Saturday, December 20, 2014

सन्ध्योपासना

!!!! -----: सन्ध्योपासना :----!!!!
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वेद ने सन्धि वेला में सन्ध्या का विधान किया है। प्रातःकाल और सायंकाल दोनों सन्धिवेलाओं में परमात्मा का ध्यान करना चाहिए। 

वेदमन्त्र कहता हैः----

"उप त्वाग्ने दिवे दिवे दोषावस्तर्धिया वयम्।
नमो भरन्त एमसि ।। (ऋग्वेदः---1.1.7)

हे प्रकाशस्वरूप ! प्रतिदिन प्रातः और सायं अपनी बुद्धि से हम उपासक जन नमस्कार को धारण करते हुए आपके समीप प्राप्त होते हैं।

"तस्मादहोरात्रस्य संयोगे सन्ध्यामुपासीत,
उद्यन्तमस्तं यान्तमादित्यमभिध्यायन् ।।"
(षड्विंश ब्राह्मण, प्रपा. 4, खण्ड-5)

इसलिए दिन और रात के संयोग में अर्थात् सूर्य के उदय और अस्त होते समय सन्ध्योपासना करें।

मनु महाराज ने लिखा हैः---

"ब्राह्मे मुहूर्ते बुध्येत धर्मार्थौ चानुचिन्तयेत् ।
कायाक्लेशाँश्च तन्मूलान् वेदतत्त्वार्थमेव च।।"
(मनु. 4.92)

ब्राह्ममुहूर्त में उठे, धर्म, अर्थ, शरीर के रोग, उनके मूल का चिन्तन करें, वेद-तत्त्वार्थ अर्थात् ईश्वर का ध्यान करें।

"उत्थायावश्यकं कृत्वा कृतशौचः समाहितः।
पूर्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत्स्वकाले चापरां चिरम्।।"
(मनु. 4.93)

उठकर आवश्यक कार्यों से निवृत्त होकर, शौच-स्नान आदि करके प्रातः तथा सायं दोनों समय की सन्ध्या में चिरकालपर्यन्त जप करता रहे।

सन्ध्या का महत्त्व दर्शाते हुए कहा गया हैः----

"न तिष्ठति तु यः पूर्वां नोपास्ते यश्च पश्चिमाम्।
स शूद्रवत् बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः ।।"
(मनु.2.103)

जो प्रातःकालीन और सायंकालीन सन्ध्या नहीं करता, वह सब द्विजकर्मों से शूद्र के समान बहिष्कार के योग्य है।

इसी प्रकार कहा गया हैः----

"सन्ध्या येन न विज्ञाता सन्ध्या येनानुपासिता।
स शूद्रवद् बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः ।।"
(मनु. )

जिसने सन्ध्या नहीं जानी और जिसने सन्ध्या का अनुष्ठान नहीं किया, वह सब द्विजकर्मियों से शूद्र के समान बहिष्कार करने के योग्य है।

"पूर्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत् सावित्रीमार्कदर्शनात्।
पश्चिमां तु समासीनः सम्गृक्षविभावनात् ।।"
(मनु. 2.101)

प्रातःकाल की सन्ध्या और गायत्री का जप सूर्य के दर्शन होने तक करे और सायंकालीन सन्ध्या तब तक करे जब तक सितारे आकाश में भली-भाँति झलकने लगें।

"ऋषयो दीर्घसन्ध्यत्वाद्दीर्घमायुरवाप्मुयुः।
प्रज्ञां यशश्च कीर्तिं च ब्रह्मवर्चसमेव च ।।"
(मनु.4.94)

ऋषियों ने चिरकालपर्यन्त सन्ध्या करने से बुद्धि, विद्या, यश, कीर्ति तथा ब्रह्मतेज को प्राप्त किया है।

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम भी सन्ध्या किया करते थे, ऐसा रामायण से सुस्पष्ट हैः---

"कौशल्या सुप्रजा राम पूर्वा सन्ध्या प्रवर्तते।
उत्तिष्ठ नरशार्दूल कर्त्तव्य दैवमाह्निकम्।।
तस्यर्षेः परमोदारं वचः श्रुत्वा नरोत्तमौ ।
स्नात्वा कृतोदकौ वीरौ जेपतुः परमं जपम्।।"
(रामायण, बा.कां. 23.3-4)

महर्षि विश्वामित्र जी अपने यज्ञ की विघ्न-निवृत्ति के लिए श्रीरामचन्द्र और लक्ष्मण जी को लेकर चले तो रात्रि व्यतीत करने के लिये एक स्थान पर ठहरे। प्रातःकाल उन्होंने श्रीराम को पुकारा और कहा, "कौशल्या की सन्तान राम ! प्रातःकाल की सन्ध्या का समय हो गया है। तुम उठो और सन्ध्या-यज्ञादि करो।"
उस ऋषि के परमोदार वचनों को सुनकर श्रीरामचन्द्र उठे और स्नान करके उन्होंने परम जप अर्थात् गायत्री का जाप किया।

माता सीता जी भी सन्ध्या करती थीं, ऐसा भी रामाय़ण से पता चलता है। हनुमान् जी जब सीता को ढूँढते हुए अशोकवाटिका में पहुँचे तो सोचने लगे कि सीता जी यदि जीवित होंगी तो सन्ध्या करने के लिए अवश्य ही नदी के किनारे आएँगी---

"सन्ध्याकालमनाः श्यामा ध्रुवमेष्यति जानकी।
नदीं चेमां शुभजलां सन्ध्यार्थे वरवर्णिनी ।।
यदि जीवति सा देवी ताराधिनिभानना ।
आगमिष्यति सावश्यमिमां शीतजलां नदीम् ।।"

श्री हनुमान् जी सोच रहे हैं कि यह सन्ध्या का समय है, सन्ध्या में मन लगाने वाली और तपे हुए सोने के समान शोभावाली जनक कुमारी सुन्दरी सीता सन्ध्याकालिक उपासना के लिए इस पुण्यसलिला नदी के तट पर अवश्य पधारेंगी। यदि चन्द्रमुखी सीता देवी जीवित हैं तो वे इस शीतल जलवाली सरिता के तट पर अवश्य पदार्पण करेंगी।

इसी प्रकार महाभारत के अनुसार योगेश्वर श्रीकृष्ण भी सन्ध्या-उपासना किया करते थेः---

"अवतीर्य रथात् तूर्णं कृत्वा शौचं यथाविधि ।
रथमोचनमादिश्य सन्ध्यामुपविवेश ह ।।"
(महाभारत, उद्योगपर्व-84.21)

जब सूर्यास्त होने लगा, तब श्रीकृष्ण शीघ्र ही रथ से उतरकर, घोडों को रथ से खोलने की आज्ञा देकर, शौच-स्नान करके विधिपूर्वक सन्ध्योपासना करने लगे।

गीता-उपदेश

Photo: !!!!-----: गीता-उपदेश :-----!!!!
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"कर्षयन्तः   शरीरस्थं    भूतग्रामममचेतसः ।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान् ।।"
(गीता--17.6)

अन्वयः--(ये) अचेतसः शरीरस्थम् भूतग्रामम् अन्तःशरीरस्थम् माम् च एव कर्षयन्तः (तपः तप्यन्ते) तान् आसुर-निश्चयान् विद्धि ।

पदार्थः---(अचेतसः) अचेतन से (शरीरस्थम्) शरीर में स्थित (भूतग्रामम्) पञ्चतत्त्वादि अंगों को, (अन्तःशरीरस्थम्) हृदय में स्थित (माम्) मुझको परमात्मा को, (च) और, (एव) ही, (कर्षयन्तः) खिंचते है, चोरी करते हैं, ((तान् ) उनको, (आसुर-निश्चयान्) आसुर निश्चय (वृत्ति, स्वभाव) वाले को, (विद्धि) जानो ।

भावार्थः----जो विवेक-शून्य लोग परमात्मा के दिए हुए पृथिवी, अप्, तेज आदि शरीरस्थ भूतों को व्यर्थ उलटे मार्ग में घसीटते (ले जाते)  हैं और मैं जो महाभारत-साम्राज्य की स्थापनार्थ उनके अन्दर प्रविष्ट होकर मानव-मात्र के कल्याण के लिए उनसे समय शक्ति का दान माँगता है हूँ, वे प्रभु की तथा मुझ सरीखे प्रभु-भक्तों की चोरी करते हैं तथा प्रभु का और प्रभु-भक्तों का माल न जाने कहाँ-कहाँ घसीट ले जाते हैं, उन सबको आसुर निश्चय वाला जान ।

भाव यह है कि विषय-वासनाओं की तृप्ति के लिए लोग कम घोर तप नहीं करते है, कम कष्ट सहन नहीं करते। यदि उतना ही तप वे प्रभु की भक्ति अथवा तदर्थ प्रभु-भक्तों के अनुकरण के लिए करें तो विश्व का कल्याण हो जावे।

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लौकिक संस्कृत गीता-उपदेश 

"कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्रामममचेतसः ।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान् ।।"
(गीता--17.6)

अन्वयः--(ये) अचेतसः शरीरस्थम् भूतग्रामम् अन्तःशरीरस्थम् माम् च एव कर्षयन्तः (तपः तप्यन्ते) तान् आसुर-निश्चयान् विद्धि ।

पदार्थः---(अचेतसः) अचेतन से (शरीरस्थम्) शरीर में स्थित (भूतग्रामम्) पञ्चतत्त्वादि अंगों को, (अन्तःशरीरस्थम्) हृदय में स्थित (माम्) मुझको परमात्मा को, (च) और, (एव) ही, (कर्षयन्तः) खिंचते है, चोरी करते हैं, ((तान् ) उनको, (आसुर-निश्चयान्) आसुर निश्चय (वृत्ति, स्वभाव) वाले को, (विद्धि) जानो ।

भावार्थः----जो विवेक-शून्य लोग परमात्मा के दिए हुए पृथिवी, अप्, तेज आदि शरीरस्थ भूतों को व्यर्थ उलटे मार्ग में घसीटते (ले जाते) हैं और मैं जो महाभारत-साम्राज्य की स्थापनार्थ उनके अन्दर प्रविष्ट होकर मानव-मात्र के कल्याण के लिए उनसे समय शक्ति का दान माँगता है हूँ, वे प्रभु की तथा मुझ सरीखे प्रभु-भक्तों की चोरी करते हैं तथा प्रभु का और प्रभु-भक्तों का माल न जाने कहाँ-कहाँ घसीट ले जाते हैं, उन सबको आसुर निश्चय वाला जान ।

भाव यह है कि विषय-वासनाओं की तृप्ति के लिए लोग कम घोर तप नहीं करते है, कम कष्ट सहन नहीं करते। यदि उतना ही तप वे प्रभु की भक्ति अथवा तदर्थ प्रभु-भक्तों के अनुकरण के लिए करें तो विश्व का कल्याण हो जावे।

गीता-उपदेश

Photo: !!!---: वेद-परिचय :---!!!
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भागः---1

हिन्दू धर्म कोश के आधार पर (लेखकः--राजबली पाण्डेय)
 
वेद शब्द की व्युत्पत्ति चार प्रकार से की जाती है, जिसका विश्लेषण स्वामी दयानन्द ने "ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका" में की हैः---(क) विद ज्ञाने, (ख) विद सत्तायाम, (ग) विद्लृ लाभे, (घ) विद विचारणे।

तदनुसार, "विदन्ति जानन्ति, विद्यन्ते भवन्ति, विन्दन्ते लभन्ते, विन्दन्ति विचारयन्ति सर्वे मनुष्याः सत्यविद्याम् यैर्येषु वा तथा विद्वांसश्च भवन्ति, ते वेदाः"

अर्थात् जिनसे सभी मनुष्य सत्य विद्या को जानते हैं अथवा प्राप्त करते हैं, अथवा विचारते हैं, अथवा विद्वान् होते हैं, अथवा सत्य विद्या की प्राप्ति के लिए जिनमें प्रवृत्त होते हैं, उनको वेद कहते हैं।"

परन्तु यहाँ पर जिस ज्ञान का संकेत किया गया है, वह सामान्य ज्ञान नहीं है। यद्यपि वैदिक साहित्य में सामान्य ज्ञान का अभाव नहीं। यहाँ ज्ञान का अभिप्राय ईश्वरीय ज्ञान से हैं, जिसका साक्षात्कार मानव जीवन के प्रारम्भ में ऋषियों को हुआ था। मनु महाराज ने (1.7) में वेद को सर्वज्ञानमय कहा हैः--- "सर्वज्ञानमयो हि सः"

"वेद" शब्द का प्रयोग पूर्व काल में सम्पूर्ण वैदिक-वाङ्मय के अर्थ में होता था, जिनमें संहिता, आरण्यक, ब्राह्मण और उपनिषद् सम्मिलित थे।  तद्यथाः--मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्।" अर्थात् मन्त्र और ब्राह्मणों का सम्मिलित नाम वेद है। यहाँ ब्राह्मण में आरण्यक और उपनिषद् भी सम्मिलित है। 

किन्तु आगे चलकर "वेद" शब्द केवल चार वेद-संहिताओं यथा---ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ही द्योतक रह गया। ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् वैदिक-वाङ्मय के अंग होते हुए भी मूल वेदों से पृथक् मान लिये गये। 

सायणाचार्य ने तैत्तिरीय-संहिता की भूमिका में इस तथ्य का स्पष्टीकरण किया हैः---"यद्यपि मन्त्रब्राह्मणात्मको वेदः तथापि ब्राह्मणस्य मन्त्रव्याख्यानस्वरूपत्वाद् मन्त्रा एवादौ समाम्नाताः।" अर्थात् यद्यपि मन्त्र और ब्राह्मण दोनों का नाम वेद है, किन्तु ब्राह्मण ग्रन्थों के मन्त्र के व्याख्यान रूप होने के कारण (उनका स्थान वेदों के पश्चात् आता है और) आदि वेदमन्त्र ही है। (इस लेख का विस्तार से अध्ययन हमारा लेख---वेद-सञ्ज्ञा-मीमांसा---कर सकते हैं।)

इस वैदिक-ज्ञान का साक्षात्कार ऋषियों को हुआ था। जिस व्यक्ति ने अपने योग और तपोबल से इस ज्ञान को प्राप्त किया, वे ऋषि कहलाये। ये स्त्री और पुरुष दोनों थे। वैदिक-ज्ञान जिन ऋचाओं अथवा वाक्यों द्वारा हुआ, उनको मन्त्र कहते हैं।

मन्त्र तीन प्रकार के हैंः---(क) ज्ञानार्थक, (ख) विचारार्थक और (ग) सत्कारार्थक। (इसका विस्तार से विश्लेषण हमारा लेख----देवतोपपरीक्षा---पर किया गया है, आप उस लेख को पढ सकते हैं।) मन्त्र शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार से होती हैः--

(क) दिवादिगणीय मन् धातु (ज्ञानार्थक, प्रतिपादक) से ष्ट्रन् प्रत्यय करने से "मन्त्र" शब्द सिद्ध होता हैः--"मन्यते (ज्ञायते) ईश्वरादेशः अनेनेति मन्त्रः।" इससे ईश्वर के आदेश का ज्ञान होता है, इसलिए इसको मन्त्र कहते हैं।

(ख) तनादिगण की मन् धातु (विचारार्थक) से ष्ट्रन् प्रत्यय लगाने से भी मन्त्र शब्द सिद्ध होता हैः---"मन्यते (विचार्यते) ईश्वरादेशो येन स मन्त्रः" अर्थात् जिसके द्वारा ईश्वर के आदेशों का विचार हो, वह मन्त्र है।

(ग) तनादिगणीय मन् (सत्कारार्थक) धातु से भी ष्ट्रन् प्रत्यय लगाने से भी मन्त्र शब्द सिद्ध होता हैः--"मन्यते (सत्क्रियते) देवताविशेषः अनेनेति मन्त्रः।" अर्थात् जिसके द्वारा देवता विशेष का सत्कार हो, उसे मन्त्र कहते हैं।

वेदार्थ जानने के लिए ये तीन व्युत्पत्तियाँ आवश्यक है। 

वेदों का वर्गीकरण दो प्रकार से होता हैः---(क) त्रिविध और (ख) चतुर्विध। 

(क) सम्पूर्ण वेदों को तीन भागों में बाँटा गया हैः---ऋक्, यजुः, तथा साम। इन्हीं तीनों का संयुक्त नाम त्रयी है। ऋक् का अर्थ हैः--प्रार्थना अथवा स्तुति। यजुष् का अर्थ है--यज्ञ-यागादि का विधान। साम का अर्थ हैः--शान्ति अथवा मंगलगान करना। इसी के आधार पर प्रथम तीन संहिताओं के नाम ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद पडे। 

(ख) वेदों का बहुप्रचलित और प्रसिद्ध विभाजन चतुर्विध है। पहले वैदिक मन्त्र मिले जुले और अविभक्त थे। ऋषि कृष्ण द्वैपायन ने यज्ञार्थ उनका वर्गीकरण चार भागों में कर दिया, इसी कारण उनका नाम वेदव्यास पडाः--ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद। ऋक्, यजुष् तथा साम को पृथक्-पृथक् करके प्रथम तीन वेद बना दिये गये, किन्तु वैदिक वचनों में इनके अतिरिक्त भी बहुत-सी सामग्री थी, जिनका सम्बन्ध धर्म, दर्शन के अतिरिक्त लौकिक कृत्यों तथा अभिचारों  से था। इन सबका समावेश अथर्ववेद में कर दिया गया। इस चतुर्विध विभाजन का उल्लेख अथर्ववेद--10.4.20 में मिलता हैः---

"यस्मादृचो अयातक्षन् यजुर्यस्मादपकषन्।
सामानि यस्य लोमानि अथर्वाङ्गिरसो मुखम्।
स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः।।"

भाष्यकार महीधर ने इस बात का उल्लेख किया है कि वेदों का विभाजन वेदव्यास ऋषि ने किया थाः---"तत्रादौ ब्रह्मपरम्परया प्राप्तं वेदं वेदव्यासो मन्दमतीन् मनुष्यान् विचिन्त्य तत्कृपया चतुर्धा व्यस्य ऋग्यजुःसामाथर्वाख्यांश्चतुरो वेदान् पैल-वैशम्पायन-जैमिनि-सुमन्तुभ्यः क्रमादुपदिदेश।"

इसका शेष भाग अग्रिम अंक में दिया जायेगा।

धन्यवादः

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"तपस्विभ्योsधिको योगी ज्ञानिभ्योsपि मतोsधिकः।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।।"
(गीता---6.46)

अन्वयः---हे अर्जुन ! योगी तपस्विभ्यः अधिकः ज्ञानिभ्यः अपि अधिकः मतः योगी कर्मिभ्यः अपि च अधिकः तस्माद् योगी भव।।

व्याख्याः---इस श्लोक में रहस्य समझने के लिए कर्मी और कर्मयोगी इन दो में भेद समझना आवश्यक है, फिर सब निर्मल हो जायेगा। एक मनुष्य अध्यापक, सैनिक अथवा व्यापारी है। वह अध्यापन, न्याय-रक्षा अथवा व्यापार करते समय कर्मयोगी होता है। कर्मयोग के समय विपरीत-से-विपरीत परिस्थितियों में भी उसका मन कर्त्तव्य-पथ से न डिगे, इसके लिए वह जो भजन, कीर्तन, जप-याग, अनुष्ठानादि कर्म करता है, उस समय वह कर्मी होता है। सत्य आदि की महिमा स्वाध्याय द्वारा जानता है, उस समय वह ज्ञानी होता है। अपने कर्त्व्य-पालन में क्षमता उत्पन्न करने के लिए वह शीतोष्णादि द्वन्द्व-सहन रूप तप करता है। इन सबकी परीक्षा अन्त में कर्मयोग में होती है। यदि वहाँ वह सत्य मार्ग से नहीं डिगा तो उसके ज्ञान, तप तथा कर्म सच्चे हैं अन्यथा नहीं।

इसलिए कहा---हे अर्जुन ! योगी (कर्मयोगी) का स्थान तपस्वियों से अधिक है, ज्ञानियों से भी अधिक माना गया है, कर्मियों से भी अधिक है। इसलिए तू योगी बन (और दुष्टों को मारकर क्षात्र-कर्त्तव्य का पालन कर।)

GITA 8.28

Photo: !!!---: स्वाध्याय :---!!!
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वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलम् प्रदिष्टम् l 
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ll२८ll
(गीता--8.28)

अन्वयः---वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु च एव यत् पुण्यफलम् प्रदिष्टम्, योगी  इदं विदित्वा तत् सर्वम् अत्येति परम् आद्यम् स्थानम् च उपैति ।।

अर्थः----वेदों में, यज्ञ और तप करने से तथा विविध दानों से पुण्य का जो जो पृथक्-पृथक् फल बताया है, उन सबको योगी इस तत्त्व को जानकर उपेक्षा-पूर्वक छोड देता है तथा वेद के बताए हुए पर-ब्रह्म-प्राप्ति-रूप एक ही महायज्ञ को निष्काम रूप से करता है तो उन सब कर्मों के फल से जो बडा फल पाता है, वह फल हैः---आत्मा की अपनी आद्य अर्थात् शुद्ध आसक्ति-बन्धनरहित अवस्था में आ जाना तब वह इस स्थान को पा लेता है।

भाव यह है कि वेदादिशास्त्रों में ब्रह्म-प्राप्ति से लेकर साधारण सकाम दान तक सब कर्मों के फलों का निर्देश किया है। सो सकाम कर्मों से जीव छोटे-छोटे नाना रूप धारण करता है, किन्तु रहता है बन्धन में । किन्तु निष्काम ब्रह्म-सेवा से योगी जीवात्मा के असली आसक्ति-मुक्त रूप में आ जाता है।

 

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वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलम् प्रदिष्टम् l 
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ll२८ll
(गीता--8.28)

अन्वयः---वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु च एव यत् पुण्यफलम् प्रदिष्टम्, योगी इदं विदित्वा तत् सर्वम् अत्येति परम् आद्यम् स्थानम् च उपैति ।।

अर्थः----वेदों में, यज्ञ और तप करने से तथा विविध दानों से पुण्य का जो जो पृथक्-पृथक् फल बताया है, उन सबको योगी इस तत्त्व को जानकर उपेक्षा-पूर्वक छोड देता है तथा वेद के बताए हुए पर-ब्रह्म-प्राप्ति-रूप एक ही महायज्ञ को निष्काम रूप से करता है तो उन सब कर्मों के फल से जो बडा फल पाता है, वह फल हैः---आत्मा की अपनी आद्य अर्थात् शुद्ध आसक्ति-बन्धनरहित अवस्था में आ जाना तब वह इस स्थान को पा लेता है।

भाव यह है कि वेदादिशास्त्रों में ब्रह्म-प्राप्ति से लेकर साधारण सकाम दान तक सब कर्मों के फलों का निर्देश किया है। सो सकाम कर्मों से जीव छोटे-छोटे नाना रूप धारण करता है, किन्तु रहता है बन्धन में । किन्तु निष्काम ब्रह्म-सेवा से योगी जीवात्मा के असली आसक्ति-मुक्त रूप में आ जाता है।

Thursday, December 18, 2014

गौ निरपराध

मा गामनागामदितिं वधिष्ट।" (ऋग्वेदः--8.101.15)

अर्थः---((अनागाम्) निरपराध (अदितिम्) अहन्तव्या अर्थात् न मारने योग्य (गाम्) गौ को, (मा वधिष्ट) कभी मत मार।

गौ निरपराध होती है, ममतामयी, करुणामयी होती है, वह अहन्तव्या है, उसे कभी नहीं मारना चाहिए, अन्यथा कुल का नाश हो जाएगा। जो आज मार रहे हैं, वे पाप के भागी बन रहे हैं।

पशु-पक्षियों से सी

पशु-पक्षियों से सीखः---
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आचार्य चाणक्य ने अपनी नीति में मनुष्य को परामर्श दिया है कि उसे जीवन में सफलता के लिए पशु और पक्षियों से कुछ गुण सीखने चाहिएँ---

सिंहादेकं बकादेकं शिक्षेच्चत्वारि कुक्कुटात्।
वायसात् पञ्चशिक्षेच्च षट्शुनस्त्रीणि गर्दभात्।।

अर्थः--सिंह से एक, बगुले से एक, मुर्गे से चार, कौए से पाँच, कुत्ते से छह और गधे से तीन गुण सीखने चाहिएँ।

य एतान् विंशति गुणानाचरिष्यति मानवः।
सर्वावस्थासु कार्येष्वजेयः सो भविष्यति।।

अर्थाः--जो मनुष्य इन बीस गुणों के ऊपर आचरण करेगा, वह किसी भी अवस्था में और किसी भी कार्य में असफल नहीं हो सकता।

सिंह से सीखेः---

प्रभूतं कार्यमल्पं वा यन्नरः कर्तुमिच्छति।
सर्वारम्भेण तत् कार्यं सिंहादेकं प्रचक्षते।।

अर्थः---चाहे काम बडा हो, चाहे छोटा, मनुष्य जिस काम को करना चाहता है, उसे पूरी शक्ति और तैयारी से करना चाहिए। यह एक गुण जीवन में शेर से सीखे।

शेर चाहे हाथी पर आक्रमण करे और चाहे खरगोश पर, वह आक्रमण पूरी शक्ति से ही करेगा।

सन्ध्योपासना

!!!! -----: सन्ध्योपासना :----!!!!
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वेद ने सन्धि वेला में सन्ध्या का विधान किया है। प्रातःकाल और सायंकाल दोनों सन्धिवेलाओं में परमात्मा का ध्यान करना चाहिए। 

वेदमन्त्र कहता हैः----

"उप त्वाग्ने दिवे दिवे दोषावस्तर्धिया वयम्।
नमो भरन्त एमसि ।। (ऋग्वेदः---1.1.7)

हे प्रकाशस्वरूप ! प्रतिदिन प्रातः और सायं अपनी बुद्धि से हम उपासक जन नमस्कार को धारण करते हुए आपके समीप प्राप्त होते हैं।

"तस्मादहोरात्रस्य संयोगे सन्ध्यामुपासीत,
उद्यन्तमस्तं यान्तमादित्यमभिध्यायन् ।।"
(षड्विंश ब्राह्मण, प्रपा. 4, खण्ड-5)

इसलिए दिन और रात के संयोग में अर्थात् सूर्य के उदय और अस्त होते समय सन्ध्योपासना करें।

मनु महाराज ने लिखा हैः---

"ब्राह्मे मुहूर्ते बुध्येत धर्मार्थौ चानुचिन्तयेत् ।
कायाक्लेशाँश्च तन्मूलान् वेदतत्त्वार्थमेव च।।"
(मनु. 4.92)

ब्राह्ममुहूर्त में उठे, धर्म, अर्थ, शरीर के रोग, उनके मूल का चिन्तन करें, वेद-तत्त्वार्थ अर्थात् ईश्वर का ध्यान करें।

"उत्थायावश्यकं कृत्वा कृतशौचः समाहितः।
पूर्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत्स्वकाले चापरां चिरम्।।"
(मनु. 4.93)

उठकर आवश्यक कार्यों से निवृत्त होकर, शौच-स्नान आदि करके प्रातः तथा सायं दोनों समय की सन्ध्या में चिरकालपर्यन्त जप करता रहे।

सन्ध्या का महत्त्व दर्शाते हुए कहा गया हैः----

"न तिष्ठति तु यः पूर्वां नोपास्ते यश्च पश्चिमाम्।
स शूद्रवत् बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः ।।"
(मनु.2.103)

जो प्रातःकालीन और सायंकालीन सन्ध्या नहीं करता, वह सब द्विजकर्मों से शूद्र के समान बहिष्कार के योग्य है।

इसी प्रकार कहा गया हैः----

"सन्ध्या येन न विज्ञाता सन्ध्या येनानुपासिता।
स शूद्रवद् बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः ।।"
(मनु. )

जिसने सन्ध्या नहीं जानी और जिसने सन्ध्या का अनुष्ठान नहीं किया, वह सब द्विजकर्मियों से शूद्र के समान बहिष्कार करने के योग्य है।

"पूर्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत् सावित्रीमार्कदर्शनात्।
पश्चिमां तु समासीनः सम्गृक्षविभावनात् ।।"
(मनु. 2.101)

प्रातःकाल की सन्ध्या और गायत्री का जप सूर्य के दर्शन होने तक करे और सायंकालीन सन्ध्या तब तक करे जब तक सितारे आकाश में भली-भाँति झलकने लगें।

"ऋषयो दीर्घसन्ध्यत्वाद्दीर्घमायुरवाप्मुयुः।
प्रज्ञां यशश्च कीर्तिं च ब्रह्मवर्चसमेव च ।।"
(मनु.4.94)

ऋषियों ने चिरकालपर्यन्त सन्ध्या करने से बुद्धि, विद्या, यश, कीर्ति तथा ब्रह्मतेज को प्राप्त किया है।

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम भी सन्ध्या किया करते थे, ऐसा रामायण से सुस्पष्ट हैः---

"कौशल्या सुप्रजा राम पूर्वा सन्ध्या प्रवर्तते।
उत्तिष्ठ नरशार्दूल कर्त्तव्य दैवमाह्निकम्।।
तस्यर्षेः परमोदारं वचः श्रुत्वा नरोत्तमौ ।
स्नात्वा कृतोदकौ वीरौ जेपतुः परमं जपम्।।"
(रामायण, बा.कां. 23.3-4)

महर्षि विश्वामित्र जी अपने यज्ञ की विघ्न-निवृत्ति के लिए श्रीरामचन्द्र और लक्ष्मण जी को लेकर चले तो रात्रि व्यतीत करने के लिये एक स्थान पर ठहरे। प्रातःकाल उन्होंने श्रीराम को पुकारा और कहा, "कौशल्या की सन्तान राम ! प्रातःकाल की सन्ध्या का समय हो गया है। तुम उठो और सन्ध्या-यज्ञादि करो।"
उस ऋषि के परमोदार वचनों को सुनकर श्रीरामचन्द्र उठे और स्नान करके उन्होंने परम जप अर्थात् गायत्री का जाप किया।

माता सीता जी भी सन्ध्या करती थीं, ऐसा भी रामाय़ण से पता चलता है। हनुमान् जी जब सीता को ढूँढते हुए अशोकवाटिका में पहुँचे तो सोचने लगे कि सीता जी यदि जीवित होंगी तो सन्ध्या करने के लिए अवश्य ही नदी के किनारे आएँगी---

"सन्ध्याकालमनाः श्यामा ध्रुवमेष्यति जानकी।
नदीं चेमां शुभजलां सन्ध्यार्थे वरवर्णिनी ।।
यदि जीवति सा देवी ताराधिनिभानना ।
आगमिष्यति सावश्यमिमां शीतजलां नदीम् ।।"

श्री हनुमान् जी सोच रहे हैं कि यह सन्ध्या का समय है, सन्ध्या में मन लगाने वाली और तपे हुए सोने के समान शोभावाली जनक कुमारी सुन्दरी सीता सन्ध्याकालिक उपासना के लिए इस पुण्यसलिला नदी के तट पर अवश्य पधारेंगी। यदि चन्द्रमुखी सीता देवी जीवित हैं तो वे इस शीतल जलवाली सरिता के तट पर अवश्य पदार्पण करेंगी।

इसी प्रकार महाभारत के अनुसार योगेश्वर श्रीकृष्ण भी सन्ध्या-उपासना किया करते थेः---

"अवतीर्य रथात् तूर्णं कृत्वा शौचं यथाविधि ।
रथमोचनमादिश्य सन्ध्यामुपविवेश ह ।।"
(महाभारत, उद्योगपर्व-84.21)

जब सूर्यास्त होने लगा, तब श्रीकृष्ण शीघ्र ही रथ से उतरकर, घोडों को रथ से खोलने की आज्ञा देकर, शौच-स्नान करके विधिपूर्वक सन्ध्योपासना करने लगे।

कृपया वैदिक संस्कृत पृष्ठ को पसन्द करें।

सत्य सनातन वैदिक धर्म

"न जातु कामान्न भयान्न लोभात्, धर्मं त्यजेत् जीवितस्यापि हेतोः।
धर्मो नित्यः सुखदुःखे त्वनित्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः ।।"
(महाभारत--5.40.11)

अर्थः---किसी अवस्था में भी काम और लोभ के वशीभूत होकर अथवा भय से भी संत्रस्त होकर तथा मृत्यु का संकट उपस्थित होने पर भी धर्म का परित्याग न करें। जीवात्मा अमर है और धर्म भी शाश्वत है। सुख-दुःख और दूसरे अन्यान्य कारण सब अनित्य है।

"स्वधर्मः श्रेयान्" जब उपनिषद् ऐसी उत्तम बात कह रहा है तब निःसन्देह कोई बात तो होगी जिससे कहा जा रहा है कि अपना धर्म श्रेष्ठ है। धर्म को चाहे गुण समझे चाहे अध्यात्म, दोनों परिस्थितियों में इसका त्याग नहीं किया जा सकता।

आजकल देखने में आता है कि कोई व्यक्ति नाम, रूप, कुल और स्वभाव से तो भारतीय दिखता हैं, किन्तु बहुत बाद में पता चलता है कि वह ईसाई या मुसलमान है।

जब 12 वर्षीय धर्मवीर हकीकत राय को कहा गया कि तुम मुसलमान बन तो तेरी जान बच सकती है तो दोनों भाईयों ने मुसलमान बनने से मना कर दिया।

इन दोनों को दीवार में चिनवाया जाने लगा। जब दीवार छोटे भाई की गर्दन तक आ गई, तब बडा भाई रोने लगा।

छोटे ने फटकारते हुए कहा, "कायर कहीं का, मृत्यु से डर गया।"

बडा भाई रोते हुए बोला, "नहीं मेरे भाई, मैं मृत्यु से नहीं डर रहा हूँ, बल्कि इस बात से दुःखी हूँ कि जब बलिदान की बात आएगी तो तुम्हारा नाम बलिदानों की सूची में मुझसे पहले होगा, क्योंकि तुम छोटे होने के कारण मुझसे पहले शहीद हो रहे हो। बस, इसी कारण से मैं रो रहा हूँ।"

आज कितने लोग हैं जो धर्म के बलिदान की बात करते हैं। आज केवल पैसे के लोभ में लोग धर्म बदल रहे हैं।

ऋषि की बात पर ध्यान दें कि वे कह रहे हैं कि ना तो कामना से, ना तो भय से, ना तो लोभ से और ना तो मृत्यु से धर्म का परित्याग करें।

यह जीवन क्या है, अनित्य है, शाश्वत तो केवल धर्म है।

गीता-उपदेश

!!!!----: गीता-उपदेश :----!!!!
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नैष्कर्म्य-कर्म का अर्थः---
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"यज्ञार्थात्कर्मणोsन्यत्र लोकोsयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ।।"
(गीता--3.9)

अन्वयः---यज्ञार्थात् कर्मणः अन्यत्र अयम् लोकः कर्मबन्धनः, हे कौन्तेय, त्वं मुक्तसंगः तदर्थम् कर्म समाचर।

शब्दार्थः-----(अयम्) यह, (लोकः) संसार, (यज्ञार्थात्) सृष्टियज्ञ की प्रवत्ति, पञ्चमहायज्ञ के कर्म, (अन्यत्र) विन,(कर्मबन्धनः) कर्म बन्धन है जिसका वह, (कौन्तेय) कुन्ती के पुत्र, (तदर्थम्) यज्ञ के लिए,(कर्म) नियत नित्य करने योग्य कर्म स्ववर्ण के अनुसार, (मुक्तसंगः) मेरा ही कर्म और मैं ही उसका भोक्ता, इस लक्षण से युक्त संग, (समाचर) अच्छी तरह से व्यवहार करो।

अर्थः---हे कौन्तेय, यज्ञनिमित्तक कर्म से अन्यत्र और कोई कर्म करे तो मनुष्य कर्म-बन्धन में पड जाता है। अतः "उस कर्म के बदले में क्या पारितोषिक मिलेगा" इस आसक्ति से रहित होकर उसके निमित्त कर्म कर।

विशेष-विवरणः----
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यहाँ यह पहले जान लेना आवश्यक है कि यज्ञ नाम किसका है ? प्रायः लोग अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेध पर्यन्त यज्ञ-रूपकों को यज्ञ समझते हैं। यह भयंकर भूल है। इनका नाम तो द्रव्य-यज्ञ है। श्रीकृष्ण का उद्देश्य है ज्ञान-यज्ञ। फिल ज्ञानयज्ञ भी अधूरा है। वह तो कर्म से पूरा होता है। इसीलिए कहा हैः---"कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः" (गीता---3.8) परन्तु पहले तो यह समझना है कि यह द्रव्य-यज्ञ वस्तुतः यज्ञ है ही नहीं। यह तो काव्य है। तब आप कहेंगे कि क्या ये अग्निहोत्रादि कर्म तुच्छ है ? तो मैं पूछूँगा कि क्या काव्य तुच्छ है ? इन अग्निहोत्रादि कर्मों का मूल्य उतना ही है जितना काव्य का। न उससे कम न उससे अधिक। वाल्मीकि-रामायण काव्य है, क्या वह तुच्छ है ? काव्य का उद्देश्य हैः---

"रामादिवत् प्रवर्तितव्यम् न रावणादिवत्।"

किन्तु क्या रामायण पढ लेने मात्र से उद्देश्य-सिद्धि हो गई ? कदापि नहीं। जब तक रामायण में यह पढकर कि....

"रघुकुल रीति सदा चली आई। प्राण जाए पर वचम न जाई।।"

मनुष्य वचन पर दृढ रहना नहीं सीख जाते तब तक काव्य का प्रयोजन सिद्ध नहीं हुआ। इसी प्रकार अग्निहोत्र द्वारा जब तक हम यह सीख नहीं जाते कि...

"जिस प्रकार समिधा स्थूल अग्नि के लिए अपने आपको अर्पण करके दीप्ति उत्पन्न करती है, इसी प्रकार दीक्षा और तप रूप अग्नि के अर्पण करके मनुष्य भी जीवन का उद्देश्य पूर्ण करता है।"

तब तक अग्निहोत्र का कुछ लाभ नहीं। ये जो यज्ञों में नाना प्रकार के पशु आये हैं, ये रूपक के पात्र मात्र हैं। इसीलिए यजुर्वेद (39.4) में आया हैः---

"पशूनां रूपम् अशीय"
हे प्रभो, आपकी कृपा से मैं पशुओं के शुभ गुणों का रूप अपने अन्दर धारण करूँ।

दीक्षा तथा तप को यजुर्वेद (4.7) में अग्नि कहा गया हैः----

"दीक्षायै तपसे अग्नये स्वाहा।"

इसीलिए शतपथ-ब्राह्मण (11.3.1.6) में अग्निहोत्र को स्पष्ट शब्दों में काव्य कहा हैः----"तदस्य काव्यं तथा संततोअग्निभिरिति।"

अत एव ये अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेध पर्यन्त यज्ञ तो यज्ञरूपक हैं। अग्निहोत्र सत्य के श्रद्धा में हवन का रूपक हैः---"तेज एव श्रद्धा सत्यमाज्यम्।" (शतपथ-ब्राह्मणः--11.3.1.1)

इसी प्रकार अश्वमेध राष्ट्र का रूपक हैः---"राष्ट्रं वा अश्वमेधः" (शतपथ-ब्राह्मणः--13.1.6.3)

अब प्रश्न उठता है कि यदि अग्निहोत्र से अश्वमेध-पर्यन्त यज्ञरूपक हैं तो यज्ञ किसका नाम है ? इसका उत्तर व्याकरण-शास्त्र से लीजिए। यज्ञ शब्द "यज" धातु से बना है। यज्ञ के तीन अर्थ हैं----देवपूजा, संगतिकरण और दान।

वस्तुतः संगतिकरण ही यज्ञ है। देवपूजा और दान से ही संगतिकरण होता है। इस संसार में जितने भी संघटन हैं, सब लेन-देन का परिणाम है। देने वालों को देव कहते हैं---"देवो दानाद्वा" (निरुक्तः--4.15) अब जब देव कुछ देते हैं तो लेने वाला बदले में उनकी पूजा करता है। सो कुटुम्ब से लेकर मानव-राष्ट्र तक जितने संघटन हैं, वे यज्ञ हैं और उनमें परस्पर व्यवहार कैसा होना चाहिए, यह दिखाने वाले रूपकों का अर्थात् अग्निहोत्रादि का नाम इसलिए यज्ञ है कि वे वास्तविक यज्ञ का अभ्यास कराते हैं। इन यज्ञों का वास्तविक यज्ञों से वही सम्बन्ध है, जो युद्ध से परेड का। परेड के बिना कोई सेना युद्ध नहीं जीत सकती। परन्तु परेड का युद्ध नकली युद्ध है। सिखाने का साधन मात्र है। असली यज्ञ तो जड देवताओं की जड-पूजा तथा चेतन-देवताओं की चेतन-पूजा का नाम है। 

ब्रह्म व आत्मा

तमेव विद्वान् न विभाय मृत्योः।" (अथर्ववेदः--10.4.8.44)

अर्थः---उस ब्रह्म व आत्मा को जान लेने पर मनुष्य मृत्यु से नहीं डरता।

मनुष्य चक्की के दो पाटों की तरह है। उसकी एक तरफ परमात्मा है और दूसरी तरफ प्रकृति है, संसार है। संसार में, प्रकृति में त्रैविध्य दुःख है। मनुष्य संसार से डरता रहता है। इससे बचने का एक ही उपाय है--परमात्मा। जो एक परमात्मा से डर जाता है, वह अनन्त जीवों और संसार से नहीं डरता, किन्तु जो एक परमात्मा से नहीं डरता, वह संसार से डरता रहता है।

परमात्मा से डरने का अभिप्राय यह नहीं है कि वह हमारा शत्रु है, अपितु उससे डरने का अभिप्राय है कि यदि हम गलत कार्य करेंगे तो उसका फल अवश्य भोगना पडेगा, जो दुःखदायी होगा। दूसरी तरफ डरने से यह भी अभिप्राय है कि हम सही कार्य करें। जो परमात्मा से डर गया तो वह गलत कार्य नहीं करेगा और जो गलत कार्य नहीं करता वह किसी से नहीं डरता। यह स्वाभाविक बात है। उसे यह पता है कि आत्मा अजर-अमर है, अतः वह मरने से नहीं डरता। जिसको अपने प्राण से भय नहीं, उसे संसार से कोई डर नहीं।

परमात्मा को जानने के लिए उसके पास जाना ही पडेगा। उसके पास जाने के लिए सही उपाय योग है। योगी निर्भय ही होता है। उसे मृत्यु से डर नहीं लगता। योगी के हृदय में सभी के प्रति प्रेम व स्नेह होता है। इसलिए उसे किसी कोई डर नहीं। इसलिए योग करें और निर्भय रहे।

व्यास-ऋषि

!!!---: व्यास-ऋषि :---!!!
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इतिहास में 28 व्यासों का उल्लेख प्राप्त होता है। पाराशर्य व्यास अन्तिम व्यास थे। 

(1.) प्रथम व्यासः---भारतीय इतिहास में ब्रह्मा सर्वप्रथम उत्पन्न हुएः--"भूताना ब्रह्मा प्रथमोत जज्ञे" (अथर्ववेद) ब्रह्मा सर्वविद्याविशारद थेः--"स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठामथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह" (मु.उप. 1.1) ब्रह्मा ने सारी विद्या अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को प्रदान की। इस अथर्वा का ही दूसरा नाम भृगु था। इस भृगु ने अपने पिता ब्रह्मा से वेद-विद्या प्राप्त कर सारे संसार में फैला दिया। इस कार्य के कारण वे व्यास कहलाए। ये प्रथम व्यास थे।

(2.) दूसरे व्यास मातरिश्वा या वायु थे। "ते देवा इन्द्रमब्रुवन्निमां नो वाचं व्याकुर्विति सोsब्रवीद्वरं वृणै मह्यं चैवैष वायवे च सह।"---तैत्तिरीय-संहिता--6.4.7, पृ.277 के अनुसार वायु और इन्द्र ने व्याकरण शास्त्र की रचना की थी। (तुलना कीजिएः---"बृहस्पतिरिन्द्राय दिव्यं वर्षसहस्रं प्रतिपदोक्तानां शब्दानां शब्दपारायणं प्रोवाच।" महाभाष्य--1.1.1)। प्रक्रिया कौमुदी, भाग-1 में भी आया हैः---"दिव्यं वर्षसहस्रमिन्द्रो बृहस्पतेः सकाशात् प्रतिपदपाठेन शब्दान् पठन् नान्तं जगामेति।"

इन्द्र व्याकरण के प्रथम व्याख्याता थे, उन्होंने इस काम में वायु से सहयोग लिया था---तै.सं.6.4.7)।

वायु-पुराण--2.44 में वायु को "शब्द-शास्त्र-विशारद" कहा है। यामलाष्टक-तन्त्र में आठ व्याकरणों में वायव्य-व्याकरण का उल्लेख है।

वायु हनुमान् के पिता थे। इनकी पत्नी अञ्जनी थीः--अञ्जनीगर्भसम्भूतः।" (वायुपुराण--60.73) हनुमान् भी अपने पिता के समान शब्द-शास्त्र के महान् वेत्ता थे।

वायु के आचार्य ब्रह्मा थेः--"ब्रह्मा ददौ शास्त्रमिदं पुराणं मातरिश्वने।" (वायुपुराण--103.58)

वायु के शिष्य उशना कवि थेः--"तस्माच्चोशनसा प्राप्तम्"--(वायुपुराण--103.58)
वायु महान् योद्धा भी थे। वे ब्रह्मवादी थे। उन्होंने वायुपुर नाम से एक नगर भी बसाया था। सम्प्रति इनके नाम से कोई संहिता उपलब्ध नहीं है।

(3.) तृतीय व्यास उशना काव्य थे। इनके पिता भृगु थे, जिनका एक नाम कवि भी था। कवि के पुत्र होने के कारण तृतीय व्यास काव्य कहलाए। ये भार्गव-वंशियों में प्रथम अधिपति थे। अथर्ववेद के प्रधान कर्ता उशना काव्य ही थे। पारसियों के धार्मिक-ग्रन्थ "जेन्दावेस्ता" अथर्वा और उसना काव्य की प्रचुर सामग्री मिलती है। ये उशना काव्य अनेक असुर सम्राटों के पुरोहित भी थे। इन्होंने वेदों का बहुत प्रचार किया था। उशना बहुत बडे वैद्य (भिषक्) भी थे।

(4.) चतुर्थ व्यास बृहस्पति थे। ये देवों के पुरोहित थेः--बृहस्पतिर्वै देवानां पुरोहितः--(ऐ.ब्रा. 8.26)। व्याकरण के प्रथम प्रवक्ता ब्रह्मा थे तो द्वितीय प्रवक्ता बृहस्पति ही थे। ये अङ्गिरा के पुत्र थे, अतः आङ्गिरस् कहलाए। इन्हें सुराचार्य भी कहा जाता है। ये वाणी के पति थे--वाक्पति---भार्यामर्पय वाक्पतेस्त्वम्"--मत्स्यपुराण--23.4

देवगुरु बृहस्पति ने अनेक शास्त्रों का प्रवचन किया था। जैसेः--सामगान, अर्थशास्त्र, इतिहास-पुराण, वेदाङ्ग, व्याकरण, ज्योतिष्, वास्तुशास्त्र, अगदतन्त्रादि।

(5.) वेदों के पाँचवे व्यास विवस्वान् आदित्य थे। ये अदिति के पुत्र होने के कारण "आदित्य" कहलाए। शुक्ल-यजुर्वेद के आदि प्रवक्ता विवस्वान् आदित्य ही थे। परम्परा से इसका ज्ञान याज्ञवल्क्य ने प्राप्त किया। शतपथ-ब्राह्मण के अनुसार विवस्वान् की शिष्य-परम्पराः---

आदित्य
आभिणी वाक्
नेध्रुवि काश्यप
हारीत काश्यप
वार्षगण असित
बाहयोग जिह्वावान्
वाजश्रवा
कुश्रि
उपवेशि
आरुणि उद्दालक
वाजसनेय याज्ञवल्क्य

(6.) छठे व्यास वैवस्वत् यम हुए। ये उपर्युक्त (5.) विवस्वान् के ही पुत्र थे, इसलिए वैवस्वत् कहलाए। यम इन्द्र के चाचा थे जो सप्तम व्यास हुए। इन्द्र यम से आयु में छोटे थे। यम आयु में बडे थे। यम से इन्द्र ने वेद-पुराण पढे थेः---"मृत्युश्चेन्द्राय वै पुनः" (वायुपुराण--103.60)
"जेन्दावेस्ता" में यम को "यिम" कहा जाता है। 

vaidiksanskrit

मृत्युञ्जय

हम मृत्यु से ऐसे छूट जायें कि जैसे पका हुआ खरबूजा लता-बन्धन से छूट जाता है। खरबूजे की यह विशेषता है कि जब वह पक जाता है तब वह बेल से स्वयमेव छूट जाता है। पके हुए खरबूजे की भाँति मृत्यु से कैसे छूटे ? मनुष्य को ऐसी स्थिति कैसे प्राप्त हो ? क्या उपाय किए जाएँ जिनसे मनुष्य को यह अवस्था प्राप्त हो जाये ?

यह अवस्था जीवन की चरम साधना है। यदि यह अवस्था मनुष्य को प्राप्त हो जाये तो यही मृत्यु पर विजय है।

मृत्यु पर विजय का यह अर्थ नहीं है कि मनुष्य को मृत्यु प्राप्त ही न हो, अपितु मृत्यु पर विजय का अर्थ है कि जब मनुष्य की मृत्यु आए तब वह घबराये नहीं, उसे हँसते हुए स्वीकार करें। जीवन की यह एक बहुत बडी साधना है।

प्रश्न यह है कि यह कैसे प्राप्त हो ? वे कौन-से उपाय हैं, जिनसे मनुष्य इस उच्च-स्थिति को प्राप्त हो ?

मृत्यु का भय मनुष्य को न सताये, शास्त्र ने यत्र-तत्र इसके उपाय बताये हैं। इन उपायों को यदि मनुष्य हृदयंगम कर ले तो फिर मृत्यु उसके लिए भयावह नहीं रहती।

सबसे पहला उपाय यह है कि मनुष्य अपने हृदय में यह बिठा ले कि आत्मा अमर है और शरीर नाशवान्। यजुर्वेद में कहा हैः----

"वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम्।" (यजुर्वेदः--40.15)

शरीरों में आवागमन करने वाला आत्मा अमर है और यह शरीर नाशवान् है। इस शाश्वत तथ्य को जिसने अपने मनोमस्तिष्क में बिठा लिया, समझो वह मृत्युञ्जय बन गया।

आइए हम सब मृत्युञ्जय बनें और इस मन्त्र का पाठ करें-----

"त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धानान्मृत्युोर्मुक्षीय माsमृतात्।।"

देवताओं की संख्या--

देव विवेचन
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देवताओं की संख्या---
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ब्राह्मण-ग्रन्थों में भी कई स्थलों पर देवताओं की संख्या 33 बताई गई है। शतपथ-ब्राह्मण 4.5.7.2 में आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, द्यौ तथा पृथिवी को मिलाकर 33 देवताओं का उल्लेख है---"अष्टौ वसवः। एकादश रुद्रा द्वादशादित्या एमे एव द्यावापृथिवी त्रयश्त्रिंश्यौ त्रयश्त्रिंशद् वै देवाः प्रजापतिश्चतुश्त्रिंशः।"

एक अन्य स्थल पर द्यावापृथिवी के स्थान पर श.प.ब्रा. (11.6.5.3) में ही इन्द्र तथा प्रजापति को मिलाकर 33 देवों का उल्लेख प्राप्त होता है।
ऐतरेय ब्राह्मण (2.18) में भी द्यावापृथिवी के स्थान में प्रजापति तथा वष्ट्कार को मिलाकर 33 देवताओं का उल्लेख है।

पुराण साहित्य तक आते-2 देवताओं की संख्या में अत्यधिक वृद्धि हो गई थी। पुराणों में देवताओं की संख्या 33 करोड मानी गई है। ब्रह्मपुराण(110-147) में देवताओं की संख्या 3 करोड पाँच सौ हताई गई है। विष्णु-पुराण (1.15.1390 में 33 देवताओं का ही उल्लेख मिलता है। महाभारत(3.171) में भी 33 देवताओं का ही उल्लेख मिलता है।

इस प्रकार सर्वत्र देवों की संख्या 33 ही प्राप्त होती है।

"देवता" शब्द की व्युत्पत्ति और अर्थः--
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यास्क के अनुसार "देवता" शब्द का अर्थ हैः--
1.देवता देता है, इसलिए देव है।
2. वह दीप्त होता है, इसलिए देव है।
3. वह द्योतित होता है, इसलिए देव है।

"देवो दानाद् दीपनाद् वा द्योतनाद् वा द्युस्थानो भवतीति वा।"-निरुक्त--7.4

जो देव है वही देवता है--"यो देवः सा देवता।"

"देवात्तल्"-अष्टाध्यायी-5.4.27 सूत्र से देव शब्द से देव अर्थ में ही "तल्" प्रत्यय होता है।
"देव शब्दात् स्वार्थे तल् प्रत्ययो भवति।"
काशिका-5.4.27 के अनुसार भी --देव एव देवता है।

कौमुदीकार ने "नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः"--अष्टाध्यायी-3.1.134 दिव् धातु से अच् प्रत्यय करके "देव" शब्द सिद्ध किया है।

"दिव्" धातु के 10 अर्थः-
क्रीडा (खेल), विजिगीषा (जीतने की इच्छा), व्यवहार, द्युति(चमक), स्तुति, मोद (प्रसन्नता), मद (तीव्र खुशी), स्वप्न, कान्ति, गति।

मकर सौर संक्रान्ति.Makar Sankranti - SCIENTIFIC NEW YEAR

Photo: ....................मकर सौर संक्रान्ति..................

जितने काल में पृथिवी सूर्य के चारों ओर परिक्रमा पूरी करती है, उसको एक  सौर वर्ष कहते हैं और कुछ लम्बी वर्तुलाकार जिस परिधि पर पृथिवी परिभ्रमण करती है, उसको क्रान्तिवृत्त कहते हैं। ज्योतिषियों द्वारा इस क्रान्तिवृत्त के 12 भाग कल्पित किये गये हैं और उनके नाम आकाशस्थ नक्षत्रपुञ्जों से मिलकर बनी हुई कुछ मिलती जुलती आकृति वाले पदार्थों के नाम पर रख लिये गये हैं------1.मेष, 2.वृष, 3.मिथुन, 4.कर्क, 5.सिंह, 6.कन्या, 7.तुला, 8.वृश्चिक, 9.धनु, 10.मकर, 11.कुम्भ, 12.मीन।
प्रत्येक भाग वा आकृति "राशि"कहलाती है। जब पृथिवी एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण करती है तो उसको "संक्रान्ति " कहते हैं। लोक में उपचार से पृथिवी के संक्रमण को सूर्य का संक्रमण कहने लगे हैं। छः मास तक सूर्य क्रान्तिवृत्त से उत्तर की ओर उदय होता है और छः मास तक दक्षिण की ओर निकलता है। प्रत्येक षण्मास की अवधि को "अयन " कहते हैं। जब सूर्य उत्तर की ओर से निकलता है तब उस उदय की उस अवधि को "उत्तरायण"कहते हैं और दक्षिण की ओर से निकलने पर उस अवधि को "दक्षिणायन" कहते हैं। उत्तरायण में दिन बढता जाता है और दक्षिणायन में रात्रि बढती जाती है। सूर्य की मकर राशि की संक्रान्ति से उत्तरायण और कर्कसंक्रान्ति से दक्षिणायन प्रारम्भ होता है। सूर्य के प्रकाशाधिक्य के कारण उत्तरायण विशेष महत्वशाली माना जाता है। अत एव उत्तरायण के आरम्भ दिवस मकर की संक्रान्ति को भी अधिक महत्व दिया जाता है और स्मरणातीत चिरकाल से इस पर्व को मनाया जाता है। यद्यपि सही मकर संक्रान्ति 22 दिसम्बर को होता है तथापि यह पर्व मनाया जाता है तो भी सही।

वैद्यक शास्त्रों के अनुसार इस ऋतु में शीत के प्रतिकार के लिये तिल, तेल, तूल(रूई) का उपाय बताया गया हैः----

तिलस्नायी तिलोद्वर्ती तिलहोमी तिलोदकी।
तिलभुक् तिलदाता च षट्तिलाः पापनाशनाः।।

अर्थः---तिलमिश्रित जल से स्नान, तिल का उवटन, तिल का हवन, तिल का जल, तिल का भोजन और तिल का दान ये छः तिल के प्रयोग पापनाशक है।

आप सभी मित्रों को मकर संक्रान्ति की बहुत-2 शुभकामनाएँ।मकर सौर संक्रान्ति..................
Makar Sankranti - As per Vedic Hindu philosophy, Sun is considered to be the king of all the planets. And Makar Sankranti commemorates the expedition of sun to the Northern Hemisphere. Makar is a Sanskrit that literally means Capricorn whereas Sankranti denotes transition. Hence, sun's transition from Sagittarius to Capricorn sign in the northern hemisphere, during winter is Makar Sankranti. Sun takes an uttarayana route on January 14 and stays there until July 14. This festival also comes as Thanksgiving to Mother Nature for an abundance of crops, well being and prosperity. The festivities include sweets made of rice, jaggery, green gram and sesame.

The festivals is known as Khichri in UP, Sakat in Haryana and Punjab, Sukarat in MP, Bhogali Bihu in Assam and West Bengal, Pongal in Tamil Nadu, Sankranti in Andhra and Karnataka and Uttarayan in Rajasthan and Gujarat. People in North India celebrate Sankranti with lots of religious fervor and devotion towards Lord Surya. A holy dip in Ganga River is very popular among Hindu religion followers. Pilgrimage places like Haridwar, Banaras and Allahabad witness a huge rush of devotees on this auspicious day.
Makar Sankrantiजितने काल में पृथिवी सूर्य के चारों ओर परिक्रमा पूरी करती है, उसको एक सौर वर्ष कहते हैं और कुछ लम्बी वर्तुलाकार जिस परिधि पर पृथिवी परिभ्रमण करती है, उसको क्रान्तिवृत्त कहते हैं। ज्योतिषियों द्वारा इस क्रान्तिवृत्त के 12 भाग कल्पित किये गये हैं और उनके नाम आकाशस्थ नक्षत्रपुञ्जों से मिलकर बनी हुई कुछ मिलती जुलती आकृति वाले पदार्थों के नाम पर रख लिये गये हैं------1.मेष, 2.वृष, 3.मिथुन, 4.कर्क, 5.सिंह, 6.कन्या, 7.तुला, 8.वृश्चिक, 9.धनु, 10.मकर, 11.कुम्भ, 12.मीन।
प्रत्येक भाग वा आकृति "राशि"कहलाती है। जब पृथिवी एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण करती है तो उसको "संक्रान्ति " कहते हैं। लोक में उपचार से पृथिवी के संक्रमण को सूर्य का संक्रमण कहने लगे हैं। छः मास तक सूर्य क्रान्तिवृत्त से उत्तर की ओर उदय होता है और छः मास तक दक्षिण की ओर निकलता है। प्रत्येक षण्मास की अवधि को "अयन " कहते हैं। जब सूर्य उत्तर की ओर से निकलता है तब उस उदय की उस अवधि को "उत्तरायण"कहते हैं और दक्षिण की ओर से निकलने पर उस अवधि को "दक्षिणायन" कहते हैं। उत्तरायण में दिन बढता जाता है और दक्षिणायन में रात्रि बढती जाती है। सूर्य की मकर राशि की संक्रान्ति से उत्तरायण और कर्कसंक्रान्ति से दक्षिणायन प्रारम्भ होता है। सूर्य के प्रकाशाधिक्य के कारण उत्तरायण विशेष महत्वशाली माना जाता है। अत एव उत्तरायण के आरम्भ दिवस मकर की संक्रान्ति को भी अधिक महत्व दिया जाता है और स्मरणातीत चिरकाल से इस पर्व को मनाया जाता है। यद्यपि सही मकर संक्रान्ति 22 दिसम्बर को होता है तथापि यह पर्व मनाया जाता है तो भी सही।

वैद्यक शास्त्रों के अनुसार इस ऋतु में शीत के प्रतिकार के लिये तिल, तेल, तूल(रूई) का उपाय बताया गया हैः----

तिलस्नायी तिलोद्वर्ती तिलहोमी तिलोदकी।
तिलभुक् तिलदाता च षट्तिलाः पापनाशनाः।।

अर्थः---तिलमिश्रित जल से स्नान, तिल का उवटन, तिल का हवन, तिल का जल, तिल का भोजन और तिल का दान ये छः तिल के प्रयोग पापनाशक है।

panchang/calendar

Wednesday, December 17, 2014

THEORY OF CREATION NOT EVOLUTION

THEORY OF EVOLUTION IS FALSE
(Read full)
Darwin theory is most unscientific.At the last times of his life , even Darwim told he is not sure of his own theory.. The growth of materialism and atheism in mordern age may have led people to tell this as truth.Let us look some points
First . A group of nonliving atoms cant make life. If humans are just a collection of atoms it would be working like 'MACHINE ROBOT' and would not have any 'FEELINGS' . It has to be remembered that life is life and matter is matter.Life cant emerge from matter.There are various grades of life as there are various forms of matter.Both are independent entities.It points to the concept of soul. A soul can neither be created nor be destroyed.
Secondly if one species have evolved to another we would have seen atleast some monkeys ie in some forests around the world turning into humans even today.
Thirdly the argument that the large ape when standing on hint feet look like a human can be dismissed by observing that looks are deceptive.
Fourthly when one species leads to another the resultant species is impotent such as mule and a sweet lemon (in fruits).
Fifthly even in the days of man injected into a she-monkey or a male monkey injected into a women produce a man.Thus even a 50% human genetial is unable to produce a human how can a cent percent different genetial block produce a cent percent human.
Moreover had monkeys evolved to humans we should have had monkeys qualify atleast to kinder garden and primary school levels while humans attain doctoral degrees
The world itself is created by divine power. Why cant it be possible? When musk deers are born with musk , when honey bees are born with honey combs why cant humans naturally born with divine power at first generation .
Darwin was apparently misled by his imagination.He noticed that there are various grades of life slightly different from each other.From that he concluded that one may have led to another.But the illogiacality of that conclusion may be illustrated by taking a parellel instance.If a person arranges books in a library in the ordre of their of their pages , from a single page book to 1000 page book , could he claim that since the pages increases gradually each bigger one evolved from smaller one.The flaw in the arguments will be evident when it is can be shown that one can look at it from other too and argue that each smaller book evolved or devolved out of bigger volume .But in either case the flaw is that if one species led to another why does the latter also continue to exist ??Similarly the world is library which is arranged by divine power in various orders.
The evolution theory is also unable to explain whether whether egg come first or chicken ? or whether women evolved from man or viceversa?
The basic puzzle remain unsolved in all spheres .
No branch of scientists are not able to satisfy basic questions in all spheres.For eg Botanists dont know whether seed come first or the tree? Biologists cant say whether egg came first or hen? Physicists are puzzled whether light is a wave or a particle.Oceanologists are surprised that oceans never overflow despite incessent inflow of water from innumerable rivers. Similarly list goes on
Scientists say science is always growing and they change opinions at different times.For eg when atom model was invented differnt atom models were suggested st different times by Rutherford ,Thomson , Dalton , Bohr at different times .Now people are believing in Bohrs atom model. In facts some months before some scientists told that humans formed from mating of pig and monkey. This shows they themselves are not sure.Tomarrow this may also be changed. Theory of evolution may also be changed or called false by scientists themselves in future.

SPEED OF LIGHT PER RIGVEDA

Photo: !! Kya aap jante the? Did you know? !!

Kiran (light) ki gati/vēg (speed) ko Vedo m kuch istarah bimbit kiya gaya h. Jise vighnyaaniyo ne iss kaliyug m iska aavishkaar kiya modern science ki zariye. 

Speed of light from the commentary on Rigveda (1.50.4) by Saayan (सायण) Did you know? !!

Kiran (light) ki gati/vēg (speed) ko Vedo m kuch istarah bimbit kiya gaya h. Jise vighnyaaniyo ne iss kaliyug m iska aavishkaar kiya modern science ki zariye. 

Speed of light from the commentary on Rigveda (1.50.4) by Saayan (सायण)

WHAT IS DHARMA?

• What is Dharma •

धारणात् धर्मः - that which holds together or supports is dharma.
The word ‘dharma’ (धर्म) in Sanskrit is derived from the root धृ meaning ‘to hold’, ‘to bear’, ‘to carry’ or ‘to support’.In this sense dharma encompasses all ethical, moral, social and other values or principles, code of conduct and behavior which contribute to the well-being, sustenance and harmonious functioning of individuals, societies and nations and which prevent their disintegration. In a wider sense it is dharma which sustains and supports the whole world. This word has gathered around itself such richness of meaning and wealth of associations that it is impossible to translate it into a single word in any other language, Indian or foreign.
In many Indian languages the word ‘dharma’ is used to denote ‘religion’. However, in Sanskrit, there is no word which is the exact equivalent of ‘religion’. The word ‘religion’ connotes a set of dogmas and beliefs, a code of conduct, a Founder, a Sacred Book and a Church or similar institution. Such a concept of Institutionalized religion is alien to Hindu thought. In fact, Hinduism (more properly ‘Sanatana Dharma‘ ) accommodates within its fold people with widely differing beliefs and dogmas. It is therefore no wonder that Sanskrit does not have a word which is the exact equivalent of ‘religion’ in the sense mentioned above.
‘Dharma’ is also used in Indian languages to denote ‘duty’, ‘righteousness’, ‘virtue’, ‘justice’, ‘morality’, ‘charity’, ‘innate tendency’ etc. All these represent only a particular aspect of ‘dharma’. There is no single word which can be substituted for the Sanskrit word ‘Dharma’. This is also the case with English and other western languages where the difficulty in translating the term is enhanced because of the cultural divide. In fact the word ‘dharma’ has already been assimilated into the lexicon of the English language.
‘Dharma’ is a unique human attribute
An oft-quoted verse in Sanskrit says:
आहारनिद्राभयमैथुनानि सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिस्समानाः ॥
’Eating, sleeping, fearing and mating – human beings have these in common with animals. What distinguishes them from animals is dharma. Those devoid of dharma are no better than animals’
Only human beings are endowed with the capacity to distinguish between what is dharma and what is adharma, the opposite of dharma. Human beings are endowed with an inner conscience which cautions us when we contemplate deviating from the righteous path. This, of course, assumes that we have not smothered this inner voice by habitually breaking the counsel of that voice. Without adherence to dharma humans will sink to the level of animals.
Importance of Dharma :
Decline of dharma and ascendancy of adharma ( the opposite of dharma) will result in such chaotic conditions and destabilization on the Earth that the Lord Himself comes down in human form to re-establish the reign of Dharma. Lord Krishna says in the Bhagavad Gita:
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥
’whenever there is decline of dharma and ascendancy of adharma, I take birth Myself on this Earth to establish the rule of Dharma. In every Yuga I incarnate myself to protect the virtuous and destroy the wicked.’
Shankara’s definition of Dharma
The first Shankaracharya defines dharma in the following words:
अभ्युदयनिःश्रेयसकारणो चोदनालक्षणो धर्मः
That which the Sruti (the Vedas) prompts us to do and which will result in our material and spiritual advancement is dharma. An illustration of this definition can be given from the Taittiriya Upanishad wherein the Teacher (Acharya) addresses his pupils on the completion of their Vedic studies:
सत्यं वद । धर्मं चर। स्वाध्यायान्मा प्रमदः। ……………. मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव । अतिथिदेवो भव । …………….
Mother Sruti, through the medium of the teacher’s address to his pupils, prompts us to speak the truth, walk on the path of dharma,do swadhyaya without fail (study the scriptures regularly) and look upon one’s mother, father, teacher and also the guest as divine. Being the exhortations of Mother Sruti for our own material and spiritual benefit , the above codes of conduct comes within Shankara’s definition of dharma.
Manu on the Essence of Dharma
How do we distinguish between dharma and adharma ? Manu has this to say in answer to this question:
वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।
एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ॥
That which the Vedas and dharma sastras prompt us to do is dharma. The example set by noble and exalted souls by their conduct (सदाचारः) and what one’s own conscience says is also dharma. Manu also says:
धृतिः क्षमा शमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥
‘Steadfastness or determination (धृतिः), patience (क्षमा), control of the mind (शमः), non-stealing (अस्तेयं), purity of mind, body and speech (शौचं), control of the senses (इन्द्रियनिग्रहः), an inquiring intellect (धीः), knowledge which leads to liberation (विद्या), truth in thought, word and deed (सत्यं) and controlling anger (अक्रोधः) – these ten are the marks of dharma’
What Manu says about the inner conscience being the arbiter of dharma, finds expression in the following lines from shankuntlam of Kalidasa, the great poet:
सतां हि सन्देहपदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्त्यः .
When a person of exalted character is in doubt whether a particular course of action is right or not, he has only to listen to his inner conscience. What this inner voice approves is right, what it does not is wrong.
In case of doubt
In the Taittiriya Upanishad, in the context of the Acharya’s address to the students, the question arises about the course of action to be followed when one is in doubt whether an action or conduct is in conformity with dharma or not. The Teacher says:
अथ यदि ते कर्मविचिकित्सा वा वृत्तविचिकित्सा वा स्यात्। ये तत्र ब्रह्मणाः सम्मर्शिनः। युक्ताः आयुक्ताः । अलूक्षा धर्मकामाः स्युः । यथा ते तत्र वर्तेरन् । तथा तत्र वर्तेथाः ।
‘When you are in doubt whether an action or conduct is right or wrong, you should follow the example set by men of noble thoughts and deeds who are kind-hearted, who are ever willing to give sound advice and who always desire dharma alone.’
Duty to protect and uphold dharma
It is the duty of everyone to protect dharma. Manu says “धर्मो रक्षति रक्षितः’ meaning dharma protects those who protect it. The same idea is expressed in Valmiki Ramayana wherein Kausalya tells Rama before he leaves for the forest:
यं पालयसि धर्मं त्वं धृत्या च नियमेन च।
स वै राघवशार्दूल धर्मस्त्वामभिरक्षतु॥
’O Raghava! Dharma which you uphold with steadfastness and discipline protect you from all sides’.
Sanatana dharma and yuga dharma
The religion of the Hindus is known as Sanatana dharma the core values of which are embodied in the following lines from Manu Smriti:
धृतिः क्षमा शमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥
The values enumerated in the above lines of Manu are valid for all times (Yugas). They form the core of Sanatana dharma. On the other hand yugadharma is valid for a particular age or Yuga. These evolve based on the particular social, political and other circumstances prevailing in a particular age. Yugadharma may change when the yuga changes but Sanatana dharma remains the same for all yugas
The dilemma of dharma and adharma
Man is often confronted with situations wherein he is unable to decide which course of action is dharma and which is not. We have the classic example of Arjuna who comes to the battlefield to wage a righteous war with the Kauravas. But he finds his own kith and kin and his own revered teachers in the opposite camp. Arjuna is unable to decide which is his dharma, killing his own kinsmen and teachers in a war or retreating from the scene of action. The Lord had to expound the whole of the Gita to resolve his inner conflict. The Lord says to Arjuna:
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥
’O Arjuna! Engage yourself in this fight with a mind which accepts with equanimity pleasure and pain, gain and loss, victory and defeat. Thus you will not be tainted by your actions’.
The conflict between dharma and adharma goes on all the time, both in the external world and in the internal world of man. The kurukshetra war typifies this battle in which the final victory is always of dharma. The Lord Himself was on the side of dharma represented by the Pandavas.
Importance of swadharma
One’s dharma differs from that of another person depending on one’s calling, place in the family, place in society, station in life and other circumstances. The Gits says:
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।
It is better to die doing one’s own dharma than following परधर्म i.e another man’s dharma. Following परधर्म may have frightening consequences. What is swadharma to a butcher cannot be swadharma to a brahmin and vice versa.
Srimad Bhagavata tells the story of dharma vyadha, a butcher by calling, who practiced his swadharma as a Karma Yogi would. He did his allotted work in life with a detached mind and served his old parents with all his heart, seeing in them God incarnate. By the practice of swadharma in this manner he became a highly evolved soul spiritually. He was considered competent to impart spiritual instruction to even a brahmin by birth. Such is the power of practicing swadharma in the right spirit, offering the fruits of one’s actions in loving devotion to the Lord.
The highest dharma according to Bhishma
In the Mahabharata, Yudhishthira asks Bhishma Pitamaha “को धर्मः सर्वधर्माणां भवतः परमो मत:” “Which is the highest of all dharmas?” Bhishma replies:
एष मे सर्वधर्माणां धर्मोऽधिकतमो मतः।
यद्भक्त्या पुण्डरीकाक्षं स्तवैरर्चेन्नरस्सदा ॥
’ The highest dharma is to worship the lotus-eyed Lord vishnu with devotion by singing hymns in his praise’. This is perhaps the easiest dharma which can be practiced in this Kali Yuga.
Surrender to the Divine Will, the ultimate dharma
The final pronouncement on dharma comes from Lord Krishna Himself in the 18th chapter of the Gita:
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
‘O Arjuna ! leave aside all dharma and take refuge in me alone in total surrender. I shall free you from all sins, do not grieve’.
By totally surrendering oneself to the Divine, one becomes truly an instrument of the Divine. Such a person is incapable of committing any sin. All his actions become dharma. The Divine will works through him and he becomes one with the Divine. Such a human being goes beyond dharma and adharma and all his conflicts are resolved.

Saturday, December 13, 2014

VEDIC ASTROLOGY LESSON 6

vedic astrology lesson

In higher states of Consciousness, many philosophic verities were cognised by the Sages which gave birth to the sciences called Astrology, Numerology, Yoga & Vedanta. All sciences study Being. Physics is the science of Being as Matter, as Energy. Chemistry is the science of Being as Qualities.
Mathematics is the Science of Being as Numbers. Biology, the science of Being as Life. But the philosophia prima ( Vedanta ) is the Science of Being as Being, in its pure state. While the Science of Being ( Vedanta ) & the Art of Living ( Yoga ) dominated the six main sciences, the six auxiliary sciences were dominated by the Science of Being as Time ( Astrology ).
The Law of Corresondences - Western and Eastern Views
In the Occident, the divine Hermes Trismegistus spelt out the Law of Correspondences saying " That which is on high is that which is on below, that which is on below is that which is on high, in order that the miracle of Unity may be perpetual ".
In the Orient, Aurobindo averred " The mystery of the lotus cannot be deciphered by analysing the mud below, but by analysing the heavenly archetype of the lotus that blooms forever in the heavens above".

The role of Jupiter in Horoscopy

The biggest planet in the solar system, Jupiter is
considered to be one of the most important planets. 1300
earths can be fit into Jupiter. He is the indicator of
Divine Grace and if he be benign, the entire horoscope is
considered benign. On the other hand , if he be weak, the
horoscope loses its intrinsic strength.

Jupiterian Effects in the 12 Houses

Jupiter in the Ascendant

Jove in the Ascendant makes one scholary, beatuiful, jovial.
Jovian influence on the First House endows one with majestic
appearance, magnetic personality, learning and wisdom. High
longevity is conferred by Jovian presence in the First.
Scholarship will grace in no uncertain measure. Will be
respected by the multitude. Will be handsome and will have a
high discriminative intellect.

Jupiter in the Second House

In the second Jove bestows poetic faculites, handsomeness,
wealth and fame. Will have the gift of the gab or the divine
gift of articulate speech. Will speak beautifully. Will have
scholarship and learning.

The wisdom planet in the house of speech makes one
scholarly.

Jove in the 3rd makes one miserly and not an altruist. Will
have to face many a defeat. Will have bad relations with
brothers and sisters.

Will be the subject of ridicule. Will have stomach problems.

Jupiter in the Fourth House

Jovian tenancy of the fourth makes one hedonistic with a lot
of friendsand relatives. Will be fortunate with respect to
house. Your fame will cross the seas and spread all over the
land. Will be of adamantine nature. Will enjoy all the
comforts of life.

Jupiter in the Fifth House

High intelligence is conferred by the position of Jupiter in
the fifth. Wealth will grace you in no uncertain measure.
May be worried due to children. Will be versatile. Jupiter
in one of the moral triangles can make one highly moral and
spiritual.

Jupiter in the Sixth House

Jove in the sixth is the destroyer of enemies. Will be lazy
and physically weak. May resort to occult rites.

Jupiter in the Seventh House

Will be equivalent to a king as the royal planet of Wisdom
becomes posited in a quadrant. Will destroy a lakh of
afflictions. Will have high communication ability.
Scholarly, a lover of poetry, handsome, will be more liberal
than the father, famous with good life-partner and children-
these are the effects of a benign Jove in the seventh.

Jupiter in the Eighth House

This adverse postion of Jupiter makes one dependent on
others, will do sinful acts, will have high longevity, will
be well liked by all, will do jobs on behalf of others, will
be highly determined & will be interested in base women.

Jupiter in the Ninth House

Jovian tenancy of the Ninth makes one highly spiritual. Will
have devotion to preceptors, will be scholarly and well
informed, will be of ministerial cadre, will be famous &
will be highly moral and ethical.

Jupiter in the Tenth House

This benign position of Jupiter makes one well off in life.
Will be equivalent to a lord, will be famous with comforts,
vehicles and children, will be virtuous, scholarly and
fortunate.

Jupiter in the Eleventh House

Jupiter well posited in the eleventh makes one highly
determined, scholarly with good longevity, with multiple
streams of income, famous and with a lot of conveyances.

Jupiter in the Twelfth House

In the adverse 12th, Jupiter makes one devoid of happiness,
sons & fortune Earlier wealth gets destroyed. Will be
lacking in funds most of the time. Will be lazy and will
lack proper education. Will be ridiculed by many. Will have
dubious character.

VEDIC ASTROLOGY LESSON 5

vedic astrology lesson
The foremost amongst the six auxiliary sciences is Sidereal Astrology according to the Indian Sages. It has been rightly called as the Vision of the Vedas. She is the most perfect amongst all the auxiliary sciences, says one poetic verse, highlighting its importance in Higher Superconscient Learning. 
In Sanskrit "Vid " means to know. Veda means Knowledge. It is equivalent to the Episteme of the Greeks and the Scientia of the Latinists ( Scire - to know, Scientia ( Science ) - Knowledge). 
The Deep Exaltation Points of Planets 

In the 5th degree of Cancer, Jupiter is in a state of deep exaltation. 
Moon       3rd degree of      Taurus 
Saturn     20th degree of     Libra 
Venus      27th degree of     Pisces 
Mercury    16th degree of     Virgo 
Sun        10th degree of     Aries 
Mars       28th degree of     Capricorn 
The Deep Debilitation Points of Planets
180 degrees from the deep exaltation point is the deep debilitation point and is therefore ( for planets )
Jupiter   5th degree of     Capricorn
Moon      3rd degree of     Scorpio 
Saturn    20th degree of    Aries 
Venus     27th degree of    Virgo
Mercury   16th degree of    Pisces
Sun       10th degree of    Libra 
Mars      28th degree of    Cancer 

The Dispositor Theory
A planet transmits its power to the signs owned by it. For instance, Jupiter owns Sagittarius and Pisces. If Jupiter is exalted, then Sagittatariius and Pisces becomes powerful. Not only the signs owned by the planet, but the Planets posited in these signs also become powerful. Dispositor is the planet who is the lord of the sign. For instance, if Mars is in Cancer, Cancer is owned by the Moon and hence Moon becomes the dispositor of Mars.
Exaltation Dispositor
The planet who gets exalted in a sign is called the Exaltation dispositor.
For instance, Jupiter get exalted in Cancer. Hence the exaltation dispositor of Cancer is Jupiter and its dispositor, Moon!
Cancellation of Debilitation ( Neechabhanga )
We know that planets gets exalted in certain signs and debilitated in certain signs.The debilitation sign is 180 degrees from the exaltation sign.
Debilitation is cancelled due to 2 factors
1. When the dispositor is in a quadrant ( 1,4,7 & 10 houses ) either from the Ascendant or the Lunar Ascendant
2. When the exaltation dispositor is in a quadrant either from the Ascendant or the Lunar Ascendant
This Cancellation of Debilitation is considered to be a powerful Regal Yoga or Conjunction ( Raja Yoga ).
Planets in Quadrants
1,4,7.10 houses are called quadrants. 1,5,9 houses are called Trines.
Benefic planets like Jupiter, Venus & Mercury are considered to be powerful when they are posited in quadrants. It is said that that these  natural benefics in quadrants can destroy crores of afflictions!
If natural malefics own quadrants, they become benefics. Mars &  Saturn are good as owners of quadrants.  On the other hand, if natural benefics likeVenus and Jupiter own quadrants, they are vitiated by Quadrangular ownership. They become functional malefics.
The trinal lords ( lords of 1,5 & 9 ) are considered powerful.
Colours of Planets
Jupiter Golden Hue
SunReddish
Moon Fair
Mars Deep red
Mercury Greenish
Saturn Black
Venus Polished Light Black
RahuBlack ( Resembles Saturn )
KetuRed   (Resembles Mars )
Significators of Houses
8th House 
Ist House Sun
2nd House Jupiter
3rd House Mars
4th House Moon
5th House Jupiter
6th House Saturn
7th House Venus
Saturn
9th HouseJupiter
10th House Sun
11th House Jupiter
12th House Saturn

Signs as Significators of the Elemental Five!
Aries Leo Scorpio  Fiery Signs
Taurus Cancer Libra Watery Signs
Gemini Virgo Earthly Signs
Capricorn Aquarius  Airy Signs
Sagittarius Pisces Etheric Signs
Classical Philosophy has The Law of Correspondences as its base.
" As Above, so Below", the Earth is an exact replica of Heaven!
Based on the Pythagorean Law of Vibration, the nine digits correspond to the nine revolving heavens and this science came to be known as the science of Astro-Numerology.

Gemologists have found that the vibrations of gems correspond to the vibrations of the planets and this came to be known as Astro-Gemology.