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Thursday, February 11, 2016

प्रोटो इंडो यूरोपियन भाषा का मिथक (Myth of the Proto Indo European Language)

प्रोटो इंडो यूरोपियन भाषा का मिथक (Myth of the Proto Indo European Language)
पश्चिमी भाषावैज्ञानिक और इतिहासकारों ने यह पाया की यूनानी ,लैटिन और संस्कृत में कई समानता है और इन तीनो भाषाओ की एक ही जननी है जिसे इन्होने प्रोटो इंडो यूरोपियन यानि हिंदी में आदिम या प्राचीन हिंद यूरोपीय भाषा कहते है ।
पश्चिमी इतिहासकारों का मानना है की पश्चिम यूरोप और मध्य एशिया की सीमा के आसपास रहने वाले लोग प्रोटो इंडो यूरोपियन बोलते थे ,फिर वे लोग अलग अलग बट गए और कई अन्य भाषाओ में बदल गए और प्रोटो इंडो यूरोपियन विलुप्त हो गई । अब कई वर्ष तक संस्कृत पर काम करने के बाद भाषावैज्ञानिको ने प्रोटो इंडो यूरोपियन को दुबारा बना लिया है ,क्युकी संस्कृत अन्य आर्य भाषाओ में प्रोटो इंडो के सबसे करीबी है इसीलिए उसे चुना गया ।
पर इस सिधांत में कई खामिया है ।
सच यह है की संस्कृत ही सभी भाषाओ की जननी है और हिमालय आर्यों की जन्मभूमि ।प्रोटो इंडो यूरोपियन जैसी कोई भाषा ही नहीं है, अब जब प्रोटो इंडो यूरोपीय भाषा लुप्त हो चुकी है तो आपको कैसे पता की संस्कृत उसके सबसे करीबी है ?? और यदि प्रोटो इंडो यूरोपीय भाषा थी और संस्कृत उसके करीबी है तो प्रोटो इंडो यूरोपियन भाषा का गढ़ भारत होना चाहिए ,क्युकी पश्चिम यूरोप और मध्य एशिया की भाषाए प्रोटो इंडो से दूर है तो साफ़ है की आर्य भारत से निकले और कास्पियन सागर जो मध्य एशिया और पश्चिमी यूरोप के पास है वहा बसे ,अब उन्हें वहा पहोचने के लिए कई वर्ष लगे इसीलिए उनकी भाषाओ में कई विकृतिया आई गई और वह प्रोटो इंडो यूर्प्पियन भाषा से अलग हो गई ।

पश्चिमी इतिहासकारों को यह बिलकुल पसंद नहीं की उनके पूर्वज भारत के हो । ईसायत और इस्लाम मे उत्तर अफ्रीका से लेकर इराक तक के भाग को इश्वर का बाग़ यानी ईडन गार्डन कहा गया है जहा आदम रहा था ,और पश्चिमी इतिहासकार या तो इसाई है या मुस्लमान इसीलिए उन्होंने अफ्रीका को मानव के जन्म का स्थान बताया है ।

पश्चिमी इतिहासकार और भाषावैज्ञानिको को संस्कृत का बहोत कम ज्ञान है और कई लोगो ने तो संस्कृत में पीएचडी तक की है ,पर फिर भी संस्कृत के मामले में वे लोग पिछड़े हुए है ।
भाषावैज्ञानिको ने ऋग्वेद के द्यौस ,यूनानी ज़ीउस और रोम के जुपिटर में समानता देखि और इस निर्णय पर आये की ये तीनो एक ही शब्द से उत्पन्न हुए है ,जो की प्रोटो इंडो यूरोपियन शब्द द्येउस (Dyeus) से है और संस्कृत का द्यौस उसका सबसे करीबी है ।

प्रोटो इंडो यूरोपियन भाषा सुनने के लिए यहाँ क्लिक करे : प्रोटो इंडो यूरोपियन 

भाषावैज्ञानिको ने यह पाया की ज़ीउस ,जुपिटर और द्यौस तीनो ही देवताओ के राजा है (ग्रिफ्फित के अनुवाद अनुसार ), पर ऋग्वैदिक मंत्रो में द्यौस पिता को कही भी देवताओ का राजा नहीं कहा गया ,यह केवल भाषावैज्ञानिको का अनुमान था | यदि आप ग्रिफ्फित का ऋग्वेद का अनुवाद पड़े तो ऋग्वेद का मंडल 4 सूक्त 17 का मंत्र 4 के अनुसार द्यौस पिता इंद्र के पिता है और यदि हम आर्य समाज जामनगर  का अनुवाद पड़े इसी मंत्र का तो उसके अनुसार द्यौस का अर्थ शूरवीर है | जबकि हम दुबारा ग्रिफ्फित का अनुवाद देखे और उसमे पुरुष सूक्त देखे तो उसके अनुसार इंद्र पुरुष के नेत्र से उत्पन्न हुए है तो द्यौस पुरुष के माथे से , अर्थात इंद्र द्यौस के पुत्र नहीं ,और यदि आर्य समाज जामनगर  अनुवाद ले तो यहाँ द्यौस का अर्थ आकाश लोक है |
आर्य समाज जामनगर ,ऋग्वेद मंडल 10 सूक्त ९० मंत्र 14 

जब आर्य अभारत से बहार गए तो धीरे धीरे उन्होंने अपना नया धर्म बनाया ,प्राचीन ,फिर प्राचीन इराक यानि सुमेरिया में पुत्र अपने पिता की हत्या कर सिंहासन पर बैठने लगे, राजा द्वारा किये गए इस पाप को छुपाने के लिए कवियों ने एक कहानी गड़ी की जब देवता पापी हो जाते तो उनके पुत्र उनकी हत्या कर गद्दी पर बैठते और न्याय को सदा कायम रखते |
अब यही कहानी कई देशो में गई ,ज़ीउस ने भी अपने पिता क्रोनुस की और जुपिटर ने अपने पिता सैटर्न की हत्या की थी | पश्चिमी भाषावैज्ञानिको ने यही सोचा की द्यौस इंद्र का पिता है और इंद्र भी अपने पिता की हत्या कर देवताओ का राजा बना |
असल में यह बृहस्पति है जो यूनान में ज़ीउस बना और रोम में जुपिटर ,बृहस्पति और जुपिटर दोनों ही बृहस्पति ग्रह से जुड़े हुए है और ज़ीउस ,जुपिटर और बृहस्पति यह तीनो शब्द एक दुसरे से मिलते जुलते है ।

तो भाषावैज्ञानिको ने जिस द्यौस के आधार  पर प्रोटो इंडो यूरोपियन शब्द द्येउस (Dyeus) वह गलत है | इससे हम यह अनुमान लगा सकते है इनकी बनाई 70% भाषा गलत है |
www.prachinsabyata.blogpot.com

Friday, March 27, 2015

धर्म

'"धर्म" शब्द सर्वप्रथम हिंदु संस्कृति में प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ केवल कोई उपासना पद्धति न होकर उच्च मानवीय गुणों से है । अतः धर्म केवल एक है, और वह है- "सनातन हिंदु धर्म".. जहाँ धर्म के कई लक्षण बताए गये हैं--मनुस्मृति
मनु ने धर्म के दस लक्षण गिनाए हैं:
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं
शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं
धर्मलक्षणम्।। (मनुस्मृति ६.९२)
(धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, शौच
(स्वच्छता), इन्द्रियों को वश मे रखना, बुद्धि,
विद्या, सत्य और क्रोध न करना ; ये दस धर्म
के लक्षण हैं।)
याज्ञवक्य
याज्ञवल्क्य ने धर्म के नौ (9) लक्षण गिनाए
हैं:
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
दानं दमो दया शान्ति: सर्वेषां धर्मसाधनम्।।
(अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय), शौच
(स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह
(इन्द्रियों को वश में रखना), दान, संयम (दम),
दया एवं शान्ति)
श्रीमद्भागवत
श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध में सनातन
धर्म के तीस लक्षण बतलाये हैं और वे बड़े
ही महत्त्व के हैं :
सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय
आर्जवम्।।
संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:।
नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।।
अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च
यथार्हत:।
तेषात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव।।
श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:।
सेवेज्यावनतिर्दास्यं
सख्यमात्मसमर्पणम्।।
नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:।
त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन
तुष्यति।।
महात्मा विदुर
महाभारत के महान यशस्वी पात्र विदुर ने धर्म
के आठ अंग बताए हैं -
इज्या (यज्ञ-याग, पूजा आदि), अध्ययन,
दान, तप, सत्य, दया, क्षमा और अलोभ ।
उनका कहना है कि इनमें से प्रथम चार
इज्या आदि अंगों का आचरण मात्र दिखावे के
लिए भी हो सकता है, किन्तु अन्तिम चार सत्य
आदि अंगों का आचरण करने वाला महान बन
जाता है।
तुलसीदास द्वारा वर्णित धर्मरथ
सुनहु सखा, कह कृपानिधाना, जेहिं जय होई
सो स्यन्दन आना।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका, सत्य सील दृढ़
ध्वजा पताका।
बल बिबेक दम पर-हित घोरे,
छमा कृपा समता रजु जोरे।
ईस भजनु सारथी सुजाना, बिरति चर्म
संतोष कृपाना।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचण्डा, बर
बिग्यान कठिन कोदंडा।
अमल अचल मन त्रोन सामना, सम जम
नियम सिलीमुख नाना।
कवच अभेद बिप्र-गुरुपूजा, एहि सम बिजय
उपाय न दूजा।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें, जीतन कहँ न
कतहूँ रिपु ताकें।
महा अजय संसार रिपु, जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होई दृढ़, सुनहु सखा मति-
धीर।। (लंकाकांड)
पद्मपुराण
ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा च प्रवर्तते।
दानेन नियमेनापि क्षमा शौचेन वल्लभ।।
अहिंसया सुशांत्या च अस्तेयेनापि वर्तते।
एतैर्दशभिरगैस्तु धर्ममेव सुसूचयेत।।
(अर्थात ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, संयम,
क्षमा, शौच, अहिंसा, शांति और अस्तेय इन
दस अंगों से युक्त होने पर ही धर्म
की वृद्धि होती है।)
धर्मसर्वस्वम्
जिस नैतिक नियम को आजकल 'गोल्डेन रूल'
या 'एथिक आफ रेसिप्रोसिटी' कहते हैं उसे
भारत में प्राचीन काल से मान्यता है। सनातन
धर्म में इसे 'धर्मसर्वस्वम्" (=धर्म का सब
कुछ) कहा गया है:
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं
श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।।
(पद्मपुराण, शृष्टि 19/357-358)
(अर्थ: धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो ! और
सुनकर इसका अनुगमन करो। जो आचरण
स्वयं के प्रतिकूल हो, वैसा आचरण दूसरों के
साथ नहीं करना चाहिये।)'"धर्म" शब्द सर्वप्रथम हिंदु संस्कृति में प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ केवल कोई उपासना पद्धति न होकर उच्च मानवीय गुणों से है । अतः धर्म केवल एक है, और वह है- "सनातन हिंदु धर्म".. जहाँ धर्म के कई लक्षण बताए गये हैं--मनुस्मृति
मनु ने धर्म के दस लक्षण गिनाए हैं:
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं
शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं...
धर्मलक्षणम्।। (मनुस्मृति ६.९२)
(धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, शौच
(स्वच्छता), इन्द्रियों को वश मे रखना, बुद्धि,
विद्या, सत्य और क्रोध न करना ; ये दस धर्म
के लक्षण हैं।)
याज्ञवक्य
याज्ञवल्क्य ने धर्म के नौ (9) लक्षण गिनाए
हैं:
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
दानं दमो दया शान्ति: सर्वेषां धर्मसाधनम्।।
(अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय), शौच
(स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह
(इन्द्रियों को वश में रखना), दान, संयम (दम),
दया एवं शान्ति)
श्रीमद्भागवत
श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध में सनातन
धर्म के तीस लक्षण बतलाये हैं और वे बड़े
ही महत्त्व के हैं :
सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय
आर्जवम्।।
संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:।
नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।।
अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च
यथार्हत:।
तेषात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव।।
श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:।
सेवेज्यावनतिर्दास्यं
सख्यमात्मसमर्पणम्।।
नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:।
त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन
तुष्यति।।
महात्मा विदुर
महाभारत के महान यशस्वी पात्र विदुर ने धर्म
के आठ अंग बताए हैं -
इज्या (यज्ञ-याग, पूजा आदि), अध्ययन,
दान, तप, सत्य, दया, क्षमा और अलोभ ।
उनका कहना है कि इनमें से प्रथम चार
इज्या आदि अंगों का आचरण मात्र दिखावे के
लिए भी हो सकता है, किन्तु अन्तिम चार सत्य
आदि अंगों का आचरण करने वाला महान बन
जाता है।
तुलसीदास द्वारा वर्णित धर्मरथ
सुनहु सखा, कह कृपानिधाना, जेहिं जय होई
सो स्यन्दन आना।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका, सत्य सील दृढ़
ध्वजा पताका।
बल बिबेक दम पर-हित घोरे,
छमा कृपा समता रजु जोरे।
ईस भजनु सारथी सुजाना, बिरति चर्म
संतोष कृपाना।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचण्डा, बर
बिग्यान कठिन कोदंडा।
अमल अचल मन त्रोन सामना, सम जम
नियम सिलीमुख नाना।
कवच अभेद बिप्र-गुरुपूजा, एहि सम बिजय
उपाय न दूजा।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें, जीतन कहँ न


कतहूँ रिपु ताकें।
महा अजय संसार रिपु, जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होई दृढ़, सुनहु सखा मति-
धीर।। (लंकाकांड)
पद्मपुराण
ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा च प्रवर्तते।
दानेन नियमेनापि क्षमा शौचेन वल्लभ।।
अहिंसया सुशांत्या च अस्तेयेनापि वर्तते।
एतैर्दशभिरगैस्तु धर्ममेव सुसूचयेत।।
(अर्थात ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, संयम,
क्षमा, शौच, अहिंसा, शांति और अस्तेय इन
दस अंगों से युक्त होने पर ही धर्म
की वृद्धि होती है।)
धर्मसर्वस्वम्
जिस नैतिक नियम को आजकल 'गोल्डेन रूल'
या 'एथिक आफ रेसिप्रोसिटी' कहते हैं उसे
भारत में प्राचीन काल से मान्यता है। सनातन
धर्म में इसे 'धर्मसर्वस्वम्" (=धर्म का सब
कुछ) कहा गया है:
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं
श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।।
(पद्मपुराण, शृष्टि 19/357-358)
(अर्थ: धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो ! और
सुनकर इसका अनुगमन करो। जो आचरण
स्वयं के प्रतिकूल हो, वैसा आचरण दूसरों के
साथ नहीं करना चाहिये।)

Monday, February 16, 2015

DHARMA IS NOT A RELIGION.धर्म

"धर्म" शब्द सर्वप्रथम हिंदु संस्कृति में प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ केवल कोई उपासना पद्धति न होकर उच्च मानवीय गुणों से है । अतः धर्म केवल एक है, और वह है- "सनातन हिंदु धर्म".. जहाँ धर्म के कई लक्षण बताए गये हैं--मनुस्मृति
मनु ने धर्म के दस लक्षण गिनाए हैं:
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं
शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं
धर्मलक्षणम्।। (मनुस्मृति ६.९२)
(धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, शौच
(स्वच्छता), इन्द्रियों को वश मे रखना, बुद्धि,
विद्या, सत्य और क्रोध न करना ; ये दस धर्म
के लक्षण हैं।)
याज्ञवक्य
याज्ञवल्क्य ने धर्म के नौ (9) लक्षण गिनाए
हैं:
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
दानं दमो दया शान्ति: सर्वेषां धर्मसाधनम्।।
(अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय), शौच
(स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह
(इन्द्रियों को वश में रखना), दान, संयम (दम),
दया एवं शान्ति)
श्रीमद्भागवत
श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध में सनातन
धर्म के तीस लक्षण बतलाये हैं और वे बड़े
ही महत्त्व के हैं :
सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय
आर्जवम्।।
संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:।
नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।।
अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च
यथार्हत:।
तेषात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव।।
श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:।
सेवेज्यावनतिर्दास्यं
सख्यमात्मसमर्पणम्।।
नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:।
त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन
तुष्यति।।
महात्मा विदुर
महाभारत के महान यशस्वी पात्र विदुर ने धर्म
के आठ अंग बताए हैं -
इज्या (यज्ञ-याग, पूजा आदि), अध्ययन,
दान, तप, सत्य, दया, क्षमा और अलोभ ।
उनका कहना है कि इनमें से प्रथम चार
इज्या आदि अंगों का आचरण मात्र दिखावे के
लिए भी हो सकता है, किन्तु अन्तिम चार सत्य
आदि अंगों का आचरण करने वाला महान बन
जाता है।
तुलसीदास द्वारा वर्णित धर्मरथ
सुनहु सखा, कह कृपानिधाना, जेहिं जय होई
सो स्यन्दन आना।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका, सत्य सील दृढ़
ध्वजा पताका।
बल बिबेक दम पर-हित घोरे,
छमा कृपा समता रजु जोरे।
ईस भजनु सारथी सुजाना, बिरति चर्म
संतोष कृपाना।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचण्डा, बर
बिग्यान कठिन कोदंडा।
अमल अचल मन त्रोन सामना, सम जम
नियम सिलीमुख नाना।
कवच अभेद बिप्र-गुरुपूजा, एहि सम बिजय
उपाय न दूजा।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें, जीतन कहँ न
कतहूँ रिपु ताकें।
महा अजय संसार रिपु, जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होई दृढ़, सुनहु सखा मति-
धीर।। (लंकाकांड)
पद्मपुराण
ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा च प्रवर्तते।
दानेन नियमेनापि क्षमा शौचेन वल्लभ।।
अहिंसया सुशांत्या च अस्तेयेनापि वर्तते।
एतैर्दशभिरगैस्तु धर्ममेव सुसूचयेत।।
(अर्थात ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, संयम,
क्षमा, शौच, अहिंसा, शांति और अस्तेय इन
दस अंगों से युक्त होने पर ही धर्म
की वृद्धि होती है।)
धर्मसर्वस्वम्
जिस नैतिक नियम को आजकल 'गोल्डेन रूल'
या 'एथिक आफ रेसिप्रोसिटी' कहते हैं उसे
भारत में प्राचीन काल से मान्यता है। सनातन
धर्म में इसे 'धर्मसर्वस्वम्" (=धर्म का सब
कुछ) कहा गया है:
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं
श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।।
(पद्मपुराण, शृष्टि 19/357-358)
(अर्थ: धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो ! और
सुनकर इसका अनुगमन करो। जो आचरण
स्वयं के प्रतिकूल हो, वैसा आचरण दूसरों के
साथ नहीं करना चाहिये।)