Showing posts with label ध्यान की शक्ति. Show all posts
Showing posts with label ध्यान की शक्ति. Show all posts

Sunday, March 13, 2016

ध्यान की शक्ति

ध्यान की शक्ति

साधक जैसे- जैसे ध्यान पथ पर आगे बढ़ते हैं उनकी संवेदनाएँ सूक्ष्म हो जाती है। इस संवेदनात्मक सूक्ष्मता के साथ ही उनमें संवेगात्मक स्थिरता- नीरवता व... गहरी शान्ति भी आती है और ऐसे में उनके अनुभव भी गहरे, व्यापक, संवेदनशील व पारदर्शी होते चले जाते हैं। साधना की अविरामता से उत्तरोत्तर सूक्ष्म होने से चेतना स्वतः ही नए मार्ग के द्वार खोलती है।
सच्चाई यह है कि ये अनुभूतियाँ हमारे अन्तःकरण को प्रेरित, प्रकाशित, प्रवर्तित व प्रत्यावर्तित करती हैं। इसमें उच्चस्तरीय आध्यात्मिक चेतना के अवतरण के साथ एक अपूर्व प्रत्यावर्तन घटित होता है। एक गहन रूपान्तरण की प्रक्रिया चलती है। इस प्रक्रिया के साथ ही साधक में दिव्य संवेदनाएँ बढ़ती है और उसकी साधना सूक्ष्मतम की ओर प्रखर होती है।
ध्यान द्वार है अतीन्द्रिय संवेदना और शक्ति का। जो ध्यान करते हैं उन्हें काल क्रम में स्वयं ही इस सत्य का अनुभव हो जाता है। यह सच है कि ध्यान से सम्पूर्ण आध्यात्मिक रहस्य जाने जा सकते हैं, फिर भी इसका अभ्यास व अनुभव कम ही लोग कर पाते हैं। इसका कारण है कि ध्यान के बारे में प्रचलित भ्रान्तियाँ। कतिपय लोग ध्यान को महज एकाग्रता भर समझते हैं। कुछ लोगों के लिए ध्यान केवल मानसिक व्यायाम है। ध्यान को एकाग्रता समझने वाले लोग मानसिक चेतना को एक बिन्दु पर इकट्ठा करने की कोशिश करते हैं हालांकि उनके इस प्रयास के बाद भी परामानसिक चेतना के द्वारा नहीं खुलते। उन्हें अन्तर्जगत् में प्रवेश नहीं मिलता। वे तो बस बाहरी उलझनों में भटकते अथवा मानसिक द्वन्द्वों में अटकते रहते हैं।
जबकि ध्यान एक अन्तर्यात्रा ईश्वरीय ऊर्जा प्राप्ति की तरफ है और यह यात्रा वही साधक कर पाते हैं जिन्होंने अपनी साधना के पहले चरणों में अपनी मानसिक चेतना को स्थिर, सूक्ष्म, अन्तर्मुखी व शान्त कर लिया है। अनुभव का सच यही है कि मानसिक चेतना की स्थिरता, सूक्ष्मता व शान्ति ही प्रकारान्तर से परामानसिक चेतना का स्वरूप बना लेती है। इस अनुभूति साधना में व्यापकता व गुणवत्ता की संवेदना का अतिविस्तार होता है जिससे ईश्वरीय सत्ता के सिद्धांत स्पष्ट होने लगते हैं । साथ ही इसे पाने के लिये अन्तर्चेतना स्वतः ही ऊर्ध्वगमन की ओर प्रेरित होती है और हमारी समूची आन्तरिक सांसारिक योग्यताएँ स्वतः ही समाप्त हो जाती हैं।
इसके साथ ही जब हम सूक्ष्म तत्त्वों के प्रति एकाग्रता बढती हैं, तो संवेदना व चेतना भी सूक्ष्म हो जाती है और हमें सूक्ष्म जगत् की झलकियाँ मिलने लगती है तथा हृदय के पास ज्योतित, अग्निशिखा भी हमें दिखाई देती है। यहीं से अन्तः की यात्रा शुरू होती है और ध्यान की प्रगाढ़ता भाव-समाधि में बदल जाती है और आप ईश्वरीय सत्ता का अंश हो जाते हैं और वह सब कुछ कर-देख सकते हैं जो ईश्वरीय सत्तायें करती हैं और संसारी व्यक्ति आपके कार्यें को आश्चर्य से देखता है