गणित में जीरो का उपयोग दो रूप में होता है
1 place holder
2 एक वास्तविक संख्या (रियल नंबर)
जीरो का विचार तो आदि मानव को भी रहा होगा इसमें कोई संदेह नहीं है। जब उसके किए हुए इकलौते शिकार को कोई दूसरा छीन ले जाता था तो उसके पास क्या शेष रहता था। बस यही जीरो है। गुरुओं के विचार के बिना किसी भी पोजीशन value सिस्टम की कल्पना भी नहीं की जा सकती। क्योंकि वैदिक साहित्य में अंको का प्रयोग नही होकर शब्दों का उपयोग हुआ है। अतः जीरो का अंक के रुप में उपयोग और संकेत चिन्ह हमारे पास आज उपलब्ध नहीं है।
क्योंकि हमारे यहां इतिहास के स्रोत पुराण आदी हैं इनमें हमारी कला और विज्ञान के बारे में कोई विशेष विवरण नहीं दिया जाता था । हमारे विश्व विद्यालय और पुस्तकालयों को विदेशी आक्रांताओं ने नष्ट कर दिया और क्योंकि हमारे यहां भोजपत्र पर लेखन की परंपरा थी जो आग से बच नहीं सकते थे। हमारे प्राचीन मंदिरों को भी नष्ट कर दिया गया जिन पर उत्तीर्ण शिलालेख हमारे ज्ञान और विज्ञान को प्रदर्शित कर सकते थे।
कोई संख्या पद्धति एक दिन में विकसित नहीं हो सकती गणित का विकास एक सतत प्रक्रिया है और यह प्रक्रिया आज भी जारी है।
आज से लगभग 3 हजार साल पहले Babylon की संख्या पद्धति में पोजीशनल वैल्यू सिस्टम का समावेश देखा गया है। कोई पोजीशनल वैल्यू सिस्टम बिना शून्य की कल्पना के संभव ही नहीं है। भारत में। मोर्य साम्राज्य इतना विशाल था कि उसका हिसाब किताब बिना लिखे हो ही नहीं सकता था। बेबीलोन के लोग सोने के स्थान पर रिक्त स्थान (space) का प्रयोग करते थे किंतु प्रथम अंक शून्य होने पर स्पेस को देखा जाना संभव नहीं है अतः उन की पद्धति कांटेकस्ट बेश हो गई थी। अर्थात उसे प्रश्न के आधार पर ही समझा जाता जा सकता था। क्योंकि वहां 1 और 60 को एक ही तरह से लिखा जाता था। आप किसी संख्या को एक भी पढ़ सकते हैं और उसे 6॒0 भी पढ़ सकते हैं। एक टेबल कोमेंट में दी जा रही है जिससे आप बेबी लोन की संख्या पद्धति में 1 और 7 को देख लीजिए दोनों एक ही तरह लिखे गए हैं।
आचार्य आर्यभट्ट और आचार्य ब्रम्हगुप्त की पुस्तकें उस समय प्रचलित गणित के ज्ञान का संकलन मात्र है। दुनिया में कहीं भी कोई संख्या पद्धति या कोई भाषा किसी व्यक्ति द्वारा नहीं प्रारंभ की गई है। इसलिए दशमलव पद्धति के विकास का श्रेय Acharya आर्यभट्ट को देना वस्तुतः हमारी उस सोच का अवमूल्यन है जो हिंदू वे ऑफ लाइफ के नाम से जानी जाती है। हम ज्ञान और विज्ञान को हमेशा सम्मान देते रहें हैं और उस के विकास में कभी कोई बाधा उत्पन्न नहीं की जाती है । हमारे यहां किसी भी वैज्ञानिक को मृत्युदंड देने का कोई उदाहरण उपलब्ध नहीं है ।जबकि क्रिश्चन वर्ड में बहुत से उदाहरण ऐसे मिल जाएंगे। आचार्य आर्यभट्ट की पुस्तक में दशमलव पद्धति का विवरण मिलता है और आचार्य ब्रह्मगुप्त ने जीरो को एक संख्या के रुप में प्रस्तुत किया हे जोकि शेष दुनिया के लिए एक अनूठी चीज़ थी। उन्होंने जीरो जोड़ने घटाने गुणा करने और भाग देने के संबंध में नियम संकलित किए हैं
रोमन गणित में जीरो के लिए कोई संकेत नहीं दिया गया हैं लेकिन वहां भी एक सो लिखने में कोई दिक्कत नहीं है। रोमन में 100 को c अक्सर द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। दुनिया में कोई भी संख्या positional value पद्धति जिसमें केवल 9 संकेत अक्षर हो या 16 संकेत अक्षर, बिना जीरो के लिए कोई संकेत अक्षर दिए संभव ही नहीं है।
बेबीलोन की गणित पद्धति में 59 अंको का इस्तेमाल किया जाता था और यह इसलिए किया जाता था। ताकि गलती की संभावना को न्यूनतम किया जा सके। क्योंकि हमारे यहां किसी दूसरी पद्धति की कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है इसलिए हमारी यह गणना पद्धति पाश्चात्य विद्वानों की कल्पना से भी बहुत पहले की है।
शून्य की खोज किसने की तो वो हैं वेद । वेदों में 1 से लेकर 18 अंकों तक (इकाई से परार्ध ) की गणना की गयी है ।
1 के अंक में 0 लगाने पर ये गणना क्रमशः बढ़ती जाती है इस का स्पष्ट उल्लेख वेद भगवान् करते हैं --
'इमा मेऽअग्नऽइष्टका धेनव: सन्त्वेका च दश च शतं च शतं च सहस्रं च सहस्रं चायुतं चायुतं च नियुतं च नियुतं व नियुतं च प्रयुतं चार्बु दं च न्यर्बु दं च समुद्रश्च मध्यं चान्तश्च परार्धश्चैता मेऽअग्नऽइष्टका धेनव: सन्त्वमुत्रामुष
्मिंल्लोके ।। (शुक्ल यजुर्ववेद १७/२)
अर्थात् - हे अग्ने । ये इष्टकाऐं (पांच चित्तियो में स्थापित ) हमारे लिए अभीष्ट फलदायक कामधेनु गौ के समान हों । ये इष्टका परार्द्ध -सङ्ख्यक (१०००००००००००००००००) एक से दश ,दश से सौ, सौ से हजार ,हजार से दश हजार ,दश हजार से लाख ,लाख से दश लाख ,दशलाख से करोड़ ,करोड़ से दश करोड़ ,दश करोड़ से अरब ,अरब से दश अरब ,दश अरब से खरब ,खरब से दश खरब ,दश खरब से नील, नील से दश नील, दश नील से शङ्ख ,शङ्ख से दश शङ्ख ,दश शङ्ख से परार्द्ध ( लक्ष कोटि) है ।
यहाँ स्पष्ट एक एक। शून्य जोड़ते हुए काल गणना की गयी है ।
अब फिर आर्यभट्ट ने कैसे शून्य की खोज की ?
इसका जवाब है विज्ञान की दो क्रियाएँ हैं एक खोज (डिस्कवर ) दूसरी आविष्कार (एक्सपेरिमेंट) । खोज उसे कहते हैं जो पहले से विद्यमान हो बाद में खो गयी हो और फिर उसे ढूढा जाए उसे खोज कहते हैं ।
आविष्कार उसे कहते हैं जो विद्यमान नहीं है और उसे अलग अलग पदार्थों से बनाया जाए वो आविष्कार है ।
अब शून्य और अंको की खोज आर्यभट्ट ने की न कि आविष्कार किया
इसका प्रमाण सिंधु -सरस्वती सभ्यता (हड़प्पा की सभ्यता) जो की १७५० ई पू तक विलुप्त हो चुकी थी में अंको की गणना स्पष्ट रूप से अंकित है।
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1 place holder
2 एक वास्तविक संख्या (रियल नंबर)
जीरो का विचार तो आदि मानव को भी रहा होगा इसमें कोई संदेह नहीं है। जब उसके किए हुए इकलौते शिकार को कोई दूसरा छीन ले जाता था तो उसके पास क्या शेष रहता था। बस यही जीरो है। गुरुओं के विचार के बिना किसी भी पोजीशन value सिस्टम की कल्पना भी नहीं की जा सकती। क्योंकि वैदिक साहित्य में अंको का प्रयोग नही होकर शब्दों का उपयोग हुआ है। अतः जीरो का अंक के रुप में उपयोग और संकेत चिन्ह हमारे पास आज उपलब्ध नहीं है।
क्योंकि हमारे यहां इतिहास के स्रोत पुराण आदी हैं इनमें हमारी कला और विज्ञान के बारे में कोई विशेष विवरण नहीं दिया जाता था । हमारे विश्व विद्यालय और पुस्तकालयों को विदेशी आक्रांताओं ने नष्ट कर दिया और क्योंकि हमारे यहां भोजपत्र पर लेखन की परंपरा थी जो आग से बच नहीं सकते थे। हमारे प्राचीन मंदिरों को भी नष्ट कर दिया गया जिन पर उत्तीर्ण शिलालेख हमारे ज्ञान और विज्ञान को प्रदर्शित कर सकते थे।
कोई संख्या पद्धति एक दिन में विकसित नहीं हो सकती गणित का विकास एक सतत प्रक्रिया है और यह प्रक्रिया आज भी जारी है।
आज से लगभग 3 हजार साल पहले Babylon की संख्या पद्धति में पोजीशनल वैल्यू सिस्टम का समावेश देखा गया है। कोई पोजीशनल वैल्यू सिस्टम बिना शून्य की कल्पना के संभव ही नहीं है। भारत में। मोर्य साम्राज्य इतना विशाल था कि उसका हिसाब किताब बिना लिखे हो ही नहीं सकता था। बेबीलोन के लोग सोने के स्थान पर रिक्त स्थान (space) का प्रयोग करते थे किंतु प्रथम अंक शून्य होने पर स्पेस को देखा जाना संभव नहीं है अतः उन की पद्धति कांटेकस्ट बेश हो गई थी। अर्थात उसे प्रश्न के आधार पर ही समझा जाता जा सकता था। क्योंकि वहां 1 और 60 को एक ही तरह से लिखा जाता था। आप किसी संख्या को एक भी पढ़ सकते हैं और उसे 6॒0 भी पढ़ सकते हैं। एक टेबल कोमेंट में दी जा रही है जिससे आप बेबी लोन की संख्या पद्धति में 1 और 7 को देख लीजिए दोनों एक ही तरह लिखे गए हैं।
आचार्य आर्यभट्ट और आचार्य ब्रम्हगुप्त की पुस्तकें उस समय प्रचलित गणित के ज्ञान का संकलन मात्र है। दुनिया में कहीं भी कोई संख्या पद्धति या कोई भाषा किसी व्यक्ति द्वारा नहीं प्रारंभ की गई है। इसलिए दशमलव पद्धति के विकास का श्रेय Acharya आर्यभट्ट को देना वस्तुतः हमारी उस सोच का अवमूल्यन है जो हिंदू वे ऑफ लाइफ के नाम से जानी जाती है। हम ज्ञान और विज्ञान को हमेशा सम्मान देते रहें हैं और उस के विकास में कभी कोई बाधा उत्पन्न नहीं की जाती है । हमारे यहां किसी भी वैज्ञानिक को मृत्युदंड देने का कोई उदाहरण उपलब्ध नहीं है ।जबकि क्रिश्चन वर्ड में बहुत से उदाहरण ऐसे मिल जाएंगे। आचार्य आर्यभट्ट की पुस्तक में दशमलव पद्धति का विवरण मिलता है और आचार्य ब्रह्मगुप्त ने जीरो को एक संख्या के रुप में प्रस्तुत किया हे जोकि शेष दुनिया के लिए एक अनूठी चीज़ थी। उन्होंने जीरो जोड़ने घटाने गुणा करने और भाग देने के संबंध में नियम संकलित किए हैं
रोमन गणित में जीरो के लिए कोई संकेत नहीं दिया गया हैं लेकिन वहां भी एक सो लिखने में कोई दिक्कत नहीं है। रोमन में 100 को c अक्सर द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। दुनिया में कोई भी संख्या positional value पद्धति जिसमें केवल 9 संकेत अक्षर हो या 16 संकेत अक्षर, बिना जीरो के लिए कोई संकेत अक्षर दिए संभव ही नहीं है।
बेबीलोन की गणित पद्धति में 59 अंको का इस्तेमाल किया जाता था और यह इसलिए किया जाता था। ताकि गलती की संभावना को न्यूनतम किया जा सके। क्योंकि हमारे यहां किसी दूसरी पद्धति की कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है इसलिए हमारी यह गणना पद्धति पाश्चात्य विद्वानों की कल्पना से भी बहुत पहले की है।
शून्य की खोज किसने की तो वो हैं वेद । वेदों में 1 से लेकर 18 अंकों तक (इकाई से परार्ध ) की गणना की गयी है ।
1 के अंक में 0 लगाने पर ये गणना क्रमशः बढ़ती जाती है इस का स्पष्ट उल्लेख वेद भगवान् करते हैं --
'इमा मेऽअग्नऽइष्टका धेनव: सन्त्वेका च दश च शतं च शतं च सहस्रं च सहस्रं चायुतं चायुतं च नियुतं च नियुतं व नियुतं च प्रयुतं चार्बु दं च न्यर्बु दं च समुद्रश्च मध्यं चान्तश्च परार्धश्चैता मेऽअग्नऽइष्टका धेनव: सन्त्वमुत्रामुष
्मिंल्लोके ।। (शुक्ल यजुर्ववेद १७/२)
अर्थात् - हे अग्ने । ये इष्टकाऐं (पांच चित्तियो में स्थापित ) हमारे लिए अभीष्ट फलदायक कामधेनु गौ के समान हों । ये इष्टका परार्द्ध -सङ्ख्यक (१०००००००००००००००००) एक से दश ,दश से सौ, सौ से हजार ,हजार से दश हजार ,दश हजार से लाख ,लाख से दश लाख ,दशलाख से करोड़ ,करोड़ से दश करोड़ ,दश करोड़ से अरब ,अरब से दश अरब ,दश अरब से खरब ,खरब से दश खरब ,दश खरब से नील, नील से दश नील, दश नील से शङ्ख ,शङ्ख से दश शङ्ख ,दश शङ्ख से परार्द्ध ( लक्ष कोटि) है ।
यहाँ स्पष्ट एक एक। शून्य जोड़ते हुए काल गणना की गयी है ।
अब फिर आर्यभट्ट ने कैसे शून्य की खोज की ?
इसका जवाब है विज्ञान की दो क्रियाएँ हैं एक खोज (डिस्कवर ) दूसरी आविष्कार (एक्सपेरिमेंट) । खोज उसे कहते हैं जो पहले से विद्यमान हो बाद में खो गयी हो और फिर उसे ढूढा जाए उसे खोज कहते हैं ।
आविष्कार उसे कहते हैं जो विद्यमान नहीं है और उसे अलग अलग पदार्थों से बनाया जाए वो आविष्कार है ।
अब शून्य और अंको की खोज आर्यभट्ट ने की न कि आविष्कार किया
इसका प्रमाण सिंधु -सरस्वती सभ्यता (हड़प्पा की सभ्यता) जो की १७५० ई पू तक विलुप्त हो चुकी थी में अंको की गणना स्पष्ट रूप से अंकित है।
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