महात्मा बुद्ध आध्यात्मिक दृष्टिसे अनात्मवादी थे । तथापि आचरणकी दृष्टिसे उपनिषदों के संन्यास धर्म से प्रभावित थे । ऐतिहासिक दृष्टिसे यह कथन अशुद्ध है ,कि बुद्ध कोई नया मत चलाने का प्रयत्न कर रहे थे । उनका अंत तक यही विश्वास था कि वह प्रचलित सनातन धर्म का प्राचीन और शुद्ध रूप में प्रचार कर रहे हैं " एसो धम्मो सनतने " - "वेदानि विचेग्य केवलानि समणानं यानि पर अत्थि ब्राह्मणनं ! सब्बा वेदनासु वीतरागो सब्बं वेदमणिच्...च वेदगुरो !!( सुत्त निपात ५२९) "जिसने सब वेदों और कैवल्य वा मोक्ष विधायक उपनिषदो का अवगाहन कर लिया है और जो सब वेदनाओं से वीतराग होकर सबको अनित्य जानता है ,वही वेदज्ञ ब्राह्मण है ।" बुद्धका निर्वाणपद भी गीतोपनिषदका ब्रह्मनिर्वाणपद ही है कहीं अन्य से नही लिया - "स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति !"(गीता२/७२), "स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति !"(गीता५/२४) ,लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषय: क्षीणकल्मषा:(५/२५) और अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् !!(५/२६) । यही नही निर्वाणपदतक जो पहुँच चुका है उसके लिये बुद्ध ने अपने शिष्य सोनकोलीविस् से कहा है "निर्वाण तक जो पहुँच गया है उसके लिये न तो कोई कार्य ही अवशिष्ट रहता है और न ही किया हुआ कार्य ही भोगना पड़ता है
यह शुद्ध मार्ग है "तस्य कार्य न विद्यते " श्रीमद्भगवद्गीताका वचन ही है । यही नहीं जब बुद्धके शिष्य नन्द अर्हन अवस्था में पहुँच गए तब बुद्ध कहते हैं -"अवाप्तकार्योऽसि परां गतिं न तेऽस्ति किञ्चित् करणीयमण्वपि । विहाय तस्मादिह कार्यात्मन: कुरु स्थितिरात्मन् परकार्यमप्यथो !!" अर्थात् तेरा कार्य हो चुका है ,तुझे उत्तम गति मिल गयी । अब तेरे लिये तिल भर भी कर्म नहीं रहा ,अतः अब तू अपना कार्य छोड़कर परकार्य कर !" "तस्य कार्यं न विद्यते !!(गीता३/१७) ,"तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्मं समाचार !"(गीता३/१९) इन भगवान् श्रीकृष्णके वचन ही बुद्ध उपदेश करते हैं । सब्वासवसूत्र (९/१३) बुद्धके सिद्धांत में दुःख ,समुदय,निरोध और मार्ग ये चार आर्य सत्य मान्य हैं । संसार छोड़कर मन को निर्विषय तथा निष्काम करना ही मनुष्य का कर्तव्य है । बृहदारण्यकोपनिषद् (४/४/६) के मन्त्र को बुद्धने स्वीकार किया है । बुद्ध वेद धर्मके ही प्रचारक थे किन्तु पीछे से उन्हें वेद विरुद्ध बना दिया गया और आज तो आर्य (वैदिकों ) के विरुद्ध धर्म बौद्ध (दलित) बना कर भारतवर्ष को दो ध्रुवोंमें विभाजित कर दिया है । बुद्धम् शरणम् गच्छामि (ये महावाक्य भी श्रीमद्भागवद्गीताके २/४९ "बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणा: फलहेतव:" का ही है )
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