Saturday, December 20, 2014

गीता-उपदेश

Photo: !!!---: वेद-परिचय :---!!!
=======================

भागः---1

हिन्दू धर्म कोश के आधार पर (लेखकः--राजबली पाण्डेय)
 
वेद शब्द की व्युत्पत्ति चार प्रकार से की जाती है, जिसका विश्लेषण स्वामी दयानन्द ने "ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका" में की हैः---(क) विद ज्ञाने, (ख) विद सत्तायाम, (ग) विद्लृ लाभे, (घ) विद विचारणे।

तदनुसार, "विदन्ति जानन्ति, विद्यन्ते भवन्ति, विन्दन्ते लभन्ते, विन्दन्ति विचारयन्ति सर्वे मनुष्याः सत्यविद्याम् यैर्येषु वा तथा विद्वांसश्च भवन्ति, ते वेदाः"

अर्थात् जिनसे सभी मनुष्य सत्य विद्या को जानते हैं अथवा प्राप्त करते हैं, अथवा विचारते हैं, अथवा विद्वान् होते हैं, अथवा सत्य विद्या की प्राप्ति के लिए जिनमें प्रवृत्त होते हैं, उनको वेद कहते हैं।"

परन्तु यहाँ पर जिस ज्ञान का संकेत किया गया है, वह सामान्य ज्ञान नहीं है। यद्यपि वैदिक साहित्य में सामान्य ज्ञान का अभाव नहीं। यहाँ ज्ञान का अभिप्राय ईश्वरीय ज्ञान से हैं, जिसका साक्षात्कार मानव जीवन के प्रारम्भ में ऋषियों को हुआ था। मनु महाराज ने (1.7) में वेद को सर्वज्ञानमय कहा हैः--- "सर्वज्ञानमयो हि सः"

"वेद" शब्द का प्रयोग पूर्व काल में सम्पूर्ण वैदिक-वाङ्मय के अर्थ में होता था, जिनमें संहिता, आरण्यक, ब्राह्मण और उपनिषद् सम्मिलित थे।  तद्यथाः--मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्।" अर्थात् मन्त्र और ब्राह्मणों का सम्मिलित नाम वेद है। यहाँ ब्राह्मण में आरण्यक और उपनिषद् भी सम्मिलित है। 

किन्तु आगे चलकर "वेद" शब्द केवल चार वेद-संहिताओं यथा---ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ही द्योतक रह गया। ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् वैदिक-वाङ्मय के अंग होते हुए भी मूल वेदों से पृथक् मान लिये गये। 

सायणाचार्य ने तैत्तिरीय-संहिता की भूमिका में इस तथ्य का स्पष्टीकरण किया हैः---"यद्यपि मन्त्रब्राह्मणात्मको वेदः तथापि ब्राह्मणस्य मन्त्रव्याख्यानस्वरूपत्वाद् मन्त्रा एवादौ समाम्नाताः।" अर्थात् यद्यपि मन्त्र और ब्राह्मण दोनों का नाम वेद है, किन्तु ब्राह्मण ग्रन्थों के मन्त्र के व्याख्यान रूप होने के कारण (उनका स्थान वेदों के पश्चात् आता है और) आदि वेदमन्त्र ही है। (इस लेख का विस्तार से अध्ययन हमारा लेख---वेद-सञ्ज्ञा-मीमांसा---कर सकते हैं।)

इस वैदिक-ज्ञान का साक्षात्कार ऋषियों को हुआ था। जिस व्यक्ति ने अपने योग और तपोबल से इस ज्ञान को प्राप्त किया, वे ऋषि कहलाये। ये स्त्री और पुरुष दोनों थे। वैदिक-ज्ञान जिन ऋचाओं अथवा वाक्यों द्वारा हुआ, उनको मन्त्र कहते हैं।

मन्त्र तीन प्रकार के हैंः---(क) ज्ञानार्थक, (ख) विचारार्थक और (ग) सत्कारार्थक। (इसका विस्तार से विश्लेषण हमारा लेख----देवतोपपरीक्षा---पर किया गया है, आप उस लेख को पढ सकते हैं।) मन्त्र शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार से होती हैः--

(क) दिवादिगणीय मन् धातु (ज्ञानार्थक, प्रतिपादक) से ष्ट्रन् प्रत्यय करने से "मन्त्र" शब्द सिद्ध होता हैः--"मन्यते (ज्ञायते) ईश्वरादेशः अनेनेति मन्त्रः।" इससे ईश्वर के आदेश का ज्ञान होता है, इसलिए इसको मन्त्र कहते हैं।

(ख) तनादिगण की मन् धातु (विचारार्थक) से ष्ट्रन् प्रत्यय लगाने से भी मन्त्र शब्द सिद्ध होता हैः---"मन्यते (विचार्यते) ईश्वरादेशो येन स मन्त्रः" अर्थात् जिसके द्वारा ईश्वर के आदेशों का विचार हो, वह मन्त्र है।

(ग) तनादिगणीय मन् (सत्कारार्थक) धातु से भी ष्ट्रन् प्रत्यय लगाने से भी मन्त्र शब्द सिद्ध होता हैः--"मन्यते (सत्क्रियते) देवताविशेषः अनेनेति मन्त्रः।" अर्थात् जिसके द्वारा देवता विशेष का सत्कार हो, उसे मन्त्र कहते हैं।

वेदार्थ जानने के लिए ये तीन व्युत्पत्तियाँ आवश्यक है। 

वेदों का वर्गीकरण दो प्रकार से होता हैः---(क) त्रिविध और (ख) चतुर्विध। 

(क) सम्पूर्ण वेदों को तीन भागों में बाँटा गया हैः---ऋक्, यजुः, तथा साम। इन्हीं तीनों का संयुक्त नाम त्रयी है। ऋक् का अर्थ हैः--प्रार्थना अथवा स्तुति। यजुष् का अर्थ है--यज्ञ-यागादि का विधान। साम का अर्थ हैः--शान्ति अथवा मंगलगान करना। इसी के आधार पर प्रथम तीन संहिताओं के नाम ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद पडे। 

(ख) वेदों का बहुप्रचलित और प्रसिद्ध विभाजन चतुर्विध है। पहले वैदिक मन्त्र मिले जुले और अविभक्त थे। ऋषि कृष्ण द्वैपायन ने यज्ञार्थ उनका वर्गीकरण चार भागों में कर दिया, इसी कारण उनका नाम वेदव्यास पडाः--ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद। ऋक्, यजुष् तथा साम को पृथक्-पृथक् करके प्रथम तीन वेद बना दिये गये, किन्तु वैदिक वचनों में इनके अतिरिक्त भी बहुत-सी सामग्री थी, जिनका सम्बन्ध धर्म, दर्शन के अतिरिक्त लौकिक कृत्यों तथा अभिचारों  से था। इन सबका समावेश अथर्ववेद में कर दिया गया। इस चतुर्विध विभाजन का उल्लेख अथर्ववेद--10.4.20 में मिलता हैः---

"यस्मादृचो अयातक्षन् यजुर्यस्मादपकषन्।
सामानि यस्य लोमानि अथर्वाङ्गिरसो मुखम्।
स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः।।"

भाष्यकार महीधर ने इस बात का उल्लेख किया है कि वेदों का विभाजन वेदव्यास ऋषि ने किया थाः---"तत्रादौ ब्रह्मपरम्परया प्राप्तं वेदं वेदव्यासो मन्दमतीन् मनुष्यान् विचिन्त्य तत्कृपया चतुर्धा व्यस्य ऋग्यजुःसामाथर्वाख्यांश्चतुरो वेदान् पैल-वैशम्पायन-जैमिनि-सुमन्तुभ्यः क्रमादुपदिदेश।"

इसका शेष भाग अग्रिम अंक में दिया जायेगा।

धन्यवादः

वैदिक संस्कृत
www.facebook.com/vaidiksanskrit

लौकिक संस्कृत
www.facebook.com/laukiksanskrit!!!---: गीता-उपदेश :---!!!
==================

"तपस्विभ्योsधिको योगी ज्ञानिभ्योsपि मतोsधिकः।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।।"
(गीता---6.46)

अन्वयः---हे अर्जुन ! योगी तपस्विभ्यः अधिकः ज्ञानिभ्यः अपि अधिकः मतः योगी कर्मिभ्यः अपि च अधिकः तस्माद् योगी भव।।

व्याख्याः---इस श्लोक में रहस्य समझने के लिए कर्मी और कर्मयोगी इन दो में भेद समझना आवश्यक है, फिर सब निर्मल हो जायेगा। एक मनुष्य अध्यापक, सैनिक अथवा व्यापारी है। वह अध्यापन, न्याय-रक्षा अथवा व्यापार करते समय कर्मयोगी होता है। कर्मयोग के समय विपरीत-से-विपरीत परिस्थितियों में भी उसका मन कर्त्तव्य-पथ से न डिगे, इसके लिए वह जो भजन, कीर्तन, जप-याग, अनुष्ठानादि कर्म करता है, उस समय वह कर्मी होता है। सत्य आदि की महिमा स्वाध्याय द्वारा जानता है, उस समय वह ज्ञानी होता है। अपने कर्त्व्य-पालन में क्षमता उत्पन्न करने के लिए वह शीतोष्णादि द्वन्द्व-सहन रूप तप करता है। इन सबकी परीक्षा अन्त में कर्मयोग में होती है। यदि वहाँ वह सत्य मार्ग से नहीं डिगा तो उसके ज्ञान, तप तथा कर्म सच्चे हैं अन्यथा नहीं।

इसलिए कहा---हे अर्जुन ! योगी (कर्मयोगी) का स्थान तपस्वियों से अधिक है, ज्ञानियों से भी अधिक माना गया है, कर्मियों से भी अधिक है। इसलिए तू योगी बन (और दुष्टों को मारकर क्षात्र-कर्त्तव्य का पालन कर।)

No comments:

Post a Comment