Monday, March 23, 2015

THE SHIKSHASHTAKAM STOTRA -

'THE SHIKSHASHTAKAM STOTRA :

========== (श्री चैतन्य महाप्रभु विरचित शिक्षाष्टकम् स्तोत्र) ========== 

चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्निनिर्वापणं
श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।
आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं
सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण्संकीर्तनम् ॥१॥

चित्त रूपी दर्पण को स्वच्छ करने वाले, भव रूपी महान अग्नि को शांत करने वाले, चन्द्र किरणों के समान श्रेष्ठ, विद्या रूपी वधु के जीवन स्वरुप, आनंद सागर में वृद्धि करने वाले, प्रत्येक शब्द में पूर्ण अमृत के समान सरस, सभी को पवित्र करने वाले श्रीकृष्ण कीर्तन की उच्चतम विजय हो॥१॥ 

नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति-
स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः
एतादृशी तव कृपा भगवन् ममापि
दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः ॥२॥

हे प्रभु, आपने अपने अनेक नामों में अपनी शक्ति भर दी है, जिनका किसी समय भी स्मरण किया जा सकता है। हे भगवन्, आपकी इतनी कृपा है परन्तु मेरा इतना दुर्भाग्य है कि मुझे उन नामों से प्रेम ही नहीं है॥२॥ 

तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥३॥

स्वयं को तृण से भी छोटा समझते हुए, वृक्ष जैसे सहिष्णु रहते हुए, कोई अभिमान न करते हुए और दूसरों का सम्मान करते हुए सदा श्रीहरि का भजन करना चाहिए॥३॥ 

न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि ॥४॥

हे जगत के ईश्वर! मैं धन, अनुयायी, स्त्रियों या कविता की इच्छा न रखूँ। हे प्रभु, मुझे जन्म जन्मान्तर में आपसे ही अकारण प्रेम हो॥४॥ 

अयि नन्दतनूज किङ्करं पतितं मां विषमे भवांबुधौ।
कृपया तव पादपंकजस्थितधूलीसदृशं विचिन्तय॥५॥

हे नन्द के पुत्र, इस दुर्गम भव-सागर में पड़े हुए मुझ सेवक को अपने चरण कमलों में स्थित धूलि कण के समान समझ कर कृपा कीजिये॥५॥ 

नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्गदरुद्धया गिरा।
पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नामग्रहणे भविष्यति॥६॥ 

हे प्रभु, कब आपका नाम लेने पर मेरी आँखों के आंसुओं से मेरा चेहरा भर जायेगा, कब मेरी वाणी हर्ष से अवरुद्ध हो जाएगी, कब मेरे शरीर के रोम खड़े हो जायेंगे ॥६॥ 

युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्।
शून्यायितं जगत्सर्वं गोविन्दविरहेण मे ॥७॥

श्रीकृष्ण के विरह में मेरे लिए एक क्षण एक युग के समान है, आँखों में जैसे वर्षा ऋतु आई हुई है और यह विश्व एक शून्य के समान है॥७॥ 

आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मां
अदर्शनान्मर्महतां करोतु वा ।
यथा तथा वा विदधातु लंपटः
मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः॥।८॥

उनके चरणों में प्रीति रखने वाले मुझ सेवक का वह आलिंगन करें या न करें, मुझे अपने दर्शन दें या न दें, मुझे अपना मानें या न मानें, वह चंचल, नटखट श्रीकृष्ण ही मेरे प्राणों के स्वामी हैं, कोई दूसरा नहीं॥८॥ 

जय श्रीकृष्ण !!'THE SHIKSHASHTAKAM STOTRA :
 (श्री चैतन्य महाप्रभु विरचित शिक्षाष्टकम् स्तोत्र)
चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्निनिर्वापणं...
श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।
आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं
सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण्संकीर्तनम् ॥१॥

चित्त रूपी दर्पण को स्वच्छ करने वाले, भव रूपी महान अग्नि को शांत करने वाले, चन्द्र किरणों के समान श्रेष्ठ, विद्या रूपी वधु के जीवन स्वरुप, आनंद सागर में वृद्धि करने वाले, प्रत्येक शब्द में पूर्ण अमृत के समान सरस, सभी को पवित्र करने वाले श्रीकृष्ण कीर्तन की उच्चतम विजय हो॥१॥
नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति-
स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः
एतादृशी तव कृपा भगवन् ममापि
दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः ॥२॥
हे प्रभु, आपने अपने अनेक नामों में अपनी शक्ति भर दी है, जिनका किसी समय भी स्मरण किया जा सकता है। हे भगवन्, आपकी इतनी कृपा है परन्तु मेरा इतना दुर्भाग्य है कि मुझे उन नामों से प्रेम ही नहीं है॥२॥
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥३॥
स्वयं को तृण से भी छोटा समझते हुए, वृक्ष जैसे सहिष्णु रहते हुए, कोई अभिमान न करते हुए और दूसरों का सम्मान करते हुए सदा श्रीहरि का भजन करना चाहिए॥३॥
न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि ॥४॥
हे जगत के ईश्वर! मैं धन, अनुयायी, स्त्रियों या कविता की इच्छा न रखूँ। हे प्रभु, मुझे जन्म जन्मान्तर में आपसे ही अकारण प्रेम हो॥४॥
अयि नन्दतनूज किङ्करं पतितं मां विषमे भवांबुधौ।
कृपया तव पादपंकजस्थितधूलीसदृशं विचिन्तय॥५॥
हे नन्द के पुत्र, इस दुर्गम भव-सागर में पड़े हुए मुझ सेवक को अपने चरण कमलों में स्थित धूलि कण के समान समझ कर कृपा कीजिये॥५॥

नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्गदरुद्धया गिरा।
पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नामग्रहणे भविष्यति॥६॥
हे प्रभु, कब आपका नाम लेने पर मेरी आँखों के आंसुओं से मेरा चेहरा भर जायेगा, कब मेरी वाणी हर्ष से अवरुद्ध हो जाएगी, कब मेरे शरीर के रोम खड़े हो जायेंगे ॥६॥
युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्।
शून्यायितं जगत्सर्वं गोविन्दविरहेण मे ॥७॥
श्रीकृष्ण के विरह में मेरे लिए एक क्षण एक युग के समान है, आँखों में जैसे वर्षा ऋतु आई हुई है और यह विश्व एक शून्य के समान है॥७॥
आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मां
अदर्शनान्मर्महतां करोतु वा ।
यथा तथा वा विदधातु लंपटः
मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः॥।८॥
उनके चरणों में प्रीति रखने वाले मुझ सेवक का वह आलिंगन करें या न करें, मुझे अपने दर्शन दें या न दें, मुझे अपना मानें या न मानें, वह चंचल, नटखट श्रीकृष्ण ही मेरे प्राणों के स्वामी हैं, कोई दूसरा नहीं॥८॥
जय श्रीकृष्ण !!

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