Saturday, December 20, 2014

GITA 8.28

Photo: !!!---: स्वाध्याय :---!!!
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वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलम् प्रदिष्टम् l 
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ll२८ll
(गीता--8.28)

अन्वयः---वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु च एव यत् पुण्यफलम् प्रदिष्टम्, योगी  इदं विदित्वा तत् सर्वम् अत्येति परम् आद्यम् स्थानम् च उपैति ।।

अर्थः----वेदों में, यज्ञ और तप करने से तथा विविध दानों से पुण्य का जो जो पृथक्-पृथक् फल बताया है, उन सबको योगी इस तत्त्व को जानकर उपेक्षा-पूर्वक छोड देता है तथा वेद के बताए हुए पर-ब्रह्म-प्राप्ति-रूप एक ही महायज्ञ को निष्काम रूप से करता है तो उन सब कर्मों के फल से जो बडा फल पाता है, वह फल हैः---आत्मा की अपनी आद्य अर्थात् शुद्ध आसक्ति-बन्धनरहित अवस्था में आ जाना तब वह इस स्थान को पा लेता है।

भाव यह है कि वेदादिशास्त्रों में ब्रह्म-प्राप्ति से लेकर साधारण सकाम दान तक सब कर्मों के फलों का निर्देश किया है। सो सकाम कर्मों से जीव छोटे-छोटे नाना रूप धारण करता है, किन्तु रहता है बन्धन में । किन्तु निष्काम ब्रह्म-सेवा से योगी जीवात्मा के असली आसक्ति-मुक्त रूप में आ जाता है।

 

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वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलम् प्रदिष्टम् l 
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ll२८ll
(गीता--8.28)

अन्वयः---वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु च एव यत् पुण्यफलम् प्रदिष्टम्, योगी इदं विदित्वा तत् सर्वम् अत्येति परम् आद्यम् स्थानम् च उपैति ।।

अर्थः----वेदों में, यज्ञ और तप करने से तथा विविध दानों से पुण्य का जो जो पृथक्-पृथक् फल बताया है, उन सबको योगी इस तत्त्व को जानकर उपेक्षा-पूर्वक छोड देता है तथा वेद के बताए हुए पर-ब्रह्म-प्राप्ति-रूप एक ही महायज्ञ को निष्काम रूप से करता है तो उन सब कर्मों के फल से जो बडा फल पाता है, वह फल हैः---आत्मा की अपनी आद्य अर्थात् शुद्ध आसक्ति-बन्धनरहित अवस्था में आ जाना तब वह इस स्थान को पा लेता है।

भाव यह है कि वेदादिशास्त्रों में ब्रह्म-प्राप्ति से लेकर साधारण सकाम दान तक सब कर्मों के फलों का निर्देश किया है। सो सकाम कर्मों से जीव छोटे-छोटे नाना रूप धारण करता है, किन्तु रहता है बन्धन में । किन्तु निष्काम ब्रह्म-सेवा से योगी जीवात्मा के असली आसक्ति-मुक्त रूप में आ जाता है।

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