तपस्या कर रहे थे | उनकी एक मृग के प्रति आसक्ति हो गयी थी, इसलिये अन्तकाल में उसीका स्मरण करते हुए प्राण त्याग ने के कारण उन्हें मृग होना पड़ा | मृगयोनि में भी वे ‘जातिस्मर’ हुए – उन्हें पूर्वजन्म की बातों का स्मरण रहा | अत: यस मृगशरीर का परित्याग करके वे स्वयं ही योगबल से एक ब्राह्मण के रूप में प्रकट हुए | उन्हें अद्वैत ब्रह्म का पूर्ण बोध था | वे साक्षात ब्रह्मस्वरुप थे, तो भी लोक में जडवत (ज्ञानशून्य मूक की भांति) व्यवहार करते थे | उन्हें ह्रष्ट-पुष्ट देखकर सौवीर-नरेश के सेवक ने बेगार में लगाने के योग्य समझा (और राजाकी पाल की ढोने में नियुक्त कर दिया) | सेवक के कहने से वे सौवीरराज की पालकी ढोने लगे | यद्यपि वे ज्ञानी थे, तथापि बेगार में पकड़ जानेपर अपने प्रारब्धभोग का क्षय करने के लिये राजा का भार वहन करने लगे; परन्तु उनकी गति मंद थी | वे पालकी में पीछे की ओर लगे थे तथा उनके सिवा दूसरे जितने कहार थे, वे सब-के-सब तेज चल रहे थे | राजाने देखा, ‘अन्य कहार शीघ्रगामी हैं तथा तीव्रगति से चल रहे हैं | यह जो नया आया हैं, इसकी गति बहुत मंद हैं |’ तब वे बोले ||१-५||
राजा ने कहा – अरे ! क्या तू थक गया ? अभी तो तूने थोड़ी ही दुरतक मेरी पालकी ढोयी है | क्या परिश्रम नहीं सहा जाता ? क्या तू मोठा-ताजा नहीं है ? देखने में तो खूब मुस्टंड जान पड़ता हैं ||६||
ब्राह्मण ने कहा – राजन ! न मैं मोटा हूँ, न मैंने तुम्हारी पालकी ढोयी हैं, न मुझे थकावट आयी है, न परिश्रम करना पड़ा है और न मुझपर तुम्हारा कुछ भार ही है | पृथ्वीपर दोनों पैर हैं, पैरोंपर जघाएं हैं, जघाओं के ऊपर ऊरू और ऊरुओं के ऊपर उदर (पेट) हैं | उदरके ऊपर वक्ष:स्थल, भुजाएँ और कंधे हैं तथा कंधों के ऊपर यह पालकी रखी गयी है | फिर मेरे ऊपर यहाँ कौन-सा भार हैं ? इस पालकीपर तुम्हारा कहा जानेवाला यह शरीर रखा हुआ है | वास्तव में तुम वहाँ (पालकी में ) हो और मैं वहाँ (पृथ्वी) पर हूँ – ऐसा जो कहा जाता हैं , वह सब मिथ्था हैं | सौवीरनरेश ! मैं, तुम तथा अन्य जितने भी जीव हैं, सबका भार पंचभूतों के द्वारा ही ढोया जा रहा हैं | ये पंचभूत भी गुणों के प्रवाह में पडकर चल रहे हैं | पृथ्वीनाथ ! सत्त्व आदि गुण कर्मों के अधीन हैं तथा कर्म अविद्या के द्वारा संचित हैं, जो सम्पूर्ण जीवों में वर्तमान हैं | आत्मा तो शुद्ध, अक्षर (अविनाशी), शांत, निर्गुण और प्रकति से परे हैं | सम्पूर्ण प्राणियों में एक ही आत्मा हैं | उसकी न तो कभी वृद्धि होती है और न ह्रास ही होता है | राजन ! जब उसकी वृद्धि नहीं होती और ह्रास भी नहीं होता तो तुमने किस युक्ति से व्यंगपूर्वक यह प्रश्न किया हैं कि ‘क्या तू मोटा-ताजा नहीं हैं ?’ यदि प्रथ्वी, पैर, जंघा, ऊरू, कटि और उदर आदि आधारों एवं कन्धोपर रखी हुई यह पालकी मेरे लिये भारस्वरूप हो सकती है तो यह आपत्ति तुम्हारे लिये भी समान ही है, अर्थात तुम्हारे लिये भी यह भाररूप कही जा सकती हैं तथा इस युक्ति से अन्य सभी जन्तुओं ने भी केवल पालकी ही नहीं उठा रखी है, पर्वत, पेड़, घर और पृथ्वी आदि का भार भी अपने ऊपर ले रखा हैं | नरेश ! सोचो तो सही, जब प्रकृतिजन्य साधनों से पुरुष सर्वथा भिन्न हैं तो कौन-सा महान भार मुझे सहन करना पड़ता हैं ? जिस द्रव्य से यह पालकी बनी है, उसीसे मेरे, तुम्हारे तथा इन सम्पूर्ण प्राणियों के शरीरों का निर्माण हुआ हैं; इन सबकी समान द्रव्यों से पुष्टि हुई है ||७-१८||
यह सुनकर राजा पालकी से उतर पड़े और ब्राह्मण के चरण पकड़कर क्षमा माँगते हुए बोले – ‘भगवन ! अब पालकी छोडकर मुझपर कृपा कीजिये | मैं आपके मुख से कुछ सुनना चाहता हूँ ; मुझे उपदेश दीजिये | साथ ही यह भी बताइये कि आप कौन हैं ? और किस निमित्त अथवा किस कारण से यहाँ आपका आगमन हुआ हैं ?’ ||१९||
ब्राह्मणने कहा – राजन ! सुनो – ‘मैं अमुक हूँ’ – यह बात नही कही जा सकती | (तथा तुमने जो आनेका कारण पूछा हैं, उसके सम्बन्ध में मुझे इतना ही कहना हैं कि ) कहीं भी आने-जाने की क्रिया कर्मफल का उपयोग करने के लिये ही होती हैं | सुख-दुःख के उपभोग ही भिन्न-भिन्न देश (अथवा शरीर) आदि की प्राप्ति करानेवाले हैं तथा धर्माधर्मजनित सुख-दु:खों को भोगने के लिये ही जीव नाना प्रकार के देश (अथवा शरीर) आदि को प्राप्त होता हैं ||२०-२१||
राजाने कहा – ब्रह्मन ! ‘जो हैं’ (अर्थात जो आत्मा सत्स्वरूप से विराजमान हैं तथा कर्त्ता-भोक्तारूप में प्रतीत हो रहा हैं) उसे ‘मैं हूँ ‘ – यों कहकर क्यों नहीं बताया जा सकता ? द्विजवर ! आत्मा के लिये ‘अहम’ शब्द का प्रयोग तो दोषावह नहीं जान पड़ता ||२२||
ब्राह्मणने कहा – राजन ! आत्मा के लिये ‘अहम’ शब्द का प्रयोग दोषावह नहीं हैं, तुम्हारा यह कथन बिलकुल ठीक हैं; परन्तु अनात्मा में आत्मत्त्वका बोध करानेवाला ‘अहम’ शब्द तो दोषावह हैं ही | अथवा जहाँ कोई भी शब्द भ्रमपूर्ण अर्थ को लक्षित कराता हो, वहाँ उसका प्रयोग दोषयुक्त ही है | जब सम्पूर्ण शरीर में एक ही आत्मा की स्थिति है, तो ‘कौन तुम और कौन मैं हूँ’ ये सब बातें व्यर्थ हैं | राजन ! ‘तुम राजा हो, यह पालकी हैं, हमलोग इसे ढोनेवाले कहार हैं, ये आगे चलनेवाले सिपाही हैं तथा यह लोक तुम्हारे अधिकार में हैं’ – यह जो कहा जाता हैं, यह सत्य नहीं हैं | वृक्षसे लकड़ी होती है और लकड़ी से यह पालकी है, हमलोग इसे ढोनेवाले कहार हैं, ये आगे चलनेवाले सिपाही हैं तथा यह लोक तुम्हारे अधिकार में हैं’ – यह जो कहा जाता हैं, यह सत्य नहीं है | वृक्ष से लकड़ी होती हैं और लकड़ी से यह पालकी बनी है, जिसके ऊपर तुम बैठे हुए हो | सौवीरनरेश ! बोलो तो, इसका ‘वुक्ष’ और ‘लकड़ी’ नाम क्या हो गया ? कोई भी चेतन मनुष्य यह नहीं कहता कि ‘महाराज’ वृक्ष अथवा लकड़ीपर चढ़े हुए हैं |’ सब तुम्हे पालकीपर ही सवार बतलाते हैं | (किन्तु पालकी क्या हैं ?) नृपश्रेष्ठ ! रचनाकला के द्वारा एक विशेष आकर में परिणत हुई लकड़ियों का समूह ही तो पालकी हैं | यदि तुम इसे कोई भिन्न वस्तु मानते हो तो इसमें से लकड़ियों को अलग करके ‘पालकी’ नामकी कोई चीज ढूँढों तो सही | ‘यह पुरुष, यह स्त्री, यह गौ, यह घोडा, यह हाथी, यह पक्षी और यह वृक्ष है ‘ – इसप्रकार कर्मजनित भिन्न-भिन्न शरीरों में लोगोने नाना प्रकार के नामों का आरोप कर लिया हैं | इ संज्ञाओं को लोककल्पित ही समझना चाहिये | जिव्हा ‘अहम’ (मैं) – का उच्चारण करती हैं, दाँत, होठ, तालू और कंठ आदि भी उसका उच्चारण करते हैं, किन्तु ये ‘अहम’ (मैं) पदके वाच्यार्थ नहीं हैं; क्योंकि ये सब –के-सब शब्दोच्चारण के साधनमात्र हैं | किन कारणों या उक्तियों से जिव्हा कहती हैं कि “वाणी ही ‘अहम’ (मैं) हूँ |” यद्यपि जिव्हा यह कहती हैं, तथापि ‘यदि मैं वाणी नहीं हूँ’ ऐसा कहा जाय तो यह कदापि मिथ्था नहीं हैं | राजन ! मस्तक और गुदा आदि के रूप में जो शरीर हैं, वह पुरुष (आत्मा)- से सर्वथा भिन्न हैं, ऐसी दशामें मैं किस अवयव के लिये ‘अहम’ संज्ञा का प्रयोग करूँ ? भूपालशिरोमणे ! यदि मुझ (आत्मा) से भिन्न कोई भी अपनी पृथक सत्ता रखता हो तो ‘यह मैं हूँ’, ‘यह दूसरा हैं’ – ऐसी बात भी कही जा सकती हैं | वास्तव में पर्वत, पशु तथा वृक्ष आदि का भेद सत्य नहीं हैं | शरीरदृष्टि से ये जितने भी भेद प्रतीत हो रहे हैं, सब-के-सब कर्मजन्य हैं | संसार में जिसे ‘राजा’ या ‘राजसेवक’ कहते हैं, वह तथा और भी इस तरह की जितनी संज्ञाएँ हैं, वे कोई भी निर्विकार सत्य नहीं है | भूपाल ! तुम सम्पूर्ण लोक के राजा हो, अपने पिताके पुत्र हो, शत्रु के लिए शत्रु हो, धर्मपत्नी के पति हो और पुत्र के पिता हो – इतने नामों के होते हुए मैं तुम्हें क्या कहकर पुकारूँ ? पृथ्वीनाथ ! क्या यह मस्तक तुम हो ? किन्तु जैसे मस्तक तुम्हारा हैं, वैसे ही उदर भी तो हैं ? (फिर उदर क्यों नहीं हो ? ) तो क्या इन पैर आदि अंगों में से तुम कोई हो ? नहीं, तो य सब तुम्हारे क्या हैं ? महाराज ! इन समस्त अवयवों से तुम पृथक हो, अत: इनसे अलग होकर ही अच्छी तरह विचार करो कि ‘वास्तव में मैं कौन हूँ ‘ ||२३-३७||
यह सुनकर राजाने उन भगवत्स्वरूप अवधूत ब्राह्मण से कहा ||३८||
राजा बोले – ब्रह्मन ! मैं आत्मकल्याण के लिये उद्यत होकर महर्षि कपिल के पास कुछ पूछने के लिये जा रहा था | आप भी मेरे लिये इस पृथ्वीपर महर्षि कपिल के ही अंश है, अत: आप ही मुझे ज्ञान दें | जिससे ज्ञानरुपी महासागर की प्राप्ति होकर परम कल्याण की सिद्धि हो, वह उपाय मुझे बताइये ||३९-४०||
ब्राह्मणने कहा – राजन ! तुम फिर कल्याण का ही उपाय पूछने लगे | ‘परमार्थ क्या हैं ?’ यह नहीं पूछते | ‘परमार्थ’ ही सब प्रकार के कल्याणों का स्वरूप हैं | मनुष्य देवताओं की आराधना करके धन-सम्पत्ति की इच्छा करता हैं, पुत्र और राज्य पाना चाहता हैं; किन्तु सौवीरनरेश ! तुम्हीं बताओं, क्या यही उसका श्रेय है ? (इसीसे उसका कल्याण होगा? ) विवेकी पुरुष की दृष्टि में तो परमात्मा की प्राप्ति ही श्रेय हैं; यज्ञादि की क्रिया तथा द्रव्य की सिद्धि को वह श्रेय नहीं मानता | परमात्मा और आत्मा का संयोग – उनके एकत्वका बोध ही ‘परमार्थ’ माना गया है | परमात्मा एक अर्थात अद्वितीय हैं | वह सर्वत्र समानरूप से व्यापक, शुद्ध, निर्गुण, प्रकृति से परे, जन्म-वृद्धि आदि से रहित, सर्वगत, अविनाशी, उत्कृष्ट, ज्ञानस्वरूप, गुण-जाति आदि के संसर्ग से रहित एवं विभु है | अब मैं तुम्हें निदाघ और ऋतू (ऋभु) का संवाद सुनाता हूँ, ध्यान देकर सुनो- ऋतू ब्रह्माजी के पुत्र और ज्ञानी थे | पुलस्त्यनंदन निदाघ ने उनकी शिष्यता ग्रहण की | ऋतू से विद्या पढ़ लेने के पश्चात् निदाघ देवि का नदी के तटपर एक नगर में जाकर रहने लगे | ऋतू ने अपने शिष्य के निवासस्थान का पता लगा लिया था | हजार दिव्य वर्ष बीतने के पश्चात एक दिन ऋतू निदाघ को देखने के लिये गये | उससमय निदाघ बलिवैश्वदेव के अनन्तर अन्न-भोजन करके अपने शिष्य से कह रहे थे – ‘भोजन के बाद मुझे तृप्ति हुई हैं |; क्योंकि भोजन ही अक्षय-तृप्ति प्रदान करनेवाला हैं |’ (यह कहकर वे तत्काल आये हुए अतिथि से भी तृप्ति के विषय में पूछने लगे) ||४१-४८||
तब ऋतूने कहा – ब्राह्मण ! जिसको भूख लगी होती है, उसीको भोजन के पश्चात तृप्ति होती हैं | मुझे तो कभी भूख ही नहीं लगी, फिर मेरी तृप्ति के विषय में क्यों पूछते हो ? भूख और प्यास देह के धर्म हैं | मुझ आत्मा का ये कभी स्पर्श नहीं करते | तुमने पूछा हैं, इसलिये कहता हूँ | मुझे सदा ही तृप्ति बनी रहती हैं | पुरुष (आत्मा) आकाश की भांति सर्वत्र व्याप्त हैं और मैं वह प्रत्यगात्मा ही हूँ; अत: तुमने जो मुझसे यह पूछा कि ‘आप कहाँ से आते हैं ?’ यह प्रश्न कैसे सार्थक हो सकता हैं ? मैं न कहीं जाता हूँ, न आता हूँ और न किसी एक स्थान में रहता हूँ | न तुम मुझसे भिन्न हो, न मैं तुमसे अलग हूँ | जैसे मिटटी का घर मिटटी से लीपनेपर सुदृढ़ होता हैं, उसीप्रकार यह पार्थिव देह ही अन्न के परमाणुओं से पुष्ट होता हैं | ब्रह्मन ! मैं तुम्हारा आचार्य ऋतू हूँ और तुम्हें ज्ञान देने के लिये यहाँ आया हूँ; अब जाऊँगा | तुम्हें परमार्थतत्त्व का उपदेश कर दिया | इसप्रकार तुम इस सम्पूर्ण जगत को एकमात्र वासुदेवसंज्ञक परमात्मा का ही स्वरुप समझो; इसमें भेद का सर्वथा अभाव हैं ||४९-५५||
तत्पश्चात एक हजार वर्ष व्यतीत होनेपर ऋतू पुन: उस नगर में गये | वहाँ जाकर उन्होंने देखा – ‘निदाघ नगर के पास एकांत स्थान में खड़े हैं |’ तब वे उनसे बोले – ‘भैया ! इस एकांत स्थान में क्यों खड़े हो ?’ ||५६||
निदाघ ने कहा – ब्रह्मन ! मार्ग में मनुष्यों की बहुत बड़ी भीड़ खड़ी हैं; क्योंकि ये नरेश इस समय इस रमणीय नगर में प्रवेश करना चाहते हैं, इसीलिये मैं यहाँ ठहर गया हूँ ||५७||
ऋतूने पूछा – द्विजश्रेष्ठ ! तुम यहाँ की सब बातें जानते हो; बताओ | इनमे कौन नरेश हैं और कौन दूसरे लोग हैं ? ||५८||
निदाघ ने कहा – ब्रह्मन ! जो इस पर्वतशिखर के समान खड़े हुए मतवाले गजराजपर चढ़े हैं, वही ये नरेश हैं तथा जो उन्हें चारों ओरसे घेरकर खड़े हैं, वे ही दुसरे लोग हैं | यह नीचेवाला जिव हाथी हैं और ऊपर बैठे हुए सज्जन महाराज हैं ||५९||
ऋतू ने कहा – ‘मुझे समझाकर बताओ, इनमें कौन राजा हैं और कौन हाथी ?’ निदाघ बोले – ‘अच्छा, बतलाता हूँ |’ यह कहकर निदाघ ऋतू के ऊपर चढ़ गये और बोले – ‘अब दृष्टांत देखकर तुम वाहन को समझ लो | मैं तुम्हारे ऊपर राजा के समान बैठा हूँ और तुम मेरे नीचे हाथी के समान खड़े हो |’ तब ऋतू ने निदाघ से कहा – ‘मैं कौन हूँ और तुम्हें क्या कहूँ ?’ इतना सुनते ही निदाघ उतरकर उनके चरणों में पड़ गये और बोले – ‘निश्वय ही आप मेरे गुरूजी महाराज हैं ; क्योंकि दूसरे किसी का ह्रदय ऐसा नही हैं, जो निरतंर अद्वैत-संस्कार से सुसंस्कृत रहता हो |’ ऋतू ने निदाघ से कहा – ‘मैं तुम्हें ब्रह्म का बोध कराने के ;लिये आया था और परमार्थ-सारभूत अद्वैततत्व का दर्शन तुम्हें करा दिया’ ||६०-६४||
ब्राह्मण (जडभरत) कहते हैं – राजन ! निदाघ उस उपदेश के प्रभाव से अद्वैतपरायण हो गये | अब वे सम्पूर्ण प्राणियों को अपने से अभिन्न देखने लगे | उन्होंने ज्ञानसे मोक्ष प्राप्त किया था, उसीप्रकार तुम भी प्राप्त करोगे | तुम, मैं तथा यह सम्पूर्ण जगत – सब एकमात्र व्यापक विष्णु का स्वरुप हैं | जैसे एक ही आकाश नील-पीले आदि भेदों से अनेक-सा दिखायी देता हैं, उसीप्रकार भ्रांतदृष्टिवाले पुरुषों को एक ही आत्मा भिन्न-भिन्न रूपों में दिखायी देता हैं ||६५-६७||
अग्निदेव कहते हैं – वसिष्ठजी ! इस सारभूत ज्ञान के प्रभाव से सौवीरनरेश भव-बंधन से मुक्त हो गये | ज्ञानस्वरुप ब्रह्म ही इस अज्ञानमय संसारवृक्ष का शत्रु हैं, इसका निरंतर चिन्तन करते रहिये ||६८||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘अद्वैत ब्रह्म का निरूपण ’ नामक एक सौ पंधरवाँ अध्याय पूरा हुआ || ११५ ||
– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –